सिंदबाद
ने कहा, कुछ
दिन आराम से
रहने के बाद
मैं पिछले कष्ट
और दुख भूल
गया था और
फिर यह सूझी
कि और धन
कमाया जाए तथा
संसार की विचित्रताएँ
और देखी जाएँ।
मैंने चौथी यात्रा
की तैयारी की
और अपने देश
की वे वस्तुएँ
जिनकी विदेशों में
माँग है प्रचुर
मात्रा में खरीदीं।
फिर मैं माल
लेकर फारस की
ओर चला। वहाँ
के कई नगरों
में व्यापार करता
हुआ मैं एक
बंदरगाह पर पहुँचा
और व्यापार किया।
एक
दिन हमारा जहाज
तूफान में फँस
गया। कप्तान ने
जहाज को सँभालने
का बहुत प्रयत्न
किया किंतु सँभाल
न सका। जहाज
समुद्र की तह
से ऊपर उठी
पानी में डूबी
एक चट्टान से
टकरा कर चूर-चूर हो
गया। कई लोग
तो वहीं डूब
गए किंतु मैं
और कुछ अन्य
व्यापारी टूटे तख्तों
के सहारे किसी
प्रकार तट पर
आ लगे। हम
लोग एक द्वीप
में आ गए
थे। इधर-उधर
घूम कर हम
लोगों ने वृक्षों
के फल तोड़-तोड़ कर
खाए और अपनी
भूख मिटाई।
फिर
हम समुद्र तट
पर आ कर
लेट गए और
अपने दुर्भाग्य को
कोसने लगे। किंतु
इससे क्या होना
था। हमें नींद
आ गई और
रात भर गहरी
नींद में सोते
रहे। सवेरे उठ
कर फिर द्वीप
में घूमने और
फल आदि इकट्ठा
करने लगे। अचानक
काले रंग के
आदमियों की एक
बड़ी भीड़ ने
हमें घेर लिया।
उन्होंने हमारे गले में
रस्सियाँ बाँध दीं
और भेड़-बकरियों
की भाँति हमें
हाँक-हाँककर बहुत
दूर पर बसे
अपने गाँव में
ले गए। फिर
उन्होंने हमारे सामने एक
खाद्य पदार्थ रखकर
इशारे से कहा
कि इसे खाओ।
मेरे साथियों ने
बगैर कुछ सोचे-समझे उसे
पेट भर खाया
और तुरंत ही
नशे मे मतवाले
हो गए। मैंने
वह चीज बहुत
कम खाई और
काले लोगों की
हरकतों को ध्यान
से देखने लगा।
मेरे साथी तो
कुछ न समझ
सके लेकिन मैंने
समझ लिया कि
इन लोगों की
नीयत अच्छी नहीं
है। फिर उन्होंने
खाने के लिए
हमें नारियल के
तेल में पका
हुआ चावल दिया।
इस खाद्य से
आदमी मोटे हो
जाते हैं। मैं
समझ गया कि
काले लोगों का
इरादा है कि
हमें मोटा करें
और फिर अपने
कबीले की दावत
करके हम लोगों
का मांस पका
कर सब लोग
खाएँ। मेरे साथी
तो नशे में
खूब पेट भर
कर खाते थे
किंतु मैं बहुत
थोड़ा खाता था
ताकि मोटा न
होऊँ और नर
भक्षियों का आहार
न बनूँ। मैं
कम खाने और
अपने प्राणों की
चिंता में इतना
दुबला हो गया
कि बदन में
हड्डी-चमड़े के
सिवाय कुछ न
रहा।
मैं
दिन में उस
द्वीप में घूमा-फिरा करता
था। एक दिन
मैंने देखा कि
गाँव के सब
लोग काम पर
चले गए हैं।
केवल एक बूढ़ा
बैठा था। मैं
अवसर पाकर भाग
निकला। बूढ़े ने मुझे
बहुतेरा चिल्ला-चिल्लाकर बुलाया
किंतु मैं न
रुका। शाम को
गाँव में लोग
आए तो मेरी
खोज में निकले।
किंतु तब तक
मैं बहुत ही
दूर निकल चुका
था। मैं दिन
भर भागता रात
में कहीं छुपकर
सो जाता। रास्ते
में फल आदि
से भूख मिटाता
या नारियल तोड़कर
उसका पानी पी
लेता जिससे भूख
और प्यास दोनों
शांत होती थी।
आठवें
दिन मैं समुद्र
के तट पर
पहुँचा। वहाँ देखा
कि मेरी तरह
के बहुत-से
श्वेत वर्ण मनुष्य
काली मिर्च इकट्ठी
कर रहे हैं
क्योंकि वहाँ काली
मिर्च बहुत पैदा
होती थी। उन्हें
देख कर मुझे
बड़ी प्रसन्नता हुई
और मैं उनके
पास पहुँच गया।
वे भी चारों
ओर जमा हो
गए और अरबी
भाषा में मुझसे
पूछने लगे कि
तुम कहाँ से
आ रहे हो।
मैं अरबी बोली
सुनकर और भी
हर्षित हुआ और
मैंने विस्तार से
उन्हें बताया कि जहाज
टूटने पर हम
लोग द्वीप के
किसी अन्य तट
पर लगे जहाँ
से हमें बहुत-से श्याम
वर्ण लोग पकड़
कर ले गए।
उन
लोगों को यह
सुनकर बड़ा आश्चर्य
हुआ। वे बोले,
'अरे वे लोग
नरभक्षी हैं। तुम्हें
उन्होंने छोड़ कैसे
दिया?' मैंने उन्हें आगे
का हाल बताया
कि किस प्रकार
कम खाकर और
मौका पाकर भाग
कर मैंने जान
बचाई।
उन
लोगों को मेरे
जीते-जागते बच
निकलने पर अति
आश्चर्य और प्रसन्नता
हुई। जब तक
उनका काम पूरा
न हुआ मैं
उनके साथ मिलकर
काम करता रहा,
फिर वे लोग
मुझे अपने साथ
जहाज पर लेकर
अपने देश आए
और अपने बादशाह
के सामने मुझे
यह कह कर
पेश किया कि
यह व्यक्ति नरभक्षियों
के चंगुल से
सही-सलामत निकल
आया है। बादशाह
को जब मैंने
अपना पूरा हाल
सुनाया तो उसे
भी सुनकर बड़ा
आश्चर्य और प्रसन्नता
हुई। वह बादशाह
बड़ा दयालु प्रकृति
का था। उसने
मुझे पहनने के
लिए वस्त्र तथा
अन्य सुख-सुविधाएँ
दीं।
बादशाह
के कब्जे में
जो द्वीप था
वह बहुत बड़ा
और धन-धान्य
से पूर्ण था।
वहाँ के व्यापारी
अन्य देशों में
अपने यहाँ की
चीजें ले जाते
थे और बाहर
के कई व्यापारी
भी आते थे।
मुझे आशा होने
लगी कि किसी
दिन मैं अपने
देश पहुँच जाऊँगा।
बादशाह मुझ पर
बड़ा कृपालु था।
उसने मुझे अपना
दरबारी बना लिया।
लोग मुझे देखकर
ऐसा बर्ताव करने
लगे जैसे मैं
उनके देश का
निवासी हूँ।
मुझे
यह देखकर आश्चर्य
हुआ कि वहाँ
लोग बगैर जीन-लगाम ही
घोड़ों पर सवार
होते थे। यहाँ
तक कि बादशाह
भी घोड़े की
नंगी पीठ पर
सवारी करता था।
मैंने एक दिन
बादशाह से पूछा
कि आप लोग
जीन-लगाम लगाकर
घोड़े पर क्यों
नहीं चढ़ते। उसने
कहा, जीन लगाम
क्या होती है।
उसने यह भी
कहा कि मैं
उसके लिए ये
चीजें बना दूँ।
मैंने
एक नमूना बनाकर
लकड़ी के कारीगर
को दिया। उसने
मेरे नमूने के
अनुसार जीन बना
दी। मैंने उसे
चमड़े से मढ़वाया
और उस पर
अतलस और कमरख्वाब
का आवरण चढ़ाया।
एक लोहार से
रकाबे बनाने को
कहा और लगाम
का सामान भी
बनवाया। जब सारा
सामान तैयार हो
गया तो मैं
उसे घोड़े पर
सजाकर घोड़ा बादशाह
के सामने ले
गया। वह उस
पर सवार हुआ
तो उसे बहुत
प्रसन्नता और संतोष
हुआ। उसने मुझे
बहुत इनाम-इकराम
दिया और पहले
से भी अधिक
मुझे मानने लगा।
फिर मैंने बहुत-सी जीनें
और लगामें बनवा
कर राज्य परिवार
के सदस्यों, मंत्रियों
आदि को दीं।
उन्होंने उनके बदले
हजारों रुपए तथा
अन्य बहुमूल्य वस्तुएँ
मुझे प्रदान कीं।
राज दरबार में
मेरा मान बढ़ा
तो नगरवासी भी
मेरा बहुत सम्मान
करने लगे।
एक
दिन बादशाह ने
मेरे साथ एकांत
बातचीत की। वह
बोला, 'मैं तुमसे
बहुत प्रसन्न हूँ
और तुम पर
अधिकाधिक कृपा करना
चाहता हूँ। मेरे
दरबार के लोग
और साधारण प्रजाजन
भी तुम्हारी बुद्धिमत्ता
के कारण तुम्हें
बहुत मानते हैं।
मैं चाहता हूँ
कि तुम एक
काम करो। मुझे
पूर्ण विश्वास है
कि जो मैं
कहूँगा तुम उससे
इनकार नहीं करोगे।'
मैंने कहा, 'आप
जो भी आज्ञा
करेंगे वह मेरे
हित में होगी
क्योंकि आपकी मुझ
पर कृपा रहती
है। मैं क्यों
आपकी आज्ञा का
उल्लंघन करूँगा?' उसने कहा,
'मैं चाहता हूँ
कि तुम स्थायी
रूप से यहाँ
बस जाओ और
अपने देश जाने
का विचार छोड़
दो। इसलिए मैं
यहाँ की एक
सुंदर और सुशील
कन्या से तुम्हारा
विवाह करना चाहता
हूँ।' मैंने सहर्ष
इसे स्वीकार किया।
उसने
एक अत्यंत रूपवती
और गुणवती नव
यौवना से मेरा
विवाह करा दिया।
मैं उसे पाकर
बगदाद में बसे
अपने परिवार को
भूल-सा गया।
कुछ दिनों बाद
मेरे पड़ोसी की
पत्नी बीमार हो
गई और कुछ
दिन बाद मर
गई। पड़ोसी से
मेरी अच्छी दोस्ती
थी इसलिए मातमपुर्सी
को उसके घर
गया। वह आदमी
अत्यंत शोक में
डूबा था और
उसके आँसू ही
नहीं थमते थे।
मैंने उसे समझाया
कि वह धैर्य
रखे, भगवान चाहेगा
तो दूसरी शादी
के बाद और
अच्छा जीवन बीतेगा।
उसने कहा, 'तुम
कुछ नहीं जानते
इसीलिए ऐसी तसल्ली
दे रहे हो।
मैं तो दो-चार घंटे
का ही मेहमान
हूँ।'
मैंने
परेशान होकर उससे
स्थिति स्पष्ट करने को
कहा तो वह
बोला, 'आज मुझे
मृत पत्नी के
साथ जीते जी
दफन किया जाएगा।
हमारे यहाँ बहुत
पुराने जमाने से यह
रस्म चली आ
रही है कि
पति मरता है
तो पत्नी उसके
साथ दफन कर
दी जाती है
और पत्नी मरती
है तो पति
को उसके साथ
गाड़ दिया जाता
है। अब मेरी
जान बचने की
कोई सूरत ही
नहीं है। यहाँ
के निवासी एकमत
हो कर इस
रिवाज को स्वीकार
करते हैं। कोई
इसके विरुद्ध कुछ
नहीं कर सकता।'
इस
भयंकर रिवाज की
बात सुनते ही
मेरे होश उड़
गए। मैं उसी
समय से अपने
बारे में चिंता
करने लगा क्योंकि
मेरा भी विवाह
हो चुका था।
थोड़ी देर में
उसके सगे संबंधी
एकत्र हो गए।
उन्होंने कफन आदि
का प्रबंध किया।
उन्होंने औरत की
लाश को नहला-धुलाकर बहुमूल्य वस्त्र
पहनाए और एक
खुली अर्थी पर
रख कर ले
चले। उसका पति
भी शोकसूचक वस्त्र
पहने रोता-पीटता
उनके पीछे चला।
सब
लोग एक बड़े
पहाड़ पर पहुँचे।
वहाँ पर उन्होंने
एक बड़ी चट्टान
हटाई तो उसके
नीचे बड़ा गहरा
और अँधेरा गड्ढा
दिखाई दिया। सब
लोगों ने रस्सी
के द्वारा अर्थी
को गड्ढे की
तह तक उतार
दिया। उसके बाद
मृत स्त्री के
पति को भी
गड्ढे में उतार
दिया। उन्होंने उसके
साथ सात रोटियाँ
और जल से
भरा पात्र भी
रख दिया और
उसे उतारने के
बाद गढ्ढे का
मुँह चट्टान से
बंद कर दिया।
वह पहाड़ बहुत
लंबा-चौड़ा था।
उसके दूसरी ओर
समुद्र था और
उस ओर का
क्षेत्र दुर्गम और निर्जन
था। चट्टान को
यथावत रख कर
और पति-पत्नी
के लिए शोक
करके सब लोग
वापस हुए।
मैं
बहुत ही डर
गया था और
सोचता था कि
ऐसी अमानुषिक रीति
जो दुनिया के
किसी देश में
नहीं है यहाँ
क्यों मानी जाती
है। किंतु जिससे
भी बात करता
वह इस रिवाज
का समर्थन करता
और मेरी बात
को गलत कहता
था। यहाँ तक
कि जब मैंने
बादशाह से बात
की तो उसने
कहा, 'सिंदबाद, यह
हमारे बुजुर्गों की
बहुत पुरानी चलाई
गई रस्म है।
मैं अगर चाहूँ
भी तो इसे
रोक नहीं सकता।
यह रस्म मुझ
पर भी लागू
होती है। भगवान
न करे अगर
रानी का देहांत
हो जाय तो
मुझे भी उसके
साथ जीते जी
दफन कर दिया
जाएगा।' मैंने पूछा कि
यह रस्म क्या
उन अन्य देशवासियों
पर भी लागू
होती है जो
यहाँ पर रहने
लगे हैं। बादशाह
मुस्कराने लगा और
बोला, 'यह रस्म
देशी-विदेशी सब
के लिए है।
इससे कोई व्यक्ति
बाहर नहीं समझा
जाता।'
इसके
बाद मैं बहुत
घबराया रहने लगा।
मैं बराबर सोचता
था कि कहीं
मेरी पत्नी मर
गई तो मुझे
भी ऐसी भयानक
मौत मरना पड़ेगा।
मैं इसीलिए अपनी
पत्नी के स्वास्थ्य
की बहुत देखभाल
करने लगा। किंतु
ईश्वर की इच्छा
कौन टाल सकता
है। कुछ समय
के बाद मेरी
पत्नी सख्त बीमार
हुई और कुछ
दिनों में काल
कवलित हो गई।
मुझ पर दुख
का पहाड़ टूट
पड़ा। मैं सर
पीटता था और
कहता था कि
मैं बेकार ही
उस द्वीप से
भागा। इस प्रकार
जीते जी गाड़े
जाने से कहीं
अच्छा था कि
नरभक्षी मुझे मार
कर खा जाते।
इतने
में बादशाह अपने
दरबारियों और सेवकों
के साथ मेरे
घर आया। नगर
के अन्य प्रतिष्ठित
व्यक्ति भी वहाँ
एकत्र हो गए
और उसे अर्थी
पर रख कर
लोग ले चले
और उनके पीछे
मैं भी रोता-पीटता आँसू बहाता
चला। दफन के
पहाड़ पर पहुँच
कर मैंने एक
बार फिर अपने
प्राण बचाने का
प्रयत्न किया। मैंने बादशाह
से कहा, स्वामी,
मैं तो यहाँ
का रहने वाला
नहीं हूँ। मुझे
यह कठोरतम दंड
क्यों दिया जा
रहा है। मुझ
पर दया करके
मुझे जीवन प्रदान
कर दीजिए। मैं
अकेला भी नहीं
हूँ, मेरे देश
में स्त्री-बच्चे
मौजूद हैं। उनका
खयाल करके मुझे
छोड़ दीजिए।
मैंने
हजार फरियाद की
किंतु बादशाह या
अन्य किसी व्यक्ति
को मुझ पर
दया न आई।
पहले मेरी पत्नी
की अर्थी को
गड्ढे में उतारा
गया फिर मुझे
एक दूसरी अर्थी
पर बिठाकर मेरे
साथ रोटियाँ और
पानी का घड़ा
रख कर उतार
दिया गया और
गड्ढे पर चट्टान
को वापस रख
दिया गया।
वह
कंदरा लगभग पचास
हाथ गहरी थी।
उसमें उतरते ही
वहाँ उठने वाली
बदबू से, जो
लाशों के सड़ने
से पैदा हो
रही थी, मेरा
दिमाग फटने लगा।
मैं अपनी अर्थी
से उठकर दूर
भागा। मैं चीख-चीखकर रोने लगा
और अपने भाग्य
को कोसने लगा।
मैं कहता था
'भगवान जो करता
है उसे अच्छा
ही कहा जाता
है। जाने मेरे
इस दुर्भाग्य में
क्या अच्छाई है।
मैं तीन-तीन
यात्रा के कष्टों
और खतरों से
भी चैतन्य नहीं
हुआ और फिर
मरने के लिए
चौथी यात्रा पर
चला आया। अब
तो यहाँ से
निकलने का कोई
रास्ता ही नहीं
है।' इसी प्रकार
मैं घंटों रोता
रहा।
किंतु
सुख हो या
दुख, मनुष्य को
भूख तो सताती
ही है। मैं
नाक-मुँह बंद
करके अपनी अर्थी
पर पहुँचा और
थोड़ी रोटी खाकर
पानी पिया। कुछ
दिनों इस तरह
जिया। रोटियाँ खत्म
हो गईं तो
सोचा कि अब
तो भूखा मरना
ही है। इतने
में ऊपर उजाला
हुआ। ऊपर की
चट्टान खोल कर
लोगों ने एक
मृत पुरुष और
उसके साथ उसकी
विधवा को गढ्ढे
में उतार दिया।
जब लोग चट्टान
बंद कर चुके
तो मैंने एक
मुर्दे की पाँव
की हड्डी उठाई
और चुपचाप पीछे
से आकर स्त्री
के सिर पर
उसे इतनी जोर
से मारा कि
वह गश खाकर
गिर पड़ी। मैंने
लगातार चोटें करके उसे
मार डाला और
साथ रखी हुई
रोटियाँ और पानी
लेकर अपने कोने
में चला गया।
दो-चार दिन
बाद एक आदमी
को मृत
पत्नी के साथ
उतारा गया। मैंने
पहले की तरह
आदमी को खत्म
करके उसकी रोटियाँ
और पानी ले
लिया। मेरे भाग्य
से नगर में
महामारी पड़ी और
रोज दो-एक
लाशें और उसके
साथ जीवित व्यक्ति
आने लगे जिन्हें
मारकर मैं उनकी
रोटियाँ ले लेता।
उसकी
एक
दिन मैंने वहाँ
ऐसी आवाज सुनी
जैसे कोई साँस
ले रहा हो।
वहाँ अँधेरा तो
इतना रहता था
कि दिन-रात
का पता नहीं
चलता था। मैंने
आवाज ही पर
ध्यान दिया तो
साँस के साथ
पाँवों की भी
हलकी आहट आई।
मैं उठा तो
मालूम हुआ कि
कोई चीज एक
तरफ दौड़ रही
है। मैं भी
उसके पीछे दौड़ा।
कुछ देर इसी
प्रकार दौड़ने के बाद
मुझे दूर एक
तारे जैसी चमक
दिखाई दी जो
झिलमिला-सी रही
थी। मैंने उस
तरफ दौड़ना आरंभ
किया तो देखा
कि एक इतना
बड़ा छेद है
जिसमें से मैं
बाहर जा सकता
हूँ।
वास्तव
में मैं पहाड़
के दूसरी ओर
के ढाल पर
निकल आया था।
पहाड़ इतना ऊँचा
था कि नगर
निवासी जानते ही नहीं
थे कि उधर
क्या है। उस
छेद में से
होकर कोई जंतु
मुर्दों को खाने
के लिए अंदर
आया करता था
और उसी के
सहारे मुझे बाहर
निकलने का रास्ता
मिला। मैं उस
छेद से बाहर
खुले आकाश के
नीचे आ निकला
और भगवान को
उनकी अनुकंपा के
लिए धन्यवाद दिया।
मुझे अब अपने
बच निकलने की
आशा हो गई
थी।
अब
मैने कुछ सोचना
आरंभ किया क्योंकि
अभी तक तो
मुर्दों की दुर्गंध
के कारण कुछ
सोच नहीं पाता
था। थोड़ा-थोड़ा
भोजन करके मैंने
इतने दिन तक
किसी प्रकार अपने
को जीवित रखा
था। मैं एक
बार फिर जी
कड़ा करके उस
मुर्दों की गुफा
में घुस गया।
बहुत-से मुर्दों
के साथ बहुमूल्य
रत्न भूषण, आदि
रख दिए जाते
थे। मैंने टटोल-टटोल कर
अंदाज से बहुत-से हीरे
जवाहरात इकट्ठे किए।
मुर्दों
के कफनों ही
में उनकी अर्थियों
की रस्सियों से
हीरे-जवाहरात की
कई गठरियाँ बाँधीं
और एक-एक
करके उन्हें बाहर
ले आया, जहाँ
से सामने समुद्र
दिखाई देता था।
मैंने समुद्र तट
पर दो-तीन
दिन फल फूल
खाकर बिताए।
चौथे
दिन मैंने तट
के पास से
एक जहाज गुजरता
देखा। मैंने पगड़ी
खोलकर उसे हवा
में उड़ाते हुए
खूब चिल्लाकर आवाजें
दीं। जहाज के
कप्तान ने मुझे
देख लिया। उसने
जहाज रोककर एक
नाव मुझे लेने
को भेजी। नाविक
लोग मुझसे पूछने
लगे कि तुम
इस निर्जन स्थान
पर कैसे आए।
मैंने उन्हें पूरा
वृत्तांत सुनाने के बजाय
कह दिया कि
दो दिन पहले
हमारा जहाज डूब
गया था, मेरे
सभी साथी भी
डूब गए, सिर्फ
मैं कुछ तख्तों
के सहारे अपनी
जान और कुछ
सामान बचा लाया।
वे लोग मुझे
गठरियों समेत जहाज
पर ले गए।
जहाज
पर कप्तान से
भी मैंने यही
बात कही और
उसकी कृपा के
बदले उसे कुछ
रत्न देने लगा
किंतु उसने लेने
से इनकार कर
दिया। हम वहाँ
से चल कर
कई द्वीपों में
गए। हम सरान
द्वीप से दस
दिन की राह
पर स्थित नील
द्वीप गए। वहाँ
से हम कली
द्वीप पहुँचे जहाँ
सीसे की खाने
हैं और हिंदुस्तान
की कई वस्तुएँ
ईख, कपूर आदि
भी होती हैं।
कली द्वीप बहुत
बड़ा है और
वहाँ व्यापार बहुत
होता है। हम
लोग अपनी चीजें
खरीदते-बेचते कुछ समय
के बाद बसरा
पहुँचे जहाँ से
मैं बगदाद आ
गया। मुझे असीमित
धन मिला था।
मैंने कई मसजिदें
आदि बनवाईं और
आनंदपूर्वक रहने लगा।
यह कहकर सिंदबाद
ने हिंदबाद को
चार सौ दीनारें
और दीं और
दूसरे रोज भी
आने को कहा।
अगले दिन सब
लोग फिर एकत्र
हुए और भोजनोपरांत
सिंदबाद ने अपनी
पाँचवीं यात्रा का वर्णन
शुरू किया।
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