मित्रो,
पहली यात्रा में
मुझ पर जो
विपत्तियाँ पड़ी थीं
उनके कारण मैंने
निश्चय कर लिया
था कि अब
व्यापार यात्रा न करूँगा
और अपने नगर
में सुख से
रहूँगा। किंतु निष्क्रियता मुझे
खलने लगी, यहाँ
तक कि मैं
बेचैन हो गया
और फिर इरादा
किया कि नई
यात्रा करूँ और
नए देशों और
नदियों, पहाड़ों आदि को
देखूँ। अतएव मैंने
भाँति-भाँति की
व्यापारिक वस्तुएँ मोल लीं
और अपने विश्वास
के व्यापारियों के
साथ व्यापार यात्रा
का कार्यक्रम बनाया।
हम लोग एक
जहाज पर सवार
हुए और भगवान
का नाम लेकर
कप्तान ने जहाज
का लंगर उठा
लिया और जहाज
पर चल पड़ा।
हम
लोग कई देशों
और द्वीपों में
गए और हर
जगह क्रय-विक्रय
किया। फिर एक
दिन हमारा जहाज
एक हरे-भरे
द्वीप के तट
से आ लगा।
उस द्वीप में
सुंदर और मीठे
फलों के बहुत
से वृक्ष थे।
हम लोग उस
द्वीप पर सैर
के लिए उतर
गए। किंतु वह
द्वीप बिल्कुल उजाड़
था यानी वहाँ
किसी मनुष्य का
नामोनिशान भी नहीं
था, बल्कि कोई
पक्षी भी दिखाई
नहीं देता था।
मेरे साथी पेड़ों
से फल तोड़ने
लगे लेकिन मैंने
एक सोते के
किनारे बैठ कर
खाना निकाला और
खाया और उसके
साथ शराब पी।
शराब कुछ अधिक
हो गई और
मैं सो गया
तो बहुत समय
तक सोता ही
रहा। जब आँख
खुली तो देखा
कि मेरा कोई
साथी वहाँ नहीं
है और हमारा
जहाज भी पाल
उड़ाता हुआ समुद्र
में आगे जा
रहा है। कुछ
ही क्षणों में
जहाज मेरी आँखों
से ओझल हो
गया।
मैंने
यह देखा तो
हतप्रभ रह गया।
मुझे उस समय
जो दुख और
संताप हुआ उसका
मैं वर्णन नहीं
कर सकता। मुझे
विश्वास हो गया
कि इसी उजाड़
द्वीप में मैं
मर जाऊँगा और
मेरी खबर लेने
वाला भी कोई
न रहेगा। मैं
चिल्ला-चिल्ला कर रोने
लगा और सिर
और छाती पीटने
लगा। मैं अपने
को बार-बार
धिक्कारता कि कमबख्त
तुझ पर पहली
यात्रा ही में
क्या कम विपत्तियाँ
पड़ी थीं कि
दुबारा यह मुसीबत
मोल ले ली।
लेकिन कब तक
रोता-पीटता। अंत
में भगवान का
नाम लेकर उठा
और इधर-उधर
घूमने लगा कि
कोई राह मिले
तो जाऊँ। कोई
रास्ता न दिखाई
दिया तो मैं
एक ऊँचे पेड़
पर चढ़ गया
कि शायद इधर-उधर कोई
ऐसी जगह मिले
जहाँ रात काटूँ।
किंतु द्वीप के
पेड़ों, समुद्र के जल
और आकाश के
अतिरिक्त कुछ न
देख सका।
कुछ
देर बाद टापू
पर मुझे दूर
पर एक सफेद
चीज दिखाई दी।
मैंने सोचा कि
शायद वहीं ठिकाना
मिले यद्यपि समझ
में नहीं आता
था कि वह
क्या है। मैं
पेड़ से उतरा
और अपना बचा-खुचा खाना
लेकर उस सफेद
चीज के पास
पहुँचा। वह एक
बड़े गुंबद-सा
था लेकिन उसका
कोई दरवाजा न
था। वह चिकनी
चीज थी जिस
पर चढ़ा भी
नहीं जा सकता
था। उसके चारों
ओर घूमने में
पचास कदम होते
थे।
अचानक
मैंने देखा कि
अँधेरा हो गया।
मुझे आश्चर्य हुआ
कि यह शाम
का समय तो
है नहीं, अँधेरा
कैसे हो गया।
फिर मैंने देखा
कि एक विशालकाय
पक्षी जो मेरे
अनुमान में भी
पहले नहीं आ
सकता था मेरी
तरफ उड़ा आता
है। मैं उसे
देखकर भयभीत हुआ।
फिर मुझे कुछ
जहाजियों के मुँह
से सुनी बात
याद आई कि
रुख नामी एक
बहुत ही बड़ा
पक्षी होता है।
अब मैंने जाना
कि वह सफेद
विशालकाय वस्तु इसी मादा
रुख का अंडा
है। मादा रुख
आकर अपने अंडे
पर उसे सेने
के लिए बैठ
गई। उसका एक
पाँव मेरे समीप
पड़ गया। उसका
एक-एक नाखून
एक बड़े वृक्ष
की जड़ जैसा
था। मैंने अपनी
पगड़ी से अपना
शरीर उसके एक
नाखून से कसकर
बाँध लिया क्योंकि
मुझे आशा थी
कि यह पक्षी
कहीं उड़कर जाएगा
ही।
सवेरे
वह पक्षी उड़ा
और इतना ऊँचा
हो गया कि
जहाँ से पृथ्वी
बड़ी कठिनता से
दिखाई देती थी।
कुछ ही देर
में वह उतर
कर एक बड़े
जंगल में जा
पहुँचा। मैंने जमीन से
लगते ही अपनी
पगड़ी की गाँठ
खोलकर उससे अलग
हो गया। उसी
समय रुख ने
एक बहुत ही
बड़े अजगर को
धर दबोचा और
उसे पंजों में
लेकर फिर उड़
गया।
जहाँ
मुझे रुख ने
छोड़ा था वह
एक बहुत नीची
और खड़ी ढलान
की एक घाटी
थी। वहाँ पर
आने जाने की
शक्ति किसी मनुष्य
में नहीं हो
सकती। मुझे खेद
हुआ कि मैं
कहाँ आ गया,
यह जगह उस
द्वीप से भी
खराब है। मैंने
देखा कि वहाँ
की भूमि पर
असंख्य हीरे बिखरे
पड़े हें। उनमें
से कुछ तो
इतने बड़े थे
जो साधारण मनुष्य
के अनुमान के
बाहर थे। मैंने
बहुत से हीरे
इकट्ठे किए और
एक चमड़े की
थैली में उन्हें
भर लिया। किंतु
हीरों के मिलने
की प्रसन्नता क्षणिक
ही थी क्योंकि
मैंने शाम होते
ही यह भी
देखा कि वहाँ
बहुत-से अजगर
तथा अन्य विशालकाय
और भयानक साँप
घूम रहे हैं।
यह साँप दिन
में रुख के
डर से खोहों
में छुपे रहते
थे और रात
को निकलते थे।
मैंने भाग्यवश एक
छोटी-सी गुफा
पा ली और
उसमें छुपकर बैठ
गया और उसका
मुँह पत्थरों से
अच्छी तरह बंद
कर दिया ताकि
कोई अजगर अंदर
न आ सके।
मैंने अपने पास
बँधे भोजन में
से कुछ खाया
किंतु मुझे रात
भर नींद नहीं
आई क्योकि साँपों
और अजगरों की
भयानक फुसकारें मुझे
डराती रहीं और
मैं रात भर
जान के डर
से काँपता रहा।
सुबह
होने पर साँप
फिर छुप गए
और मैं बाहर
निकल कर एक
खुली जगह में
सो गया। कुछ
ही देर में
मेरे पास एक
भारी-सी चीज
गिरी। आवाज से
मेरी आँख खुल
गई। मैंने देखा
कि वह एक
विशाल मांस पिंड
था। कुछ ही
देर में देखा
कि इसी तरह
के अन्य मांस
पिंड घाटी में
चारों ओर से
गिरने लगे। मुझे
यह सब देखकर
घोर आश्चर्य हुआ।
कुछ
ही देर में
मुझे जहाजियों के
मुँह से सुनी
एक बात याद
आई कि एक
घाटी में असंख्य
हीरे हैं। किंतु
वहाँ कोई जा
नहीं सकता। हीरों
के व्यापारी आस-पास के
पहाड़ों पर चढ़कर
वहाँ बड़े-बड़े
मांस पिंड फेंक
देते हैं जिनमें
हीरे चिपक जाते
हैं। इसके बाद
विशालकाय गिद्ध आकर उन
मांस पिंडों को
ले जाते हैं।
जब वे ऊपर
बने अपने घोंसलों
में जाते हैं
तो व्यापारी लोग
बड़ा शोरगुल करके
उन्हें उड़ा देते
हैं और मांस
पिंडों में चिपके
हुए हीरे ले
लेते हैं।
मैं
पहले परेशान था
कि इस कब्र
जैसी घाटी से
कैसे निकलूँगा क्योंकि
पिछले दिन बहुत
घूमने-फिरने पर
भी निकलने की
कोई राह नहीं
दिखाई दी थी।
किंतु उन मांस
पिंडों को देख
कर मुझे बाहर
निकलने की कुछ
आशा बँधी। मैंने
पुराने उपाय से
काम लिया। मैंने
अपने को एक
मांस पिंड के
नीचे की ओर
बाँध लिया। कुछ
ही देर में
एक विशाल गिद्ध
उतरा और मांस
पिंड को और
उसके साथ मुझे
लेकर उड़ गया।
मैंने वह चमड़े
की थैली भी
मजबूती से अपनी
कमर में बाँध
ली जिसमें पहले
मेरा भोजन था।
और जिसमें बाद
में मैंने हीरे
भर लिए थे।
गिद्ध ने मुझे
पहाड़ की चोटी
पर बने अपने
घोंसले में पहुँचा
दिया। मैंने तुरंत
स्वयं को मांस
खंड से अलग
कर लिया।
उसी
समय बहुत-से
व्यापारी शोरगुल करते हुए
आए और बड़ा
गिद्ध डरकर भाग
गया। उन व्यापारियों
में से एक
की दृष्टि मुझ
पर पड़ी। वह
मुझे देख कर
मुझ पर क्रोध
करने लगा कि
तू यहाँ क्यों
आया। उसने समझा
कि मैं हीरे
चुराने के लिए
गिद्ध के घोंसले
में चला आया
था। अन्य व्यापारियों
ने भी मुझे
घेर लिया। मैंने
कहा कि भाइयो,
आप लोग मेरी
कहानी सुनेंगे तो
मुझ पर क्रोध
करने के बजाय
मुझ पर दया
ही करेंगे, मेरे
पास बहुत-से
हीरे इस थैली
में हैं, वे
सारे हीरे मैं
आप लोगों को
दे दूँगा। यह
कहकर मैंने अपनी
सारी कहानी उन
लोगों को सुनाई
और उन सभों
को मेरी विचित्र
कथा और संकटों
से बचकर निकलने
पर बड़ा आश्चर्य
हुआ।
व्यापारियों
का नियम था
कि एक-एक
गिद्ध के घोंसले
को एक-एक
व्यापारी चुन लेता
था। वहाँ से
मिले हीरों पर
उसके सिवा किसी
का अधिकार नहीं
होता था। इसीलिए
वह व्यापारी, जिसके
हिस्से में वह
घोंसला था, मुझ
पर क्रोध कर
रहा था। मैंने
अपनी थैली उलट
दी। सब लोगों
की आँखें आश्चर्य
से फट गईं
क्योंकि मैंने कई बहुत
बड़े-बड़े हीरे
भी भर लिए
थे। मैंने उस
व्यापारी से, जिसके
हिस्से में वह
घोंसला था, कहा
कि आप यह
सारे हीरे ले
लीजिए। उसने कहा
कि यह हीरे
तुम्हारे हैं, मैं
इनमें से कुछ
न लूँगा। किंतु
जब मैंने बहुत
जोर दिया तो
उसने एक बड़ा
हीरा और दो-चार छोटे
हीरे ले लिए
और कहा कि
इतना धन मुझे
सारी जिंदगी आराम
से रहने को
काफी है और
मुझे दोबारा यहाँ
आने और हीरे
प्राप्त करने की
आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
रात
मैंने उन्हीं व्यापारियों
के साथ गुजारी।
उन्होंने मुझसे विस्तार से
मेरी कहानी जाननी
चाही और मैंने
सारे अनुभवों का
उनसे वर्णन किया।
मुझे अपने सौभाग्य
पर स्वयं जैसे
विश्वास नहीं हो
रहा था। दूसरे
दिन उन्हीं व्यापारियों
के साथ रुहा
नामी द्वीप में
पहुँचा। यहाँ पर
भी बड़े-बड़े
साँप भरे पड़े
थे। हम लोगों
का भाग्य अच्छा
था कि उन
साँपों से हमें
कोई क्षति नहीं
हुई।
रुहा
द्वीप में कपूर
के बहुत बड़े
पेड़ थे। कपूर
के पेड़ की
टहनियों को छुरी
से चीरकर नीचे
एक बर्तन रख
देते हैं। पेड़
का रस निकलकर
बर्तन में जमा
हो जाता है
और जमकर यही
कपूर कहलाता है।
पूरा रस निकल
जाने पर वह
टहनी मुरझा कर
सूख जाती है।
कपूर का पेड़
इतना बड़ा होता
है कि उसकी
छाया में सौ
आदमी बैठ सकते
हैं। उस द्वीप
में एक पशु
होता है जिसे
गेंडा कहते है।
वह भैंसे से
बड़ा और हाथी
से छोटा होता
हैं। उसकी नाक
पर एक लंबी
सींग होती है।
उस सींग पर
सफेद रंग के
आदमी की तस्वीर
बनी होती है।
कहा जाता है
कि गेंडा हाथी
के पेट में
सींग घुसेड़ कर
उसे मार डालता
है और अपने
सिर पर उठा
लेता है। किंतु
हाथी का खून
और चरबी जब
उसकी आँखों में
पड़ती है तो
वह अंधा हो
जाता है। ऐसी
दशा में रुख
पक्षी आता है
और गेंडे और
हाथी दोनों को
पंजों में दबाकर
उड़ जाता है
और अपने घोंसले
में जाकर अपने
बच्चों को उनका
मांस खिलाता है।
उस
द्वीप से होता
हुआ मैं और
बहुत-से द्वीपों
में गया और
अपने हीरों के
बदले वहाँ की
बहुमूल्य वस्तुएँ खरीदीं। इस
प्रकार कई द्वीपों
और देशों में
व्यापार करता हुआ
बसरा के बंदरगाह
और वहाँ से
बगदाद पहुँचा। मेरे
पास इस यात्रा
में भी बहुत
धन इकट्ठा हो
गया था। मैंने
उसमें से काफी
दान किया और
कई निर्धनों को
धन से संतुष्ट
किया। अपनी दूसरी
सागर यात्रा का
वृत्तांत समाप्त करके सिंदबाद
ने हिंदबाद को
चार सौ दीनारें
देकर विदा किया
और कहा कि
कल इसी समय
यहाँ आना तो
तुम्हें अपनी तीसरी
सागर यात्रा का
वृत्तांत सुनाऊँगा। यह सुन
कर हिंदबाद भी
उसे धन्यवाद देकर
विदा हुआ और
अन्य उपस्थित लोग
भी।
तीसरे
दिन नियत समय
पर हिंदबाद तथा
अन्य मित्रगण सिंदबाद
के घर आए।
दोपहर का भोजन
समाप्त होने पर
सिंदबाद ने कहा,
दोस्तो, अब मेरी
तीसरी यात्रा की
कहानी सुनो जो
पहली दो यात्राओं
से कम विचित्र
नहीं है।
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