अभी
पहले फकीर की
अद्भुत आप बीती
सुनकर पैदा होने
वाले आश्चर्य से
लोग उबरे नहीं
थे कि जुबैदा
ने दूसरे फकीर
से कहा कि
तुम बताओ कि
तुम कौन हो
और कहाँ से
आए हो। उसने
कहा कि आपकी
आज्ञानुसार मैं आप
को बताऊँगा कि
मैं कौन हूँ,
कहाँ से आया
हूँ और मेरी
आँख कैसे फूटी।
मैं एक बड़े
राजा का पुत्र
था। बाल्यकाल ही
से मेरी विद्यार्जन
में गहरी रुचि
थी। अतएव मेरे
पिता ने दूर-दूर से
प्रख्यात शिक्षक बुलाकर मेरी
शिक्षा के लिए
रखे। थोड़े ही
समय में मैंने
न केवल लिखना-पढ़ना सीख लिया
बल्कि कुरान शरीफ
भी कंठस्थ कर
लिया। इसके अतिरिक्त
नबी के कथनों
यानी हदीसों और
धर्म और दर्शनशास्त्र
की शिक्षा भी
प्राप्त कर ली।
इसके अतिरिक्त भाँति-भाँति के कला-
कौशल भी सीख
लिए और इतिहास,
पहेली और मनोरंजन
वार्ता में भी
पारंगत हो गया।
मैंने काव्यशास्त्र और
गणित में भी
अच्छा अभ्यास कर
लिया जैसा एक
राजकुमार होने के
नाते मुझसे आशा
की जाती थी।
इन सबके साथ
ही मैंने सुलेखन
में भी दक्षता
प्राप्त कर ली
और अरबी लिपि
की सातों लेखन
पद्धतियों का मुझे
ऐसा अभ्यास हो
गया कि मेरे
जैसा सुलेखक दूर-दूर तक
नहीं पाया जाता
था।
इतने
गुणों और कौशलों
को प्राप्त करने
पर भी मैं
अपने दुर्भाग्य के
लेख को न
मिटा सका और
इस दुरवस्था में
पहुँच गया जो
तुम लोग देख
रही हो। हुआ
यह कि मेरे
विद्यार्जन और कला-कौशल में
पारंगत होने की
ख्याति जब दूर-दूर पहुँची
तो हिंदोस्तान के
बादशाह ने मुझे
देखने की इच्छा
प्रकट की। उसने
मुझे भेंट करने
के लिए एक
दूत के हाथ
बहुत-सी बहुमूल्य
वस्तुएँ भेजीं और संदेशा
भिजवाया कि मैं
जाकर उससे मिलूँ।
मेरे पिता इस
बात से बड़े
प्रसन्न हुए क्योंकि
एक तो एक
महान सम्राट से
उनके संबंध बन
रहे थे, फिर
राजकुमार होने के
नाते मुझे देश-देश की
जानकारी और राजाओं-महाराजाओं से मेल-जोल बढ़ाना
ही चाहिए था।
अतएव
मैं अपने पिता
की आज्ञानुसार थोड़ी-सी यात्रा
की सामग्री और
कुछ चुने हुए
सेवक लेकर हिंदोस्तान
की ओर रवाना
हुआ क्योंकि बड़ी
सेना ले आने
की न तो
आवश्यकता ही थी
न यह बात
उचित ही होती।
कुछ दिन तक
चलने के बाद
हम लोगों को
पचास के लगभग
घुड़सवार डाकुओं ने घेर
लिया और सबसे
पहले वे दस
घोड़े पकड़ लिए
जिन पर मेरे
पिता की ओर
से हिंदोस्तान के
बादशाह को भेंट
में दी जाने
वाली बहुमूल्य वस्तुएँ
लदी थीं। मेरे
सेवकों ने कुछ
देर तक डाकुओं
का सामना किया
किंतु हार गए।
मैंने यह सोचकर
कि डाकुओं पर
रोब पड़ेगा, उनसे
कहा कि मैं
हिंदोस्तान के बादशाह
का दूत हूँ।
उसने घृणापूर्वक कहा,
हमें हिंदोस्तान के
बादशाह की क्या
परवा है; हम
न तो उसके
शासित देश में
रहते हैं न
उसके नौकर हैं।
फिर उन डाकुओं
ने हम लोगों
पर आक्रमण किया।
हम भी कुछ
देर तक लड़े
लेकिन उनका क्या
सामना करते। मेरे
कई साथी मारे
गए और मैं
भी घायल हो
गया और मेरा
घोड़ा भी। नितांत
मैं जान बचाकर
अपने घोड़े पर
भाग निकला और
डाकुओं की पहुँच
से दूर हो
गया। कुछ दूर
तक दौड़ने के
बाद मेरा घोड़ा
भी थकन और
घावों के कारण
गिर कर मर
गया। मैंने भगवान
को धन्यवाद दिया
कि माल-असबाब
जाता रहा लेकिन
जान तो बच
गई।
किंतु
मैं नितांत अकेला
और द्रव्यहीन था।
यह डर भी
था कि कहीं
डाकुओं ने देख
लिया तो बगैर
जान से मारे
न रहेंगे। इसलिए
किसी तरह कपड़ों
की पट्टी फाड़कर
अपने घाव बाँधे
और एक ओर
को चल दिया।
शाम को एक
पहाड़ की गुफा
के पास पहुँचा
और रात उसी
गुफा में बिताई।
सुबह को उठा,
जंगली फल खाकर
भूख मिटाई और
चल पड़ा। कई
दिन तक इसी
तरह भटकता रहा।
फिर एक बड़े
नगर में पहुँच
गया जो बड़ा
सुशोभित लग रहा
था। वहाँ एक
नदी भी बहती
थी जिससे वह
प्रदेश हरा-भरा
और धन- धान्य
से पूर्ण था।
मैं नंगे और
बिवाइयों से फटे
पाँव, बढ़े बालों
और दाढ़ी तथा
गंदे फटे वस्त्रों
के साथ उस
नगर में गया
कि मालूम करूँ
यह कौन-सा
देश है और
यहाँ से मेरा
देश कितना दूर
है।
यह
सोचकर मैं एक
आदमी के पास,
जो सरकारी लिपिक
था और शहर
में आने-जाने
वालों का हिसाब
रखता था गया।
उसने मेरा वृत्तांत
पूछा और मैंने
सब कुछ जो
मुझ पर बीता
था उसे बताया।
उसने धैर्यपूर्वक मेरी
बातें सुनीं किंतु
फिर उसने जो
कुछ कहा उससे
मेरे हृदय में
शांति आने की
जगह भय भर
गया। उसने कहा
कि तुमने मुझे
अपना पूरा हाल
बता दिया है
सो तो ठीक
है लेकिन यहाँ
के किसी और
व्यक्ति को कुछ
न बताना क्योंकि
यहाँ का बादशाह
तुम्हारे पिता का
शत्रु है और
उसे तुम्हारा पता
चला तो तुम्हारे
साथ बुरी बीतेगी।
मैंने
उस बूढ़े लिपिक
को बहुत धन्यवाद
दिया कि उसने
मुझ पर दया
दिखाई और मुझे
खतरे से चेतावनी
दे दी। मैंने
उससे वादा किया,
अब मैं यहाँ
के किसी आदमी
को अपनी सच्ची
कहानी नहीं बताऊँगा।
वह लिपिक यह
सुनकर प्रसन्न हुआ।
मेरा भूख से
बुरा हाल हो
रहा था इसलिए
उसने अपने घर
से खाना लाकर
मुझे खिलाया और
वहीं एक कोने
में लेटकर थकावट
दूर करने को
कहा। मैंने ऐसा
ही किया। जब
मेरे शरीर में
शक्ति और स्फूर्ति
आ गई तो
मैं फिर उसके
पास गया। उसने
पूछा कि तुम्हें
कोई हुनर ऐसा
आता है जिससे
तुम अपनी जीविका
चला सको। मैंने
साहित्य, काव्य, कला, व्याकरण,
सुलेखन आदि की
निपुणता की बात
कही तो उसने
कहा, यह सब
यहाँ बेकार है,
यहाँ विद्या की
कोई पूछ नहीं,
तुम्हें इस विद्या
से एक पैसा
भी यहाँ नहीं
मिलेगा।
उसने
कहा कि तुम
शरीर से तगड़े
हो, तुम्हें चाहिए
कि एक जाँघिया
पहन कर जंगल
में चले जाओ
और लकड़ियाँ काट
कर शहर में
लाकर बेचा करो।
उससे तुम्हें इतनी
आय तो हो
ही जाएगी कि
किसी का आश्रय
लिए बगैर अपना
खर्च चला लो।
कुछ दिन इसी
प्रकार दुख उठाकर
मेहनत करके समय
बिताओ। आशा है
कि इसके बाद
भगवान तुम पर
कृपा करेगा और
तुम फिर सुख-समृद्धि प्राप्त करोगे।
मैं तुम्हारी इतनी
सहायता कर दूँगा
कि तुम्हें एक
कुल्हाड़ी और एक
रस्सी दे दूँ।
मरता
क्या न करता।
यद्यपि यह कार्य
मेरे योग्य किसी
प्रकार नहीं था
फिर भी मैंने
यह करना स्वीकार
कर लिया क्योंकि
कोई और रास्ता
नही था। दूसरे
दिन लिपिक ने
मुझे एक जाँघिया,
एक कुल्हाड़ी और
एक रस्सा लाकर
दे दिया और
मेरा परिचय थोड़े-
से लकड़हारों से
करा दिया और
कहा कि इस
आदमी को भी
लकड़ी काटने के
लिए साथ ले
जाया करो। मैं
लकड़हारों के साथ
जंगल में जाता
और लकड़ियाँ काटकर
उनका गट्ठा बना
कर शहर में
ला बेचने लगा।
मुझे एक गट्ठे
का मूल्य एक
स्वर्ण मुद्रा मिलती थी।
यद्यपि जंगल उस
शहर से दूर
था तथापि नगर
निवासी बड़े आलसी
थे और श्रम
करने के अभ्यस्त
न थे इसलिए
लकड़ी शहर में
बहुत महँगी मिलती
थी। कुछ ही
दिनों में मेरे
पास काफी स्वर्ण
मुद्राएँ हो गईं
जिनमें से कुछ
अपने उपकारी लिपिक
को मैंने दे
दीं।
इसी
प्रकार मेरा एक
वर्ष व्यतीत हो
गया। एक दिन
लकड़ी काटते-काटते
अपने साधारण स्थान
से आगे बढ़
गया। आगे का
जंगल मुझे और
अच्छा लगा। मैंने
एक वृक्ष काटा।
जब उसकी डालें
और तना काट
चुका तो मैंने
उसकी जड़ भी
काट कर ले
जानी चाही। कुल्हाड़ी
चलाते-चलाते मुझे
एक लोहे का
कड़ा दिखाई दिया।
और मिट्टी हटाई
तो देखा कि
कड़ा लोहे के
दरवाजे में लगा
है।
मैंने
जोर लगा कर
उसे ऊपर उठाया
तो नीचे जाती
हुई सीढ़ियाँ दिखाई
दीं। मैं रस्सा
और कुल्हाड़ी सहित
नीचे उतर गया।
नीचे एक बड़ा
मकान था जिसमें
ऐसा प्रकाश हो
रहा था जैसे
वह धरती के
ऊपर बना हो।
मैं आगे बढ़ता
गया तो देखा
कि सामने एक
बारादरी है जिसके
पाए संगे-मूसा
के बने हुए
हैं और खंभे
नीचे से ऊपर
तक खालिस सोने
के बने हैं।
बारादरी में एक
अत्यंत रूपवती स्त्री बैठी
थी। मैंने उसे
देखा तो ठगा-सा रह
गया। मैंने उसके
निकट जाकर अभिवादन
किया।
स्त्री
ने मुझ से
पूछा, 'तुम कौन
हो, मनुष्य या
जिन्न?' मैंने सिर उठा
कर कहा, 'हे
सुंदरी, मैं मनुष्य
हूँ, जिन्न नहीं
हूँ।' वह स्त्री
शोकयुक्त स्वर में
बोली, 'तुम मनुष्य
हो तो यहाँ
मरने के लिए
क्यों आए हो;
मैं यहाँ पच्चीस
वर्षों से रह
रही हूँ और
इस काल में
तुम्हारे सिवाय और कोई
मनुष्य नहीं देख
सकी हूँ।' उस
स्त्री के अनुपम
रूप के साथ
ही उसके स्वर
की मधुरता का
मुझ पर ऐसा
प्रभाव पड़ा कि
कुछ देर तक
मेरे मुँह से
कोई बात नहीं
निकली।
कुछ
देर में स्वस्थ
हो कर मैंने
उस स्त्री से
कहा, 'सुंदरी, मुझे
तुम्हारा कुछ हाल
नहीं मालूम किंतु
तुम्हारे दर्शन मात्र से
मुझे अतीव सुख
मिला है और
मैं अपना सारा
दुख-दर्द भूल
गया हूँ। मेरी
अतीव इच्छा है
कि तुम्हें यहाँ
से छुड़ा दूँ
क्योंकि यह स्पष्ट
है कि तुम
यहाँ सुखी नहीं
हो।' और मैंने
अपना सारा जीवन
वृत्त उस स्त्री
के समक्ष वर्णन
किया। मेरा पूरा
हाल सुनने के
बाद वह स्त्री
ठंडी साँस भर
कर बोली, 'शहजादे,
तुम ठीक कहते
हो। यह मकान
जादू का है
और यहाँ प्रचुर
धन और समस्त
सुविधाएँ उपलब्ध हैं फिर
भी मुझे यहाँ
रहना तनिक भी
पसंद नही। तुमने
आबनूस के द्वीपों
के बादशाह अबू
तैमुरस का नाम
सुना होगा। मैं
उसकी बेटी हूँ।
मेरे पिता ने
मेरा विवाह अपने
भतीजे के साथ
कर दिया। जब
मैं शादी के
बाद अपने पति
के घर जाने
लगी तो रास्ते
में मुझे एक
दुष्ट जिन्न ने
उड़ा लिया। मैं
भय के कारण
लगभग तीन पहर
तक अचेत रही।
जब मुझे होश
आया तो मैंने
अपने को इस
मकान में पाया।
अब केवल उसी
जिन्न के साथ
मेरा उठना-बैठना
है। यह सारा
धन और सुख-सामग्री जो यहाँ
दिखाई देती है
मुझे कुछ भी
संतोष नहीं दे
पाती। हर दसवें
दिन जिन्न यहाँ
आता है और
मेरे साथ रात
बिताता है। उसका
विवाह पहले तो
उसी की जाति
की एक स्त्री
से हो चुका
है और वह
अपनी स्त्री के
भय से मेरे
पास इससे अधिक
नहीं रह पाता।
दस दिन के
अंदर यदि किसी
दिन मैं उसे
बुलाना चाहूँ तो उसका
भी प्रबंध उसने
कर दिया है।
यदि मैं यह
इधर रखा हुआ
जादू का यंत्र
छू दूँ तो
उसे खबर हो
जाती है और
वह आ जाता
है।'
स्त्री
ने आगे कहा,
'उस जिन्न को
यहाँ से गए
चार दिन हो
गए है। वह
छह दिन बाद
फिर यहाँ आएगा।
यदि तुम्हें यहाँ
की सुख-सुविधाएँ
और मेरा साथ
पसंद है तो
पाँच दिनों तक
यहाँ आराम से
रह सकते हो,
मैं तुम्हारा हर
प्रकार से आदर-सत्कार करूँगी और
तुम्हे सुख पहुँचाऊँगी।'
मैं
उसकी बातें सुनकर
बड़ा प्रसन्न हुआ।
मुझे इसमें क्या
आपत्ति हो सकती
थी कि ऐसी
सुंदरी के साथ
रहूँ। मैंने बड़ी
प्रसन्नता से यह
बात स्वीकार कर
ली। वह मुझे
एक स्नानागार तक
ले गई। मैंने
अंदर जाकर अच्छी
तरह स्नान किया
और बाहर निकला।
वह मेरे पहनने
के लिए जरी
के वस्त्र ले
आई। मैंने वह
शाही पोशाक पहनी
तो वह मुझे
देखकर मुझ पर
और भी कृपालु
हो गई। फिर
एक सजे हुए
दालान में उसने
मुझे एक सुनहरे
कमख्वाब की मसनद
पर बिठाया। फिर
वह नाना प्रकार
के स्वादिष्ट व्यंजन
लाई और हम
दोनों ने साथ
बैठकर भोजन किया।
दिन भर हम
लोग इधर-उधर
की बातें करते
रहे। रात के
भोजन के बाद
उसने अपने साथ
मुझे सुलाया। सुबह
होने पर उसने
और भी स्वादिष्ट
व्यंजन बनाए और
मेरे विशेष सत्कार
के लिए पुरानी
शराब की बोतलें
ले आई। मैं
बहुत-सी शराब
पीकर मदमस्त हो
गया।
मैंने
उससे कहा, 'प्रिये,
तुम पच्चीस वर्षों
से इस मकान
में जिसे कब्र
कहना चाहिए बंद
हो। यह बात
ठीक नहीं है।
तुम मेरे साथ
यहाँ से निकल
चलो और बाहर
की ताजा हवा
खाओ। इस दिखावे
के ऐश-आराम
को छोड़ो क्योंकि
यह जादू से
अधिक कुछ नहीं
है। तुम मेरे
साथ चलो।'
वह
सुंदरी बोली, 'ऐसी बातें
जिह्वा पर भी
न लाना। तुम
जिसे सूर्य का
प्रकाश कहते हो
वह मैं भूल
चुकी हूँ। मुझे
यहीं रहने की
आदत पड़ गई
है, मुझे यहीं
रहने दो। एक
दिन छोड़कर जबकि
वह जिन्न यहाँ
आता है, तुम
बाकी नौ दिन
यहाँ आराम से
रह सकते हो।'
मुझे
नशा चढ़ गया
था। मैंने कहा,
'तुम उस जिन्न
से इतना क्यों
डरती हो। मैं
तुम्हारे लिए अपनी
जान भी दे
सकता हूँ। मैं
इस जादू के
यंत्र को मय
उसकी जादुई लिखावट
के तोड़-फोड़
कर बराबर कर
दूँगा। अपने जिन्न
को आने दो।
मैं भी तो
देखूँ उसमें कितनी
ताकत हैं। मैंने
निश्चय कर लिया
है कि संसार
के सारे जिन्नों
का अंत कर
दूँगा और सबसे
पहले इसी जिन्न
को मारूँगा जिसने
तुम्हें कैद कर
रखा है।'
वह
स्त्री भली भाँति
जानती थी कि
मेरी मूर्खता का
क्या फल होगा।
उसने मुझे बहुत
समझाया, हर तरह
रोका, कसमें दीं
कि यंत्र को
छुआ तो हम
दोनों मारे जाएँगे
क्योंकि उस जिन्न
की शक्ति को
मैं जानती हूँ,
तुम नहीं जानते।
मैं
नशे में धुत
था इसलिए मैंने
उसकी चेतावनी को
अनसुना कर दिया
और ठोकर मार
कर जादू के
यंत्र को तोड़
डाला। यकायक ही
सारा मकान काँपने
लगा और एक
महाभयानक शब्द हुआ।
सारी रोशनियाँ बुझ
गईं और अंधकार
छा गया जिसमें
रह-रह कर
बिजली चमकने लगती
थी। यह हाल
देखकर मेरा नशा
हिरन हो गया।
मैंने सोचा कि
वास्तव में मुझसे
भयानक भूल हो
गई। मैंने अब
उस सुंदरी से
पूछा कि क्या
करना चाहिए। उसने
कहा कि मुझे
अपने प्राण जाने
का भय नहीं,
मैं तो वैसे
ही दुखी थी।
तुम्हारी जान को
जरूर खतरा है
और इसी से
मैं अत्यंत व्याकुल
हूँ। तुमने खुद
ही अपनी जान
के लिए यह
आफत मोल ली।
अब यहाँ से
तुरंत भाग कर
जान बचाओ।
यह
सुनकर मैं ऐसा
बेतहाशा भागा कि
अपनी कुल्हाड़ी और
रस्सा भी वहीं
भूल गया और
गिरते-पड़ते उस
सीढ़ी तक आया
जिससे उतर कर
उस मकान में
गया था। इतने
में वह जिन्न
भी अत्यंत क्रुद्ध
होकर वहाँ आ
पहुँचा और गरज
कर स्त्री से
पूछने लगा कि
तूने मुझे क्यों
बुलाया है। वह
डर के मारे
पत्ते की तरह
काँपने लगी और
बोली, मैंने तुम्हें
बुलाया नहीं है।
मैंने इस बोतल
से थोड़ी-सी
मदिरा पी ली
थी। मुझ पर
ऐसा नशा चढ़ा
कि हाथ-पाँव
काबू में न
रहे। नशे की
हालत में मैंने
इस यंत्र पर
पाँव रख दिया
जिससे यह टूट
गया। जिन्न यह
सुनकर और भी
कुपित हुआ और
बोला, तू झूठी,
मक्कार और दुराचारिणी
है। इस कुल्हाड़ी
और रस्से को
यहाँ कौन लाया
है? स्त्री बोली,
मैंने तो इन्हें
अभी-अभी देखा
है। तुम भागते-दौड़ते आए हो,
इसीलिए तुम्हारे साथ लगी
हुई यह चीजें
आ गई होंगी।
तुमने अपनी जल्दी
में ध्यान न
रखा होगा कि
तुम्हारे पास कुल्हाड़ी
और रस्सा भी
है।
इस
पर जिन्न का
क्रोध और भी
बढ़ा। उसने स्त्री
को भूमि पर
पटक दिया और
उसे निर्दयता से
पीटने लगा और
साथ में गालियाँ
भी देने लगा।
स्त्री तड़पने और रोने-
चिल्लाने लगी। उसका
करुण क्रंदन मुझसे
नहीं सुना जाता
था। लेकिन मैं
कुछ कर भी
नहीं सकता था।
मैंने स्त्री के
दिए वस्त्र उतारे
और वही फटे-पुराने लकड़हारों के
वस्त्र पहन लिए
जिन्हें पहन कर
मैं पिछले दिन
आया था। फिर
मैं सीढ़ी से
चढ़कर ऊपर आ
गया। मैं अपने
का बराबर कोसता
जा रहा था
कि मेरी मूर्खता
और जिद्दीपन के
कारण उसे बेचारी
स्त्री पर ऐसा
अत्याचार हो रहा
है। बाहर आकर
मैंने फिर सीढ़ी
के मुँह पर
लोहे का दरवाजा
रखा और उस
पर मिट्टी डाल
कर उसे छुपा
दिया।
फिर
मैंने पिछले दिन
की जमा की
हुई लकड़ियाँ किसी
तरह बाँधीं और
नगर में आकर
लकड़ी का गट्ठा
बेच दिया। फिर
भी मैं बराबर
सोच रहा था
कि न जाने
उस सुंदर स्त्री
पर क्या बीत
रही होगी। लकड़ी
बेचकर जब मैं
अपने निवास स्थान
पर आया तो
लिपिक मुझे देखकर
अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसने
कहा कि तुम
कल नहीं आए
तो मुझे बड़ी
चिंता हो गई
थी, मैंने सोचा
कि कहीं ऐसा
तो नही है
कि यहाँ के
बादशाह को तुम्हारे
यहाँ पर रहने
की बात मालूम
हो गई हो
और उसने तुम्हें
पकड़वा मँगाया हो, भगवान
का लाख-लाख
धन्यवाद है कि
तुम सकुशल वापस
गए हो।
मैंने
उसकी बातों पर
उसे हृदय से
धन्यवाद दिया किंतु
यह न बताया
कि कल मेरे
साथ क्या बीती
थी। मैं अपने
कमरे में चला
गया और फिर
उसी शोक में
निमग्न हो गया
कि मैंने अपने
दुराग्रह से अपनी
उपकारिणी स्त्री को कैसा
दुख पहुँचाया और
अगर मैं वह
यंत्र न तोड़
डालता तो उस
राजकुमारी पर भी
दुख न पड़ता
और मैं पाँच
दिन बड़े सुख
से रहता। मैं
यह सोच ही
रहा था कि
लिपिक मेरे पास
आकर कहने लगा
कि एक बूढ़ा
एक कुल्हाड़ी और
रस्सा लेकर आया
है और कहता
है कि तुम
शायद इन्हें जंगल
में भूल आए
थे। लेकिन वह
इन चीजों को
तभी वापस करेगा
जब तुम बाहर
चलकर उसे इनकी
पहचान बताओंगे।
यह
सुनकर मेरा चेहरा
पीला पड़ गया
और मैं भय
के कारण सिर
से पाँव तक
थर-थर काँपने
लगा। लिपिक ने
मुझ से पूछा,
यह तुम्हें क्या
हो रहा है।
मैं अभी उसे
उत्तर भी नहीं
दे सका था
कि कमरे की
धरती फट गई
और बूढ़ा जिन्न
मेरे बाहर आने
की राह न
देखकर कुल्हाड़ी और
रस्सी लिए वहीं
आ गया। उसने
मुझ से कहा,
'तू जानता है
मैं कौन हूँ?
मैं ऐसा-वैसा
जिन्न नहीं हूँ,
स्वयं इबलीस (शैतान)
का दौहित्र हूँ।
तू जानता है
कि इबलीस सारे
जिन्नों और दैत्यों
का सरताज है।
बोल, यह कुल्हाड़ी
और यह रस्सा
तेरे है या
नहीं?
मैं
उसे देखकर ऐसा
भयभीत हुआ कि
मेरी वाक शक्ति
ही समाप्त-सी
हो गई और
मैं अचेत होकर
गिरने लगा। जिन्न
ने मेरे होश
में आने की
प्रतीक्षा नहीं की।
वह मुझे कमर
से पकड़ कर
ले उड़ा और
दो क्षण में
ही मैं इतने
ऊँचे पर्वत पर
ले जा कर
रख दिया जिस
पर चढ़ने में
महीनों लगते। फिर उसने
पहाड़ की चोटी
पर पाँव पटका।
इससे धरती फट
गई। जिन्न मुझे
लेकर उस गड्ढे
में उतर गया
और पलक झपकते
ही मुझे उठाए
हुए उस मकान
में आ गया
जहाँ मैंने राजकुमारी
के साथ पिछला
दिन बिताया था।
यह
देख कर मेरे
दुख का पाराबार
न रहा कि
राजकुमारी अब भी
जमीन पर पड़ी
तड़प रही थी
और अधमरी-सी
अवस्था में चीख-पुकार कर रही
थी। उस जिन्न
ने कहा, देख,
यह कुलटा तुझ
पर मोहित है।
स्त्री ने मुझ
पर सरसरी निगाह
डालकर कहा कि
मैं इसे बिल्कुल
नहीं जानती, इससे
पहले मैंने कभी
इसे देखा ही
नहीं। जिन्न बोला,
तू झूठी है
जो कहती है
इसे कभी नहीं
देखा, इसी आदमी
के कारण तेरी
जान जाएगी। स्त्री
ने कहा कि
तुम किसी न
किसी बहाने से
इसे मार डालना
चाहते हो, इसी
से मुझ से
झूठ कहलवा रहे
हो।
जिन्न
ने कहा कि
अगर तू वास्तव
में इससे अपरिचित
है तो तलवार
उठा और इसका
सिर काट दे।
राजकुमारी ने कहा,
मुझ से तलवार
कहाँ उठेगी, इसक
अतिरिक्त यह कैसे
हो सकता है
कि मैं किसी
निर्दोष व्यक्ति के प्राण
लूँ। जिन्न ने
कहा कि ऐसी
हालत में भी
तू इसे मारने
से इनकार करती
है, इसी बात
से तेरा पापाचार
सिद्ध हो जाता
है। फिर जिन्न
ने मुझ से
पूछा कि तू
इस स्त्री को
जानता है या
नहीं। मैंने जी
में सोचा कि
राजकुमारी स्त्री होकर भी
इतना साहस दिखा
रही है, मैं
मर्द होकर यदि
इसका भेद खोलूँ
तो इससे अधिक
अशोभनीय क्या होगा।
इसलिए मैंने भी
कहा कि मैंने
इससे पहले इस
स्त्री को कभी
नहीं देखा है।
जिन्न बोला, अगर
तू सच कहता
है तो उठा
तलवार और काट
दे इसका सिर।
मैं
मन में सोचने
लगा कि यह
तो अत्यंत अनुचित
बात होगी कि
उस स्त्री को
जो मेरे कारण
इस दुख में
पड़ी थी अपने
हाथ से मारूँ।
स्त्री ने मुझ
से संकेत से
कहा कि तुम
सोच-विचार न
करो, मेरी जान
बचने ही की
नहीं है, तुम
अपने हाथ से
मुझे मार डालो,
और इस प्रकार
अपनी जान बचाओ,
मुझे इसी में
संतोष मिलेगा। किंतु
मैं ऐसा न
कर सका। मैं
दो पग पीछे
हट गया और
तलवार हाथ से
फेंक कर जिन्न
से बोला, तुमने
मुझे बिल्कुल कायर
पुरुष समझ लिया
है कि तुम्हारे
कहने भर से
किसी अपरिचिता को
मार डालूँ। फिर
इस सुंदरी की
तो तुमने वैसे
ही दुर्दशा कर
रखी है, मैं
इस पर क्या
हाथ उठाऊँ। तुम्हें
अधिकार है कि
जो चाहो वह
करो किंतु इस
प्रकार का काम
मुझसे न होगा।
जिन्न
ने कहा, तुम
दोनों ही मेरे
क्रोध को निरंतर
बढ़ा रहे हो।
तुम शायद यह
नहीं जानते कि
मुझ में कितनी
शक्ति है।' यह
कहकर उस अत्याचारी
ने स्त्री के
दोनों हाथ काट
डाले। वह अधमरी
तो पहले ही
से हो रही
थी, यह चोट
खाकर तुरंत मर
गई। मैं यह
देखकर मूर्छित हो
गया। कुछ होश
आया तो मैंने
जिन्न से कहा
कि अब तुम
मुझे भी मार
डालो और अपना
क्रोध शांत करो।
जिन्न ने कहा, हम लोगों का नियम है कि जब किसी को व्यभिचार का दोषी पाते हैं तो उसका वध कर देते हैं। तुम पर मुझे व्यभिचार का संदेह भर है। इसलिए तुझे मारूँगा नहीं, किंतु मानव नहीं रहने दूँगा। अब तू कुत्ता, गधा, सूअर या जो भी पशु-पक्षी बनना चाहे बता दे, मैं तुझे वही बना दूँगा। मैंने उसका क्रोध कुछ कम देखा तो बोला, 'जिन्नों के सरताज, मेरी प्रार्थना है कि एक भले आदमी ने अपने बुरा करने वाले के साथ जैसे उपकार किया था वैसे ही तू मुझे क्षमा कर दे और मुझे आदमी ही रहने दे।' जिन्न ने कहा, यह भले आदमी का क्या किस्सा है। मैंने बताना शुरू किया।
स्रोत-इंटरनेट
से कट-पेस्ट
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