रविवार, 11 सितंबर 2016

अलिफ लैला-30 नूरुद्दीन अली और बदरुद्दीन हसन की कहानी (दूसरा भाग)

 मंत्री ने कहा, 'तू क्या बकती है। वह कुबड़ा ही तेरा पति है और वही यहाँ सोया होगा।' पुत्री बोली, 'नहीं पिताजी, कुबड़ा जाए जहन्नुम में। मेरा पति तो काली भवोंवाला और बड़ी-बड़ी आँखोंवाला सजीला जवान है। अभी वह शौच आदि के लिए गया है। वही इस कमरे में सोया था। अभी वापस आता होगा, आप स्वयं उसे देखेंगे।' मंत्री क्कर में पड़ा कि यह सजीला जवान कहाँ से गया। वह उसे महल में ढूँढ़ने लगा लेकिन वह कहीं मिला। हाँ, उसने एक कमरे में यह जरूर देखा कि कुबड़ा गुलाम सर के बल दीवार से सहारे खड़ा है।
मंत्री ने उससे पूछा कि तुम्हें इस प्रकार किसने खड़ा किया। कुबड़ा उसकी आवाज पहचान कर भी वैसे ही उल्टा खड़ा रहा और बोला, 'आपको मेरे साथ ऐसा क्रूर परिहास नहीं करना चाहिए था। आप जानते थे कि भैंसा बना हुआ जिन् आपकी पुत्री का प्रेमी है तो मुझे दामाद बनाने के लिए क्यों कहा।' मंत्री ने कहा, 'तू पागल तो नहीं हो गया है कि ऐसी ऊटपटाँग बातें कर रहा है?' कुबड़े ने कहा, 'नहीं, मैं सच कह रहा हूँ। सुबह होने तक मैं हिल भी नहीं सकता वरना जि्न्न मुझे मार डालेगा। आप जानना ही चाहते हैं तो सुनिए। रात को एक काली बि्ल्ली मुझे कर डराने लगी। मैंने उसे भगाया तो वह बड़ी होने लगी और कुछ देर में भैंसा बन गई। उसने बताया कि वह आप की पुत्री का प्रेमी है। उसने मुझे इस प्रकार खड़ा कर दिया और कहा कि सुबह से पहले अपनी जगह से हिले तो मार डालूँगा।'
मंत्री यह बेसिरपैर की कहानी सुन कर ऊब गया। उसने गुलाम को सीधा खड़ा कर दिया। गुलाम सिर पर पाँव रख कर भागा और पीछे निगाह भी नहीं की। वह सीधा राजमहल में गया और बादशाह के पाँवों पर गिर पड़ा। बादशाह के पूछने पर उसने रात का अपना सारा अनुभव बताया। बादशाह यह सब सुन कर बहुत हँसा।
इधर मंत्री अपनी पुत्री के पास फिर गया और बोला, 'तुम जिसे अपना पति कहती हो वह तो महल में कहीं नहीं मिला। तुम झूठ बोल रही हो।' पुत्री ने कहा, 'मैं बिल्कुल सच कहती हूँ। आप को मेरी बात पर विश्वास हो तो यह चौकी पर रखे हुए कपड़े और यह पगड़ी देखिए। यह चीजें मेरे पति की हैं। सोने के पहले उसने कपड़े उतार कर यहाँ रख दिए थे।
मंत्री ने पगड़ी को देखा और जान गया कि ऐसी पगड़ी मोसिल के मंत्रिगण पहना करते हैं। उसने पगड़ी को उलट-पलट कर देखा तो उसमें से कपड़े में लिपटी हुई कोई चीज गिरी। उसे खोल कर देखा तो उसमें एक लंबा पत्र था। यह वह अंतिम पत्र था जो नूरुद्दीन अली ने अपने पुत्र को लिखा था और बदरुद्दीन उसे हमेशा अपनी पगड़ी में सुरक्षापूर्वक रखता था। मंत्री को सिक्कों से भरी एक थैली भी वहाँ मिली जिसके अंदर इसहाक यहूदी का लिखा हुआ कागज था कि छह हजार मुद्राओं में मैंने बदरुद्दीन के जहाज का माल खरीद लिया है। शम्सुद्दीन यह सब चीजें पा कर गश खा गया। थोड़ी देर में सचेत होने पर वह बोला, 'बेटी, तुम ठीक ही कहती हो और तुम्हारी प्रसन्नता भी उचित है। तुम्हारा पति तु्म्हारा चचेरा भाई है।' यह कह कर वह अपने भाई के हाथ के लिखे पत्र को बार-बार चूमने और भाई को याद करके रोने लगा।
उक् पत्र में नूरुद्दीन ने सविस्तार लिखा था कि वह कब बसरा पहुँचा, कब उसका विवाह हुआ और कब उसका पुत्र बदरुद्दीन पैदा हुआ। शम्सुद्दीन को यह देख कर आश्चर्य हुआ कि नूरुद्दीन का और उसका विवाह एक ही दिन हुआ था और उसकी पुत्री और बदरुद्दीन का जन्म भी एक ही दिन हुआ था। पहले मजाक में कही हुई बातों के ठीक निकलने पर उसे बड़ा आ्श्चर्य हुआ। वह तुरंत ही पगड़ी और पत्र ले कर बादशाह के सम्मुख गया और सारा हाल वि्स्तारपूर्वक बताया। बादशाह को भी आ्श्चर्य हुआ और उसने आदेश दिया कि यह सारी बातें उसकी इतिहास पुस्तक में लिखी जाएँ।
मंत्री ने बदरुद्दीन के आने की एक सप्ताह तक प्रतीक्षा की। फिर उसने काहिरा नगर में उसकी खोज की। बदरुद्दीन कहीं मिला। इससे मंत्री को अत्यंत दुख हुआ। उसने बदरुद्दीन की सारी चीजें सुरक्षापूर्वक संदूक में रखीं बल्कि विवाह के समय प्रयु्क्त सारे कमरों को वहाँ की हर चीज जैसी की तैसी रख कर ताला डलवा दिया। मंत्री की पुत्री को कुछ दिन बाद मालूम हुआ कि उसे गर्भ रह गया। नौ महीने बाद उसने एक पुत्र को न्म दिया। वह पुत्र अत्यंत सुंदर था। उसके नाना ने उसकी सेवा के लिए बहुत-से नौकर-चाकर रखे। उसका नाम रखा गया अजब। जब अजब सात वर्ष का हुआ तो शम्सुद्दीन ने उसे एक अ्च्छे मकतब में भेजा जहाँ उसने अत्यंत विद्वान गुरुजनों से शिक्षा लेनी आरंभ की। उसके मकतब में जाने के समय भी दो सेवक उसके साथ रहा करते थे।
अजब को अपने ऐश्वर्य का बड़ा घमंड हो गया क्योंकि उसके सभी सहपाठी उससे सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से निम्न स्तर के थे। इसलिए वह अक्सर उ्न्हें मारा-पीटा करता था और गालियाँ देता रहता था। वे इस बात से दुखी हुए और उन्होंने गुरु से शिकायत की। गुरु ने पहले तो उस से कहा कि बड़े घर का लड़का है, उसकी बातें सह लिया करो, लेकिन जब अजब की ज्यादतियाँ सीमा से बाहर हो गईं और उसने गुरु के समझाने-बुझाने पर भी ध्यान दिया तो गुरु ने लड़कों से कहा, 'मैं तुम्हें एक उपाय बताता हूँ। तुम सब लोग एक नया खेल शुरू करो जिसमें हर लड़का अपने माता-पिता का नाम बताए। अजब अपने पिता का नाम बता सकेगा और तुम्हारे साथ खेलना छोड़ देगा।'
लड़कों ने ऐसा ही किया। दूसरे दिन मैदान में इकट्ठे हो कर कहा कि हम नया खेल आरंभ करते हैं जिसमें हर लड़का अपने माँ-बाप का नाम बताएगा। जो बता सकेगा वह खेल से अलग कर दिया जाएगा। अतएव सभी लड़कों ने एक-एक करके अपने माता-पिता का नाम बताना शुरू किया।
जब अजब की बारी आई तो उसने कहा, 'मेरा नाम अजब है। मेरी माँ का नाम हसना है और मेरे पिता का नाम शम्सुद्दीन मुहम्मद है। मेरा पिता मिस्र के बादशाह का मंत्री है।'
यह सुन कर सब लड़के कह उठे कि यह तू क्या कहता है, तेरे पिता शम्सुद्दीन नहीं हैं। अजब ने उन्हें डपट कर पूछा 'क्यों? मेरे पिता शम्सुद्दीन मुह्म्मद क्यों नहीं है।' लड़के ठहाका मार कर हँसे और बोले, 'शम्सुद्दीन तेरा पिता नहीं तेरी, माँ का पिता यानी तेरा नाना है। तू अपने बाप का नाम नहीं बता सका। हम तेरे साथ नहीं खेलेंगे।' और वे सब उसे अकेला छोड़ कर चले गए। उसने जा कर गुरु से कहा कि लड़के यह झूठ कहते हैं कि शम्सुद्दीन मेरा पिता नहीं है। गुरु ने कहा, 'बेटा, वे ठीक कहते हैं। तेरे पिता का नाम तो मुझे भी नहीं मालूम। शम्सुद्दीन तो वास्तव में तेरा नाना है। बादशाह ने क्रुद्ध हो कर तेरी माँ का विवाह एक गुलाम से लगवाया था लेकिन विवाह की रात ही किसी जि्न्न ने गुलाम को भगा दिया और स्वयं तेरी माँ के पास सो रहा। अब तुम सहपाठियों के साथ खेल उ्न्हें दुख दे।'
अजब यह बातें सुन कर रोता हुआ अपनी माँ के पास आया और उससे कहा, भगवान के लिए मुझे बताओ कि मेरा पिता कौन है। माँ ने कहा, तुम्हारा बाप शम्सुद्दीन है, वह तुम्हें हमेशा प्यार किया करता है। अजब ने कहा, तुम झूठ बोलती हो, शम्सुद्दीन मेरा नहीं तुम्हारा बाप है, तुम मुझे मेरे असली पिता का नाम क्यों नहीं बताती? उसकी माँ यह सुन कर रोने लगी क्योंकि उसे अपने पति की याद गई जो केवल एक रात उसके साथ रह कर जाने कहाँ लोप हो गया था। इसी बीच शम्सुद्दीन भी वहाँ गया और बेटी को रोते देख कर उसने पूछा, तुम क्यों रो रही हो। बेटी ने रोने का कारण बताया तो वह भी दुखी हुआ।
वह रात भर दुख में निमग्न रहा और सोचता रहा कि कैसे दुर्भाग्य की बात है कि लड़की की बदनामी इस तरह हो रही है। दूसरे दिन में दरबार में गया तो रोते हुए बादशाह के पैरों में गिर पड़ा। उसने सारा हाल बता कर कहा कि अब मुझ से यह बर्दा्श्त नहीं होता कि लोग कहें कि मेरी बेटी ने जि्न्न से लड़का पैदा किया है, आप मुझे कुछ दिनों की छुट्टी दें तो मैं अपने दामाद बदरुद्दीन को सारे बड़े नगरों, विशेषतः बसरा में जा कर तलाश करूँ।
बादशाह को भी यह सारी बातें जान कर बड़ा दुख हुआ। उसने केवल मंत्री की छुट्टी मंजूर कर ली बल्कि हर जगह के बादशाहों के नाम पत्र और अपने हाकिमों के नाम आदेश लिखवा कर शम्सुद्दीन को दे दिया। इनमें कहा गया था कि आप मेरे मंत्री शम्सुद्दीन के भतीजे और दामाद बदरुद्दीन की खोज में उसकी सहायता करें। जो उस नवयुवक को ढूँढ़ देगा मैं उससे बड़ा प्रसन्न होऊँगा और उसका अहसान मानूँगा। शम्सुद्दीन ने अपने स्वामी की इस कृपा पर उसका बड़ा अहसान माना और विदा हुआ।
शम्सुद्दीन अपनी पुत्री और नाती को ले कर काहिरा से रवाना हुआ। बीस दिनों की यात्रा के बाद वह दमि्श्क पहुँचा। वहाँ जा कर उसने नदी के किनारे अपने डेरे खड़े किए और सेवकों को आज्ञा दी कि नगर में जा कर आश्यक क्रय-विक्रय करो। वह खुद बदरुद्दीन को ढूँढ़ने नगर में निकल पड़ा। अजब भी अपने कुछ सेवकों के साथ नगर की सैर को निकला। नगर में आने पर उसके चारों ओर उसके अनुपम रूप को देख कर लोग जमा हो गए। इससे परेशान हो कर अजब बदरुद्दीन की दुकान में घुस गया।
बदरुद्दीन को जिस हलवाई ने गोद लिया था उसका देहांत हो चुका था और इस समय उसकी दुकान का मालिक बदरुद्दीन ही था। बदरुद्दीन का नगर निवासी बड़ा मान करते थे क्योंकि वह मिठाई बहुत अच्छी बनाता था। बदरुद्दीन ने अजब को देखा तो उसके हृदय में प्रेम का ज्वार उठने लगा। वैसे अन्य लोग भी अजब को प्रशंसा की दृष्टि से देख रहे थे किंतु बदरुद्दीन का तो खून का रिश्ता था इसलिए वह प्यार में विह्वल-सा हो गया। उसने अजब से कहा कि आप मेरी दुकान के अंदर बैठें और कुछ भोजन करें। अजब के साथ के सेवकों के ह्ब्शी प्रमुख ने कहा कि आप मंत्री पुत्र हैं। आप के लिए इस मामूली दुकान पर बैठ कर खाना-पीना उचित नहीं हैं।
बदरुद्दीन ने चुपके से कहा कि इस बेहूदा गुलाम की बात मानिए। साथ ही उसने प्रमुख सेवक की भी खुशामद की और उसकी प्रशंसा में एक गीत गाया जिसका तात्पर्य यह था कि तुम ऊपर से काले लगते हो लेकिन तु्म्हारा मन अत्यंत स्वच्छ है। उसने ह्ब्शी जाति की प्रशंसा में भी गीत गाए और सेवक से कहा कि मैं कवि हूँ, तुम्हारी तारीफ में कसीदा (प्रशस्ति काव्य) लिखूँगा। ह्ब्शी सेवक यह सुन कर प्रसन्न हुआ और उसने अजब को अंदर ले जा कर बिठा दिया। अब बदरुद्दीन ने कहा कि मेरी दुकान की मलाई सब जगह प्रसिद्ध है, मैंने मलाई जमाने का गुर अपनी माता से सीखा है और उसके और मेरे सिवाय ऐसी मलाई कोई नहीं जमा सकता है। मेरी मलाई दूर-दूर जाती है और आप भी इसे खा कर बहुत प्रसन्न होंगे।
यह कह कर बदरुद्दीन ने कड़ाही से मलाई निकाली और उसमें अनार का रस और मिश्री डाल कर अजब को दी। वह उसे खा कर बहुत प्रसन्न हुआ। शम्सुद्दीन ने प्रधान सेवक को भी मलाई खिलाई। वह भी खा कर बहुत खुश हुआ। बदरुद्दीन अजब को देखता जाता था और सोचता जाता था कि अगर उस सुंदरी से जिसके पास उस ने एक ही रात गुजारी थी कोई पुत्र होता तो शायद ऐसा ही होता। उस सुंदरी की याद कर के वह रोने लगा। फिर उसने अजब से पूछा कि आप दमिश्क में कैसे आए। अजब जबाव देने ही वाला था कि गुलाम ने कहा कि अब यहाँ नहीं ठहरिए, बहुत देर हो गई है, आपकी माँ आपकी प्रतीक्षा कर रही होंगी।
यह सुन कर अजब दुकान से उठ कर चल दिया। बदरुद्दीन को उसका अचानक जाना बर्दा्श्त नहीं हुआ। वह अपनी दुकान बंद करके उसके पीछे चलने लगा। जब नगर के द्वार पर पहुँचा तो अजब के सेवकों के सरदार ने बदरुद्दीन से डपट कर पूछा कि तुम हमारे पीछे क्यों लगे आते हो। उसने अजब से भी कहा कि मैंने आप से इसीलिए दुकान में जाने को कहा था कि यह लोग मुँह लगाने योग्य नहीं होते। बदरुद्दीन ने कहा कि मैं तु्म्हारे पीछे नहीं लगा हूँ। मुझे उधर कुछ काम है।
अजब ने भी अपने सेवक से कहा कि वह अपने काम से जा रहा है, इसे जाने दो, तुम किसी को कहीं आने-जाने से कैसे रोक सकते हो। लेकिन जब अजब अपने खेमे के पास पहुँचा और उसने मुड़ कर देखा तो बदरुद्दीन को कुछ पीछे चलते पाया। अब वह डरा कि नाना को मालूम होगा कि मैंने इस हलवाई की मलाई खाई है तो वे नाराज होंगे। उसने घबराहट में एक पत्थर उठाया और खींच कर बदरुद्दीन की ओर फेंका और जल्दी से अपने खेमे में घुस गया।
अजब का फेंका हुआ पत्थर बदरुद्दीन के माथे पर लगा और उसका माथा लहूलुहान हो गया। उसे बड़ा पश्चात्ताप हुआ कि मैं तो अपना काम-काज छोड़ कर इस लड़के के प्रेम में यहाँ तक आया और उसे मेरा कोई ख्याल हुआ बल्कि पत्थर मार कर उसने मुझे घायल कर दिया। उसने अपनी दुकान पर कर घाव की मरहम-पट्टी की और अपने मामूली काम काज में लग गया।
इधर शम्सुद्दीन तीन दिन दमिश्क में दामाद को खोजने के बाद कई प्रमुख नगरों में गया। इनमें हलब, नारदीन, मोसल, सरवर आदि शामिल थे। अंत में वह बसरा पहुँचा और वहाँ के बादशाह से भेंट की। बादशाह ने उसका बड़ा आदर-त्कार किया और पूछा कि तुम यहाँ कैसे आए। शम्सुद्दीन ने कहा कि मैं अपने भाई नूरुद्दीन अली के पुत्र बदरुद्दीन हसन को ढूँढ़ने निकला हूँ, आप कुछ उसके बारे में जानते हों तो कृपा करके मुझे बताएँ।
बादशाह ने कहा, 'नूरुद्दीन मेरा मंत्री था। बहुत दिन हुए उसका देहांत हो गया और उसका पुत्र बदरुद्दीन भी बाप के मरने के दो महीने बाद कहीं गायब हो गया। मैंने उसकी बहुत खोज कराई किंतु उसका कहीं पता नहीं चला। किंतु उसकी माँ यानी हमारे मंत्री की पत्नी अभी तक जीवित है।'
शम्सुद्दीन बादशाह से विदा ले कर अपनी भावज के निवास स्थान की ओर चला। दूसरे दिन उसने अपनी पुत्री और दौहित्र के साथ उसके महल में प्रवेश किया। एक नाम पट्टिका पर अपने भाई का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा देख कर उसने उसे चुंबन दिया और सेवकों से नूरुद्दीन की विधवा के बारे में पूछा। उन्होंने बताया। 'उसका निवास स्थान यही है किंतु वह अक्सर अपने पति की कब्र पर पड़ी रहती है, वहाँ अपने पुत्र की तस्वीर देख-देख कर रोती रहती है क्योंकि पुत्र भी बहुत दिनों से लापता है। वैसे इस समय वह अपने महल ही में है।'
सेवकों ने खबर की तो नूरुद्दीन की विधवा आई। उसको शम्सुद्दीन ने अपना परिचय दिया और बताया कि तुम्हारे पुत्र और मेरी बेटी का विवाह हुआ है। उसने अपनी पुत्री और दौहित्र को भी अपनी छोटी भाभी से मिलवाया। बेचारी विधवा अपने पुत्र से मिलने की आशा ही छोड़ बेठी थी। वह बहू और पोते को देख कर अति प्रसन्न हुई और उसे आशा बँधी कि मेरा पुत्र भी जीवित होगा। बहू-पोते को गले लगा कर वह रोने लगी। शम्सुद्दीन ने उसे कहा कि यह समय रोने-पीटने का नहीं, तुम बादशाह से अनुमति ले कर मेरे साथ मिस्र देश चलो। यह कह कर उसने वि्स्तारपूर्वक सारी बातें बताई। नूरुद्दीन की पत्नी इस वृत्तांत को सुन कर आश्चर्य में भी पड़ी और प्रसन्न भी हुई।
फिर शम्सुद्दीन बादशाह के पास गया और उससे निवेदन किया, मैं अपनी भावज को अपने साथ ले जाना चाहता हूँ। बादशाह ने खुशी से यह बात मंजूर कर ली और मिस्र के बादशाह के लिए उत्तमोत्तम भेंट की वस्तुएँ दे कर मिस्र के मंत्री को विदा किया। शम्सुद्दीन सारे लोगों को ले कर फिर दमिश्क की ओर चला। इस बाद उसने फिर नगर के बाहर डेरे डाले और अपने सेवकों और गुमा्श्तों को व्यापार करने की आज्ञा दे कर स्वयं वहाँ के बादशाह के पास पहुँचा और उसे मिस्र के बादशाह का पत्र और उसके द्वारा भेजे गए तोहफे दिए। इधर अजब ने जब देखा नाना बहुत देर के लिए गए हैं तो उसने अपने सेवकों से कहा कि मैं फिर नगर की सैर करना चाहता हूँ। सेवक अजब की माँ से अनुमति ले कर उसे ले चले। नगर में चारों ओर घूमते-फिरते वे लोग दोपहर के समय बदरुद्दीन की दुकान पर पहुँचे। अजब को वा्स्तव में दुख था कि उसने पिछली बार बेकार ही हलवाई पर पत्थर चलाया। उसने बदरुद्दीन से पूछा कि तुम मुझे पहचानते हो या नहीं। बदरुद्दीन ने उसे देखा तो पहली बार ही की तरह फिर उसके हृदय में प्रेम का ज्वार उठने लगा।
बदरुद्दीन उससे बोला, 'मालिक, आप दुकान के अंदर जाएँ और थोड़ी-सी मलाई खाएँ। मुझे खेद है कि इतने दिनों तक आपके दर्शन नहीं हुए नहीं तो मैं आपकी बराबर सेवा करता।' अजब ने कहा, 'पहले तुम वादा करो कि उस बार की तरह मेरा पीछा नहीं करोगे। तुमने यह वादा किया तो मैं तुम्हारी दुकान पर आऊँगा बल्कि रोजाना एक बार आऊँगा।' बदरुद्दीन ने कहा कि जैसी आपकी आज्ञा होगी मैं वैसा ही करूँगा, आपके आदेश का उल्लंघन कभी नहीं करूँगा।' अजब उसकी दुकान के अंदर बैठ गया।
बदरुद्दीन ने उसके तथा उसके सेवक के आगे मलाई के प्याले रखे। अजब ने बदरुद्दीन को भी अपने पास बिठाया। सब लोग मलाई खाने लगे। अजब बराबर उसे ताकीद करता रहा कि तुम्हें मुझ से चाहे जितना प्रेम हो तुम किसी से इसके बारे में कहना। बदरुद्दीन ने वादा किया कि किसी से यह बात नहीं कहूँगा। वह अजब और उसके सेवकों की अभ्यर्थना करता रहा और उ्न्हें मलाई खिलाता रहा, खुद उसने कुछ नहीं खाया। अजब जब खा चुका तो बदरुद्दीन ने उसके हाथ धुलाए और हाथ पोंछने के लिए एक साफ कपड़ा उसे दिया। फिर उसने चीनी के प्याले में शर्बत बनाया और उसमें बर्फ डाल कर ले आया और अजब से बोला, 'यह गुलाब का शर्बत अत्यंत स्वादिष् है। ऐसा शर्बत आपको मेरी दुकान के अतिरिक्त और कहीं नहीं मिलेगा।' अजब उसे पी कर बहुत खुश हुआ। बदरुद्दीन ने प्रधान सेवक को भी शर्बत दिया जिसे वह एक बार ही में गटागट पी गया।
अब अजब और उसका सेवक बदरुद्दीन को न्यवाद दे कर अपने डे्रे की ओर चले। अजब अपनी दादी के डेरे में गया। वह उसे गले से लिपटा कर रोने लगी कि भगवान मुझे जल्द तुम्हारे साथ तुम्हारे पिता को भी देखने का सुख प्रदान करे। उसने द्स्तरख्वान बिछाया और अजब से भी खाने के लिए कहा और पूछने लगी कि तुम शहर में क्या देख आए। अजब उससे बातें तो करता रहा किंतु उसने खाया बिल्कुल नहीं। बुढ़िया ने अजब और उसके अंगरक्षक शाबान को अपने हाथ की बनाई हुई मलाई दी किंतु दोनों बदरुद्दीन की दुकान पर पेट भर मलाई खा चुके थे इसीलिए किसी ने इस मलाई की ओर दृष्टि भी नहीं की।
अजब की दादी ने कहा, 'बड़े आश्चर्य की बात है कि मेरे हाथ की बनाई हुई मलाई भी तुम नहीं खा रहे हो। तु्म्हें ज्ञात होना चाहिए कि इस प्रकार की स्वादिष्ट मलाई केवल मैं और मेरा पुत्र बदरुद्दीन ही बना सकते हैं और उसे भी मलाई बनाना मैंने ही सिखाया है।' अजब ने कहा, 'दादी जी, मेरा अपराध क्षमा करें तो बताऊँ कि इस नगर में एक हलवाई है जो इतनी अच्छी मलाई बनाता है कि क्या कहूँ। आपकी मलाई उतनी अच्छी नहीं होगी।'
दादी यह सुन कर अजब के अंगरक्षक शाबान पर बड़ी क्रुद्ध हुई और बोली, 'क्यों निकम्मे, तू मेरे बच्चे की कैसी सुरक्षा करता है कि वह भिखमंगों की तरह हलवाइयों की दुकान पर बैठ कर खाया-पिया करता है?' शाबान ने कहा कि हम लोग थक गए थे इसलिए हलवाई की दुकान पर सुस्ताने को बैठे थे किंतु हमने मलाई वगैरा नहीं खाई। किंतु अजब ने कहा कि यह झूठ कहता है, हलवाई की दुकान पर हम दोनों ने मलाई खाई थी।
अजब की दादी यह सुन कर क्रोध में भर गई और उसी समय उठ कर अजब के नाना के डेरे में पहुँची और उसे सारा हाल बताया। शम्सुद्दीन अपनी भावज की बातें सुन कर उसके साथ उसके डेरे में पहुँचा और शाबान को डाँट कर पूछा कि क्या यह सच है कि तुम दोनों ने हलवाई के यहाँ मलाई खाई थी। शाबान ने फिर इनकार किया किंतु अजब ने कहा कि यह बात सच है, हम दोनों ने हलवाई की दुकान पर मलाई भी खाई थी और बाद में शर्बत भी पिया था। मंत्री ने शाबान से कहा, 'देख, अजब क्या कहता है? क्या तुम दोनों ने हलवाई के यहाँ कुछ खाया-पिया नहीं?' शाबान ने फिर इनकार किया और झूठी कसम भी खा ली कि हम लोगों ने कुछ खाया-पिया नहीं। अब मंत्री ने शाबान को पीटना शुरू किया। काफी ठुकाई हो चुकने के बाद उसने स्वीकार किया कि अजब की बात सच्ची है और हलवाई की मलाई इस मलाई से अधिक स्वादिष् थी।
अजब की दादी यह सुन कर भी बिगड़ी। उसने शाबान से कहा, 'तेरा दिमाग फिर गया है क्या? कोई हलवाई मुझ से अच्छी मलाई बना सकता है? और अगर अब भी तू यह कहता है कि तो हलवाई की दुकान पर जा कर थोड़ी-सी मलाई ले आ। मैं भी तो देखूँ कि वह मलाई कैसी है।' शाबान बदरुद्दीन की दुकान पर गया और कुछ पैसे दे कर बोला कि एक प्याले में मलाई दे दो, मेरी मालकिन तुम्हारी मलाई खाना चाहती हैं। बदरुद्दीन ने मलाई दे कर कहा, 'ऐसी मलाई तुम्हें दुनिया भर में कहीं और मिलेगी। केवल मैं और मेरी माँ ही इस तरह की मलाई बना सकते हैं।'
शाबान ने मलाई ला कर अजब की दादी को दी। उसने उसे खाया तो भावातिरेक में मूर्छित हो गई। शम्सुद्दीन मुहम्मद को उसकी दशा देख कर चिंता हुई। उसने अपनी भावज के मुँह पर गुलाब जल छिड़कवाया तथा अन्य उपचार किए जिससे वह होश में गई। फिर उसने कहा कि यह मलाई बदरुद्दीन ही ने बनाई है। शम्सुद्दीन मुह्म्मद को भी वि्श्वास तो हो गया था कि यह बात ठीक है किंतु प्रकटतः उसने कहा, 'ऐसी क्या बात है कि तुम्हारे बेटे के अलावा दुनिया में और कोई आदमी ऐसी मलाई बना सके।' उसकी भावज ने कहा, 'मैं पूरे विश्वास और जानकारी से कहती हूँ कि बदरुद्दीन के अतिरिक् कोई और व्यक्ति ऐसी मलाई बना ही नहीं सकता।'
शम्सुद्दीन मुहम्मद ने कहा, 'अ्च्छा ठहरो। मैं बहाने से उस हलवाई को यहाँ बुलवाता हूँ। तुम और तुम्हारी बहू उसे छुप कर देखें। अगर तुम लोग उसे पहचान लो कि बदरुद्दीन वही है तो हम लोग उसे अपने साथ काहिरा ले चलेंगे। मैंने तो उसे कभी देखा ही नहीं इसीलिए मैं उसे पहचान नहीं सकता, तुम लोग ही उसे पहचानो।' यह कह कर उसने अपने डेरे में जा कर अपने सिपाहियों को आज्ञा दी कि बदरुद्दीन की दुकान पर जा कर उसका सामान तोड़-फोड़ देना और उसे बाँध कर ले आना, लेकिन खबरदार उसे मारना-पीटना बिल्कुल नहीं और और किसी तरह का दुख देना।
सेवकों को यह आदेश दे कर शम्सुद्दीन स्वयं बादशाह की सेवा में पहुँचा और उससे कहा कि मेरा दामाद मिल गया है और उसे काहिरा ले जाने की मुझे अनुमति दें। बादशाह ने प्रसन्नतापूर्वक यह अनुमति दे दी। शम्सुद्दीन ने यह भी कहा कि किसी कारणवश मैं अभी असलियत बता नहीं सकता और उसे जोर-जबर्दस्ती का नाटक करके ले जाना चाहता हूँ, आप अपने कोतवाल और सिपाहियों को आदेश करें कि वे मेरे सिपाहियों की इस मामले में रोक-टोक करें। बादशाह ने यह भी स्वीकार कर लिया।
शम्सुद्दीन के सिपाही बदरुद्दीन की दुकान पर गए और उन्होंने उसके सारे बरतन-भाँडे तोड़ फोड़ डाले और रस्सी के बजाय पगड़ी से उसे बाँध दिया। उसने दुखी हो कर पूछा कि मेरा क्या अपराध है तो सिपाहियों ने पूछा कि मंत्री के डेरे में भेजी गई मलाई तुम्हीं ने बनाई थी। उसकी स्वीकारोक्ति पर उन्होंने बगैर कुछ कहे-सुने उसको दुकान से बाहर घसीट लिया। नगर निवासियों को इससे दुख हुआ। उन्होंने मंत्री के सिपाहियों को रोकना चाहा और शहर के सिपाहियों से सहायता चाही किंतु कोई लाभ हुआ। दोनों ओर के सिपाहियों को अपने-अपने हाकिमों के आदेश थे।
शम्सुद्दीन के सामने बदरुद्दीन को लाया गया तो उसने रो कर पूछा कि मालिक, मैंने आपका क्या अपराध किया। शम्सुद्दीन ने कहा कि क्या तुम्हीं ने मेरे सेवक के हाथ मलाई बेची थी? बदरुद्दीन ने कहा कि हाँ। मंत्री बोला, 'तुम्हारा यही कसूर है। तुमने ऐसी वाहियात मलाई मेरे लिए भेजी? मैं तुम्हें प्राण दंड दूँगा।' बदरुद्दीन ने हैरान हो कर कहा कि खराब बेचने पर फाँसी दी जाती है? मंत्री बोला, हमारे यहाँ यही नियम है।
उधर परदे के पीछे से बदरुद्दीन की माँ और पत्नी ने उसे देखा तो मूर्छित हो गईं। उन्होंने चाहा कि जा कर उससे लिपट जाएँ किंतु उनसे शम्सुद्दीन ने पहले ही कह रखा था कि जब तक मैं कहूँ उसके पास जाना। दूसरे दिन शम्सुद्दीन सब लोगों को ले कर मिस्र की ओर चला। बदरुद्दीन को उसने एक संदूक में बंद करके एक ऊँट पर लाद लिया। दिन भर उसे संदूक में रख कर चलता और रात को पड़ाव करने पर संदूक से बाहर निकाल देता था। इसी तरह जब चलते-चलते काहिरा के पास पहुँचा तो पड़ाव डाल कर मंत्री ने एक बढ़ई से कहा कि एक आदमी को फाँसी चढ़ाने के लिए एक लकड़ी की टिकटी बनाओ। बदरुद्दीन ने यह देख कर पूछा कि किसे फाँसी पर चढ़ाया जाएगा। मंत्री ने कहा कि कल मैं नगर में प्रवेश करूँगा और तुझे इसी टिकटी से बाँध कर पूरे नगर में फिराऊँगा और तेरे आगे एक आदमी यह मुनादी करता जाएगा कि इस आदमी को इसीलिए फाँसी दी जाएगी कि इसने मलाई में काली मिर्च नहीं डाली, बदरुद्दीन यह सुन कर विलाप करने लगा कि हे भगवान, मैं सिर्फ इस कसूर पर मारा जाऊँगा कि मैंने मलाई में काली मिर्च नहीं डाली।
यह कह कर रानी शहरजाद ने बादशाह शहरयार से कहा कि खलीफा हारूँ रशीद यद्यपि गंभीर प्रकृति का था तथापि अपने मंत्री से इतनी कहानी सुन कर ठट्ठा मार कर कर हँसने लगा। बदरुद्दीन ने कहा, 'हे परमात्मा यह कैसा न्याय है। कहीं ऐसा भी होता है कि केवल इतने से अपराध पर कि मलाई में काली मिर्च नहीं पड़ी किसी हलवाई की दुकान लूट ली जाए, उसे बाँध कर लाया जाय और फिर उसे फाँसी दे दी जाए। यह बात तो सरासर इस्लामी व्यव्स्था के विरुद्ध है। धिक्कार है मुझ पर कि मैंने मलाई बनाने का धंधा किया कि इस परेशानी में पड़ा। सारे शहर में बदनाम हो कर फाँसी चढ़ने से बड़ी बदनामी की बात क्या हो सकती है। हे भगवान मैं अभागा पैदा होते ही क्यों मर गया। अब भी अच्छा है कि मुझे यूँ ही मौत जाए, बदनामी से बचूँगा।'
बदरुद्दीन यही कह कर रोता चिल्लाता रहा किंतु मंत्री ने कुछ ध्यान दिया। कुछ ही देर में मंत्री के सामने फाँसी की टिकटी पेश की गई जिसके ऊपर लोहे की सलाख लगी हुई थी। बदरुद्दीन ने उसे देखा तो बहुत घबराया और चिल्लाने लगा, 'मैंने किसी की चोरी की, किसी धार्मिक आदेश का उल्लंघन किया, किसी की हत्या की। फिर भी मुझे सिर्फ इतनी-सी बात पर प्राणदंड मिल रहा है कि मैंने मलाई में काली मिर्च नहीं डाली।'
मंत्री शम्शुद्दीन ने उससे कहा कि रोने-चिल्लाने से कुछ नहीं होगा, कल तो मैं तुझे नगर में ले जा कर फाँसी पर चढ़ाऊँगा ही। यह कह कर उसने बदरुद्दीन को दुबारा संदूक में बंद करवा दिया। सुबह उसने उसे ऊँट पर लदवाया और स्वयं अपनी सवारी पर बैठ कर समारोहपूर्वक अपनी राजधानी में प्रवेश किया। अपने महल में पहुँच कर उसने आज्ञा दी कि इस संदूक को उतार कर रखो किंतु इसे खोलना नहीं। सारा असबाब घर पर रख दिया गया तो शम्सुद्दीन ने अपनी बेटी को एकांत में ले जा कर उससे कहा, 'भगवान का लाख-लाख धन्यवाद है कि तुम्हारा पति तुम्हें मिल गया है। अब तुम अपने कमरे को ठीक वैसे ही सजाओ जैसा वह तुम्हारे विवाह की रात को सजाया गया था, हर चीज ठीक उसी जगह पर होनी चाहिए जैसे उस समय पर थी।'
मंत्री की पुत्री ने अपने पिता के आदेशानुसार काम किया और कमरे को बिल्कुल उसी तरह सजा दिया जैसे कि वह विवाह की रात को सजाया गया था। जहाँ उसे कोई बात भूल गई उसने अपने पिता से पूछ ली। ठीक उसी तरह तख्त बिछाया गया और सारी मोमबत्तियाँ भी ठीक उसी प्रकार रखी गईं। पूरा कमरा बल्कि आसपास के कमरे भी ठीक वैसे ही दिखने लगे जैसे शादी की रात को दिखते थे। शम्सुद्दीन मुहम्मद ने स्वयं वहाँ कर बदरुद्दीन के कपड़े और रुपयों की थैली ठीक वहीं रखी जहाँ से उसने उठाई थी। फिर उसने अपनी पुत्री से कहा कि तुम उसी रात की तरह सोने के कपड़े पहनो और पति के आने पर इस तरह का भाव प्रकट करना जैसे उससे बहुत दिनों बाद मिल रही हो, ऐसा बरताव करना जैसे वह कभी तुमसे अलग ही नहीं हुआ था।
कहानी यहाँ तक पहुँची तो सवेरा हो गया और मलिका शहरजाद चुप हो रही। बादशाह को कहानी का अंत सुनने की इतनी उत्कंठा थी कि अगली रात को उसे ठीक तरह नींद भी नहीं आई। अगली रात को अंतिम पहर में मलिका शहरजाद ने नियमानुसार कहानी प्रारंभ की।
उसने कहा कि मंत्री शम्सुद्दीन ने आज्ञा दी कि उस भवन में दो या तीन दासियाँ ही रहें। जब एक पहर रात बीती तो मंत्री ने बदरुद्दीन को संदूक में बंद ही बंद उस भवन के समीप भिजवाया। सेवकों ने वहाँ उसे संदूक से निकाला तो वह लगभग अचेत था। उन्होंने जल्दी से उसे रात्रिकालीन वस्त्र मिर्जई आदि पहना दिए। फिर उसे मकान के अंदर छोड़ कर उ्न्होंने बाहर से दरवाजे में कुंडी लगा दी।
कुछ देर में बदरुद्दीन को हाथ पाँव फैलने से चेत हुआ तो उसने अपने को विवाह के लिए सजे हुए कमरे में पाया। उसे याद आया कि यह उसकी सुहागरात वाला कक्ष है। पासवाले कमरे को देख कर भी उसने पहचाना कि यही उस कुबड़े गुलाम के पास मैं बैठा था। उसका ताज्जुब और बढ़ा। दो क्षणों के बाद उसने देखा कि उसके विवाह के वस्त्र और थैली उसी तरह वहाँ रखी है जैसी सुहागरात को रखी थी। इससे आ्श्चर्य के मारे उसका सिर चकरा गया। वह सोचने लगा कि समझ में नहीं आता कि मैं जाग रहा हूँ या स्वप्न देख रहा हूँ।
इतमें ही में उसकी पत्नी ने मसहरी से सिर उठा कर कहा, 'प्रियतम, तुम द्वार पर क्यों खड़े हो। यहाँ पलंग पर कर आराम करो। तुम दिन भर कहाँ रहे? आज सुबह मेरी आँख खुली तो मैंने तुम्हें पलंग पर नहीं देखा। बहुत देर तक प्रतीक्षा करने पर भी तुम आए तो मैं दिन भर बहुत दुखी रही। खैर अब तुम मेरे पास आओ।'
बदरुद्दीन को यह सुन कर बड़ा हर्ष हुआ। वह आश्चर्य और उसके बाद पैदा हुए उल्लास के कारण यह भी भूल गया कि मंत्री ने उसे कैद किया था और मृत्यु दंड दिया था। उसका चेहरा चमकने लगा और निराशा की काली छाया उसके चेहरे से हट गई। उसने देखा कि उसकी पत्नी अब भी वैसी सुंदर और मनोहारणी है जैसी विवाह की रात को थी।
कमरे के अंदर जा कर उसने प्रत्येक वस्तु को फिर अच्छी तरह देखा और उसे मालूम हुआ कि सारी चीजें बिल्कुल वैसी ही हैं जैसी दस बरस पहले विवाह की रात को थीं। चौकी पर उसके वस्त्र और द्र्व्य की थैली भी जैसी की तैसी थी। वह उ्च्च स्वर में कहने लगा, 'हे भगवान, यह क्या लीला है। मेरी तो कुछ समझ में नहीं रहा कि मैं कहाँ हूँ।' उसकी पत्नी बोली, 'यह क्या कह रहे हो? क्या खड़े-खड़े अजीब बातें कर रहे हो।' बदरुद्दीन ने कहा, 'सच बताओ तुम कब से मुझ से अलग हो?' उसने कहा, 'आज सुबह ही तो तुम उठ कर गए थे।'
बदरुद्दीन बोला, 'तुम्हारी बात मेरी समझ में नहीं आती। मैंने तुम्हारे साथ सुहागरात बिताई जरूर थी किंतु इस बात को हुए दस बरस हो गए। इस सारे समय मैं दमिश्क में रहा। मेरी अक्ल चक्कर खा रही है कि अपने विवाह का समय कौन-सा मानूँ, वर्तमान समय या दस बरस पहले का। मेरी तो कुछ समझ में नहीं रहा, तु्म्हीं बताओ कि मैं दस बरस तुम से अलग रहने को सवप्न समझूँ या इस समय तुमसे होनेवाली बातचीत को।
उसकी पत्नी ने कहा, 'तुम कैसी पागलों की सी बातें करते हों। स्पष् बताओ कि यह दमिश्क बीच में कहाँ से गया।' बदरुद्दीन ने हँस कर कहा, 'मालूम नहीं मैं पागल था या अब हूँ। दस बरस पहले मैं यही शयनकालीन वस्त्र पहने दमि्श्क की मस्जिद के द्वार पर पड़ा था। वहाँ के निवासी मुझे देख कर हँस रहे थे और मेरा मजाक उड़ा रहे थे। मैं वहाँ से उठ कर भागा और एक हलवाई की दुकान में जा छुपा। उसने मुझे गोद लिया और अपना धंधा सिखाया। जब वह मरा तो सारी संपत्ति मुझे दे गया। मैं दस बरस तक उसी दुकान पर हलवाई का व्यवसाय करता रहा।
'एक दिन कहीं का मंत्री दमि्श्क में आया। उसका लड़का बड़ा भोला भाला और सुंदर था। उसे देख कर मेरे हृदय में बहुत प्यार उमड़ा। एक दिन वह अपने नौकर के साथ मेरी दुकान पर आया और वहाँ बैठ कर मलाई खाई। तब वह वापस अपने डेरे में गया तो उसके पिता ने मेरी दुकान से मलाई मँगवाई। इसके बाद मुझे पकड़वा बुलाया और यह कह कर कि तूने बगैर काली मिर्च की मलाई क्यों बनाई, मेरी दुकान लुटवा दी और मुझे संदूक में बंद ऊँट पर रखवा कर अपने देश को लाया। फिर कल रात उसने फाँसी की टिकटी बनवाई और आज के लिए कहा कि तुझे नगर में घुमाने के बाद फाँसी दी जाएगी। मैं यह सुन कर भय से अचेत हो गया। जब होश आया तो देखा तुम्हारे पास मौजूद हूँ।'
उसकी पत्नी यह सुन कर हँसने लगी और मजाक में बोली, 'यह तो नहीं हो सकता कि इतनी-सी बात पर किसी को फाँसी दे दी जाए, तुमने कोई बड़ा अपराध किया होगा।' बदरुद्दीन ने कहा, 'मैं सच कहता हूँ इसके अलावा मेरा कोई अपराध नहीं था कि मलाई में काली मिर्च नहीं पड़ी थी।'
अब यह अजीब-सी बहस चल पड़ी। उसकी पत्नी हँस-हँस कर कहती जाती थी कि तुमने जरूर कोई बड़ा अपराध किया होगा। और बेचारा बदरुद्दीन बार-बार सफाई दिए जाता था कि मेरा अपराध बगैर काली मिर्च डाले मलाई भेजने के अलावा कुछ नहीं था और इतनी ही बात पर मंत्री ने मुझे फाँसी चढ़ाने के लिए टिकटी बनवा ली जिसके ऊपर मुझे लटकाने के लिए लोहे की मजबूत सलाख लगाई गई थी।
बादशाह शहरयार यहाँ तक कहानी सुन कर हँसने लगा और बहुत देर तक हँसता रहा। उसने कहा, 'मंत्री शम्सुद्दीन ने अपने दामाद के साथ अच्छा मजाक किया और आश्चर्य यह है कि उसकी भावज ने भी बेटे के इस तर तंग किए जाने पर कुछ कहा। खैर कल कहानी पूरी होगी तो आशा है उसका अंत अ्च्छा होगा।'
दूसरी रात के अंतिम पहर मलिका शहजाद ने कहानी फिर शुरू की। उसने कहा कि रात भर बदरुद्दीन इसी चक्कर में रहा कि मैं अपनी पत्नी के पास वास्तव में हूँ या सपना देख रहा हूँ। वह बार-बार पलँग से उठता और घूम-घूम कर भवन को देखता। उसे हर चीज वैसी ही दिखाई देती जैसी विवाह की रात को थी। उधर पिछले दस बरसों की घटनाओं की अनदेखी भी वह नहीं कर पाता था। सारी रात उसने उसी उधेड़बुन में काटी।
सुबह हुई तो शम्सुद्दीन ने बेटी के शयन कक्ष के द्वार पर कर ताली बजाई। उसकी बेटी ने द्वार खोला तो शम्सुद्दीन ने अंदर जा कर स्वयं अपनी ओर से बदरुद्दीन को प्रणाम किया। बदरुद्दीन ने कहा, 'आपने तो मुझे फाँसी देने का प्रबंध किया था। उसके विचार से मैं अब तक काँप रहा हूँ और मेरा अपराध क्या था, सिर्फ यह कि मैंने मलाई में काली मिर्च नहीं डाली थी।'
मंत्री ने मुस्करा कर कहा, 'तुम मेरे भतीजे हो और मैंने अपनी बेटी का विवाह तुम्हारे साथ किया था। बादशाह के हुक् से उसका विवाह कुबड़े गुलाम से होनेवाला था।' यह कह कर उसने नूरुद्दीन का लिखा हुआ वृत्तांत उसे दिखाया और कहा, 'तुम्हारी खोज में ही मैं बसरा, दमि्श्क और जाने कौन-कौन-सी जगह-जगह मारा-मारा फिरता रहा। मैंने तुम पर प्रकट में जो अ्न्याय किया है उसे भूल जाओ। मैं सिर्फ यह चाहता था कि बगैर झंझट के दमिश्क से तु्म्हें यहाँ लाऊँ, साथ ही यह ख्याल था कि अगर तुम्हारी भेंट अचानक तुम्हारी माँ और पत्नी से हो जाय तो कहीं तुम आनंदातिरेक मे मर जाओ।' यह कह कर उसने दामाद को सीने से लगा लिया।
बदरुद्दीन यह सुन कर अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसने रात के कपड़े उतार कर दिन के कपड़े पहने। फिर उसने अपनी माँ से भेंट की। इस अवसर पर सारे परिवार में आनंद की कैसी लहर आईं उसका वर्णन नहीं हो सकता। उसकी माँ उसे सीने से लगा कर बहुत देर तक रोती रही और बताती रही कि तेरे लापता होने पर यह दस बरस कितने कष्ट से काटे। इतने ही में अजब, जिसे उसके नाना ने असलियत बता दी थी, अपने बाप से कर लिपट गया। बदरुद्दीन ने हा, 'अरे तूने ही तो मेरे यहाँ मलाई खाई थी।' यह कह कर उसने अपने बेटे को छाती से लगा लिया। शम्सुद्दीन ने दामाद को बादशा के सामने पेश किया और सारी कहानी सुनाई। बादशाह ने इस वृत्तांत को लिखने का आदेश दिया और बदरुद्दीन को भी सम्मानित किया।
हारूँ रशीद से उसके मंत्री जफर ने यह कहानी सुना कर कहा कि आप भी उदारता दिखाएँ और मेरे गुलाम रैहान का अपराध क्षमा कर दें। हारूँ रशीद ने ऐसा ही किया और उस आदमी को, जिसने भ्रमवश अपनी पत्नी को मार डाला था, अपनी एक दासी दे दी कि विवाह कर ले और सुखपूर्वक रहे।
यह कहानी पूरी करके मालिक शहरजाद ने कहा, 'स्वामी, अब सवेरा हो गया, अगर आज मुझे आज प्राणदान मिले तो मैं और अच्छी कहानी सुनाऊँ।' बादशाह चुपचाप दरबार को चला गया किंतु कहानी के लालच में उसने शहरजाद के वध का आदेश मुल्तवी रखा।                                                    स्रोत-इंटरनेट से कट-पेस्ट


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें