शहरजाद
ने कहा :
प्राचीन
काल में एक
अत्यंत धनी व्यापारी
बहुत-सी वस्तुओं
का कारोबार किया
करता था। यद्यपि
प्रत्येक स्थान पर उसकी
कोठियाँ, गुमाश्ते और नौकर-चाकर रहते
थे तथापि वह
स्वयं भी व्यापार
के लिए देश-विदेश की यात्रा
किया करता था।
एक बार उसे
किसी विशेष कार्य
के लिए अन्य
स्थान पर जाना
पड़ा। वह अकेला
घोड़े पर बैठ
कर चल दिया।
गंतव्य स्थान पर खाने-पीने को
कुछ नहीं मिलता
था, इसलिए उसने
एक खुर्जी में
कुलचे और खजूर
भर लिए। काम
पूरा होने पर
वह वापस लौटा।
चौथे दिन सवेरे
अपने मार्ग से
कुछ दूर सघन
वृक्षों के समीप
एक निर्मल तड़ाग
देखकर उस की
विश्राम करने की
इच्छा हुई। वह
घोड़े से उतरा
और तालाब के
किनारे बैठ कर
कुलचे और खजूर
खाने लगा। जब
पेट भर गया
तो उसने जगह
साफ करने के
लिए खजूरों की
गुठलियाँ इधर-उधर
फेंक दीं और
आराम करने लगा।
इतने
में उसे एक
महा भयंकर दैत्य
अपनी ओर बड़ी-सी तलवार
खींचे आता दिखाई
दिया। पास आकर
दैत्य क्रोध से
गरज कर बोला,
'इधर आ। तुझे
मारूँगा।' व्यापारी उसका भयानक
रूप देखकर और
गर्जन सुनकर काँपने
लगा और बोला,
'स्वामी, मैंने क्या अपराध
किया है कि
आप मेरी हत्या
कर रहे हैं?'
दैत्य ने कहा,
'तूने मेरे पुत्र
की हत्या की
है, मैं तेरी
हत्या करूँगा।'
व्यापारी
ने कहा, 'मैने
तो आपके पुत्र
को देखा भी
नहीं, मैंने उसे
मारा किस तरह?'
दैत्य
बोला, 'क्या तू
अपना रास्ता छोड़कर
इधर नहीं आया?
क्या तूने अपनी
झोली से निकाल
कर खजूर नहीं
खाए और उनकी
गुठलियाँ इधर-उधर
नहीं फेंकीं?' व्यापारी
ने कहा, 'आपकी
बातें ठीक हैं।
मैंने ऐसा ही
किया है।' दैत्य
ने कहा, 'जब
तू गुठलियाँ फेंक
रहा था तो
इतनी जोर से
फेंक रहा था
कि एक गुठली
मेरे बेटे की
आँख में लगी
और बेचारे का
उसी समय प्राणांत
हो गया। अब
मैं तुझे मारूँगा।'
व्यापारी
बोला, 'स्वामी मैंने आप
के पुत्र को
जान-बूझकर तो
मारा नहीं है।
फिर मुझ से
जो भूल हो
गई है उसके
लिए मैं आप
के पैरों पर
गिर कर क्षमा
माँगता हूँ।' दैत्य ने
कहा, 'मैं न
दया करना जानता
हूँ न क्षमा
करना। और क्या
खुद तुम्हारी शरीयत
में नरवध के
बदले नरवध की
आज्ञा नहीं दी
गई है? मैं
तुझे मारे बगैर
नहीं रहूँगा।'
यह
कह कर दैत्य
ने व्यापारी की
बाँह पकड़कर उसे
पृथ्वी पर गिरा
दिया और उसे
मारने के लिए
तलवार उठाई। व्यापारी
अपने स्त्री-पुत्रों
की याद कर-कर के
विलाप करने लगा,
साथ ही ईश्वर
और पवित्रात्माओं की
सौगंध दिला-दिला
कर दैत्य से
अपने प्राणों की
भिक्षा माँगने लगा। दैत्य
ने यह सोच
कर हाथ रोक
लिया कि जब
यह थक कर
हाथ-पाँव पटकना
बंद कर देगा
तो इसे मारूँगा।
लेकिन व्यापारी ने
रोना-पीटना बंद
ही नहीं किया।
अंत में दैत्य
ने उससे कहा,
'तू बेकार ही
अपने को और
मुझे तंग कर
रहा है। तू
अगर आँसू की
जगह आँखों से
खून बहाए तो
भी मैं तुझे
मार डालूँगा।'
व्यापारी
ने कहा, 'कितने
दुख की बात
है कि आपको
किसी भाँति मुझ
पर दया नहीं
आती। आप एक
दीन, निष्पाप मनुष्य
को अन्यायपूर्वक मारे
डाल रहे हैं
और मेरे रोने-
गिड़गिड़ाने का आप
पर कोई प्रभाव
नहीं होता। मुझे
तो अब भी
विश्वास नहीं होता
कि आप मुझे
मार डालेंगे।' दैत्य
ने कहा, 'नहीं।
निश्चय ही मैं
तुम्हें मार डालूँगा।'
इतने
में सवेरा हो
गया। शहरजाद इतनी
कहानी कह कर
चुप हो गई।
उसने सोचा, बादशाह
के नमाज पढ़ने
का समय हो
गया है और
उसके बाद वह
दरबार को जाएगा।
दुनियाजाद ने कहा,
'बहन, यह कितनी
अच्छी कहानी थी।'
शहरजाद बोली, 'तुम्हें यह
कहानी पसंद है?
अभी तो कुछ
नहीं, आगे तो
और भी आश्चर्यप्रद
है। तुम सुनोगी
तो और भी
खुश होगी। अगर
बादशाह सलामत ने आज
मुझे जीवित रहने
दिया और फिर
कहानी कहने की
अनुमति दी तो
कल रात मैं
तुम्हें शेष कथा
सुनाऊँगी, वरना भगवान
के पास चली
जाऊँगी।'
शहरयार
को भी यह
कहानी बेहद पसंद
आई थी। उसने
विचार किया कि
जब तक कहानी
पूरी न हो
जाए शहरजाद को
नहीं मरवाना चाहिए
इसलिए उसने उस
दिन उसे प्राणदंड
देने का इरादा
छोड़ दिया। पलँग
से उठकर वह
नमाज पढ़ने गया
और फिर दरबार
में जा बैठा।
शोक-कातर मंत्री
भी उपस्थित था।
वह अपनी बेटी
का भाग्य सोच
कर सारी रात
न सोया था।
वह प्रतीक्षा में
था कि शाही
हुक्म हो तो
मैं अपनी बेटी
को ले जाकर
जल्लाद के सुपुर्द
करूँ। किंतु उसे
यह देख कर
आश्चर्य हुआ कि
बादशाह ने यह
अत्याचारी आदेश नहीं
दिया। शहरयार दिन
भर राजकाज में
व्यस्त रहा और
रात को शहरजाद
के साथ सो
रहा।
एक
घड़ी रात रहे
दुनियाजाद फिर जागी
और उसने बड़ी
बहन से कहा
कि यदि तुम
सोई नहीं तो
वह कहानी आगे
कहो। शहरयार भी
जाग गया और
बोला, 'यह ठीक
कहती है। मैं
भी व्यापारी और
दैत्य की कहानी
सुनना चाहता हूँ।
तुम कहानी को
आगे बढ़ाओ।'
शहरजाद
ने फिर कहना
शुरू किया :
जब
व्यापारी ने देखा
कि दैत्य मुझे
किसी प्रकार जीवित
न छोड़ेगा तो
उसने कहा, 'स्वामी,
यदि आपने मुझे
वध्य समझ ही
लिया है और
किसी भाँति भी
मुझे प्राण दान
देने को तैयार
नहीं हैं तो
मुझे इतना अवसर
तो दीजिए कि
मैं घर जाकर
अपने स्त्री-पुत्रों
से विदा ले
लूँ और अपनी
संपत्ति अपने उत्तराधिकारियों
में बाँट आऊँ
ताकि मेरे पीछे
उनमें संपत्ति को
लेकर लड़ाई-झगड़ा
न हो। मैं
प्रतिज्ञा करता हूँ
कि यह सब
करने के बाद
मैं इसी स्थान
पर पहुँच जाऊँगा।
उस समय आप
जो ठीक समझें
वह मेरे साथ
करें।' दैत्य ने कहा,
'यदि मैं तुम्हें
घर जाने दूँ
और तुम वापस
न आओ फिर
क्या होगा? ' व्यापारी
बोला, 'मैं जो
कहता हूँ उससे
फिरता नहीं। फिर
भी यदि आपको
विश्वास न हो
तो मैं उस
भगवान की, जिसने
पृथ्वी-आकाश आदि
सब कुछ रचा
है, सौगंध खाकर
कहता हूँ कि
मैं घर से
इस स्थान पर
अवश्य वापस आऊँगा।'
दैत्य ने कहा,
'तुम्हें कितना समय चाहिए?'
व्यापारी ने कहा,
'मुझे केवल एक
वर्ष की मुहलत
चाहिए जिसमें मैं
अपनी सारी जाएदाद
का प्रबंध कर
के आऊँ और
मरते समय मुझे
कोई चिंता न
रहे। मैं प्रतिज्ञा
करता हूँ कि
वर्षोपरांत मैं इसी
स्थान पर आकर
स्वयं को आप
के सुपुर्द कर
दूँगा।' दैत्य ने कहा,
'अच्छा, मैं तुम्हें
एक वर्ष के
लिए जाने दूँगा
किंतु तुम यह
प्रतिज्ञा ईश्वर को साक्षी
देकर करो।' व्यापारी
ने ईश्वर की
सौगंध खाकर प्रतिज्ञा
दुहराई और दैत्य
व्यापारी को उसी
तालाब पर छोड़
कर अंतर्ध्यान हो
गया। व्यापारी अपने
घोड़े पर सवार
होकर घर को
चल दिया।
रास्ते
में व्यापारी की
अजीब हालत रही।
कभी तो वह
इस बात से
प्रसन्न होता कि
वह अभी तक
जीवित है और
कभी एक वर्ष
बाद की निश्चित
मृत्यु पर शोकातुर
हो उठता था।
जब वह घर
पहुँचा तो उसकी
पत्नी और बंधु-बांधव उसे देखकर
प्रसन्न हुए किंतु
वह उन लोगों
को देख कर
रोने लगा। वे
लोग उसके विलाप
से समझे कि
उसे व्यापार में
कोई भारी घाटा
हुआ है या
कोई और प्रिय
वस्तु उसके हाथ
से निकल गई
है जिससे उसका
धैर्य जाता रहा
है।
जब
व्यापारी का चित्त
सँभला और उसके
आँसू थमे तो
उसकी पत्नी ने
कहा, 'हम लोग
तो तुम्हें देखकर
प्रसन्न हुए हैं;
तुम क्यों इस
तरह रो-धो
रहे हो?'व्यापारी
ने कहा, 'रोऊँ-धोऊँ नहीं
तो और क्या
करूँ। मेरी जिंदगी
एक ही वर्ष
की और है।'
फिर उसने सारा
हाल बताया और
दैत्य के सामने
ईश्वर को साक्षी
देकर की गई
अपनी प्रतिज्ञा का
वर्णन किया। यह
सारा हाल सुन
कर वे सब
भी रोने-पीटने
लगे। विशेषतः उसकी
पत्नी सिर पीटने
और बाल नोचने
लगी और उसके
लड़के-बच्चे ऊँचे
स्वर में विलाप
करने लगे। वह
दिन रोने-पीटने
ही में बीता।
दूसरे
दिन से व्यापारी
ने अपना सांसारिक
कार्य आरंभ कर
दिया। उस ने
सब से पहले
अपने ॠणदाताओं का
धन वापस किया।
उसने अपने मित्रों
को बहुमूल्य भेंटें
दीं, फकीरों-साधुओं
को जी भर
कर दान किया,
बहुत-से दास-दासियों को मुक्त
किया। उसने अपनी
पत्नी को यथेष्ट
धन दिया, अवयस्क
बेटे-बेटियों के
लिए अभिभावक नियुक्त
किए और संतानों
में संपत्ति को
बाँट दिया।
इन
सारे प्रबंधों में
एक वर्ष बीत
गया और वह
अपनी प्रतिज्ञा निभाने
के लिए दुखी
मन से चल
दिया। अपने कफन-दफन के
खर्च के लिए
उसने कुछ रुपया
अपने साथ रख
लिया। उसके चलते
समय सारे घर
वाले उससे लिपट
कर रोने लगे
और कहने लगे
कि हमें भी
अपने साथ ले
चलो ताकि हम
भी तुम्हारे साथ
प्राण दे दें।
व्यापारी ने अपने
चित्त को स्थिर
किया और उन
सब को धैर्य
दिलाने के लिए
कहने लगा, 'मैं
भगवान की इच्छा
के आगे सिर
झुका रहा हूँ।
तुम लोग भी
धैर्य रखो। यह
समझ लो कि
एक दिन सभी
की मृत्यु होनी
है। मृत्यु से
कोई भी नहीं
बच सकता। इसलिए
तुम लोग धैर्यपूर्वक
अपना काम करो।'
अपने
सगे-संबंधियों से
विदा लेकर व्यापारी
चल दिया और
कुछ समय के
बाद उस स्थान
पर पहुँच गया
जहाँ उसने दैत्य
से मिलने को
कहा था। वह
घोड़े से उतरा
और तालाब के
किनारे बैठ कर
दुखी मन से
अपने हत्यारे दैत्य
की राह देखने
लगा। इतने में
एक वृद्ध पुरुष
एक हिरनी लिए
हुए आया और
व्यापारी से बोला,
'तुम इस निर्जन
स्थान में कैसे
आ गए? क्या
तुम नहीं हानते
कि बहुत-से
मनुष्य धोखे से
इसे अच्छा विश्राम
स्थल समझते हैं
और यहाँ आकर
दैत्यों के हाथों
भाँति-भाँति के
दुख पाते हैं?'
व्यापारी ने कहा,
'आप ठीक कहते
हैं। मैं भी
इसी धोखे में
पड़ कर एक
दैत्य का शिकार
होने वाला हूँ।'
यह कह कर
उसने बूढ़े को
अपना सारा वृत्तांत
बता दिया।
बूढ़े
ने आश्चर्य से
कहा, 'यह तुमने
ऐसी बात बताई
जैसी संसार में
अब तक किसी
ने नहीं सुनी
होगी। तुमने ईश्वर
की जो सौंगध
खाई थी उसे
पूरा करने में
प्राणों की भी
चिंता नहीं की।
तुम बड़े सत्यवान
हो और तुम्हारी
सत्यनिष्ठा की जितनी
प्रशंसा की जाए
कम है। अब
में यहाँ ठहर
कर देखूँगा कि
दैत्य तुम्हारे साथ
क्या करता है।'
वे
आपस में वार्तालाप
करने लगे। इतने
ही में एक
और वृद्ध पुरुष
आया जिसके हाथ
में रस्सी थी
और दो काले
कुत्ते उस रस्सी
से बँधे हुए
थे। वह उन
दोनों से उनका
हालचाल पूछने लगा। पहले
बूढ़े ने व्यापारी
का संपूर्ण वृतांत
कहा और यह
भी कहा कि
मैं आगे का
हाल-चाल देखने
यहाँ बैठा हूँ।
दूसरा बूढ़ा भी
यह सब सुनकर
आश्चर्यचकित हुआ और
वहीं बैठकर दोनों
से बातें करने
लगा।
कुछ
समय के उपरांत
एक और बूढ़ा
एक खच्चर लिए
हुए आया और
पहले दो बूढ़ों
से पूछने लगा
कि यह व्यापारी
इतना दुखी होकर
यहाँ क्यों बैठा
है। दोनों ने
उस व्यापारी का
पूरा हाल कहा।
तीसरे वृद्ध पुरुष
ने वहाँ ठहरकर
इस व्यापार का
अंत देखने की
इच्छा प्रकट की।
अतएव वह भी
वहाँ बैठ गया।
अभी
तीसरा बूढ़ा अच्छी
तरह साँस भी
नहीं ले पाया
था कि उन
चारों व्यक्तियों ने
देखा कि सामने
के जंगल में
एक बड़ा गहन
धूम्रपुंज उठ रहा
है। वह धुएँ
का बादल उनके
समीप आकर गायब
हो गया। वे
लोग आश्चर्य से
आँखें मल ही
रहे थे कि
एक अत्यंत भयानक
दैत्य उपस्थित हो
गया। उसके हाथ
में तलवार थी
और उसने व्यापारी
से कहा, 'उठकर
इधर आ। मैं
तुझे मारूँगा, तून
मेरे बेटे को
मारा है।' यह
सुन कर व्यापारी
और तीनों बूढ़े
काँपने लगे और
उच्च स्वर में
विलाप करने लगे।
उन सब के
रोने- चिल्लाने से
जंगल गूँज उठा।
किंतु दैत्य व्यापारी
को पकड़कर एक
ओर ले ही
गया।
हिरनी
वाले बूढ़े ने
यह देखा और
वह दौड़कर दैत्य
के पास पहुँचा
और बोला, 'दैत्य
महाराज, मैं आपसे
कुछ निवेदन करना
चाहता हूँ। आप
अपने क्रोध पर
कुछ देर के
लिए संयम रखें।
मेरी इच्छा है
कि मैं अपनी
और इस हिरनी
की कहानी आपको
सुनाऊँ। किंतु कहानी के
लिए एक शर्त
है। यदि आप
को यह कहानी
विचित्र लगे और
पसंद आए तो
आप इस व्यापारी
का एक तिहाई
अपराध क्षमा कर
दें।' दैत्य ने
कुछ देर तक
सोचकर कहा, 'अच्छा,
मुझे तुम्हारी शर्त
स्वीकार है। कहानी
कहो।'
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