शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2018

एक शहर की मौत


डा0 अरविन्द दुबे
आज उस शहर की अन्तिम निशानी भी पानी में समा गर्इ। यह उसके घंटाघर के ऊपर लगे तड़ित चालक (ऊंची इमारतों को आकाशीय विद्युत से बचाने का यंत्र) की नोंक थी। वैसे तो यह अपने आप में कोर्इ खास चीज नहीं थी पर परिस्थितियों के चलते यह उस मरते शहर की पहचान बन गर्इ थी। हर रोज कुछ तमाशबीन उस डूबते हुए शहर को देखते जुड़ते, आपस में बातें करते, अरे अभी तो उस घंटाघर का गुम्बद दिख रहा है.....लो आज उसका आखिरी कंगूरा भी डूबा...अब तो बस तड़ित चालक का सरिया ही बचा है....

बच्चों के लिए तो तड़ित चालक का वह सरिया, वह डूबते कंगूरे ही पूरा एक शहर था क्योंकि असली शहर तो उन्होंने कभी देखा ही नहीं था। किस्से कहानियों में उन्होंने सुना था कि एक जमाने में यह बेहद जिंदा शहर था। यह शहर कभी सोता नहीं था, यहां हर पल जिंदगी धड़कती थी। यह शहर समुद्री व्यापार का बहुत बड़ा केन्द्र था। यहां लोगों के सपने रहते थे, सपने जगाने वाले रहते थे। वे लोग रहते थे जिन्हें सपने दिखाने की कला आती थी। वे लोग अभिनेता कहे जाते थे। लोग उनके जैसा बनने की सोचते, वैसे ही व्यवहार करते, उसी तरह सपने देखते और सपने पूरे होने पर निराश होते। इसी तरह उनकी जिंदगी कट जाती थी।

वह शहर बहुतों के लिए वैसा ही था जैसा कि अस्पताल के आपात चिकित्सा कक्ष में पड़ा कोर्इ असाध्य रोगी होता है, जिसकी मौत तो निश्चित हो चुकी होती है पर उसकी चलती सांसें उसके होने का अहसास दिलाती रहतीं हैं। शहर के मरने का यह सिलसिला तो एक ताब्दी पहले शुरू हुआ था, तबसे यह शहर धीरे-धीरे किश्तों में मर रहा था। पहले तो सिर्फ लोग बातें करते थे, यही हाल रहा.....समय रहते लोग चेते तो यह शहर एक दिन खत्म हो जाएगा.... इसके जैसे समुद्र के किनारे बसे बहुत सारे शहर कर्इ देश एक याद बन कर रह जाएंगे।

भविष्यवाणियां होती रहीं, सभाएं होतीं रहीं, चिंता करने के नाटक किए जाते रहे पर कुछ ठोस नहीं हुआ। लोग शहर की ओर आती अदृश्य मौत के चरचे करते, योजनाएं बनाते। इस तरह के हर शहर.....हर देश के लिए योजनाएं बनती पर एक आदमी की मौत की तरह इन हरों की मौत हर दशक इनके और करीब आती जाती। पिछले पचास सालों से तो सिर्फ उस शहर की लाश ही पड़ी थी जिस पर धीरे-धीरे समुद्री पानी की परतें चढ़ती जा रहीं थीं। इस शहर की मौत इतने धीरे-धीरे आर्इ थी कि लोग उसे मरता देखने के अभ्यस्त हो गए थे। उस शहर का हर रोज मरना उनके रोज के अनुभवों का एक जरूरी हिस्सा बन गया था। लोग जब फुरसत में होते तो इस शहर की मौत की चर्चा कर लेते मानों यह उनके लिए समय काटने का कोर्इ गल हो। वैसे तो यह शहर उनके लिए तभी मर गया था जब शहरके निचले हिस्सों को खाली कर देने के सरकारी आदेश हुए थे। हर साल समुद्र का पानी शहर में चढ़ता जाता तो लोग ऊंची जगह की ओर खिसकते जाते। अब तो पुराना पूरा का पूरा शहर समुद्र के पानी में डूब चुका है और शहर के पास की पहाड़ी पर कंक्रीट की कालोनियां कुकरमुत्तेां की तरह उग आर्इं हैं। यही एक अकेला शहर नहीं था जो धीरे-धीरे मर रहा था। दुनिया के विभिन्न भागों में समुद्र के तटों पर ऐसे बहुत सारे शहर मर रहे थे या मरने की विभिन्न स्थितियों में थे। ज्यादातर लोग इसे प्राकृतिक आपदा समझते थे पर बहुत सारे लोग थे जो जानते थे कि यह इंसानी भूलों का खामियाजा है जो इन हरों को भुगतना पड़ रहा है। वे जानते थे कि इंसान की पर्यावरण से छेड-छाड़ की अति ने ही विवश किया है इन हरों को अकाल मृत्यु मरने के लिए, मगर कैसे?

विनायक भी आज इस मरते शहर की आखिरी झलक देखने के लिए गया था वह वहां चारों ओर हरहराते समुद्री पानी के अलावा कुछ देख नहीं पाया। लोगों ने एक ओर इशारा करके बताया कि पिछले महीने तक उस बिन्दु पर कुछ दिखार्इ दे रहा था। घर में घुसते ही विनायक दादू से टकरा गया। विनायक के दादू देश की एक वैज्ञानिक संस्था में वैज्ञानिक थे। रिटायरमेन्ट के बाद अब तो ज्यादातर घर पर ही रहते हैं, कोर्इ किताब पढ़ते हैं या फिर विनायक से बतियाते हैं। विनायक को भी दादू का साथ बहुत भाता है।

कहां से रही है सवारी, घर में घुसते ही दादू ने पूछ लिया।
गया था समुद्र के किनारे तक
अच्छा मरता हुआ पुराना शहर देखने, वहां अभी भी कुछ दिखता है?
कुछ भी तो नहीं, सिवाय पानी के
तो इसका मतलब एक और शहर भी इंसान की करतूतों की भेंट चढ़ गया।
क्या मतलब दादू, इंसान की करतूतों के?”
हां
इसमें भला इंसान की क्या करतूत? सब जानते हैं कि समुद्र का तल हर बरस बढ़ रहा है और शहर धीरे-धीरे डूब रहा है और फिर यह प्रक्रिया कोर्इ सौ साल से चल रही है।
यही तो बात है तुम ने कभी गौर से सोचा ही नहीं कि समुद्रों का स्तर कैसे बढ़ने लगा? आज जिस घटना को तुम इस 23वीं ताब्दी में देख रहे हो वह तो बीसवीं ताब्दी के खत्म होते ही शुरू हो गर्इ थी।“
क्या मतलब दादू?”
तुम ग्रीन हाउस प्रभाव जानते हो विनायक?”
थोड़ा-थोड़ा
थोड़ा-थोड़ा कितना?”
वातावरण में कुछ गैसें होती हैं जिन्हें हम ग्रीन हाउस गैसें कहते हैं।
बिल्कुल सही, वातावरण में पाई जाने वाली कार्बन डार्इआक्साइड, मीथेन, नाइट्रस आक्साइड, जल वाष्प्, ओजोन और क्लोरोफ्लोरोकार्बन मुख्यत: ग्रीन हाउस प्रभाव पैदा करने वाली गैसें हैं।
दादू यह क्लोरोफ्लोरोकार्बन क्या होता है?”
यह दरअसल बीसवीं ताब्दी के फ्रिज, एयरकंडीशनर या प्रषीतन में प्रयोग होने वाले पदार्थ हैं। खास बात यह है कि यह गैसें एक बार वातावरण में पहुंच जाएं तो बरसों और ताब्दियों तक नष्ट नहीं होती, ज्यों की त्यों बनी रहती हैं।
पर इसका पुराने शहरके डूबने से क्या रिश्ता है?”
रिश्ता है विनायक। इन गैसों की परतों में से होकर सुदूर अंतरिक्ष के विकरण और ऊष्मा तो हम तक सकती है पर धरती पर से पैदा ऊष्मा इन गैसों को भेद कर सुदूर अंतरिक्ष में नहीं जा पाती है।
पर दादू इसे ग्रीन हाउस प्रभाव क्यों कहते हैं?”
विनायक ठंडी, जगहों पर पौधे उगाने के लिए बडे़ बड़े ग्रीन हाउस बनाए जाते हैं। इन ग्रीन हाउस में पौधे कांच के या प्लास्टिक के बने शे में रखे जाते हैं। यह कांच या प्लास्टिक बाहर की गर्मी और धूप अंदर तो आने देता है पर अंदर की गर्मी बाहर नहीं जाने देता है। यही काम पृथ्वी के वातावरण के लिए यह गैसें करतीं हैं। अत: इन गैसों के इस गर्मी बचाए रखने के प्रभाव को ग्रीन हाउस प्रभाव कहा जाने लगा।
यह तो और भी अच्छा है दादू। अगर धरती की सारी गर्मी जाकर सुदूर अंतरिक्ष में विलीन हो जाती उसे धरती पर रोकने वाली यह गैसें होतीं तो धरती तो एक दम ठंडी हो जाती।
बिल्कुल सही विनायक, अगर ऐसा नहीं होता तो धरती इतनी ठंडी हो जाती कि उस पर जीवन पनप ही नहीं सकता था। इन्हीं गैसों की वजह से पृथ्वी का तापक्रम जीने लायक रहता है।
लो और अभी आप कह रहे थे कि .....”
पूरी बात तो सुनो विनायक। ग्रीन हाउस गैसों का यह गुण, जिसने पृथ्वी को जीने लायक बनाया, वही इंसान की छेड़-छाड़ की वजह से पृथ्वी के लिए मुसीबत बन गया। इस ग्रीन हाउस गैसों में सबसे असरदार गैस है कार्बन डाइआक्साइड और इस कार्बन डार्इ आक्साइड का सबसे बड़ा हिस्सा आता है उस र्इंधन से जो बीसवीं, इक्कीसवीं  सदी में इंसान ने खूब इस्तेमाल किया था।
मतलब कोयला, लकड़ी, पेट्रोल, डीजल?”
हां विनायक इंसान ने इन र्इंधनों को तब इतना अधिक इस्तेमाल किया कि उसके पास पेट्रोल बचा कोयला लकड़ी।
मतलब दादू तब लोग सौर ऊर्जा और नाभिकीय ऊर्जा प्रयोग नहीं करते थे”, विनायक ने ताज्जुब ने पूछा।
नहीं विनायक उस समय यह उतने प्रचलित ईंधन नहीं थे। सौर ऊर्जा का प्रयोग होने लगा था पर इंसान आसानी से इन्हें अपनाने को तैयार नहीं था। वह तब इसे गैर परम्परागत ऊर्जा स्रोत कहता था।
ताज्जुब है
हां आज तो तुम्हें ताज्जुब लगेगा ही।
पर दादू हमारे पुराने शहर के डूबने का इससे क्या मतलब?”
जैसे जैसे यह खनिज र्इंधन जलते गए वातावरण में कार्बन डार्इआक्साइड की मात्रा बढ़ती गयी। यहां तक कि इन्सान के इस अंधाधुंध इर्ंधन इस्तेमाल के कारण सात से आठ गैगाटन कार्बन डार्इ आक्साइड की मात्रा हर साल धरती की ग्रीन हाउस गैसों में जुड़ने लगी। धरती के वायुमंडल में कार्बन डाइआक्साइड की परतें और घनी होने लगीं। अब धरती की गरमी पृथ्वी के वातावारण से बिल्कुल नहीं निकल पाती थी।
तब तो धरती और गरम होने लगी होगी दादू?”
हां विनायक धरती का तापक्रम एक ताब्दी में चार डिग्री तक बढ़ा।
फिर दादू?”
फिर क्या पृथ्वी के ध्रुवीय क्षेत्र जो हमेशा बर्फ से ढके रहते थे उनकी बर्फ पिघलने लगी। बर्फ के बडे़-बड़े ग्लेशियर पिघल गए और बहुत सारा पानी समुद्रों में बहकर मिला। जानते हो कितना?”
कितना दादू?”
इतना कि समुद्रों का जल स्तर तीन मीटर तक बढ़ गया।
ओह, और हमारे यह बहुत सारे शहर उसी में समा गए, क्यों दादू?”
हां विनायक
इसका मतलब अपना शहर हमने ही डुबोया। पर आदमी करता क्या दादू? र्इंधन का इस्तेमाल बंद कर देता क्या?”
पर खनिज र्इंधन का इतना इस्तेमाल जरूरी था? आज हम उन र्इंधनों से काम चला नहीं रहे हैं जिन्हें वह इक्कीसवीं ताब्दी में गैर परम्परागत ऊर्जा स्रोत कहता था.....जिनका प्रयोग उसे झंझट लगता था?”
हां दादू इंसान चेता भी तो सब कुछ खोकर।
विनायक अपनी गलती से हमने कितने शहर खो दिए?”
हां दादू कब तक हम अपने डूबते शहर छोड़कर ऊंची पहांड़ियों पर भागते रहेंगे?”
विनायक यह इतना सरल नहीं है कि एक डूबता शहर छोड़ा और ऊंची पहाड़ी पर कालोनी बना ली। एक वक्त आएगा कि ध्रुवों पर की बर्फ ही खत्म हो जाएगी। हरे-भरे क्षेत्र रेगिस्तान में बदल जाएंगे। हो सकता है कि वह वक्त आए कि धरती से कुछ उगे ही नहीं, जहां हम रह रहे हैं धरती का वह हिस्सा रहने के काबिल ही रहे”, कहते हुए दादू कहीं दूर देख रहे थे मानो क्षितिज पार उन्हें आने वाली ताब्दियां दिखार्इ दे रहीं हों।

विनायक ने धीरे से दादू का कंधा छुआ।
दादू मैं समझ गया हूं। कुदरत से छेड़-छाड़ अच्छी नहीं। यह आज मैं समझा हूं कल सब समझेगें... अगर उन्हें अपने आपको बचाना है तो उन्हें समझना ही होगा। आगे से कोर्इ शहर नहीं मरेगा दादू हमारी पीढ़ी आपको यह वचन देती है।

दादू ने अपने कंधे पर रखा विनायक का हाथ हौले से छुआ, उनकी आंखों में आंसू झिलमिलाने लगे थे। 

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