उस
ने कहा कि
दोस्तो, मेरा पिता
बगदाद का रहनेवाला
था और खलीफा
हारूँ रशीद के
जमाने में था।
मैं भी उसी
समय पैदा हुआ।
मेरा पिता यद्यपि
धनवान तथा बड़े
व्यापारियों में गिना
जाता था तथापि
वह बहुत ही
विलासी और व्यसनी
था। इसीलिए व्यापार
की ठीक तरह
देख-भाल नहीं
कर पाता था
और उसमें काफी
गड़बड़ होती थी।
जब वह मरा
तो मुझे मालूम
हुआ कि न
जाने कितने लोगों
से उस ने
ॠण ले रखा
था। मुझे कठिनाई
तो बहुत हुई
किंतु मैं ने
परिश्रम से व्यापार
बढ़ाया और धीरे-धीरे सारे
ॠणदाताओं का रुपया
वापस कर दिया।
अब
मैं इत्मीनान से
अपनी कपड़े की
दुकान पर बैठ
कर व्यापार किया
करता था। एक
दिन मैं दुकान
पर बैठा था
कि एक सुंदरी,
जो खच्चर पर
सवार थी और
जिसके आगे एक
नौकर और पीछे
दो नौकरानियाँ चल
रही थीं, मेरी
दुकान के पास
आई। उस के
नौकर ने उसे
हाथ पकड़ कर
खच्चर से उतारा
और कहा, 'मालकिन,
आप बेकार ही
इतने सवेरे बाजार
में आ गईं।
अभी तो कोई
दुकान ही नहीं
खुली है, आप
कहाँ तक प्रतीक्षा
करेंगी।' उस ने
कहा, 'तुम ठीक
कहते हो, केवल
एक ही दुकान
खुली है। चलो
उसी में चलें।'
अतएव
वह मेरी दुकान
पर आ कर
बैठ गई। उस
ने देखा कि
मेरे और नौकर
के अलावा कोई
नहीं है तो
साफ हवा लेने
के लिए नकाब
थोड़ा-सा उठाया।
मैं ने ऐसा
रूप कभी नहीं
देखा था। मैं
ठगा-सा टकटकी
लगा कर उसे
बराबर देखता रहा।
उस ने मेरी
उत्कंठा देख कर
पूरा नकाब उलट
दिया और मैं
जी भर कर
उस के सौंदर्य
का रसास्वादन करने
लगा। कुछ ही
देर में अन्य
व्यापारी और ग्राहक
आ गए और
बाजार में भीड़
बढ़ गई तो
उस ने नकाब
फिर चेहरे पर
डाल दिया।
उस
ने मुझ से
कहा, 'मैं जरी
के कपड़े खरीदना
चाहती हूँ। आपके
पास ऐसे थान
हों तो दिखाइए।'
मैं ने कहा,
'मैं तो सादा
थान बेचता हूँ
लेकिन आप कहें
तो अन्य दुकानदारों
के यहाँ से
खुद आपके लिए
अच्छे-अच्छे थान
ला दूँ, इस
से आपका दुकान-
दुकान जा कर
कपड़े देखने और
खरीदने का कष्ट
बच जाएगा।' वह
इस बात से
बहुत प्रसन्न हुई
और देर तक
मुझ से इधर-उधर की
बातें करती रही।
कुछ
देर बाद मैं
कई दुकानों में
गया और बहुत-से जरी
के थान मैं
ने उस स्त्री
के आगे ला
कर रख दिए।
उस ने उसमें
कुछ थान पसंद
किए। उनका मूल्य
24,750 मुद्राएँ था। उस
ने यह दाम
मंजूर कर लिया
और मैं ने
थान उस के
सेवक को दे
दिए। उस स्त्री
ने विदा ली।
मैं उस के
सौंदर्य के मोह
में इतना किंकर्तव्यविमूढ़
हो गया था
कि उस से
थानों का मूल्य
माँगा ही नहीं
और उस ने
भी नहीं दिया।
मैं ने उस
से यह भी
नहीं पूछा कि
तुम रहती कहाँ
हो।
मुझे
फिक्र हुई कि
उस से रुपया
न मिला तो
मैं यह पौने
पच्चीस हजार कहाँ
से भरूँगा। दुकानदारों
को दिलासा दे
दिया कि मैं
उस स्त्री को
जानता हूँ और
दाम मिल जाएँगे।
लेकिन रात भर
चिंता में मुझे
नींद न आई।
दूसरे दिन मैं
ने व्यापारियों से
एक हफ्ते में
अदायगी करने का
वादा किया और
उन्होंने इसे मंजूर
कर लिया। एक
हफ्ते तक भी
उस स्त्री का
पता नहीं लगा।
आठवें
दिन वह सुंदरी
उसी खच्चर पर
उन्हीं सेवकों के साथ
मेरी दुकान पर
आई और बोली,
'तुम रुपए लेने
क्यों नहीं आए।
अब मुझे खुद
इन्हें ले कर
आना पड़ा। अब
मैं सारा पैसा
ले आई हूँ।
सर्राफ से परखवा
लो कि सिक्के
ठीक हैं या
नहीं।' मैं ने
सर्राफ को दिखाया
तो सब सिक्के
खरे निकले। वह
सुंदरी देर तक
मुझ से बातें
करती रही और
बातचीत से मालूम
हुआ कि वह
बहुत बुद्धिमती है।
मैं ने वस्त्र
व्यापारियों को बुला
कर उनका रुपया
दे दिया। वे
सब बड़े प्रसन्न
हुए और मेरे
व्यवहार से बाजार
में मेरी साख
बढ़ गई।
उस
सुंदरी ने कई
और थान माँगे
और मैं ने
व्यापारियों से ला
कर उसे दे
दिए लेकिन फिर
भी न उस
का नाम पूछा
न निवास स्थान।
उस के जाने
के बाद फिर
सोचने लगा कि
एक बार तो
वह रुपए दे
गई, अब अगर
न दिए तो
मैं बरबाद हो
जाऊँगा। फिर सोचता
कि यह असंभव
है कि वह
धोखा करे, वह
तो मेरे शील
की परीक्षा ले
रही है। उसे
मेरे हानि-लाभ
और प्रतिष्ठा का
खयाल जरूर होगा।
वह तो जानती
ही है कि
मेरी साख पर
ही व्यापारियों ने
कपड़े के थान
दिए हैं। कभी
मुझे अपनी संभावित
हानि का ध्यान
आता और कभी
उस के सौंदर्य
का ध्यान करके
सारा दुख भूल
जाता।
इस
बार उस ने
बहुत दिनों तक
रुपए न पहुँचाए
और बजाज लोग
बेसब्र हो कर
मुझ से रुपयों
का तकाजा करने
लगे। मैं अपनी
आमदनी में से
थोड़ा-थोड़ा उन्हें
भिजवा कर उनकी
तसल्ली कर देता
था। एक महीने
बाद वह फिर
अपने सेवकों के
साथ आई और
उस ने पिछली
बार के खरीदे
कपड़ों का मूल्य
दे दिया। फिर
उस ने मुझ
से पूछा कि
तुम्हारा विवाह हो चुका
है या नहीं।
मैं ने कहा,
अभी तक नहीं
हुआ। उस ने
अपने नौकर को
इशारा किया और
वह मुस्कुराता हुआ
उठा और मुझे
एक तरफ ले
जा कर बोला,
'तुम क्या समझते
हो कि मालकिन
तुम से कपड़े
खरीदने के लिए
आती हैं। मैं
जानता हूँ कि
तुम उन पर
आसक्त हो लेकिन
तुम ने सभी
से यह बात
छुपाई है। अब
यह जान लो
कि वह भी
तुम से प्रेम
करती है इसीलिए
तुम्हारे विवाह के बारे
में पूछा। तुम
इतने बुद्धू निकले
कि उस का
इशारा भी नहीं
समझे।' मैं ने
कहा, 'भाई, मैं
ने तो जब
पहली ही बार
तुम्हारी मालकिन को देखा
तो उस पर
मर मिटा। किंतु
मुझे यह आशा
नहीं थी कि
वह भी मुझ
से प्रेम करेंगी।
अब तुम इस
मामले में अगर
मेरी सहायता करोगे
तो मैं आजीवन
तुम्हारा अहसान नहीं भूलूँगा।'
वह
मेरे पास से
उठ कर अपनी
मालकिन के पास
पहुँचा और उसे
मेरी बात बताई।
वह सुंदरी अपनी
सेविकाओं को कुछ
इशारा कर के
उठ खड़ी हुई
और फिर मुझ
से बोली, 'मैं
अपने नौकर को
तुम्हारे पास भेजूँगी,
वह जैसा कहे
वैसा करना।' यह
कह कर वह
चली गई। मैं
कई दिन तक
नौकर की बाट
देखता रहा। जब
वह आया तो
मैं ने उस
से उस सुंदरी
की कुशलक्षेम पूछी।
उस ने कहा
कि तुम बड़े
भाग्यवान आदमी हो,
वह तुम पर
अत्यधिक मोहित हैं, उनका
बस चलता तो
अभी तुम्हारे पास
पहुँच जातीं।
मैं
ने कहा, वह
बहुत शीलवती जान
पड़ती हैं कि
इतने संयम से
काम लेती हैं।
उस ने कहा,
'तुम्हें इसलिए उनके शील
पर आश्चर्य हो
रहा है कि
उन्हें जानते नहीं हो।
वह खलीफा हारूँ
रशीद की पत्नी
जुबैदा की सहेली
हैं। बीबी उन्हें
बहुत प्यार करती
हैं, उन्होंने उनके
बचपन ही से
उन्हें पाला-पोसा
है। वह जनानखाने
की सारी व्यवस्था
करती हैं। जुबैदा
कई बार उन
से विवाह करने
को कह चुकी
हैं। अब उस
ने कहा कि
एक व्यापारी है,
आप अनुमति दें
तो उस से
विवाह कर लूँ।
बीबी ने कहा,
अच्छी बात है
लेकिन उस व्यापारी
को एक बार
देखने के बाद
ही मैं शादी
के लिए अनुमति
दूँगी। इसीलिए मैं तुम्हें
लेने आया हूँ।'
मैं
ने कहा, मैं
तैयार हूँ, जब
भी चाहो मुझे
ले चलो। उस
ने कहा, 'ठीक
है। लेकिन तुम
जानते हो कि
खलीफा के महल
में कोई बाहरी
आदमी नहीं जा
सकता। मैं तुम्हें
और किसी तरकीब
से ही ले
जाऊँगा। तुम आज
शाम को नदी
के किनारे बनी
फलाँ मस्जिद में
मेरी राह देखना।'
मैं ने बड़ी
प्रसन्नता से उस
की बात स्वीकार
की।
शाम
को मैं उस
मस्जिद में जा
कर बैठ गया।
थोड़ी ही देर
में एक डोंगी
आ कर किनारे
से लगी। उसमें
कई संदूक रखे
थे। मल्लाहों ने
डोंगी किनारे से
बाँधी और एक
काफी लंबा संदूक
ला कर मस्जिद
में रख दिया
और नाव पर
चले गए। नाव
पर आया हुआ
एक नौकर वहीं
रह गया। कुछ
देर में वह
सुंदरी वहाँ आई।
मैं ने कहा,
'मेरे लिए क्या
हुक्म है।' वह
बोली, ' बाद में
बातें होंगी, इस
समय बात करने
की फुरसत नहीं
है। तुम सिर्फ
इस लंबे संदूक
में जा कर
लेटे रहो।' मैं
संदूक में लेट
रहा तो उस
ने संदूक में
ताला लगा दिया
और सेवक से
कहा कि इसे
नाव पर पहुँचा
दो। नौकर ने
मल्लाहों को पुकारा
और वह संदूक,
जिसमें मैं था,
नाव पर पहुँचा
दिया। वह सुंदरी
भी नाव पर
बैठ गई।
मैं
संदूक के अंदर
पड़ा-पड़ा अपने
भाग्य को कोसने
लगा कि अच्छी-खासी जिंदगी
छोड़ कर किस
मुसीबत में फँस
गया। नाव खलीफा
के महल के
मुख्य द्वार के
समीप जा लगी।
सारे संदूक द्वार
पर पहुँचा दिए
गए। द्वारपालों के
पास सारी चाबियाँ
थीं और देखे-भाले बगैर
कोई चीज अंदर
नहीं जा सकती
थी। प्रधान द्वारपाल
उस समय सो
रहा था। उसे
जगाया गया तो
वह बहुत झुँझलाया
और कहने लगा
कि मैं संदूकों
की एक-एक
चीज देखूँगा। सुंदरी
ने चुपचाप अपने
नौकरों से कहा
कि सारे संदूक
द्वारपाल को दिखाए
बगैर अंदर ले
जाओ, ऐसा न
हो कि वह
संदूकों को खोल
कर देखे और
भेद खुल जाए।
किंतु द्वारपालों ने
ऐसा नहीं होने
दिया। वे सारे
संदूक प्रधान द्वारपाल
के पास ले
गए। सबसे पहले
वही संदूक रखा
जिसमें मैं था।
सुंदरी की प्रधान
द्वारपाल से बहस
होने लगी। मैं
इस बहस को
सुन कर अंदर
ही अंदर सूखा
जाता था। यह
तो स्पष्ट ही
था कि अगर
मुझे संदूक में
पाया गया तो
खलीफा मुझे अवश्य
मृत्युदंड देंगे।
लेकिन
मेरी प्रेमिका ने
प्रधान द्वारपाल को संदूक
नहीं खोलने दिया।
वह बोली, 'तुम
अच्छी तरह जानते
हो कि जुबैदा
की आज्ञा के
बगैर कोई चीज
अंदर नहीं ले
जाती। इस संदूक
में बड़े व्यापारियों
से खरीदा हुआ
बहुत-सा कीमती
और नाजुक सामान
रखा है तुम
उसे निकालोगे तो
वे चीजें टूट-फूट जाएँगी।
इस के अतिरिक्त
एक पतले काँच
के घड़े में
मक्के से लाया
हुआ जमजम का
पवित्र जल है।
वह काँच का
घड़ा अगर टूट
गया या अन्य
वस्तुएँ नष्ट हो
गईं तो तुम्हें
इसकी जवाबदेही करनी
पड़ेगी और जुबैदा
के हाथों तुम्हें
कठोर दंड मिलेगा।'
प्रधान
द्वारपाल इस बात
से डर गया।
वह चुप हो
गया। सुंदरी ने
गुलामों से सारे
संदूक अंदर पहुँचाने
के लिए कहा
और उन्होंने ऐसा
ही किया। किंतु
अंदर जा कर
भी मेरी मुसीबत
खत्म नहीं हुई।
संदूकों के खुलने
के पहले ही
अचानक वहाँ खलीफा
आ गया। उस
ने बहुत-से
संदूक देख कर
पूछा कि इन
में क्या है,
और न जाने
उसे क्या सूझी
कि हुक्म दिया
कि सारे संदूकों
का सामान मुझे
दिखाया जाए। सुंदरी
ने बड़े बहाने
बनाए लेकिन खलीफा
टस से मस
न हुआ। विवशतः
उस ने एक
एक संदूक खोल
कर दिखाना शुरू
किया मेरा संदूक
इस आशा में
आखिर तक डटा
रहा और उस
ने अंतिम संदूक,
जिसमें मैं बंद
था, खोल कर
दिखाने का आदेश
दिया।
मित्रो,
आप लोग सोच
सकते हैं कि
उस समय भय
से मेरी क्या
दशा हुई होगी।
अगर कोई मुझे
काटता तो बदन
से खून न
निकलता। किंतु उस सुंदरी
ने बड़ी समझदारी
से काम लिया।
उस ने हाथ
जोड़ कर कहा,
'सरकार, इस संदूक
के खुलवाने का
आग्रह न करें।
इसमें जुबैदा के
काम की खास
चीजें हैं। जुबैदा
की अनुमति के
बगैर मैं इसे
नहीं खोल सकती।'
खलीफा ने हँस
कर कहा, अच्छा
फिर न खोल
इसे।' और यह
कह कर वह
चला गया। मेरी
जान में जान
आई।
सुंदरी
ने सेवकों से
सारे संदूक अपने
निवास कक्ष में
पहुँचवाए। जब सारे
नौकर चले गए
तो उस ने
मेरा संदूक खोला
और मुझे एक
जीना दिखा कर
कहा कि ऊपर
के कमरे में
बैठो, मैं थोड़ी
ही देर में
आऊँगी। मैं ऊपर
गया तो उस
ने जीने का
ताला लगा दिया।
ताला लगाए दो
क्षण भी नहीं
हुए थे कि
खलीफा फिर वहाँ
आ गया और
उसी संदूक पर
बैठ कर उस
स्त्री से बहुत
देर तक नगर
के बारे में
पूछताछ करने लगा।
वह सुंदरी काफी
देर तक खलीफा
से वार्तालाप करती
रही। जब खलीफा
अपने शयन कक्ष
में चला गया
तो वह ऊपर
आई और बोली,
'तुम पर मेरे
कारण बड़े कष्ट
पड़े, किंतु अब
तुम आराम से
रहो। सुबह तुम्हें
जुबैदा के पास
ले चलूँगी।' फिर
हम दोनों ने
भोजन किया और
वह चली गई।
मैं
बड़े आनंद से
उस भव्य प्रासाद
में सोया। मुझे
बड़ी प्रसन्नता थी
कि यद्यपि यहाँ
तक पहुँचने में
बड़ी कठिनाइयाँ और
खतरे उठाए किंतु
अब तो किसी
बात का खटका
ही नहीं है।
मुझे यह भी
खुशी थी कि
इतनी सुंदर और
बुद्धिमती स्त्री स्वयं मेरे
प्रेम में ग्रस्त
है। सुबह वह
मेरे पास आई
और मुझ से
बोली कि चलो
मैं तुम्हें जुबैदा
के पास ले
चलती हूँ। इस
के साथ उस
ने मुझे खलीफा
की पत्नी से
बातचीत और व्यवहार
करने के तौर-तरीके भी बताए।
उस ने वे
सभी संभव प्रश्न
जो जुबैदा मुझ
से पूछ सकती
थी बताए और
यह भी बताया
कि उनका क्या
उत्तर दूँ। उस
ने मुझे एक
स्थान पर ले
जा कर खड़ा
कर दिया और
कहा कि जुबैदा
अपने शयनागार से
निकल कर यहीं
बैठती है। यह
कह कर वह
चली गई। वह
कमरा इतना शानदार
था कि मैं
चकराया-सा खड़ा
रह गया और
आँखें फाड़-फाड़
कर चारों ओर
देखने लगा।
सबसे
पहले बीस दासियाँ
आईं। वे उस
तख्त के सामने
जो जुबैदा के
बैठने के लिए
बिछा था दो
पंक्तियों में खड़ी
हो गईं। फिर
बीस अन्य दासियों
के मध्य हंस
जैसी चाल से
चलती हुई जुबैदा
आई और तख्त
पर बैठ गई।
वह गहने और
भारी पोशाक से
इतनी लदी हुई
थी कि मंद
गति ही से
चल सकती थी।
वह उसी रत्नजटित
सिंहासन पर बैठ
गई। सब दासियाँ
अपने-अपने उचित
स्थान पर खड़ी
हो गईं और
मेरी प्रेमिका, जो
जुबैदा की खास
मुसाहिब थी, बड़ी
आन-बान से
जुबैदा के दाहिनी
ओर खड़ी हो
गई।
अब
एक दासी ने
मुझे इशारा किया
कि झुक कर
सलाम करो। मैं
ने तख्त के
आगे जा कर
अपने सिर को
इतना झुकाया कि
वह जुबैदा के
पाँव से लग
गया। मैं बराबर
इसी दशा में
रहा और सिर
तभी उठाया जब
जुबैदा ने मुझ
से उठाने के
लिए कहा। उस
ने मेरा नाम,
पेशा, कुटुंब आदि-आदि के
बारे में प्रश्न
किए जिनका मैं
ने यथोचित उत्तर
दिया। जुबैदा मेरी
शक्ल-सूरत देख
कर और मेरी
बातें सुन कर
प्रसन्न हुई। उस
ने कहा, 'मैं
चाहती हूँ कि
तुम्हारा विवाह अपनी मुँहबोली
बेटी से करूँ।
मैं विवाह की
तैयारियों के लिए
आदेश देती हूँ।
दस दिन बाद
तुम्हारा विवाह हो जाएगा।
दस दिन तक
तुम इसी तरह
होशियारी से रहो।
इसी अवधि में
मैं खलीफा से
तुम्हारे विवाह के लिए
अनुमति भी ले
लूँगी।' '
मैं
जुबैदा से विदा
ले कर अपने
कमरे में चला
गया। मेरी प्रेमिका
कई बार मौका
निकाल कर मेरे
पास आती और
बातचीत करके चली
जाती। मैं बड़ी
सुख-सुविधा से
वहाँ रहने लगा।
जुबैदा ने इस
अवधि में खलीफा
से विवाह की
अनुमति भी ले
ली और शादी
के समारोह के
लिए बहुत-सा
धन दिया। रोज
ही वहाँ गाना-बजाना और तरह-तरह के
खेल-तमाशे होने
लगे। दसवें दिन
हम दूल्हा-दुल्हन
ने नहा-धो
कर मूल्यवान वस्त्र
पहने। शाम को
दासियों ने हम
लोगों के सामने
नाना प्रकार के
व्यंजन खाने के
लिए परोसे। एक
रकाबी में वही
लहसुन का व्यंजन
था जो आप
लोगों ने मुझे
खिलाया है। मुझे
वह बहुत अच्छा
लगा और मैं
ने अन्य चीजों
के बजाय उसे
अधिक खाया। दुर्भाग्य
से खाने के
बाद मैं ने
अच्छी तरह से
हाथ नहीं धोए,
यूँ ही रूमाल
से हाथ पोंछ
लिए।
रात
और बीती तो
दासियों ने वहाँ
बहुत-से दीए
और मोमबत्तियाँ जलाईं
और देर तक
नाच और गाना
बजाना होता रहा।
जब रात काफी
ढल गई तो
दासियों ने हम
दोनों को शयनागार
में पहुँचा दिया।
मैं ने अपनी
पत्नी को जब
अपनी गोद में
खींचना चाहा तो
वह बड़े क्रुद्ध
स्वर में चीखने-चिल्लाने लगी। सारी
दासियाँ यह देखने
के लिए दौड़ी
आईं कि क्या
हो गया। मैं
तो इतना घबरा
गया था कि
उस से पूछ
ही न सका
कि क्या बात
हो गई। दासियों
ने पूछा कि
मालकिन, ऐसी क्या
बात हो गई
कि आप इतनी
नाराज हैं, हम
से कुछ भूल
हो गई हो
तो बताइए। मेरी
पत्नी चीख कर
बोली, 'इस अभागे
को मेरे पास
से तुरंत हटाओ।'
मैं ने डरते-डरते पूछा,
'सुंदरी, ऐसा क्या
अपराध मुझ से
हुआ कि आप
मुझे अपने पास
ही से हटा
रही हैं?' उस
ने कहा, 'तुम
दुष्ट भी हो
और असभ्य भी।
तुम ने लहसुन
का पुलाव खाया
और हाथ भी
अच्छी तरह नहीं
धोए। ऐसे गंदे
आदमी से मुझे
हार्दिक घृणा है।
तुम्हारे हाथों की बदबू
से अभी तक
मेरा दिमाग फटा
जा रहा है।'
यह
कह कर उस
ने दासियों को
आज्ञा दी कि
मुझे जमीन पर
गिरा कर दबाए
रहें। दासियों ने
ऐसा ही किया।
उस सुंदरी ने
हाथ में चमड़े
का चाबुक ले
कर मुझे मारना
शुरू किया और
तब तक मारती
रही जब तक
खुद पसीने-पसीने
न हो गई।
फिर उस ने
दासियों से कहा
कि इसे दारोगा
के पास ले
जाओ ताकि वह
इसका दाहना हाथ
जिससे इसने पुलाव
खाया था काट
डाले। मैं अपने
मन में पश्चात्ताप
करने लगा कि
इतने छोटे- से
अपराध पर मेरा
हाथ काट डाला
जाएगा, इतनी मार
मेरे लिए यथेष्ट
नहीं समझी गई,
वह बावर्ची जिसने
उसे पकाया था
और वह दासी
जिसने मेरे सामने
वह रकाबी रखी
थी ऐसा करने
के पहले ही
क्यों न मर
गए।
मेरी
पत्नी की निष्ठुरता
तो जैसी की
तैसी रही किंतु
हर एक बाँदी
मेरी दशा से
दुखी होने लगी।
उन सभी ने
मेरी पत्नी से
कहा, 'मालकिन, अब
गुस्सा थूक दो।
इस के अपराध
और मूर्खता में
संदेह नहीं किंतु
यह बेचारा तुम्हारी
प्रतिष्ठा और तुम्हारी
सुरुचि को क्या
जाने। इसे काफी
सजा मिल चुकी
है। अब इस
के अपराध क्षमा
हों।' वह बोली,
'हरगिज नहीं। इसे ऐसी
सजा मिलनी चाहिए
कि यह हमेशा
याद रखे कि
लहसुन खाने के
बाद हाथ-धोना
जरूरी होता है।
इस के पास
कुछ ऐसी निशानी
होनी चाहिए जिससे
यह अपने अपराध
को हमेशा याद
रखे और फिर
यह अपराध न
करे।' दासियों ने
फिर एक स्वर
से अनुनय की
विनय की तो
वह चुप हो
रही और उस
कमरे से उठ
कर चली गई।
सारी
दासियाँ भी उस
के पीछे चली
गईं। मुझे उसी
कमरे में बंद
कर दिया। दस
दिन तक मैं
वहीं बंद रहा।
कोई दासी या
नौकर-चाकर मेरी
पत्नी के क्रोध
से डर से
मेरे पास फटकता
भी नहीं था,
सिर्फ एक बुढ़िया
दिन में दो
बार आ कर
खाने-पीने के
लिए मुझे कुछ
दे जाती थी।
एक दिन उस
से मैं ने
अपनी पत्नी का
हाल पूछा। उस
ने कहा, 'वह
तो बीमार पड़ी
है। तुम्हारे हाथ
की लहसुन की
बदबू उस से
बर्दाश्त नहीं हुई।
तुम ने लहसुन
का पुलाव खा
कर हाथ क्यों
नहीं धोए?' मैं
ने कहा, 'अब
तो जो हो
गया वह हो
ही गया।' मैं
सोचने लगा कि
इन स्त्रियों की
नजाकत की भी
हद नहीं है
और क्रोध की
भी। फिर भी
आश्चर्य यह था
कि मेरे मन
से उस का
प्रेम न गया
और मैं उस
कीएक झलक पाने
के लिए तड़पने
लगा।
दस
दिन बाद बुढ़िया
ने बताया, तुम्हारी
पत्नी स्वस्थ हो
गई और नहाने
के लिए हम्माम
को गई है।
उस ने कहा
कि स्नान के
बाद वह यहाँ
आएगी। शायद आज
न आ सके
लेकिन कल जरूर
आएगी।
दूसरे
दिन वह मेरे
पास आई किंतु
उस का क्रोध
शांत न हुआ
था। वह बोली
कि मैं तुझे
प्यार करने को
नहीं, दंड देने
को आई हूँ।
यह कह कर
उस ने फिर
दासियों को आज्ञा
दी कि मुझे
जमीन पर गिरा
दें। उन्होंने मुझे
जमीन पर गिरा
कर मुझे अच्छी
तरह दबा रखा
और मेरी निर्दयी
पत्नी ने छुरी
ले कर मेरे
दोनों हाथों और
दोनों पावों के
अँगूठे काट डाले।
एक दासी ने
तुरंत ही किसी
विशेष वृक्ष की
पिसी हुई जड़
मेरे घावों पर
लगा दी जिससे
खून बहना बंद
होगा किंतु पीड़ा
के कारण मैं
अचेत हो गया।
जब मुझे होश
आया तो उन्होंने
मुझे थोड़ी मदिरा
पिलाई जिससे मेरे
शरीर में शक्ति
आ गई।
मुझे
फिर भी अपनी
पत्नी की खुशामद
करनी ही थी
क्योंकि उस की
कृपा के बगैर
मेरी जान न
बचती। मैं ने
उस से कहा
कि अब मैं
कभी ऐसा दुर्गंधयुक्त
भोजन नहीं करूँगा
और करूँगा भी
तो एक सौ
चालीस बार हाथ
धोऊँगा। उस ने
कहा, 'फिर मैं
भी उस कष्ट
को जो तुम्हारे
कारण मुझे हुआ
है, भूल जाऊँगी।
अतः हम लोग
आनंदपूर्वक पति-पत्नी
की तरह रहने
लगे। किंतु मुझे
यह बड़ा कष्ट
था कि शाही
महल में मुझे
छुप कर रहना
पड़ता था। मेरी
पत्नी मेरे कहे
बगैर ही मेरे
दुख को समझ
गई और उस
ने एक दिन
जुबैदा से यह
बात कही तो
उस ने मेरे
अलग घर में
रहने के लिए
पचास हजार अशर्फियाँ
दीं। मेरी पत्नी
ने मुझे दस
हजार अशर्फी दे
कर कहा कि
नगर में कोई
अच्छा मकान खरीद
लो ताकि हम
वहाँ रहें।
मैं
ने शहर में
एक अच्छा मकान
खरीद कर उसे
बहुमूल्य वस्तुओं से सजाया
और कुछ दास-दासियाँ भी मोल
लीं। हम दोनों
सुखपूर्वक रहने लगे।
किंतु कुछ समय
के बाद ही
मेरी पत्नी बीमार
हो कर मर
गई। मैं ने
दूसरा विवाह किया,
कुछ दिनों के
बाद वह स्त्री
भी मर गई।
फिर मैं ने
तीसरा विवाह किया
किंतु मेरी तीसरी
पत्नी भी काल
कवलित हो गई।
मैं ने विचार
किया कि यह
घर ही मनहूस
है, इसमें रहना
नहीं चाहिए। इस
के अलावा लगातार
तीन पत्नियों की
मृत्यु से मैं
खिन्न भी था।
इसलिए मैं मकान
को बेच-बाच
कर देश-विदेश
के व्यापार को
निकला। पहले फारस
गया, वहाँ से
समरकंद पहुँचा और वहाँ
से यहाँ आया
हूँ।
अनाज
के व्यापारी ने
यह कह कर
बादशाह से पूछा
कि कहानी कैसी
है। उस ने
कहा, ईसाई की
कहानी से तो
अच्छी है किंतु
कुबड़े की कहानी
को नहीं पहुँचती।
अब यहूदी हकीम
ने कहानी शुरू
की।
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