डा. अरविन्द दुबे
13 जनवरी 2788-ब्रेकिंग न्यूज
खबर थी ही ऐसी थी कि बिजली की तेजी से फैलती। ‘इंटरनेशनल सेंटर फार नीयर अर्थ आब्जेक्ट स्टडीज’ ने ‘इंटरनेशनल एस्टीरोइड नेट वर्क’ के दुनिया भर में फैले अपने स्टेशनों को एक आपात कालीन सूचना भेजी कि उन्होने एक नए आब्जेक्ट की “साइटिंग” की है। सेंटर के हेड माइक स्टीव सारे स्टेशन को उस नई ‘साइटिंग’ के डिटेल बता रहे थे।
“इट्स ए बिग रॉक गाइज, प्रोबेबली बिगेस्ट वी हैव एवर विटनेस्ड (यह एक बहुत बडी चट्टान है शायद इतनी बडी जितनी कि अब तक कभी देखी नहीं गई है), फरदर डिटेल्स नोट करें, डायमेंशंश नोट करें और आप सारे लोग इस पर फोकस करें।”
‘इंटरनेशनल एस्टीरोइड नेट वर्क’ दुनिया भर में फैले 1300 लो फीक्वेंसी रेडियो टेलिस्कोप की एक श्रंखला थी जिन्हें एक नेटवर्क में जोडा गया था। चूंकि ये सारे के सारे “नियर अर्थ आब्जेक्ट्स” “माइक्रोवेब” या “वेरी लो फ्रीक्वेसी” रेडिएशन ही उत्सर्जित करते हैं इसलिए कभी-कभी तो ऐसा होता है कि इनकी उपस्थिति का तब तक पता नहीं लगता है जब तक कि ये एक दम पृथ्वी से टकराने की स्थिति में नहीं आ जाते हैं। इसलिए नासा ने एक पहल की। अमेरिकी सीनेट ने जब ‘स्पेसगार्ड कार्यक्रम’ घोषित किया तो दुनिया के कई देशों ने इसकी तर्ज पर इस प्रकार के कार्यक्रमों की की घोषणा कर डाली क्योंकि सबका उददेश्य एक ही था, ऐसी आसमानी मुसीबतों की पूर्व जानकारी और समय रहते इनसे बचाव। नासा ने दुनिया भर में प्लानिंग करके ऐसे लो फ्रीक्वेंसी टेलिस्कोप की श्रंखला स्थापित की और खुद इसका कोआर्डीनेशन करने का उत्तरदायित्व संभाला। माइक स्टीव इसी कोओर्डीनेशन आफिस के प्रमुख थे।
“हार्पर क्या हम एक क्विक प्रेस कांफ्रेंस बुला सकते हैं?”, स्टीव ने अपने सहायक हार्पर की ओर मुड़ते हुए कहा।
“यस गिव मी थर्टी मिनट्स एंड इट्स देयर।” स्टीव ने हार्पर को अंगूठा दिखाया, पास रखे काफी बू्रयर से एक कप काफी निकाली और स्क्रीन पर दोबारा नजरें गढ़ा दीं।
13 जनवरी 2788-वह प्रेस कांफ्रेंस
हार्पर ने अपने कम्प्यूटर पर कुछ बटन दबाए। सामने कॉंटेक्ट परसन की लिस्ट थी। उसने करीब 20 इंटरनेट चैनल्स, 50 टीवी चैनल, कुछ स्ट्रेटजी प्लानर, पोलिटीशियन को अपने कॉंटेक्ट में लिया। करीब-करीब 100 लोगों की लिस्ट तैयार थी। हर एक के लिए एक अलग-अलग कोड और एक मिनट का टाइम स्लॉट दे दिया। ऐसी कांफ्रेंस में किसी प्रतिभागी का ‘ऑडियो आउटपुट’ उसके ‘एलॉटेड टाइमस्लॉट’ में ही ओपेन होता था इसलिए जब एक व्यक्ति बोल रहा होता तो बाकी सारे लोग उसकी बात को सिर्फ शांति से सुन सकते थे, उसमें व्यवधान उत्पन्न नहीं कर सकते थे।
“हंड्रेड पार्टीसिपेंट्स’ सो इट्स एराउंड टू हावर्स बोरिंग जॉब।” हार्पर बुदबुदाया।
थोडी ही देर में कांफ्रेंस की तैयारी हो गई। यह एक अजीब सी प्रेस कांफ्रेंस थी। एक विशाल कमरे में सिर्फ हार्पर और माइक स्टीव एक बडी मेज के किनारे बैठे थे। मेज पर बहुत सारे स्विच और बटन लगे थे। इसमें सिर्फ दो बोलने वाले लोग थे, न कोई सवाल करने वाला था और न कोई दर्शक।
“आर यू रेडी हार्पर?”
हार्पर ने आस-पास के स्विचों को ध्यान से देखा और फिर अपना अंगूठा उठा कर दिखाया।
“रेडी, शुरू करें?”
हार्पर ने कुछ बटन दबाए। सामने की विशाल दीवार एकाएक प्रकाशित हो उठी। वास्तव में वह दीवार सी दिखने वाली संरचना एक विशालकाय मानीटर की स्क्रीन थी। पूरी स्क्रीन अब सैकडो छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट रही थी। अब हर टुकड़े में एक चेहरा दिखने लगा था। स्क्रीन पर हार्पर के चुने 100 लोग नजर आने लगे थे। ये सारे लोग हार्पर के कमांड पर सीधे-सीधे हार्पर से जुड़ सकते थे।
“गुड मार्निंग एबरी बडी............आइ एम माइक स्टीव, हेड ऑफ इंटरनेशनल एस्टीरॉइड वार्निंग नेटवर्क”। आज मैने आपको एक ऐसी खबर देने के लिए बुलाया है जो हम सबके होश उड़ा सकती है, सबकी रातों की नींदें हराम कर सकती है, क्यों हार्पर?”
“हां माइक, हमने एक ऐसे उल्का-पिंड को देखा है जैसा आज तक कभी देखने में नहीं आया है।“
स्क्रीन पर दिख रहे चेहरों पर आश्चर्य के भाव उभरे।
“मैं वर्ल्ड न्यूज टाइम्स से आर्नोल्ड फ्रोस्ट, पहेलियां मत बुझाओ माइक, खुल कर बताओ।
“मैं पहेलियां नहीं बुझा रहा, इस उल्का-पिंड को देख कर मुझे खुद ताज्जुब हो रहा है। इस उल्का-पिंड का व्यास है 1,300 किलोमीटर, एक हजार...........तीन सौ किलोमीटर के लगभग“, माइक स्टीव ने एक एक शब्द पर जोर देते हुए कहा।
“एक हजार तीन सौ किलोमीटर......अविश्वसनीय ”, यह स्क्रीन पर दिख रहे एक खगोलविद् की आवाज थी, “यह तो एक माइनर प्लेनेट जितना बडा है।”
“मिस्टर हार्पर इतना बडा उल्का-पिंड आखिर यहां तक कैसे पहुचा? इतना विशाल होने के कारण इसका एक अच्छा खासा गुरूत्वाकर्षण बल होगा फिर यह बृहस्पति ग्रह के गुरुत्वाकर्षण बल से बचकर यहां तक कैसे आया होगा, क्योंकि ज्यादातर उल्काओं को तो बृहस्पति ग्रह ही अपने अपने वातावरण में खींच लेता है और पृथ्वी की रक्षा करता रहता है।“ यह प्रख्यात खगोलविद एलिस मोर्गन थे।
“जी मिस्टर मोर्गन, यह बात ही हमें यह सोचने पर मजबूर कर देती है यह उल्का या छोटा प्लेनेट जो भी कह लो, एस्टीरॉइड बेल्ट का हिस्सा नहीं है, क्यों माइक।
“हां हार्पर क्योंकि एस्टीरॉइड बेल्ट में तो सिर्फ चार बडे उल्का-पिंड ही हैं जो पूरी बेल्ट के आधे के बराबर हैं। इसके सबसे बडे उल्का पिड ‘सेरेस’ का व्यास भी मात्र 952 किलोमीटर ही है, बाकी के तीन; वेस्टा पल्लास और हाइजिया तो 600 किमी0 से भी कम व्यास के ही हैं।”
“यह एस्टीरोइड बेल्ट क्या?“ वर्ल्ड टाइम्स के पत्रकार ने अपनी उत्सुकता जाहिर की।
“ओह, मंगल और वृहस्पति ग्रह के बीच यह अंतरिक्ष का एक ऐसा भाग है जिसमें हजारों छोटे-बडे उल्का-पिंड भ्रमण करते रहते हैं। जब भी कभी कोई उल्का-पिंड इससे भटक कर किसी और कक्षा में सूर्य की परिक्रमा करने लगता है तो यह पृथ्वी के लिए खतरा बन सकता है।” हार्पर ने सरल शब्दों में समझाने की कोशिश की।
“खतरा, खतरा क्यों?” एक रूसी पत्रकार की आवाज आई।
“गुड मार्निग ग्रेगरी, जब यह उल्का-पिंड किसी ऐसी कक्षा में सूर्य का चक्कर लगाने लगे कि उसकी कक्षा हमारी पृथ्वी या किसी अन्य ग्रह की कक्ष को काटने लगे तो ऐसे उल्का-पिंड की उस ग्रह से मुठमेड़ हो सकती है।“
“तब इन्हें आप ‘नियर अर्थ ऑब्जेक्ट’ कहने लगते हो, क्यों हार्पर?”
“हा ग्रेगरी, नियर अर्थ ऑब्जेक्ट या पोटेंशियली हार्मफुट ऑब्जेक्ट।”
“पर मेरी जानकारी के अनुसार बहुत सारे पिंड ‘काइपर बेल्ट’ से भी आते हैं, क्यों माइक?” भारत टाइम्स के पत्रकार ने अपनी जानकारी साझा करने की कोशिश की।
“हां कृष्णन बहुत सारे नहीं, कुछ; दरअसल सूर्य से तीस खगोलीय इकाई से 50 खगोलीय इकाई तक के अतंरिक्षीय क्षेत्र में यह काइपर बेल्ट फैली है।”
“यह खगोलीय इकाई क्या?”
“सूर्य से पृथ्वी तक की दूरी को एक खगोलीय इकाई कहते हैं।”
“कृष्णन जी, इस काइपर बेल्ट के पिंडों को ‘कॉमेट’ या ‘पुच्छल तारा’ कहते हैं। वैसे तो यह एस्टीरॉइड बेल्ट जैसी ही होती है पर यह उसके मुकाबले सैकडों गुनी बड़ी होती है। दूसरे एस्टीरोइड बेल्ट के उल्का पिंडों की तरह इसके पिंड पत्थर और धातु के नहीं वरन् जमी जलवाष्प, अमोनिया और मीथेन के बने होते हैं।
“ओह तभी पृथ्वी के वातावरण से गुजरते समय गर्म होकर इन से गैसें निकलने लगतीं हैं जो इसकी पूंछ की तरह नजर आतीं हैं।”
“इसीलिए इनसे पृथ्वी या किसी अन्य ग्रह को आमतौर पर कोई नुकसान नहीं होता।” माइक ने इस चर्चा को विराम देते हुए कहा।
“पर माइक इतना बड़ा, 1,300 किलोमीटर व्यास का उल्का-पिंड आया कहां से होगा, कोई सुझाव, कोई थ्योरी?” भारतीय खगोलविद् ने बात को पटरी पर लाते हुए कहा?
माइक स्टीव ने मुह टेढ़ा कर के हाथ झटके, जैसे कह रहा हो मुझे नहीं मालूम?
मेक्सिकन खगोलविद एंटोनियो ने उंगली उठाई, “आज से करीब साढे छह सौ साल पहले, इक्कीसवीं सदी में हमारे सौर मंडल के आस पास एक आवारा ग्रह देखा गया था। इसको तब सी.एफ.बी.डी.-2149 कहा जाता था।
“आवारा ग्रह?” पोर्टोरिको से आए एक शोध छात्र ने टोका।
हार्पर ने मोर्चा संभाला,“आवारा ग्रह ऐसे बड़े ग्रह होते हैं जो किसी स्थिर तारे का चक्कर नहीं लगाते, जैसे कि हमारी पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है। यह माना जाता है कि या तो ये आवारा ग्रह किसी कारण से किसी सौर मंडल से भटक कर बाहर निकल गए या फिर सौरमंडल के निर्माण के समय इनका भी निर्माण हुआ था और ये एक स्थिर तारा बनते बनते रह गए और किसी सौरमंडल का हिस्सा नहीं बन पाए।”
“इसीलिए इनकी कोई निश्चित कक्षा नहीं होती है, तभी हम इन्हें ‘आवारा ग्रह’ कहते हैं।” स्टीव ने बात पूरी की।
मेक्सिन खगोलविद ने फिर अपनी बात शुरू की “पिछिले सौ सालों में इसे फिर किसी ने नहीं देखा। मेरे अपने निरीक्षणों में मैने एक एक्स्ट्रा-सोलर बॉडी अपने निकटतम सौर मंडल ‘अल्फा सेंटोरी’ में देखी है।”
“मैने आपकी वह रिपोर्ट पढ़ी है।” स्टीव ने कहा।
“कहीं ऐसा तो नहीं कि यह वही आवारा ग्रह है जो भटक कर अल्फा सेंटोरी गेलेक्सी में पहुचा हो और उसके किसी ग्रह से टकराया हो?”
“और अल्फा सेंटोरी के उस ग्रह का एक बहुत बड़ा भाग टूट कर अलग हो गया हो और अपनी कक्ष से छिटककर उस सौर मंडल से बाहर निकल गया हो?” हार्पर ने बात पूरी की, “यही न?“
“हां, क्यों, क्या ऐसा नही हो सकता“, एंटोनियों ने तर्क दिया, “आखिर हम यह मानते हैं कि नहीं कि हमारा चंद्रमा भी इसी तरह किसी बड़े ग्रह के पृथ्वी से टकराने से बना होगा। यह बात और है कि वह अपना सौर मंडल छोड़ कर बाहर नहीं निकल गया। पर यदि टक्कर बहुत जोरदार हो तो........ ”
“तो वह बड़ा टुकड़ा अपने सौर मंडल से बाहर निकल भी सकता है।” माइक स्टीव ने बात पूरी की।
“अब इसके बारे में महत्वपूर्ण सूचनाएं”, हार्पर ने कहना शुरू किया, “हमने इसको ‘आई.ए.डब्ल्यू.एन. 2788’ नाम दिया है। इसकी कक्षा हमारी पृथ्वी की कक्षा को काटती है। 10 जनवरी 2788 को यह हमारी पृथ्वी से पाइंट जीरो जीरो फोर टू फाइव एस्ट्रोनोमीकल यूनिट्स की दूरी से गुजरा है। हमारे पत्रकार भाइयों के लिए 6 लाख 36 हजार मील दूर से, माइक तुम कुछ कहना चाहोगे? ”
“धन्यवाद हार्पर, नियर अर्थ ऑब्जेक्ट आई.ए.डब्ल्यू.एन. 2788 को टोरिनो स्केल की रेटिंग 6 दी गई है। इसके पृथ्वी से टकराने से चांस टू पाइंट सेवन परसेंट हैं।”
“व्हाट?” भारतीय खगोलविद डॉ. राघवेन्द्र की आवाज आई।
“यस डॉ. राघवेन्द्र, यह चिंता का विषय है। इसका पृथ्वी से अगला क्लोजेस्ट एनकाउंटर बीस साल बाद 2808 में होगा, ट्वेंटी ईयर्स लेटर।”
“टोरिनो स्केल 6 का क्या मतलब है?” एक ब्रिटिश पत्रकार की जिज्ञासा थी।
“यह उल्का-पिंड से होने वाली आपदा के अनुमान का पैमाना है। जब कोई बहुत बड़ा उल्का-पिंड पृथ्वी से टकरा कर वैश्विक स्तर पर विनाश करने की क्षमता रखता हो, पर यह निश्चित न हो कि टक्कर कब होगी, होगी भी या नहीं और यह पिंड पृथ्वी के बहुत पास से गुजर रहा हो तो इसे टोरिनो स्केल 6 में रखते है। ऐसे उल्का पिंडो की लगातार निगरानी की जाती है और इस टक्कर से बचने के लिए विश्व की सरकारों के सम्मिलित योजनाओं की आवश्यकता होती है।”
“ओह, गॉड, मतलब पृथ्वी खतरे में है।” किसी ने स्क्रीन पर लाइव होते हुए गहरी सांस खींची।
13 जनवरी 2788- प्रेस कांफ्रेंस के बाद
प्रेस कांफ्रेस दो की जगह दो घंटे 46 मिनट तक चली क्योंकि इसमें माइक स्टीव व हार्पर को काफी सारी बातें स्पष्ट करनी पड़ीं थीं। इसकी मुख्य कारण यह था कि जिस उल्का-पिंड को उन्होने पहचाना था उतने बडे उल्का-पिंड का खगोल विज्ञान साहित्य में कोई उल्लेख नहीं था। आज से 6 करोड 50 लाख साल पहले वह उल्का-पिंड जिसने भीमकाय डायनासोरों का अस्तित्व मिटा दिया था, जिसने पृथ्वी पर से 90 प्रतिशत से अधिक जीवित प्राणियों और वनस्पतियों को नष्ट कर दिया था उसका व्यास मात्र 11 किलोमीटर था। 2 खरब मीट्रिक टन का यह उल्का-पिंड जब 70 हजार किलोमीटर की गति से पृथ्वी से टकराया तो हिरोशिमा पर गिराए गए पहले परमाणु बम से 10 करोड गुना ज्यादा उर्जा पैदा हुई थी।
“बहुत थक गए हो स्टीव, लो एक कप गरमा-गरम काफी।” अपने हाथों में काफी के दो कप पकड़े हार्पर ने स्टीव के कंट्रोल रूम में प्रवेश किया।
“नही हार्पर थका नहीं, मैं तो यह सोच रहा था कि आज से 6 करोड़ 50 लाख वर्ष पहले सिर्फ 11 किलोमीटर व्यास के एक उल्का-पिंड ने पृथ्वी के 90 प्रतिशत जीवित प्राणियों का नामो-निशान मिटा दिया था तो यह भारी भरकम 1,300 किलोमीटर व्यास का उल्का पिण्ड पृथ्वी का क्या करेगा?”
“अगर टकराया तो न?”
“पर टकरा तो सकता है।”
“देखो स्टीव उस उल्का-पिंड ने डायनासोरो का नामोनिशान तो मिटा दिया था पर उसके के कारण ही हम प्राइमेट्स पृथ्वी पर पनपे। उसी उल्का-पिंड टकराने के कारण ही हम मानव पृथ्वी पर विकसित हो सके हैं नहीं तो आज भी भीमकाय डायनासोर पृथ्वी पर चिंघाड रहे होते।”
“वह तो ठीक है हार्पर पर इस उल्का-पिंड की बात ही अलग है। जानते हो इससे जो इम्पेक्ट क्रेटर बनेगा उसका आकार पृथ्वी के आकार के बराबर होगा। मतलब उल्का टकराने से पृथ्वी की करीब-करीब पूरी ऊपरी सतह टूट कर वातावरण में बिखर जाएगी।”
“इससे ज्यादा भी हो सकता है कि पृथ्वी से कोई टुकडा ही टूट कर अलग हो जाए।”
“ऐसे में जानते हो क्या होगा हार्पर? पृथ्वी का पूरा भौगोलिक नक्शा ही बदल जाएगा। सूर्य से आने वाली प्रकाश किरणों का कोण बदलने से ठंड़े धुवीय क्षेत्र कहो गर्म प्रदेशों बदल जाएं, भूमध्य रेखा पर वर्फ पड़ने लगे, रेगिस्तान बर्फ से ढंक जाएं, समुद्रों के स्थान पर पहाड़ बन जाएं और पहाडों की जगह समुद्र।”
“बडी दूर की कौड़ी लाए हो स्टीव, सोचो तो बहुत कुछ हो सकता है।”
“हां पर एक बात तय है कि यदि यह उल्का-पिंड पृथ्वी से टकराया तो पृथ्वी पर से मानवों को सफाया तो शत-प्रतिशत निश्चित है। हो सकता है पृथ्वी पर से जीवन ही समाप्त हो जाए फिर सब कुछ वैसे ही शुरू हो जैसे अरबों साल पहले शुरू हुआ होगा, ए न्यू चेन आफ लाइफ।” हार्पर को इस चर्चा में मजा आने लगा था।
“सोचो स्टीव 6 करोड 50 लाख वर्ष पहले जब डायनासोर पृथ्वी से समाप्त हुए तो प्राइमेट्स से हम मानवों को विकसित होने का मौका मिला। अगर अगले सौ दो सौ वर्ष में यह उल्का-पिंड पृथ्वी से टकरा जाए और जैसा कि तुम सोचतो हो कि मानव की जाति पृथ्वी से विलुप्त हो गई तो विकास में इसके बाद कौन आ सकता है।”
“क्या पता?” स्टीव ने बेचारगी में हाथ हिलाए, “इस वक्त हम मानवों यानि होमोसेपियंस के समकक्ष क्षमता वाली दो संभावित प्रजातियां दिखती हैं एक तो रोबो सेपियंस या फिर हमारी बनाई एंड्रोसेपियंस।”
अठ्ठाइसवीं शताब्दी में विज्ञान और तकनीकी विकास का आलम यह था कि मस्तिष्क को छोड़ कर शरीर के हर अंग के रोबोटिक इंप्लांट उपलब्ध थे। जिन्हें वास्तविक अंग के स्थान पर लगवाया ही नहीं, बार-बार बदलवाया भी जा सकता था। लोग तो कभी-कभी फैशन के तौर पर प्राकृतिक अंग के स्थान पर रोबो इंप्लांट लगवा लेते थे। मानवों की इस श्रेणी को रोबोसेपियंस कहा जाता था। यह मनुष्य के सबसे नजदीक थे क्योंकि जिंदा रहने के लिए इन्हें आक्सीजन की आवश्यकता पड़ती थी। सामान्य जन इन्हें ‘ब्रीदर रोबो’ या ‘सांस लेने वाले रोबोट’ भी कहते थे। इसके अलावा होमोसेपियंस के विरोध के बाद भी कृत्तिम बुद्धि के साथ मानव जैसे दिखने वाले रोबोट की एक प्रजाति अस्तित्व में आ गई थी जो अभी तो मानव के नियेत्रण में थे पर कभी भी मानवों के विरूद्ध उठ खड़े हो सकते थे। वह स्वयं अपनी जैसी मशीनों का निर्माण कर सकते थे यानि एक तरह से उनके पास ‘मशीनी प्रजनन क्षमता’ थी। उनकी ग्राफीन की बनी त्वचा बेहद मजबूत थी उनकी बैट्री, गरमी, प्रकाश ध्वनि या हवा की गति से चार्ज हो सकती थी। यदि कोई उनके पास से गुजरे तो हवा के अणुओं के कंपन से भी वे अपनी बैट्री को चार्ज कर सकते थे। सबसे बड़ी बात यह थी कि अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए उन्हें आक्सीजन की आवश्यकता नहीं थी। इन्हें वैज्ञानिक भाषा में एंड्रोसेपियंस कहा जाता था। सामान्य जन इन्हें ‘नॉनब्रीदर्स रोबोट’ के नाम से जानते थे। होमोसेपियंस और रोबोसेपियंस की तरह एंड्रोसेपियंस को मानव की तीसरी प्रजाति की तरह स्वीकार कर लिया गया था। एंड्रोसेपियंस अब नागरिकता की मांग करने लगे थे। वे चाहते थे कि उन पर लगा मशीनों का लेबिल हटा कर उन्हें मानवों की तरह ही समाज का अंग स्वीकार कर लिया जाए और मानवों की तरह ही देश का नागरिक मानकर उन्हें नागरिकों के सारे अधिकार मिलें।
“क्या सोच रहे हो स्टीव?” हार्पर ने जैसे माइक स्टीव सोते से जगाया।
“देखो हार्पर, उन बिगड़ी परिस्थितियों में हम होमोसेपियंस ही सबसे कमजोर कड़ी हैं क्योंकि हमें अपने जीने के लिए आक्सीजन चाहिए.....आक्सीजन चाहिए तो स्पेस चाहिए। मान लो हम ऐसे में पृथ्वी के नीचे बंकरों में चले भी जाएं तो कितने लोग वहां रह सकेंगें? फिर उस समय उन विषाक्त गैसों में क्या हम जिंदा रह पाएंगे? रोबोसेपियंस का भी यही हाल होगा क्योंकि उन्हें भी आक्सीजन चाहिए।”
“और नॉन ब्रीदर्स एंड्रोसेपियंस?”
“दे आर हेविंग गुड चांस......क्योंकि उन्हें आक्सीजन नहीं चाहिए, विषैली गैसों के बीच भी वे जिंदा रह जाएंगे। उन्हें उतना स्पेस भी नहीं चाहिए इसलिए वे तो बंकरों में सामान की तरह ही स्टोर हो जाएंगे। तब उनकी बैट्री चार्ज होने के सारे साधन होंगे....गर्मी, ध्वनि, हवा की गति। फिर ग्राफीन की बनी उनकी त्वचा उन्हें इस सबसे भी बचा लेगी..............दीज बास्डर्ट विल सर्वाइव......दे विल विन दिस सर्वाइवल गेम.....।” स्टीव की आवाज में क्रोध और आंखों में नफरत के भाव स्पष्ट होने लगे थे ।
इन एंड्रोसेपियंस की चर्चा के समय हर होमोसेपियन ऐसा के साथ होता था क्योंकि उन्हें लगता था कि ये एंड्रोसेपियंस उनका हक मार कर आगे बढ़ रहे हैं। एक दिन इन्हीं नॉनब्रीदर्स रोबोट के हाथों उनका गौरव अधिकार, आधिपत्य सब कुछ छिन जाने वाला है।
“काम डाउन स्टीव, हम तो सिर्फ खयाली पुलाव पका रहे थे। अभी हमारे जीवनकाल में ऐसा कुछ नहीं होने वाला है।”
“हार्पर यही तो होमोसेपियंन की कमी है। हम सिर्फ अपनी जिंदगी तक ही सोचते हैं। हम नहीं सोचते कि हम अपनी आने वाली नस्लों को इन भावनाविहीन एंड्रोसेपियंस की गुलामी करने के लिए छोड़े जा रहे हैं।”
21 जनवरी 2808-एक नई साइटिंग
पूर्वानुमानित समय से सात महीने पहले ही एस्टीरोइड आई.ए.डब्ल्यू.एन. 2788, 21 जनवरी 2808 को पृथ्वी से पाइंट जीरो-जीरो टू वन टू (0.00212) एस्ट्रोनोमीकल यूनिट्स यानि कि 3 लाख 15 हजार किलोमीटर दूर से गुजरा। इस बार उसकी कक्षा भी परिवर्तित थी। अबकी बार यह दूरी पृथ्वी से चंद्रमा तक की दूरी, 3 लाख 84 हजार किलोमीटर, से भी कम थी। खगोलविद पृथ्वी के आसन्न खतरे को भांप चुके थे। उन्होंने अबकी बार इसको टोरिनो स्केल 7 में रखने की सिफारिश की। अब आई.ए.डब्ल्यू.एन. 2788 सिर्फ वैज्ञानिक कौतूहल का विषय ही नहीं था अपितु देशों के नीति निधार्रकों व आम जनता में चर्चा और चिंता का विषय बन चुका था। यह सोशल मीडिया पर सबसे चर्चित विषय था। वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया था कि उल्का-पिंड की सन् 2958 से 3008 के बीच कभी भी पृथ्वी से टकराने की संभावना सात प्रतिशत से अधिक है।
14 अगस्त 2838- एंड्रोसेपियंस के आधीन
13 अगस्त 2838 में को आई.ए.डब्ल्यू.एन. 2788 फिर एक बार पृथ्वी के काफी पास से गुजरा। इस बार उसकी पृथ्वी से दूरी पृथ्वी से चंद्रमा की दूरी के आधे से भी कम थी। वैज्ञानिकों ने दावा किया कि उपग्रहों पर लगे यंत्रों ने इस समय पृथ्वी के “एक्सोस्फियर” (पृथ्वी की सतह से 700 से 1000 किलोमीटर का विरल वातावरण) में भारी उथल-पुथल रिकार्ड की है। उल्का-पिंड को लेकर पृथ्वी वासियों का डर अब बढ़ने लगा था।
इधर देशों की सामाजिक संचरना में बड़े परिवर्तन हुए थे। एंड्रोसेपियस के पिछिले विद्रोह के बाद उनकी नागरिकता की शर्त मान ली गई थी। उनका रूतबा अब मशीनों की जगह नागरिकों का हो गया था। जब तक उनका स्टेटस मशीनों का था तब तक उन से दिन में बीस-बाइस घंटे तक काम ले लिया जाता था पर नागरिक का दर्जा पाते ही उन्होने प्रतिदिन 6 घंटे से अधिक काम करने से मना कर दिया और अन्य नागरिकों की तरह उन्हें सप्ताहांत में एक छुट्टी भी चाहिए थी जो वोट की भूखी सरकारों ने नागरिकता की तरह अपने स्वार्थ में खुशी-खुशी स्वीकृत कर दी थी। चूंकि वे ‘नॉन ब्रीदर्स’ थे इसलिए होमोसेपियंस और रोबोसेपियंस की तरह उनका बहुत समय नित्य क्रियाओं यथा भोजन, मलत्याग, निद्रा, स्नान आदि में बरबाद नहीं होता था। इसलिए उनके पास कार्य समाप्त होने के बाद समय ही समय था। इसे वे अपनी रिपेयरिंग में लगाते या फिर अपना प्रतिरूप उत्पन्न करने में, क्योंकि उन्हें पता चल गया था कि संख्या-बल ही अंततः जीत हार का निर्णय करता है। इसके बाद उन्होने वोट देने का अधिकार मांगा। चूंकि नाम के लिए ही सही पर अभी भी सरकार या ‘पावर कम्यूनिटी’ का चुनाव वोटिंग के आधार पर ही होता था। जो लोग इन एंड्रोसिपियस के कृत्तिम बुद्धि से सज्ज्ति मस्तिष्क को हैक करने में पारंगत थे, उन्होने इनके वोट के अधिकार का बढ़-बढ़कर समर्थन किया क्योंकि उन्हें उनके द्वारा नियंत्रित और भेड़ों की तरह हांका जा सकने वाला एक वोट बैंक मिलने वाला था।
यहां संख्या बल जीता, अवसरवादियों की जीत हुई और अंततः एंड्रोसेपियंस को बोट देने का अधिकार मिला। वे संख्या में लगातार बढ़ रहे थे। वे ही अब सरकारों के चयन में जीत हार का फैसला करते थे। राजनीति में अब उनकी मांग बढ़ती जा रही थी। चूंकि वे नान ब्रीदर्स थे अतः उन्होंने हर क्षेत्र में आरक्षण की मांग उठाई जबकि इसकी सबसे अधिक आवश्यकता रोबोसेपियंस को थी क्योंकि वे शरीरिक दृष्टि से काफी कमजोर थे। रह गए होमोसेपियंस, उनपर जो एक बार सर्वश्रेष्ठ होने का ठप्पा लगा तो वे कहीं के नहीं रहे। आरक्षण की इस मांग पर खूब राजनीति हुई। हर पार्टी, हर राजनीतिज्ञ इन्हें ज्यादा से ज्यादा आरक्षण दिलवाने का वादा करने लगा क्योंकि संख्या बल के कारण ये किंगमेकर थे। तकनीकी विकास के चलते इन एंड्रोसिपियंस में भावनाओं का विकास होने लगा था इसलिए ये होमोसेपियंस से सब से ज्यादा चिढ़ते थे। रोबोसेपियंस से उनकी घृणा कम थी क्योंकि उनके शरीर में बहुत सारे रोबोटिक इंप्लांट्स के चलते ये अपने आप को उनके काफी निकट का समझते थे। अब तो कभी-कभी ये होमोसेपियंस, जिसने इन्हें ईजाद किया था, से झगड़े करने लगते थे जिनमें संख्या बल व सरकारी कृपा के चलते जीत एंड्रोसेपियंस की ही होती और सजाएं होमोसेपियंस के हिस्से में आतीं। अब तो सार्वजनिक रूप से इन एंड्रोसेपियंस को ‘नॉन ब्रीदर कहना दंडनीय अपराध की श्रेणी में आ गया था। कुल मिलाकर होमोसेपियंस ओर एंड्रोसेपियंस के बीच खाई बढ़ती जा रही थी। होमोसेपियंस इन तीनों में से सबसे प्रतिभाशाली होने के बावजूद भी आरक्षण के चलते उच्च पदों को पाने में असफल रहते या फिर उन्हें अपने से कम क्षमता वाले एंड्रोसेपियन के आधीन कार्य करना पड़ता था। होमोसेपियंस को लगने लगा था कि अब पृथ्वी पर उनके दिन गिने चुने हैं। अतः जब भी वे एंड्रोसेपियंस के बारे में बात करते तो अपनी घृणा छिपा नहीं पाते थे।
यद्वपि उस समय तक होमोसेपियंस की सामान्य आयु 100 से 150 वर्ष तक होती थी पर अब तक आई.ए.डब्ल्यू.एन. 2788 से शुरूआत में जुड़े माइक स्टीव हार्पर और कई महत्वपूर्ण होमोसेपियंस काल कवलित हो चुके थे। इस समय भारत के प्रशांत कुमार इंटरनेशनल एस्टीरॉइड़ वार्निंग नेटवर्क के प्रमुख वैज्ञानिक थे और रूस के गुस्ताव चीफ कोआर्डीनेटर। एक एंड्रोसेपियन क्यूटिस आई-सिक्स इस आफिस का प्रमुख था। पदोन्नति में आरक्षण के कारण इस महत्वपूर्ण आफिस के प्रमुख की कुर्सी उसे मिली हुई थी। हालांकि वैज्ञानिक क्रिया कलापों में उसका योगदान न के बराबर था पर अपने कृत्तिम मस्तिष्क के हैकर आकाओं के निर्देश पर वह योजनाओं में अडंगा अवश्य लगाता था।
“गुस्ताव आज आई.ए.डब्ल्यू.एन. 2788 के बारे में सबसे महत्वपूर्ण मीटिंग है, तुम पूरी तरह तैयार हो न?” प्रशांत ने हड़बड़ी में कमरे में प्रवेश करते हुए कहा।
“तैयार, पिछिले दो महीने से मैं सोते-जागते, उठते-बैठते उसी मीटिंग की तैयारी में ही जुटा हं। वैसे आज बहुत कुछ होने की संभावना है।”
“होनी भी चाहिए, आखिर यह पृथ्वी पर मानव के अस्तित्व से जुडा प्रश्न है। लगता है कि यदि शीघ्र ही कुछ न किया गया तो यह आई.ए.डब्ल्यू.एन. 2788 पृथ्वी से टकरा कर रहेगा। हो सकता है समय का अनुमान कुछ आगे पीछे हो जाएं, क्यूटिस की क्या खबर है?”
“वह हरामी तो जरूर वहां होगा। अपना रूतबा दिखाने का उसे इससे अच्छा मौका कहां मिलेगा? आखिर आज की मीटिंग में करीब-करीब सारे राष्ट्रों की गवर्निंग काउंसिल के प्रमुख, बडे़ एस्ट्रोफिजीसिस्ट डिजास्टर मैनेजमेंट के प्रमुख अधिकारी जो भाग लेने वाले हैं।
“गुस्ताव यार तुम इतना गुस्सा मत हुआ करो। किसकी कितनी क्षमता थी, दुनिया के लिए किसने क्या किया इसका फैसला तो वक्त और हमारी आने वाली पीढ़ियां करेंगी। हमें तो निष्काम भाव से कर्म किए जाना है।”
“ए प्रशांत मुझे तुम अपनी इंडियन फिलोसफी न समझाओ। मैं वर्तमान में जीने का आदी हूं। मैं जो आज कर रहा हॅू उसका रिकोग्नीशन, उसकी तारीफ, मुझे आज ही चाहिए। कीप योर कर्मयोगा विद यू..........।”
30 अगस्त 2848-सेलिब्रिटी बंकर
जनता में इस उल्का-पिंड के बारे में जानकारी जैसे-जैसे बढ़ती जा रही थी वैसे-वैसें जनता की प्रतिकिया उग्र होती जा रही थी। उन्हें लगता था कि ‘गवर्निंग काउंसिल’ कुछ नहीं कर रही है। वैज्ञानिकों ने कम्प्यूटर सिमुलेशन से 30 मिनट की एक फिल्म तैयार की थी जिसमें यह दिखाया गया था कि क्यों इस उल्का-पिंड की पृथ्वी से टकराने की संभावनाएं ज्यादा हैं, और यदि ऐसा हुआ तो कैसे पृथ्वी एक जलते नर्क में बदल जाएगी और कैसे कुछ ही दिनों में पृथ्वी पर से अधिकतर जीवित प्राणियों का नामोनिशान मिट जाएगा। यह फिल्म समय से पहले ही लीक होकर सोशल मीडिया पर वायरल हो रही थी। सत्ता में शामिल और अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों ने गुपचुप जमीन के नीचे बंकर बनवाने शुरू कर दिए थे। सुना तो यह भी गया कि सरकारी संस्थाएं भी गुपचुप लिस्ट बना रही हैं कि उल्का के पृथ्वी से टकराने के समय किस-किस को इन बंकरों में भेजा जाएगा। महत्वपूर्ण व्यक्तियों, वैज्ञानिकों, अपने-अपने क्षेत्रों के सफलतम् व्यक्तियों को इन में शामिल किया गया था। इसके अलावा फसलों के बीजों, महत्वपूर्ण पौधों की कलमों, कुछ चुनिंदा जानवरों, कीटों और प्रकृति के परिवर्तनों में सहायक जीवों को भी इसमें शामिल किया गया था। कुछ पुस्तकों के ई-संस्करण, अनुसंधानों के रिकार्ड, दवाइयां, पानी, पालतू जानवरों की कई किस्में, म्यूजिकल यंत्र, कई महत्वपूर्ण कलाकृतियों को भी इसमें शामिल किया गया था। उस समय के अति विकसित राष्ट्रों में इसके लिए बड़े-बड़े प्रोजेक्ट बनाए गए थे। जिन पर हजारों वैज्ञानिक रात-दिन काम कर रहे थे ताकि इस महाप्रलय के बाद श्रष्टि को दोबारा से शुरू किया जा सके। लोग गुपचुप जोड़-तोड़ लगाकर इन लिस्टों में शामिल होने के प्रयासों में भी जुटे थे। वैज्ञानिकों के द्वारा बनाई फिल्म को पढ़े-लिखे ही नहीं अनपढ़ लोगों, बच्चों, किशोरों, मजदूरों तक ने बार-बार देखा था। सामान्य जनता अपने आप को ठगा महसूस कर रही थी। उसे लगने लगा था कि उनके चुने जन प्रतिनिधि उनको ठगने में और अपने को बचाने में लगे है। अंततः जनता में प्रतिरोध के स्वर फूटने लगे। हर देश से विद्रोह, प्रदर्शनों और झडपों की खबरें आने लगीं। तब सत्ता पर काबिज लोगों को लगने लगाा था कि अब जनता भी फिल्म को एक हॉरर फिल्म की तरह से देख कर भूल जाने वाली नहीं है। अंततः उन्हें सक्रिय होना ही पड़ा क्योंकि अब जनता उनके सुरक्षित बकरों को तबाह करने का मन बनाने लगी थी।
14 सितम्बर 2858-विशेष फिल्म की स्क्रीनिंग
इतनी बड़ी मीटिंग होने के बावजूद आज भी एक बड़े परदे के सामने प्रशांत और गुस्ताव ही थे। क्यूटिस आई-6 ने अपने कमरे से ही मीटिंग में भाग लेने का फैसला किया था क्योंकि प्रशांत और गुस्ताव, दोनों के सामने वह अपने को असहज महसूस करता था। बिलकुल इसी तरह की सेटिंग हर देश में बनाई गई थी जिसे गुस्ताव और प्रशांत की तरह ही दो लोग मॉनीटर कर रहे थे। हर व्यक्ति अपनी जगह से ही मीटिंग में वीडियो कांन्फ्रेंसिंग की मदद से भाग ले रहा था। भौतिक रूप से किसी को भी मीटिंग रूम में आने की आवश्यकता नहीं थी। हर आफिस में भाषा के ऑटो-ट्रांसलेटर लगे थे जिस से लोग अपनी-अपनी भाषा में बात करके भी आपस में संवाद कर सकते थे। मीटिंग के प्रारंभ में एक फिल्म नेटवर्क पर लोड की गई जिसे 200 प्रतिभागियों ने अपने-अपने स्थान से देखा। अंत में प्रशांत की आवाज गूंजी, “दि अर्थ विल टर्न इनटू ए बर्निंग हेल। जो जगह उल्का के के डाइरेक्ट इम्पेक्ट से बच भी जाएंगीं उन्हें करीब-करीब 6,000 किमी प्रति घंटा की गति से चलता ‘इजेक्टा क्लाउड’ अपनी चपेट में लेकर तबाह कर देगा। इसके बाद शायद पृथ्वी पर जीवन की प्रक्रिया एक बार फिर से शुरू हो।”
सुनने वाले अवाक थे। परिस्थितियां इतनी भयावह होंगीं, उन्हें यह अनुमान न था।
“इसका मतलब अर्थ बिल वी डूम्ड वन डे?” एक अफ्रीकी देश के प्रमुख ने प्रश्न किया।
“शायद हां, अगर इसके लिए कुछ किया न गया तो।” प्रशांत कुमाार ने दृढ मगर शांत स्वर में उत्तर दिया।
इस तरह के बहुत सारे प्रश्न एक एक करके पूछे गए। अंततः एक प्रश्न सबकी जुबान पर था कि अब क्या किया जाए? किस प्राकर पृथ्वी को बचाने के प्रयास किए जाएं?
बोलने का प्रारंभ प्रशांत ने किया। सबसे पहले तो हमें अपने व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठ कर सबके लाभ के लिए सोचना होगा। यह पूरी पृथ्वी के जीवित प्राणियों के अस्तित्व का प्रश्न है। हम इस फिल्म को हॉरर फिल्म की तरह देख कर भूल नहीं सकते।
”हो सकता है ‘फाइनल इम्पेक्ट’ में अभी शताब्दियों का समय हो पर इसके लिए हमें जो प्रयास करने हैं, उनके लिए इतना समय बहुत ज्यादा नहीं है।” गुस्ताव अपनी रूसी मिश्रित अंग्रेजी में बोल रहे थे।
सामने वाले परदे पर एक प्रख्यात खगोलविद् की तस्वीर एक्सपेंड हो कर पूर परदे पर फैली “गुस्ताव, आप ठीक कह रहे हैं। अगर आपके ग्रह से किसी उल्का-पिंड के टकराने का समय 100 वर्षों से कम रह गया है तो आप सिर्फ दो काम कर सकते हैं, या तो पृथ्वी छोड़ कर भाग जाइए या बैठ कर आसन्न-मत्यु की प्रतीक्षा कीजिए।
अंततः सहमति बनी कि डिजास्टर मैनेजमेंट सांइस के विशेषज्ञ और खगोलविद् मिल कर बताएं कि इस आपदा की घड़ी में अनके पास क्या सुझाव हैं। इस के लिए विशेषज्ञों की मीटिंग एक महीने बाद रखी गई।
14 अक्टूबर 2858-डिजास्टर मैनेजमेंट की मीटिंग
प्रशांत, मैने सुना है कि पिछिले हफ्ते तुम्हारी हेड, क्यूटिस आई-6 से कहा सुनी हुई थी, क्या बात थी?” गुस्ताव ने उस कमरे में घुसते ही पूछा जहां प्रशांत आज की विशेषज्ञों वाली मीटिंग की तैयारी में जुटा था।
“गुस्ताव, क्यूटिस आई-6 हीनभावना से ग्रसित हैं। आरक्षण ने उसे प्रमुख का पद तो दे दिया पर अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों के बीच बोलने की काबिलियत कहां से लाएगा?”
“पर हुआ क्या था?”
“कुछ नहीं, कह रहा था कि तुम लोगों ने मेरे इंट्रोडक्शन के बिना मीटिंग शुरू कर दी।”
“तो.....”
“वह यह चाहता था कि मीटिंग शुरू होने से पहले हम उसे इंट्रोड्यूस करते। वह बताता कि वह इस संस्थान का प्रमुख है और हम उसके आधीनस्थ हैं। फिर सब को वेलकम करके व्यस्तता का बहाना करके वह हम पर मीटिंग की कार्यवाही हम पर छोडकर चल देता...........बास्टर्ड।”
“तो तुमने क्या उत्तर दिया?“
“हमने कहा सर अबकी बार आप ही मीटिंग को कोओर्डीनेट कर लें, बाकी हम तो आप के पीछे-पीछे हैं ही। ”
“फिर?”
“फिर क्या, लगा हकलाने,....आरक्षण से ओहदा मिल सकता है अक्ल नहीं.....मैने सोच लिया है कि आज हो ही जाए। लगता है वह आ गया है चलो कांफ्रेस रूम में चलते हैं।”
हर बार की तरह यह कांफ्रेस भी वीडियों कांफ्रेस ही थी। क्यूटिस आई-6, प्रशांत और गुस्ताव तीन लोग ही कमरे में मौजूद थे। स्क्रीन ऑन हुई और सौ लोगों के चेहरे स्क्रीन पर चमकने लगे। अपनी योजना के अनुसार क्यूटिस ने पहले संस्थान के प्रमुख की तरह अपना परिचय दिया फिर सब प्रतिभागियों का स्वागत करते हुए कांफ्रेस की बागडोर प्रशांत के हाथ में सौप दी। प्रशांत ने क्यूटिस की एक अर्थपूर्ण दृष्टि से देखा मानो कह रहे हों, “आज देखना कैसे घसीटता हॅू मैं तुझे?”
“गुस्ताव ने अपने आप को इंट्रोड्यूस करके कहना शुरू किया, आप सब जानते हैं कि अप सब विशेषज्ञों को आज की इस मीटिंग में क्यों बुलाया गया है। हर साइटिंग पर एस्टीरॉइड आई.ए.डब्लयू.एन 2788 की पृथ्वी से दूरी कम होती जा रही है। इसीलिए अब उसकी टोरिनो रेटिंग बढ़ा कर कर 7 दी गई है। यानि कि यदि यह उल्का-पिंड पृथ्वी से टकराया तो पृथ्वी महान विभीषिका की शिकार होगी। हम वैसे भी आपसी मतभेदों में काफी समय बरबाद कर चुके हैं। अब इससे निपटना हमारी पहली प्राथमिकता है नहीं तो पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व निश्चित रूप से समाप्त हो जाने वाला है। आज की यह आपातकालीन बैठक इसीलिए बुलाई गई है कि आप लोग मिल कर यह तय करें कि इस आने वाली मुसीबत से कैसे निपटा जाए?
“मैं सबसे पहले इस पर इंटरनेशनल एस्टीरोइड वार्निंग नेटवर्क के प्रमुख श्रीमान क्यूटिस आई-6 जी के विचार जानना चाहूंगा।” जी शब्द पर काफी जोर देते हुए प्रशांत ने कहा।
गुस्ताव सिर नीचा करके धीरे-धीरे मुस्करा रहा था माना कह रहा हो कि अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे।
क्यूटिस आई-6 इस उद्घोषणा से हड़बड़ा गया। वह इस तरह की स्थिति के लिए प्रोग्राम होकर नहीं आया था। उस ने माइक्रोफोन संभाला, “जब खतरा इतना बड़ा है कि उससे निपटना मुश्किल है और यह जल्दी ही आने वाला है तो बेहतर यही होगा कि हम पृथ्वी छोड़ जाएं........जल्द से जल्द इस पृथ्वी को खाली कर दें।”
अब प्रशांत भी अपनी मुस्कराहट छिपा न सका। स्क्रीन पर के सेक्शन में दिखते चेहरों पर एक मुस्कान आई जिसका तात्पर्य था, “देखा क्या बेवकूफी की बात कर रहा है, यह?”
बहुत सारे होमोसिपयंस और रोबोसेपियस यह भी सोच रहे थे कि देख लिया, आरक्षण हमें कहां ले जा रहा है? इतने संवेदनशील स्थानों पर कैसे-कैसे अयोग्य व्यक्ति अधिकार जमाए बैठे हैं?
स्क्रीन पर बहुत से खानों में लाल प्रकाश बिंदु लपलपाने लगे थे मतलब वे लोग क्यूटिस के प्रत्युत्तर में कुछ कहना चाहते थे। गुस्ताव ने लोगों को एक एक करके लाइव करना शुरू किया।
“मुझे श्री क्यूटिस का सुझाव व्यवहारिक नहीं लगता। मंगल पर हमने जो बस्ती बसाई है उसके कृत्तिम वातावरण को बनाने में हमें बहुत समय लगा है और उस पर भारी धनराशि खर्च हुई है। उस कृत्तिम वातावरण को बनाए रखने के लिए हमें हर साल कितना खर्च करना पड़ रहा है जबकि उस बस्ती के निवासियों की संख्या सिर्फ लाखों में है। कुछ थोड़े से लोग ही टाइटन पर रहे हैं। यानि कि हमने पृथ्वी के अलावा जो बस्तियां बताई हैं वे कमोवेश प्रायोगिक स्तर पर ही हैं। ऐसे में पृथ्वी की पूरी आबादी को ले जाकर कहीं और बसाना साथ में उनके पूर इकोस्पीयर को ले जाना.....नेक्स्ट टू इम्पॉसीबल.....वह भी इतने कम समय में। इसमें हजारों वर्ष लगेंगे.......इट्स ए डे ड्रीमर्स व्यू“ वेनेजुएला के खगोलविद् ने लगभग उपहास करते हुए कहा।
क्यूटिस कोई उत्तर नहीं दे पाया।
प्रशांत ने बात का सूत्र हाथ में लेते हुए कहा, “आप ठीक कह रहे हैं ब्रोन्सन महोदय, पृथ्वी के बायोस्फीयर को किसी ओर ग्रह पर निर्मित करना तो बहुत बड़ा कार्य है ही पर मेरा तो यह भी मानना है कि इतने कम समय में इतने सारे लोगों को किसी और ग्रह पर विस्थापित कर पाना भी असंभव है। हमारे अब पास समय भी नहीं है...मौत तो उससे पहले ही आने वाली है।
इस बार लाइव होने वाला व्यक्ति पाकिस्तान का मशहूर एस्ट्रोफिजिस्टि खान था, “हम कई राकेट्स पर लोड करके बडे-बड़े थर्मोन्यूक्लीयर बम स्पेस में भेज सकते है। जैसे ही ये राकेट उस उल्का-पिंड से टकराएं, ठीक उसी समय हम इन बमों को एक्टिव करें। इतने बडे आघात से निश्चय ही उस उल्का-पिंड की कक्षा बदल जाएगी और यह फिर कभी पृथ्वी की कक्षा को क्रॉस नहीं करेगा।”
“नाइस आइडिया।” सउदी अरब की गवर्निंग काउंसिल के प्रमुख ने लाइव होते हुए कहा। हम इसमें आपसी सहयोग करें। अपनी-अपनी क्षमता के हिसाब से हर देश का इसमें योगदान हो। मैं अपने देश की तरफ से 600 बिलियन डालर का सहयोग करने के लिए तैयार हूं।
अगले ही क्षण एक बैलास्टिक एक्सपर्ट लाइव हुए, “यह सुझाव, मुझे लगता है कि हमें किसी बडे खतरे में डाल सकता है। माना कि हमारे पास इतने नाभिकीय हथियार हैं। हमारे पुराने प्रोब मिशंस से यह भी तय हो गया है कि यह उल्का चट्टानी है, जिसमें लौह तत्वों और निकिल की प्रधानता है पर बहुत हद तक संभव है कि इतने बड़े विस्फोटों से अपनी कक्षा से विचलित होने के साथ-साथ इस उल्का के कई टुकड़े हो जाएं यानि कि मुसीबत कई गुनी हो जाए।”
“उल्का का आकर इतना बड़ा है कि गणना के अनुसार इस उल्का-पिंड की घूर्णन उर्जा करीब एक ओक्टीलियन (1027) जूल ठहरती है। अब तक उपलब्घ किसी नाभिकीय आयुध की विस्फोटक क्षमता 1010 या 100 क्वाड्रीलियन जूल से अधिक नहीं है। इस उल्का की कक्षीय उर्जा तो इससे हजारों गुना ज्यादा होगी। इसके लिए जितने नाभिकीय आयुध जुटाने पड़ेंगे उससे करीब-करीब सारे देशों के नाभिकीय आयुधों के भंडार खाली हो जाएंगे।” एक प्रख्यात खगोलविद् ने चेताया।
“खतरे की इस घड़ी में भी कुछ देश इस के लिए आसानी से तैयार होने वाले नहीं हैं। फिर इतने नाभिकीय आयुधों के एक साथ दागे जाने पर विकरण द्वारा पूरी पृथ्वी के प्रभावित होने का खतरा अलग होगा। ‘शॉक-वेव्स’ के चलते जो तूफान पृथ्वी पर आ सकता है उसकी विभीषिका भी पृथ्वी को तहस नहस कर सकती है। मैं सोचता हॅू कि इस उपाय को सबसे अंत के लिए सुरक्षित रखा जाना चाहिए।” बैलास्टिक एक्सपर्ट ने राय दी।
सारे लोग इस विचार से सहमत थे।
एक सुझाव तो यह भी आया कि बडे-बडे कई स्पेसक्राफ्ट्स पर लेसर-केनन (लेसर तोपें) स्थापित की जाएं जो इस पूरी उल्का की भाप बना दें। पर यह उल्का-पिंड इतना बड़ा था कि इसके लिए जितनी लेसर-कैनन की आवश्यकता होती उतनी तो शायद न इतनी जल्दी बनाई जा सकती थीं और उल्का भी ऐसे पदार्थों की बनी थी जिन्हें आसानी से वाष्पित नहीं किया जा सकता था। एक अमेरिकी स्पेस एजेसी ने आज से करीब 40 वर्ष पूर्व एक सौर उर्जा चालित स्पेस क्राफ्ट इस उल्का-पिंड की परिक्रमा करने भेजा था उनका एक प्रतिनिधि अब लाइव हो रहा था, “हमने वासीमर-3 नाम का एक सौर उर्जा चालित अंतरिक्षयान 13 सितम्बर 2818 को प्रक्षेपित किया था। यह अंतरिक्ष यान तब से एक विशेष स्थिति में उस उल्का-पिंड की परिकमा कर रहा है।”
“पर इससे क्या होगा?” एक वियतनामी पत्रकार का प्रश्न था।
“इस को ‘ग्रेविटी-ट्रेक्टर’ कहते हैं। जब इस अंतरिक्षयान के एग्जॉस्ट उल्का-पिंड की कक्षा के लम्बवत् होते हैं तो यह उल्का-पिंड पर एक गुरूत्वाकर्षण बल प्रक्षेपित करते हैं जो परिमाण में छोटा जरूर होता है पर यदि बरसों यह किसी उल्का-पिंड पर लगता रहे तो एक बड़े उल्का-पिंड की भी कक्षा बदल भी सकता है।”
“पर यह पिंड तो लगातार पृथ्वी के नजदीक आता जा रहा है। क्या यह इस प्रयोग को गलत तरह से किए जाने के कारण तो नहीं हो रहा है।” यह एक भारतीय पत्रकार का खुराफाती वक्तव्य था।
“नहीं।” यह आवाज गुस्ताव की थी, “दरअसल सूर्य का विकरण भी अंतरिक्ष में उल्काओं की कक्षा में परिवर्तन कर देता है। दिन में सूर्य के प्रकाश में यह उल्का गर्म होती है पर रात होते ही यह उस विकरण को बाहर निकालने लगती है। यह निकलता विकरण एक हलके थ्रस्टर का काम करता है जिससे उल्का की स्थिति में लगातार परिवर्तन होता रहता है। इसे ‘यार्कोवस्की प्रभाव’ कहते हैं। चूंकि यह उल्का-पिंड काफी बड़ा है इसलिए इसमे यह परिवर्तन साफ नजर आ रहा है।”
“मतलब हम यह मान लें कि आपकी यह युक्ति भी कारगर नहीं है।” एक वियतनामी पत्रकार ने अपने पत्रकारों वाले अंदाज में कहा।
“नहीं यह बात नहीं, इस धीमी प्रकिया द्वारा इतने बडे उल्का-पिंड को पृथ्वी की कक्षा से सुरक्षित दूरी तक विस्थापित करने के लिए जितने समय की आवश्यकता है उतना समय हमारे पास नहीं है।”
“तब?”
कोपेनहेगेन से पधारे डिजास्टर मैनेजमेंट गु्रप के प्रमुख मोनेट लार्सन ने सुझाया, “यदि हम इस उल्का-पिंड की कक्षा में विपरीत दिशा से एक तीव्र गति के अंतरिक्ष यानों को लाकर सीधे-सीधे उल्का-पिंड से टकरा दें तो शायद हम इसकी कक्षा बदल सकें।”
“बिलकुल ठीक फरमाया आपने श्री लार्सन, हम लोग इसे ‘काइनेटिक डिफलेक्शन’ कहते हैं पर इसमें सब से बड़ी बाधा इस उल्का-पिंड का बहुत बडा और भारी भरकम होना है। एक तो अंतरिक्ष में किसी अंतरिक्ष यान को कक्षा में सोलर बॉडीज़ की गति की दिशा के विपरीत एक्सीलेरेट कर पाना एक मुश्किल भरा काम है दूसरे इसे निशाना बांध कर लक्ष्य पर सही जगह टकरा पाना उससे भी कठिन कार्य है। मान लो हम ऐसा करने में कामयाब भी हो जाते है तो एक अंतरिक्ष यान को इतने बडे़ उल्का-पिंड से टकरा कर उसकी दिशा बदलना वैसे ही होगा जैसे कि हम एक मच्छर को सामने से तेज आती कार से टकरा कर यह उम्मीद करें कि कार की दिशा बदल जाएगी।” ब्रिटिश एस्टोफिजिसिस्ट राबर्ट फ्रीमैन ने व्यंग किया।
“अंततः इससे बचने के लिए क्या किया जाएगा?” एक ब्रितानी पत्रकार ने पूछा, “या कि फिर हम हाथ पर हाथ धरे आसन्न मृत्यु की पृतीक्षा करते रहेंगे?”
“दिस इज ए मिलियन डालर क्वेश्चन, प्रमुख क्यूटिस आपके आफिस का इस बारे में क्या सुझाव है?” एक मेक्सिन पत्रकार ने पूछा।
क्यूटिस एक बार फिर मुश्किल में पड़ता दिखाई दिया पर अबकी बार यह सावधान था, बोला, “हमारे चीफ एस्ट्रोफिजिसिस्ट प्रशांत कुमार इस प्रोजेक्ट के लिए पूरी तरह डिवेाटेड हैं। बेहतर होगा कि हम उन्हीं से जानें कि इस बारे में हमारे नेटवर्क की कार्यकारी योजना क्या होगी?”
प्रशांत ने मुस्कराते हुए संवाद को आगे बढ़ाया, “धन्यवाद क्यूटिस, चूंकि यह उल्का-पिंड काफी बड़ा है इसलिए मुझे लगता है कि हमें इस पर कई उपायों को अपनाने के विकल्प खुले रखने चाहिए। जैसे कि ग्रेविटी-ट्रेक्टर इस पर पिछिले 40 वर्षों से कार्यरत है। मेरी राय में ‘डॉक एंड पुश एप्रोच’ अभी इस के लिए सबसे प्रभावी तरीका होगा।”
स्क्रीन पर कई चेहरों पर ऐसे भाव उभरे मानो वह कह रहे हों, “यह ‘डॉक एंड पुश एप्रोच’ क्या है?“
प्रशांत ने आगे कहना शुरू किया, “इस में हम कुछ अंतरिक्ष यानों को उल्का-पिंड पर स्थापित करेंगे। इन यानों में प्लाज्मा प्रोपल्शन इंजन होंगे जिसमें हम पानी को ईंधन के रूप में प्रयोग करेंगे। इन यानों के “पल्स इंडक्टिव थ्रस्टर’ से हमें 100 से 200 किलामीटर प्रति सेकेंड की ‘एग्जॉस्ट वेलोसिटी’ मिलेगी। ‘इस में हम कुछ अंतरिक्ष यानों को उल्का-पिंड पर स्थापित करेंगे। इनके एग्जॉस्ट से तीव्र गति से गैसें निकलेंगीं। हर क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया होती है। इस प्रतिक्रिया के फलस्वरूप ये यान इस उल्का पर एक बल लगाएंगे जो कालांतर में इसको कक्षा से विस्थापित कर सकता है। चूंकि समय कम है और उल्का-पिंड काफी बड़ा है इसलिए हम एक साथ 50 से 100 अंतरिक्ष यानों को एक फायरिंग लाइन पर स्थापित करेंगे।”
“यह आपातकाल है, पृथ्वी के अस्तित्व का प्रश्न है। सारे देशों को चाहिए कि वे अपने सारे खर्चों में कटौती कर अपने आय-स्रोतों को बिना किसी भेद-भाव के इस पर केंद्रित करें।” गुस्ताव ने अपील की।
“अब तक हमारे इस कार्पस फंड में 1200 ट्रिलियन डालर इकठ्ठे हो चुके हैं।” क्यूटिस ने अपने सामने रखीं फाइलों को पलटते हुए बताया।
14 अक्टूबर 2858-श्वेतपत्र
विशेषज्ञों की मीटिंग के बाद एक श्वेतपत्र जारी किया गया। श्वेतपत्र में इस वैश्विक आपदा से निपटने की पूरी योजना विस्तार से समझाई गई थी। उसके अनुसार बड़े आकार के दो अंतरिक्ष स्टेशन पृथ्वी की निकटतम कक्षाओं में स्थापित किए जाएंगे। इनमें से एक अंतरिक्ष स्टेशन ‘डिजास्टर मेनेजमेंट स्पेस स्टेशन-1’ या ‘डी.एम.एस.एस.-1’ का काम अंतरिक्ष से इस उल्का-पिंड की निगरानी का होगा। डॉक एंड पुश वाले सारे अंतरिक्ष यान पहले इसी अंतरिक्ष स्टेशन पर डॉक किए जाएंगे बाद में स्थितियों का आकलन करके इन्हें उल्का-पिंड पर स्थापित कर के फिर उल्का की कक्षा, उसकी गति और उसके विक्षेपण पर नजर रखी जाएगी। यदि उल्का पर स्थापित अंतरिक्ष यानों में कोई खराबी आती है तो उसका निस्तारण भी इसी स्पेस स्टेशन का उत्तरदायित्व होगा। एक दूसरा स्पेस स्टेशन जिसे ‘डिजास्टर मेनेजमेंट स्पेस स्टेशन-2’ या ‘डी.एम.एस.एस.-2’ कहा जाएगा को पृथ्वी के उपर सबसे निचली उपलब्ध कक्षा में स्थापित किया जाएगा। यह दुनियां भर में फैले सारे ‘अर्थ स्टेशन’ के सीधे-सीधे संपर्क में रहेगा और उनसे फीडबैक लेगा। यदि सारी सावधानियों के वावजूद भी उल्का-पिंड पृथ्वी से सीधे-सीधे टकराने की स्थिति में आ जाता है तो इस स्पेस स्टेशन से नियंत्रित न्यूक्लीयर वार हेड वाले स्पेस शिप सीधे-सीधे उल्का-पिंड से टकरा दिए जाएंगे फिर आगे का परिणाम चाहे जो हो। इसके अतिरिक्त एक महत्वकांक्षी मिशन ‘ओरीरिस रेक्स’ हर पांच वर्ष में इस पर एक प्रोब इस उल्का-पिड पर भेजकर इस का एक छोटा सेंपल पृथ्वी पर लाकर इसके अवयवों, इसकी दृढता, या न्यूक्लीयर इम्पेक्ट के समय यह कैसे व्यवहार करेगा, इसकी जांच कर आंकडे़ प्रकाशित करता रहेगा। पृथ्वी पर एक ‘आई.ए.डब्लयू.एन रिसर्च सेंटर’ की स्थापना की जाएगी जो इस उल्का के विभिन्न आयामों पर लगातार परीक्षण करता रहेगा।
सन् 2938- पास आती मौत
सारे प्रयासों के वावजूद हर बार जब उल्का-पिंड पृथ्वी की कक्षा को क्रास करता था तो उसकी पृथ्वी से दूरी घटती जाती थी। वैज्ञानिकों का मानना था कि ऐसा सूर्य से आने वाले विकरण के कारण हो रहा है जिसे वे ‘यार्कोवस्की प्रभाव’ कहते हैं। यह करीब-करीब तय होता जा रहा था कि उल्का-पिंड पृथ्वी से टकरा कर रहेगा। अब उसकी ‘टोरिनो रेटिंग’ सर्वाधिक यानि कि 10 कर दी गई थी जिसका मतलब था कि इस उल्का-पिंड का पृथ्वी से टकराना लगभग तय है जिस से पृथ्वी पर महाविनाश होगा। पृथ्वी पर से सारी जीवित प्रजातियां लगभग समाप्त हो जाएंगी। मानव सभ्यता के पृथ्वी से समाप्त होने के पूरे आसार हैं। पर कहते हैं कि जब तक सांस है तब तक आस है। हर तरह से लोग अपने को बचाने में लगे थे। प्रभावशाली व्यक्ति पृथ्वी के गर्भ में कंक्रीट की मोटी-मोटी दीवारों वाले बंकर बनवा रहे थे ताकि वे उल्का-पिंड पृथ्वी से टकराने से पहले ही उसमें जाकर रहने लगें। सरकारों ने भी सार्वजनिक रूप से जगह-जगह पर ऐसे बंकरों का निर्माण कराना शुरू कर दिया था। यह भी तय किया जाने लगा था कि इन बंकरों में किस-किस को रहने की इजाजत मिलेगी? इसके लिए गुपचुप सूचियां बनाई जाने लगीं थीं। इन सूचियों में आरक्षण को लेकर आंदोलन होने लगे। लोग नैतिक, अनैतिक तरीके अपना कर अपना नाम इन सूचियों में दर्ज कराना चाहते थे। यदि कहीं किसी परिवार के किसी एक व्यक्ति का इस सूची के लिए जुगाड़ बन जाता था तो लोग अपने परिवार के अन्य लोगों की भी उपेक्षा कर गुपचुप केवल अपना नाम दर्ज करवा लेते थे। जीने की इच्छा इतनी बलबती हो गई थी कि उसके सामने सारे रिश्ते-नाते, त्याग, मानवता सब गौढ़ हो चले थे। कोई किसी की परवाह नहीं थी; न पिता को बच्चों की न पति को अपनी पत्नी की, न मां को अपने बच्चे की। लोग अपने को सुरक्षित करने के लिए अपने परिवारी जनों की हत्याएं करने से गुरेज नहीं कर रहे थे। बच्चे को बंकर में स्थान न मिलने पर माएं अपने बच्चों की हत्याएं कर रहीं थीं। अनैतिकता, व्यभिचार बेईमानी अपने चरम पर थी। लोग सारी सम्यता भूल कर वापस जंगली होते जा रहे थे। प्रशांत और गुस्ताव की पीढी अभी थी क्योंकि होमोसेपियंस की औसत आयु अब करीब 150 वर्ष तक थी। एंड्रोसेपियंस को आरक्षण देने के दुष्प्रभाव एक समय में इतने बढ़े कि अब संवेदनशील नौकरियों में से आरक्षण समाप्त कर दिया गया था।
13 अगस्त 2948-इमर्जेंसी अलर्ट
स्पेस स्टेशन डी.एम.एस.एस.-1 से एक अपातकालीन मैसेज भेजा गया, “एस्टीरॉइड आई.ए.डब्ल्यू.एन. 2788 का पृथ्वी की तरफ झुकाव बढ़ रहा है। क्या योजना में किसी परिवर्तन की आवश्यकता है?”
मैसेज पाते ही सारे अर्थ स्टेशन में खलबली मच गई। इसका अर्थ यह था कि ‘डॉक एंड पुश’ प्रक्रिया विफल हो गई। विशेषज्ञों की एक आपात बैठक बुलाई गई। गुस्ताव और प्रशांत बढ़ती आयु के कारण अब बहुत सक्रिय न थे पर इस परियोजना से लम्बे समय तक जुड़ाव के कारण उनहें भी आमंत्रित किया गया। सबने एकमत होकर यह फैसला किया कि अब यह ‘करो या मरो’ की स्थिति है। आम उपायों को आजमाने का समय अब समाप्त हो गया है। तय किया गया कि अब अंतिम उपाय की तरह जितने अंतरिक्ष यान डॉकिंग के लिए सुरक्षित रखे गए हैं उनमें से आधे आई.ए.डब्ल्यू.एन. 2788 की अगली साइटिंग से पहले ही इसकी गति की विपरीत दिशा से लाकर इस से सीधे-सीधे टकरा दिए जाएं क्योंकि कम्प्यूटर सिमूलेशन के आधार पर अगली साइटिंग पर आई.ए.डब्ल्यू.एन. 2788 का पृथ्वी से टकराना लगभग तय माना जा रहा था। यदि वे अपने इस प्रयास में भी असफल रहते हैं तो फिर वे आई.ए.डब्ल्यू.एन. 2788 पर न्यूक्लियर हथियारों से प्रहार करेंगे, फिर परिणाम चाहे जो हो। सामने से आती मृत्यु को हाथ पर हाथ रखे बैठ कर देखने से तो लड़ कर मरना बेहतर ही होगा। डी.एम.एस.एस.-2 स्पेस स्टशेन के साथ-साथ सारे अर्थ स्टेशनों को इमरजेंसी अलर्ट का मैसेज भेज दिया गया।
सितम्बर 2958-तेजी से बदलता सामाजिक परिवेश
पृथ्वी पर भंयकर सामाजिक उथल-पुथल हो रही थी। सारे उद्योग धंधे करीब-करीब समाप्त हो रहे थे। नौकरियां नहीं थीं। अपराध, लूट-पाट, चोरियों, हत्याओं की तो जैसे बाढ़ आ गई थी। लोग न मरने से डरते थे न मारने से, मानव जीवन की कोई कीमत नहीं थी। एक समय का भोजन छीनने के लिए किसी की भी हत्या की जा सकती थी। पूरा विश्व भयंकर मंदी के दौर से गुजर रहा था। चारों तरफ भुखमरी थी। लोग अपना सब कुछ, यहां तक कि बच्चों, पत्नी, बहिनों तक को बेचकर दो जून की रोटी का जुगाड़ कर रहे थे। कई जगहों पर तो लोगों ने सामूहिक आत्महत्याएं कर लीं थीं। कहीं से उजाले की कोई किरण नजर नहीं आ रही थी। बाजारों से रोजमर्रा के प्रयोग की चीजें एकाएक गायब होने लगीं थी। बहुत सारे लोग बिना किसी जानकारी के गायब हो रहे थे। लोगों का मानना था कि ये वे लोग थे जिन्हें सूचियां बना कर बंकरों में भेजा जा रहा था। ये बंकर कहां थे, इसकी जानकारी किसी को नहीं थी। जिन्हें थी वे इसकी जानकारी अपने परिवार वालों को तक नहीं दे रहे थे कि कहीं सूची से उनका नाम न कट जाए। मृत्यु का भय सारे रिश्ते-नातों, नैतिकता और उत्तरदायित्वों पर भारी पड़ रहा था।
28 सितम्बर 2968- ‘डी-डे’
आखिरकार उल्का-पिंड की साइटिंग से कुछ पहले “काइनेटिक स्ट्राइक“ का एक दिन बहुत गुपचुच तरीके से निश्चित कर लिया गया। डी.एम.एस.एस.-1 स्पेस स्टेशन पर पूरे स्टाफ के साथ गुस्ताव और प्रशांत मौजूद थे। एक भारतीय विशेषज्ञ गौरांग को चीफ इन कमांड बनाया गया था।
आज प्रोजेक्ट ‘काइनेटिक स्ट्राइक’ को एक्जीक्यूट करना था। डी.एम.एस.एस.-1 के सारे स्टाफ की धड़कनें बढ़ी हुईं थी। पूर्व निर्धारित योजना के तरह लेसर टारगेट सर्च प्रणाली से लैस 100 अंतरिक्ष यान अपने-अपने लॉंचिग पैड पर खडे थे। लोगों को पता था एक अंतरिक्ष यान के उल्का से टकराते ही हो सकता है कि गर्द या उल्का के छोटे-छोटे टुकडों का गुबार उठे और लक्ष्य उस गुबार में खो जाए। इसलिए इस लेजर टारगेट सर्च प्रणाली का उपयोग किया जा रहा था। कम्प्यूटर में पहले से एक साफ्टवेयर तैयार करके लोड किया गया था जो हर इम्पैक्ट के बाद उल्का की कक्षा और स्थिति की गणना करेगा फिर उसी हिसाब से स्ट्राइक की दिशा और टारगेट पाइंट निर्धारित करेगा। हर तीन मिनट बाद एक अंतरिक्ष यान आई.ए.डब्ल्यू.एन. 2788 से टकराएगा। बीस यानों के बाद 10 मिनट का ‘इवेलुएशन गैप’ होगा जिसमें तब तक के इम्पैक्ट के परिणाम की विवेचना होगी। हर अंतरिक्ष यान आई.ए.डब्ल्यू.एन. 2788 से टकरा कर नष्ट होने से पहले तक के सारे चित्र अर्थ स्टेशनों को भेजेगा। मानव का कुदरत से युद्ध का अंतिम उध्याय शुरू होने वाला था।
गौरांग भारहीनता की स्थिति में एक बडी स्क्रीन के सामने कुर्सी पर पेटियों से बंधा बैठा था। उसने कनखियों से प्रशांत की ओर देखा। एक बेबस मुस्कराहट देते हुए उस ने अपना अंगूठा उठाया और अपने सामने का लाल बटन दबा दिया। पूर्व निर्धारित योजना के के अनुसार तीन-तीन मिनट के अंतर से अंतरिक्ष यान आई.ए.डब्ल्यू.एन. 2788 की ओर बढने लगे।
पहले अतंरिक्ष यान के आई.ए.डब्ल्यू.एन. 2788 से टकराने के साथ जो गुबार उस स्थान पर उठा वह फिर बीसवें अंतरिक्ष यान के टकराने तक थमा ही नहीं। विजीबिलिटी इतनी कम हो गई कि केवल टकराने वाले अंतरिक्ष यानों के रेडियो सिग्नल्स पर ही निर्भर होना पड़ रहा था। पहले बीस अंतरिक्ष यानों के टकराने के बाद के 10 मिनट के पोजीशन इवेलुएशन में प्राप्त आंकड़ों से गौरांग को शक हुआ कि कहीं कोई गड़बड़ हो रही है। उल्का मनचाही दिशा में विस्थापित नहीं हो रही है। गौरांग ने अर्थ स्टेशनों से जानकारी ली तो पता लगा कि वे भी कुछ ऐसा ही सोच रहे है पर कोई भी उसके शक को कन्फर्म नहीं कर पा रहा था।
बीस यानों का दूसरा बेड़ा शुरू हुआ। कम्प्यूटर ने टारगेट और डाइरेक्शन दोनों बदले। इस दूसरे बर्स्ट के बाद गौरांग समझ गया कि गलती हो चुकी है। आई.ए.डब्ल्यू.एन. 2788, कक्षा बदल कर पृथ्वी की की ओर मुड़ गया है। गौरांग ने बेबसी में अपने हाथ झटके, “डैम इट।”
स्पेस स्टेशन के कर्मचारियों की उत्तेजना चरम पर थी। तीसरे और चौथे सेट के अंतरिक्ष यानों के प्रहार के बाद यह स्पष्ट हो गया कि उल्का पृथ्वी की ओर चल पड़ी है। अब कुछ भी रोका नहीं जा सकता था। गौरांग चीखा, “वी आर लोस्ट..........वी आर डूम्ड। सब खत्म हो गया......सब कुछ। डी.एम.एस.एस.-2 को एस.ओ.एस. भेजो, वे जो कुछ कर सकें करें....वी आर लोस्ट......।”
स्पेस स्टेशन डी.एम.एस.एस.-1 के सारे लोग चीख रहे थे।
28 सितम्बर 2968- वह परमाणु विस्फोट
प्रशांत ने तैरते हुए आगे बढ़कर गौरांग को झकझोरा पर गौरांग निस्पंद था। वह समझ गए वह शॉक में है। उन्होंने उसी स्थिति में गौरांग की जिम्मेदारी संभाली, “हैलो मैं प्रशांत फ्राम डी.एम.एस.एस.-1, मिशन काइनेटिक स्टाइक फेल्ड......कृपया नोट करें। आइ.ए.डब्लयू.एन. 2788 इज डिफ्लेक्टेड टूवार्ड्स अर्थ। यह करीब 20,000 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से तेजी से पृथ्वी की ओर बढ़ रही है। अंदाजा है कि पृथ्वी तक पहुंचते-पहुंचते इसकी गति करीब 70 हजार किलोमीटर प्रति घंटे होगी। डी.एम.एस.एस.-2 नोट करें....इससे पहले कि यह पृथ्वी के और नजदीक पहुंचे.......न्यूक इट। इस पर परमाणु हथियारों से हमला करो......डायरेक्ट हिट नहीं करना है। इन्हें आइ.ए.डब्लयू.एन. 2788 से एक किलोमीटर की दूरी पर एक्टीवेट करना है....क्विक.....गुडलक.....।
इसके साथ ही 100 मेगाटन टी.एन.डी क्षमता के नाभिकीय बम से लैस तीस अंतरिक्ष यान अपने-अपने लॉंचिग पैड्स से रवाना कर दिए गए। इन अंतरिक्ष यानों की उल्का से मुठभेड़ पृथ्वी से करीब 60,000 किलोमीटर की उचाई पर हुई। पूरा आसमान सूर्य से भी ज्यादा तेज रोशनी से चमक उठा। इससे निकला विकरण ओर शॉक वेव्स तेजी से पृथ्वी की ओर बढ़ रहीं थीं। पृथ्वी पर एक तीव्रतम भूकंप आने वाला था।
प्रशांत डी.एम.एस.एस.-1 के राडार से उल्का-पिंड पर नजर रखे हुए थे। वे स्क्रीन पर उल्का की पृथ्वी की कक्षा के सापेक्ष स्थिति फ्रेम दर फ्रेम जांचते जा रहे थे। उन्हें अचानक लगा कि उल्का की गति और डिफलेक्शन पहले के विपरीत हैं। गौरांग अब तक अपने आप को संयत कर चुका था।
“गौरांग देखो....देखो गौरांग, लगता है परमाणु आयुधों ने उपना काम कर दिया...न्यूक हैव सक्सीडेड”, प्रशांत ने उत्साहित होकर कहा।
गौरांग ने उल्का की लोकशन को सॉफटवेयर में डालकर चेक किया फिर वह चिल्लाया “यस....प्रशांत....वी हैव डन इट......हमने धरती को बचा लिया है। देखो अब यह ऑरबिट जिसमें उल्का बढ़ रही है...यह पृथ्वी की ऑरबिट को कहीं भी क्रास नहीं करती.....कहीं भी नही.........वी हैव डन इट सर......हमारी जीत हुई ....।”
डी.एम.एस.एस.-1 के सारे लोग खुशी में चिल्लाने लगे। पर इस खुशी को अर्थ स्टेशनों से आने वाले एक एस.ओ.एस. (मुसीबत में भेजने जाने वाली एक मैसेज) ने छिन्न-छिन्न कर दिया। कई अर्थ स्टेशन से मैसेज आ रहे थे, “आइ.ए.डब्लयू.एन. 2788 के दो टुकडे बड़ी तेजी से पृथ्वी की ओर बढ़ रहे हैं।”
“डैम इट”, मौरांग बुदबुदाया, “जस्ट वाच देम, अब उनके लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता। अब वे पृथ्वी के इतने नजदीक पहुंच रहे हैं कि अब उन पर परमाणु हथियारों से हमला भी नहीं किया जा सकता।”
“इनमें से एक 700 मीटर लम्बा और 100 मीटर चौड़ा है, दूसरा 400 मीटर बाई 150 मीटर”, अर्थ स्टेशन ने जानकारी दी।
“टाई काइनेटिक स्ट्राइक, एक एक अंतरिक्ष यान को इनसे टकराओ.....डाइरेक्ट हिट।” प्रशांत ने सुझाव दिया।
“अब यह असंभंव है.....बहुत छोटे टारगेट हैं और अब तो ये पृथ्वी के वातावरण में पहुचने ही वाले हैं।”
“तो बस प्रार्थना कीजिए......देखिए कुदरत को क्या मंजूर है”, प्रशांत ने हताशा में उत्तर दिया।
वह खतरनाक आसमानी आतिशबाजी
उल्का का बडा भाग तो नाभिकीय टक्कर से पृथ्वी से दूर चला गया था। पर इस से टूटे दो खतरनाक टुकड़े करीब 20,000 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से पृथ्वी की ओर बढ़ रहे थी। जैसे जैसे ये उल्का-पिंड पृथ्वी के पास पहुंचते जा रहे थे, पृथ्वी के गुरूव्ताकर्षण बल के कारण इनकी गति तेजी से बढ़ती जा रही थी। करीब 40 से 50 हजार किलोमीटर प्रति घंटे की गति से इन्होने पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश किया। आग की एक चौड़ी रेखा आकाश में खिंचने लगी। वातावरण की रगड़ से उल्का-पिंडो का तापक्रम बढ़ते-बढ़ते हजारों डिग्री सेंटीग्रेड तक पहुच गया जिसके कारण आस-पास की वायु अतितप्त प्लाज्मा में बदलने लगी। इसे संयोग कहें या प्रार्थनाओं का प्रभाव कि ये दोनों उल्का-पिंड दुनिया के सबसे कम आबादी वाले क्षेत्र एंटार्कटिका की ओर बढ रहे थे। पृथ्वी की सतह से कुछ किलोमीटर उपर दोनों उल्का पिडों में विस्फोट हुआ ओर ये दोनो छोटे टुकडों में बदल गए। बडे उल्का-पिंड की यात्रा अंततः अंटार्कटिका में दुनिया के सबसे साफ यानी के समुद्र ‘वेडेल सी’ में समाप्त हुई। बेस स्टेशन से रिक्टर स्केल पर 7 से 8 अंको वाले झटके रिकार्ड किए गए। छोटे उल्का-पिंड के टुकडे नार्वे के अधिकार वाले ‘डोनिंग माउड लेंड’ क्षेत्र में गिरे। गिरते समय उन्हें वहां देखने वाला कोई नहीं था क्योंकि वैसे भी इन क्षेत्रों में कोई स्थाई आबादी नहीं है। यहां पर बहुत सारे देशों के अपने अनुसंधान केंद्र है जिनमें गर्मियों के मौसम में अनुसंधानकर्ता आकर अनुसंधान करते हैं।पर उल्कापिंड के टकराने के समय वहां कोई भी नहीं था क्योंकि ये लोग भी उस वर्ग में आते थे जिनके नाम बंकरों में जाने वाली सूचियों में दर्ज थे। अलबत्ता वे अपने केंद्रों के टेलिस्कोप, कैमरे, रिकार्डर आदि चलते छोड़ आए थे ताकि हो सकता है कि कहीं घटना की कोई रिकार्डिंग हो जाए।
सन् 2972- हादसे के बाद
चूंकि उल्का-पिंड को विस्थापित करने में नाभिकीय आयुधों का प्रयोग हुआ था इसलिए लोगों का मानना था कि वातावरण परमाणु विकरण से पूरी तरह विषाक्त हो चुका होगा। इस डर से लापता लोग, जिनमें से अधिकांश पृथ्वी के नीचे बने बंकरों में रह रहे थे, सालों तो प्रकट ही नहीं हुए। धीरे-धीरे लोगों का भय कम हुआ। सबसे पहले एंड्रोसेपियंस बाहर आए। उनसे लोगों को बंकरों की जानकारी हुई कि किस तरह के लोग कैसे वहां रह रहे हैं? फिर रोबोसेपियंस और अंत में होमोसेपियंस ने भी बाहर निकलना शुरू कर दिया।
बाहर का वातावरण अभी भी काफी खराब है। उत्पादन नहीं है, नौकरी नहीं है। चारो तरफ फिर से छीना-झपटी और अपराधों का बोलबाला हो गया है। लोग तो परमाणु विकिरण से डर कर बंकरों में छिपे थे पर बीमारियां, कुपोषण, भूख आदि मौत के सबसे बडे़ कारण बनकर उभरे हैं।
उल्काओं के टकराने से वेडेल समुद्र की आइस शीट का कितना विनाश हुआ, वर्फ पिघलने से समुद्रों का स्तर बढने से कितने लोगों की मौत हुई है, डोनिंग माउड लेंड में अब स्नो-पेट्रेल ओर एम्परर पेंग्विन के उत्तराधिकारी बचे हैं कि नहीं, परमाणु विकरण ने कितने लोगों को प्रभावित किया है; ये तो दो चार साल में पता लग जाएगा, पृथ्वी भी एक-दो दशक में सामान्य होने लगेगी पर आपसी सम्बंधों में जो दरारें आ र्गइं हैं, मानवता और आपसी विश्वास को जो नुकसान पहुचा है, ये जो मंदी का दौर है; इसको ठीक होने में कितना समय लगेगा, कोई नहीं जानता।
इस विज्ञान कथा को आईसेक्ट पब्लिकेशन, भोपाल से प्रकाशित इलेक्ट्रॉनिकी आपके लिए विज्ञान पत्रिका द्वारा आयोजित ‘सी.वी. रमन विज्ञान कथा’ प्रतियोगिता में द्वितीय स्थान प्राप्त हुआ है।
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विज्ञान कथा के नेपथ्य का विज्ञान
ज्ञानिकों के अनुसार आवारा ग्रह या तो सौरमंडल के निर्माण के समय बने थे और विकास में यह स्थिर तारा बनते बनते रह गए या फिर किसी दूसरे सौरमंडल से यह किसी वजह से बाहर निकल गए और अन्य सौरमंडल में जाकर किसी स्थित तारे का चक्कर लगाने के स्थान पर उस सौरमंडल के केंद्र का चक्कर लगाने लगे। जब कभी इनकी कक्षा किसी ग्रह की कक्षा को काटती है तो यह उस ग्रह के लिए खतरा बन जाते हैं। लोगों का मानना है की काल्पनिक ‘थिया’ नाम का ग्रह भी इसी तरह का आवारा ग्रह रहा होगा जिस की टक्कर से उड़ी धूल से चंद्रमा बना। पृथ्वी की कोर को सघनता मिली पृथ्वी को पानी मिला और शायद पृथ्वी पर जीवन पनपने का यह भी एक कारण था। जिस प्रकार के टर्बाेजेनरेटर की चर्चा कहानी में की गई है वे एक प्रकार के सूक्ष्म जनरेटर हैं जो किसी व्यक्ति की नाड़ी, सांस लेने की गति आदि से ऊर्जा प्राप्त कर चल सकते हैं और छोटे-मोटे कार्य कर सकते हैं। एंड्रॉइड्स और सुपरइंटेलिजेंस आज कृत्रिम बुद्धि के हॉट विषय हैं। इनके खतरों से वैज्ञानिक आगाह करते रहते हैं। एंड्रॉइड्स की नागरिकता का शुभारंभ रोबोट ‘सोफिया’ की नागरिकता से हो चुका है। उल्का के इंपैक्ट के सारे दृश्य पूरी तरह वैज्ञानिक और सत्य हैं। उल्फा को अपनी कक्षा से विस्थापित करने के उपाय यथा थर्माेन्यूक्लियर बमों द्वारा इंपैक्ट, लेसर कैनन, ग्रेविटी ट्रैक्टर, यार्काेवस्की प्रभाव, काइनेटिक डिफलेक्शन, सोलर सेल, न्यूक्लियर इंपैक्ट आदि सब वास्तविक हैं। अमेरिकी ‘स्पेसगार्ड प्रोग्राम’ में इन उपायों के तहत पूरी तैयारी की जा रही है। उल्का जब पृथ्वी से टकराएगी तो उसके टकराने के ऐसे दृश्य की भविष्यवाणी खगोलशास्त्री और वैज्ञानिक करते हैं। डायनासोर की विलुप्ति की इंपैक्ट थ्योरी पर सारे वैज्ञानिक विश्वास करते हैं। कथा विज्ञान कथा में जिस ‘इजेक्टा क्लाउड’ की बात की गई है वह उल्का के पृथ्वी से टकराने के समय बनता है और भीषण विनाश करता है। ’टोरिनो रेटिंग’ किसी उल्का के पृथ्वी के टकराने के आसन्न खतरे को नापने का वैज्ञानिक पैमाना है।