जुबैदा
ने खलीफा के
सामने सर झुका
कर निवेदन किया
है राजाधिराज, मेरी
कहानी बड़ी ही
विचित्र है, आपने
इस प्रकार की
कोई कहानी नहीं
सुनी होगी। मैं
और वे दोनों
काली कुतियाँ तीनों
सगी बहिनें हैं
और यह दो
स्त्रियाँ जो मेरे
साथ बैठी हैं
मेरी सौतेली बहनें
हैं। जिस स्त्री
के कंधों पर
काले निशान हैं
उसका नाम अमीना
है, जो अन्य
स्त्री मेरे साथ
है उसका नाम
साफी है और
मेरा नाम जुबैदा
है। अब मैं
आपको बताती हूँ
कि मेरी सगी
बहनें कुतिया किस
तरह से बन
गईं।
जुबैदा
ने कहा कि
पिता के मरने
के बाद हम
पाँचों बहनों ने उनकी
संपत्ति को आपस
में बाँट लिया।
मेरी सौतेली बहनें
अपना-अपना भाग
लेकर अपनी माता
के साथ रहने
लगीं और हम
तीनों अपनी माता
के पास रहने
लगीं, क्योंकि उस
समय हमारी माता
जीवित थी। मेरी
दोनों बहनें मुझ
से बड़ी थीं।
उन्होंने विवाह कर लिए
और अपने-अपने
पतियों के घर
जाकर रहने लगीं
और मैं अकेली
रहने लगी।
कुछ
समय के पश्चात
मेरी बड़ी बहन
के पति ने
अपना सारा माल
बेच डाला और
मेरी बहन का
रुपया भी उस
रुपए में मिलाकर
व्यापार के इरादे
से वह अफ्रीका
को चला गया
और मेरी बहन
को भी ले
गया। किंतु वहाँ
जाकर उसने व्यापार
के बजाय भोग-
विलास आरंभ किया
और कुछ ही
दिनों में अपना
और मेरी बहन
का सारा धन
उड़ा डाला बल्कि
उसके वस्त्राभूषण आदि
भी बेच खाए।
फिर उसने किसी
बहाने से मेरी
बहन को तलाक
दे दिया और
घर से भी
निकाल दिया। वह
अत्यंत दीन-हीन
अवस्था में हजार
दुख उठाती हुई
बगदाद पहुँची और
चूँकि उसके लिए
और कोई स्थान
नहीं था अतएव
मेरे घर आई।
मैंने
उसका बड़ा स्वागत-सत्कार किया और
उससे पूछा कि
तुम्हारी यह दुर्दशा
कैसे हुई। उसने
अपनी करुण कथा
सुनाई जिसे सुनकर
मैं बहुत रोई।
फिर मैंने उसे
स्नान कराया और
अपने वस्त्रों के
भंडार से अच्छे
कपड़े निकाल कर
उसे पहनाए। मैंने
उससे कहा, 'अब
तुम आराम से
यहाँ रहो। तुम
मेरी माँ की
जगह हो। भगवान
ने मुझ पर
बड़ी दया की
है कि तुम्हारे
जाने के बाद
मैंने रेशमी वस्त्रों
का व्यापार किया
जिससे मुझे बहुत
लाभ हुआ है।
अब जो कुछ
मेरे पास है
वह भी अपना
समझो और तुम
भी मेरे साथ
मिलकर यही व्यापार
करो।'
नितांत
उसके बाद से
हम दोनों बहनें
संतोष और सुख
के साथ रहने
लगीं। अकसर ही
हम लोग अपनी
तीसरी बहन को
याद करते कि
वह न जाने
कहाँ होगी। बहुत
दिनों तक हमें
उसका कोई समाचार
नहीं मिला कि
वह कहाँ है
और किस दिशा
में है किंतु
अचानक एक दिन
वह मँझली बहन
भी बड़ी बहन
के समान दीन-हीन अवस्था
में मेरे पास
आई क्योंकि उसके
पति ने भी
उसकी संपूर्ण संपत्ति
को उड़ा डाला
था और फिर
उसे तलाक देकर
अपने घर से
निकाल दिया था
ओर वह भी
गिरती-पड़ती बगदाद
पहुँच कर मेरे
घर में शरण
लेने के लिए
आई थी।
मैंने
उसका भी बड़ी
बहन की भाँति
स्वागत-सत्कार किया और
उसे बड़ा दिलासा
दिया। वह भी
आराम से रहने
लगी। लेकिन कुछ
दिनों बाद इन
दोनों ने मुझसे
कहा कि हमारे
रहने से तुम्हें
कष्ट भी होता
है और हम
पर तुम्हारा पैसा
भी खर्च होता
है इसलिए हम
लोग फिर से
विवाह करेंगे। मैंने
कहा, 'यदि मेरी
असुविधा भर से
तुम्हें यह खयाल
पैदा हुआ कि
विवाह कर लेना
चाहिए तो यह
बेकार बात है
क्योंकि भगवान की दया
से व्यापार में
मुझे इतना लाभ
हो रहा है
कि हम तीनों
बहनें जीवनपर्यंत आनंद
और सुख-सुविधा
से रह सकती
हैं। तुम्हें मेरे
पास कोई कष्ट
न होगा। तुम्हारे
विवाह करने की
इच्छा को सुनकर
मुझे बड़ा आश्चर्य
है। तुम लोगों
ने अपने-अपने
पतियों के हाथों
इतने कष्ट उठाए
हैं। फिर भी
मुसीबत में पड़ना
चाहती हो। अच्छे
पतियों का मिलना
अत्यंत दुष्कर है। इसलिए
तुम विवाह का
विचार छोड़ दो।'
इस
प्रकार मैंने उन्हें बहुत
समझाया। लेकिन वे दोनों
अपनी बात पर
दृढ़ रहीं। वे
मुझसे कहने लगीं,
'तू हमसे अवस्था
में कम है
किंतु बुद्धि में
अधिक है। किंतु
जितने दिन रह
लिया उससे अधिक
हम तेरे घर
में न रहेंगे
क्योंकि आखिर तू
हमें अपनी आश्रिता
ही समझती होगी
और अपने हृदय
में हमारा सम्मान
दासियों से अधिक
नहीं करती होगी।'
मैंने कहा, 'यह
तुम लोग क्या
कह रही हो?
मैं तो तुम्हें
वैसा ही अपने
से ज्येष्ठ और
सम्मानीय समझती हूँ जैसा
पहले जमाने में
समझती थी। मेरे
पास जो भी
धन-संपत्ति है
वह तुम्हारी ही
है।' यह कह
कर मैंने उनको
गले लगाया और
बहुत दिलासा दिया।
और हम तीनों
मिल कर पहले
की तरह रहने
लगे।
एक
वर्ष के पश्चात
भगवान की दया
से मेरा व्यापार
ऐसा चमका कि
मेरी इच्छा हुई
कि उसे अन्य
नगरों तक बढ़ाऊँ।
अतएव मैंने जहाज
पर सामान लाद
कर किसी अन्य
देश में भी
व्यापार जमाने की सोची।
मैं व्यापार की
वस्तुओं और अपनी
दोनों बहनों को
लेकर बगदाद से
बूशहर में आई
और एक छोटा-सा जहाज
खरीद कर मैंने
अपनी व्यापार की
वस्तुओं को उस
पर लाद दिया
और चल पड़ी।
वायु हमारे अनुकूल
थी इसीलिए हम
लोग फारस की
खाड़ी में पहुँच
गए और वहाँ
से हमारा जहाज
हिंदोस्तान के लिए
चल पड़ा। बीस
दिन बाद हम
लोग एक टापू
पर पहुँचे जिसके
पिछले भाग में
एक बहुत ऊँचा
पर्वत था। द्वीप
में समुद्र के
किनारे ही एक
बड़ा और सुंदर
नगर बसा था।
मैं
जहाज पर बैठे-बैठे बहुत
ऊब गई थी
इसलिए अपनी बहनों
को जहाज ही
पर छोड़कर एक
डोंगी पर बैठ
कर तट पर
गई। नगर के
द्वार पर काफी
संख्या में सेना
रक्षा के लिए
नियुक्त थी और
कई सिपाही चुस्ती
से अपनी जगहों
पर खड़े थे।
उनका रूप बड़ा
भयोत्पादक था। मैं
कुछ डरी किंतु
मुझे यह देखकर
आश्चर्य हुआ कि
उनके हाथ-पाँव
में कोई हरकत
नहीं होती थी
बल्कि उनकी पलकें
भी नहीं झपकती
थीं। मैं पास
पहुँची तो देखा
कि सारे सैनिक
पत्थर के बने
हैं। मैं नगर
के भीतर चली
गई। वहाँ भी
देखा कि हर
चीज पत्थर की
है। बाजार की
दुकानें बंद थीं।
भाड़ों में से
भी धुआँ नहीं
निकल रहा था
और न घरों
से। चुनांचे मैं
समझ गई कि
यहाँ भी सब
लोग पत्थर के
हो गए होंगे।
मैंने
नगर के एक
ओर एक बड़ा
मैदान देखा जिसके
एक ओर एक
बड़ा फाटक था
और उसमें सोने
के पत्तर लगे
थे। खुले फाटक
के अंदर गई
तो एक बड़ा
दरवाजा देखा जिस
पर रेशमी परदा
लटक रहा था।
स्पष्टता ही वह
राजमहल लगता था।
मैं परदा उठाकर
अंदर गई तो
देखा कि कई
चोबदार वहाँ मौजूद
हैं - कुछ खड़े
हैं कुछ बैठे
हैं - किंतु वे
सबके सब पत्थर
के बने हुए
थे। मैं और
अंदर गई फिर
वहाँ से तीसरे
भवन में प्रविष्ट
हुई। सभी जगह
देखा कि जीता-जागता कोई मनुष्य
नहीं है, जो
भी है वह
पत्थर का बना
हुआ है। चौथा
मकान अत्यंत सुंदर
बना था, उसके
द्वार और जंजीरें
सभी सोने के
बने हुए थे।
मैंने समझ लिया
कि यह कक्ष
रानी का निवास
स्थान होगा। अंदर
जाकर देखा कि
एक दालान में
बहुत-से हब्शी
काले संगमरमर के
बने हुए हैं।
दालान के अंदर
एक सजा हुआ
कमरा था जिसमें
एक पत्थर की
स्त्री सिर पर
रत्नजड़ित मुकुट पहने बैठी
है। मैंने समझ
लिया कि यह
रानी होगी। उसके
गले में एक
नीलम का हार
पड़ा था जिसका
हर एक दाना
सुपारी के बराबर
था। मैंने पास
जाकर देखा कि
इतने बड़े होने
पर भी वे
रत्न बिल्कुल गोल
और चिकने थे।
वहाँ के बहुमूल्य
रत्नों और वस्त्रों
को देखकर मुसे
आश्चर्य हुआ। वहाँ
फर्श पर गलीचे
बिछे हुए थे
और मसनद और
गद्दे आदि अलस
कमरव्वाब आदि बहुमूल्य
वस्त्रों के बने
हुए थे।
मैं
वहाँ से और
अंदर गई। कई
मकान बड़े सुंदर
दिखाई दिए। उन
सब से होती
हुई एक विशाल
भवन में गई
जहाँ एक सोने
का सिंहासन पृथ्वी
से काफी ऊँचा
रखा था और
उसके चारों ओर
मोतियों की झालरें
लटक रही थीं।
एक अजीब बात
यह थी कि
उस सिंहासन के
ऊपर से प्रकाश
की लपटें जैसी
निकल रही थीं।
मुझे कौतूहल हुआ
और मैंने ऊपर
चढ़कर देखा कि
एक छोटी तिपाई
पर एक हीरा
रखा है जिसका
आकार शतुरमुर्ग के
अंडे जैसा है
और उसमें ऐसी
चमक थी कि
निगाहें उस पर
नहीं ठहरती थीं।
प्रकाश की लपटें
उसी विशालकाय हीरे
से निकल रही
थीं। फर्श पर
चारों ओर तकिए
रखे थे और
एक मोम का
दीया जल रहा
था। उसे देखकर
मैंने जाना कि
वहाँ कोई जीवित
मनुष्य होगा क्योंकि
दिया बगैर जलाए
नहीं जलता।
मैं
घूमते-घामते दफ्तरखानों
और गोदामों में
गई जिनमें बड़ी
मूल्यवान वस्तुएँ रखी थीं।
इस सब को
देखकर मुझे ऐसा
आश्चर्य हुआ कि
मैं जहाज और
अपनी बहनों को
भूल गई और
इस रहस्य को
जानने के लिए
उत्सुक हुई कि
इस जगह के
सारे लोग पत्थर
के क्यों बन
गए।
इसी
तरह घूमने-फिरने
में मुझे समय
का खयाल न
रहा और रात
हो गई। मैं
परेशान हुई कि
अँधेरे में कहाँ
जाऊँगी। अतएव जिस
कक्ष में हीरा
रखा था मैं
उसी में चली
गई। वहाँ जाकर
लेटी रही और
सोचा कि सुबह
होने पर अपने
जहाज पर चली
जाऊँगी। किंतु वह अद्भुत
और निर्जन स्थान
था इसलिए मुझे
नींद न आई।
आधी रात को
मुझे कुछ ऐसी
आवाज आई जैसे
कोई मधुर स्वर
से कुरान का
पाठ कर रहा
हो। मैं यह
जानने को उत्सुक
हुई कि यह
जीवित मनुष्य कौन
है। मोम का
एक दीपक उठाकर
चल दी और
कई कमरों को
लाँघने के बाद
उस कमरे में
पहुँची जहाँ से
कुरान पाठ की
ध्वनि आ रही
थी।
वहाँ
जाकर देखा कि
एक छोटी-सी
मसजिद बनी है।
इससे मुझे याद
आया कि परमेश्वर
के धन्यवाद के
स्वरूप मुझे नमाज
पढ़नी जरूरी है।
वहाँ मैंने देखा
कि दो बड़े-बड़े मोम
के दीए जल
रहे हैं और
वहाँ एक अत्यंत
रूपवान नवयुवक बैठा हुआ
कुरान पाठ कर
रहा है और
पूरा ध्यान उसमें
लगाए है। मुझे
उस युवक को
देखकर अतीव प्रसन्नता
हुई क्योंकि पत्थर
के मनुष्यों की
भीड़ देखने के
बाद वह अकेला
आदमी देखा था
जो जीता-जागता
था। मैंने मसजिद
में जाकर नमाज
पढ़ी फिर स्पष्ट
ध्वनि में वजीफा
पढ़ने लगी और
भगवान को धन्यवाद
देने लगी कि
हमारी समुद्र यात्रा
कुशलपूर्वक बीती और
इसी प्रकार आशा
है कि दैवी
कृपा से मैं
कुशलपूर्वक अपने देश
वापस पहुँच जाऊँगी।
उस
नवयुवक ने मेरी
आवाज सुनकर मेरी
ओर देखा और
कहा, 'हे सुंदरी,
मुझे बताओ कि
तुम कौन हो
और इस सुनसान
नगर और महल
में कैसे आ
गई हो। इसके
बाद में तुम्हें
अपनी बात बताऊँगा
कि मैं कौन
हूँ और यह
भी बताऊँगा कि
इस नगर के
निवासी पत्थर के क्यों
हो गए।'
मैंने
उसे अपना हाल
बताया कि किस
तरह मेरा जहाज
बीस दिन की
यात्रा के बाद
यहाँ के तट
पर पहुँचा और
वहाँ से अकेली
उतर कर मैं
किस तरह इस
महल में आई
और यहाँ क्या-क्या देखा।
मैंने उससे कहा
कि आप, जैसा
आपने अभी वादा
किया है, मुझे
अपना हाल बताएँ
और यहाँ की
अद्भुत बातों का भी
रहस्योद्घाटन करें।
उस
युवक ने मुझे
कुछ देर प्रतीक्षा
करने को कहा।
फिर उसने कुरान
का निर्धारित पाठ
भाग पढ़ना खत्म
करके कुरान को
एक जरी के
वस्त्र में लपेटा
और उसे एक
आले में रख
दिया। इस बीच
मैं उस जवान
को देखती रही
और उसका सुंदर
रूप देखकर उस
पर मोहित हो
गई। उसने मुझे
अपने पास बिठाया
और कहा, 'तुम्हारी
नमाज से ज्ञात
होता है कि
तुम हमारे सच्चे
धर्म पर पूर्णतः
विश्वास करती हो।
अब मैं तुम्हें
अपना पूरा हाल
सुनाता हूँ।'
'इस नगर
का बादशाह मेरा
पिता था। उसका
राज्य बड़ा विस्तृत
था। किंतु बादशाह
और उसके सभी
अधीनस्थ लोग अग्निपूजक
थे। यही नहीं,
वे नारदीन की
उपासना भी किया
करते थे जो
प्राचीन काल में
जिन्नों का सरदार
था। यद्यपि मेरा
पिता और उसके
साथी अग्निपूजक थे
किंतु मैं बचपन
से ही मुसलमान
था। कारण यह
था कि मेरे
लालन-पालन के
लिए जो दाई
रखी गई थी
वह मुसलमान थी।
उसने मुझे सारा
कुरान कंठाग्र करा
दिया। उसने मुझे
शिक्षा दी कि
केवल एक ईश्वर
ही पूज्य है,
तुम उसे छोड़कर
किसी और को
न पूजना। उसने
मुझे अरबी भी
पढ़ाई और तफ्सीर
(कुरान की व्याख्या)
की भी शिक्षा
दी। यह सारा
काम उसने दूसरों
से छुपाकर किया।
'कुछ दिन
बाद दाई तो
मर गई किंतु
मैं उसके बताए
हुए धर्म पर
दृढ़ रहा। मुझे
इस बात का
बड़ा दुख होता
है कि मेरे
सारे देशवासी अग्निपूजक
और जिन्न के
उपासक हैं। दाई
की मृत्यु के
कई मास बीत
जाने पर आकाशवाणी
हुई कि हे
नगरवासियो, तुम लोग
नारदीन और आग
की पूजा छोड़
दो और एकमात्र
सर्व शक्तिमान परमेश्वर
की पूजा करो।
यह आकाशवाणी तीन
वर्षों तक निरंतर
होती रही किंतु
न बादशाह ने
न किसी अन्य
नगर निवासी ने
उस पर ध्यान
दिया। वे अपने
झूठे धर्म पर
दृढ़ रहे। तीन
वर्षों बाद इस
नगर पर ईश्वरीय
प्रकोप हुआ और
जो व्यक्ति जिस
स्थान और जिस
दशा में था,
वैसे ही पत्थर
बन गया। मेरा
पिता ही काले
संगमरमर का बन
गया और मेरी
माँ सिंहासन पर
बैठी-बैठी ही
पत्थर बन गई
जैसा तुमने देखा
है। एक मैं
ही मुसलमान होने
के कारण इस
दंड से बचा
रहा। उस समय
से और भी
निष्ठापूर्वक मैं इस्लाम
को मानने लगा।
हे सुंदरी, मैं
जानता हूँ कि
भगवान ने तुम्हें
मुझ पर कृपा
करके यहाँ भेजा
है क्योंकि मैं
यहाँ अकेलेपन से
बहुत ऊबा करता
था।'
मुझे
उसकी बातें सुनकर
उससे और प्रेम
बढ़ गया। मैंने
कहा, 'मैं बगदाद
की निवासिनी हूँ।
यहाँ किनारे पर
बहुत-से माल-असबाब से लदा
मेरा जहाज खड़ा
है। जितना माल
इसमें है उतना
ही बगदाद में
अपने घर छोड़
आई हूँ। मैं
आपको यहाँ से
ले चलूँगी और
अपने घर में
आराम से रखूँगी।
'बगदाद में
खलीफा बड़े न्यायप्रिय
हैं। वे आपके
सम्मान योग्य कोई पदवी
आपको जरूर देंगे।
मेरा जहाज आपकी
सेवा में है।
आप इस स्थान
को छोड़िए और
मेरे साथ चलिए।'
नौजवान
ने मेरा प्रस्ताव
सहर्ष स्वीकार कर
लिया। मैं सारी
रात उस आकर्षक
युवक से बातें
करती रही। दूसरे
दिन सुबह उसे
लेकर अपने जहाज
पर पहुँची। मेरी
बहिनें मेरी चिंता
में दुखी थीं।
मैंने अपने पिछले
दिन के अनुभव
सुनाए और उस
नौजवान की कहानी
भी बताई। फिर
मेरी आज्ञा से
जहाज के माँझियों
ने जहाज से
व्यापार वस्तुएँ उतार लीं
और उनकी जहाज
वे अमूल्य रत्न
आदि भर लिए
जो मुझे महल
में मिले थे।
महल का सारा
सामान तो एक
जहाज में आ
नहीं सकता था
इसलिए मैंने चुनी-चुनी बहुमूल्य
वस्तुएँ ही भरीं
और खाने-पीने
का सामान भी
महल से लेकर
जहाज पर लाद
लिया। साथ ही
शहजादे को भी
जहाज पर चढ़ा
लिया। इसके बाद,
असंख्य धन की
स्वामिनी होने के
साथ अपने प्रिय
शहजादे के सान्निध्य
का सुख पाते
हुए मैंने स्वदेश
की ओर यात्रा
आरंभ कर दी।
किंतु
मेरी बहनों को
प्रसन्नता न हुई।
शहजादा अत्यंत रूपवान और
मिष्टभाषी था। वे
मुझसे ईर्ष्या करने
लगीं। एक दिन
उन्होंने मुझसे पूछा कि
तुम इस शहजादे
को ले जाकर
कहाँ रखोगी और
इसके साथ क्या
करोगी। मुझे उनकी
दशा देखकर हँसी
आई और मैंने
उन्हें चिढ़ाने के लिए
कहा कि मैं
बगदाद में इसके
साथ विवाह करूँगी।
मैंने शहजादे से
कहा कि मैं
चाहती हूँ कि
आपकी दासियों में
हो जाऊँ और
जी-जान से
आपकी सेवा करूँ।
शहजादा भी मेरे
परिहास को समझ
गया और हँसकर
बोला, 'तुम्हारी जो इच्छा
हो वह करो।
मैं तुम्हारी बहनों
के समक्ष प्रतिज्ञा
करता हूँ कि
तुम्हारी प्रसन्नता के लिए
तुम्हें अपनी पत्नी
बनाऊँगा। दासी होने
की बात न
करो, मैं तो
स्वयं तुम्हारा दास
बन जाऊँगा।'
यह
सुनकर मेरी बहनों
के चेहरे का
रंग उड़ गया
और उनके हृदय
में मेरे लिए
घोर शत्रुता जागृत
हो गई। सारी
यात्रा उनकी यही
दशा रही बल्कि
उनका वैर भाव
बढ़ता ही गया।
जब हमारा जहाज
बूशहर के इतना
समीप आ गया
कि अनुकूल वायु
होने पर वहाँ
एक दिन में
पहुँच जाता तो
रात को जब
मैं गहरी नींद
सो रही थी,
मुझे और शहजादे
को उठाकर समुद्र
में फेंक दिया।
शहजादा
बेचारा तो उसी
समय डूब गया
क्योंकि तैरना नहीं जानता
था लेकिन मैंने
पानी में गिरते
ही उछाल मारी
और तैरने लगी।
मेरी आयु पूरी
नहीं हुई थी
इसलिए मैं अँधेरे
में भी संयोग
से ठीक दिशा
में बढ़ने लगी
और कुछ घंटों
में एक उजाड़
द्वीप के तट
पर जा लगी।
बूशहर का बंदरगाह
उस स्थान से
दस कोस दूर
था।
मैंने
अपने कपड़े उतारकर
सुखाए और फिर
उन्हें पहन लिया।
इधर-उधर घूमकर
देखा तो कुछ
फलों के वृक्ष
दिखाई दिए। मैंने
पेट भर फल
खाए फिर एक
मीठे पानी के
स्रोत से जल
पीकर अपनी थकान
दूर की थी।
फिर एक पेड़
के साए में
जाकर लेट गई।
कुछ देर बाद
मुझे एक लंबा
साँप दिखाई दिया
जिसके शरीर में
दोनों ओर पंख
भी लगे हुए
थे। वह साँप
पहले मेरी दाहिनी
ओर आया और
फिर बाईं ओर
और इस सारे
समय अपनी जीभ
लपलपाता रहा। मैंने
इससे जाना कि
इसे कुछ कष्ट
है और यह
मेरी सहायता चाहता
है। मैंने उठकर
चारों ओर दृष्टिपात
किया। मुझे दिखाई
दिया कि एक
दूसरा साँप उसके
पीछे पड़ा है
और उसे खाना
चाहता है। मैंने
पहले साँप को
बचाने के लिए
एक बड़ा पत्थर
उठाकर बड़े साँप
के सिर पर
मारा जिससे उसका
सिर फट गया
और वह वहीं
मर गया।
पहला
साँप अब पंख
खोलकर आसमान में
उड़ गया। मुझे
यह सब देखकर
आश्चर्य हुआ किंतु
मैं बहुत थकी
थी इसलिए वहाँ
से कुछ दूर
एक सुरक्षित स्थान
पर जाकर सो
रही। जागने पर
देखा कि एक
हरितवसना सुंदरी मेरे सिरहाने
दो काली कुतियाँ
लिए बैठी है।
मैं उसे देखकर
खड़ी हो गई
और उससे पूछा
कि तुम कौन
हो। उसने कहा,
मैं वही साँप
हूँ जिसकी जान
उसके दुश्मन से
तुमने बचाई थी,
अब मैं चाहती
हूँ कि जो
उपकार तुमने मेरे
साथ किया है
उसका बदला तुम्हें
दूँ। उसने कहा
कि मैं वास्तव
में एक परी
हूँ, यहाँ से
जाने के बाद
मैं अपनी जाति
बहनों यानी परियों
को साथ में
लेकर तुम्हारे जहाज
पर गई जहाँ
हम लोगों ने
तुम्हारी बहनों को - जिन्होंने
तुम्हारे उपकार का बदला
तुम्हारी जान लेने
का प्रयत्न करके
दिया था - कुतियाँ
बना डाला, तुम्हारे
जहाज का सारा
माल उठा कर
बगदाद में तुम्हारे
घर पहुँचा दिया
और जहाज को
वहीं डुबो दिया।
यह कहने के
बाद उस परी
ने एक हाथ
से मुझे उठाया
और दूसरे से
दोनों कुतियों को
और उड़कर हम
सब को बगदाद
में मेरे मकान
के अंदर पहुँचा
दिया।
वहाँ
पर परी ने
मुझ से कहा
कि मैं ईश्वर
की सौंगंध खाकर
कहती हूँ कि
तुम्हारी बहनों की सजा
पूरी नहीं हुई
है, मेरी आज्ञा
है कि तुम
हर रात उन्हें
सौ कोड़े लगाना
और तुमने यह
बात न मानी
तो तुम्हारा सब
कुछ बरबाद हो
जाएगा। वैसे हम
परियाँ तुम्हारी मित्र हो
गई हैं और
तुम जब भी
हमें बुलाओगी हम
आ जाएँगे। जुबैदा
ने कहा कि
मैं उस परी
की आज्ञानुसार हर
रात को अपनी
बहनों को, जो
कुतियाँ बनी हुई
हैं, सौ-सौ
कोड़े मारती हूँ
लेकिन खून का
जोश भी काम
करता है इसलिए
रोती हूँ और
उनके आँसू पोंछती
हूँ। अब अमीना
की कहानी उसके
मुँह से सुनिए।
खलीफा
को यह वृत्तांत
सुन कर बड़ा
आश्चर्य हुआ। उसने
अमीना से पूछा
कि तुम्हारे कंधों
और सीनों पर
काले निशान क्यों
है। उसने यह
बताया।
स्रोत-इंटरनेट
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