हे
दयालु सुंदरी, मेरी
कहानी बहुत ही
आश्चर्यकारी है। इन
दोनों शहजादों की
दाहिनी आँखें परिस्थितिवश गईं
किंतु मेरी आँख
मेरी ही मूर्खता
और मेरे ही
अपराध के कारण
फूटी। मैं इसका
विस्तृत वर्णन करता हूँ।
मेरा नाम अजब
है और मैं
महा ऐश्वर्यशाली बादशाह
किसब का बेटा
हूँ। पिता के
स्वर्गवास के बाद
मैं सिंहासनारूढ़ हुआ
और उसी नगर
में रहने लगा
जिसे मेरे पिता
ने अपनी राजधानी
बनाया था। मेरी
राजधानी समुद्र के किनारे
बसी थी। उसकी
रक्षा के लिए
डेढ़ सौ युद्ध
पोत तैयार रहते
थे। इसके अलावा
दूरस्थ व्यापार के लिए
पचास जहाज थे
और बहुत-से
दूसरे जहाज भी
लंगर डाले रहते
थे कि लोग
उन पर बैठकर
समुद्र में सैर-सपाटा किया करें।
मेरे राज्य में
कई अन्य नगर
और द्वीप भी
थे।
एक
बार मेरी इच्छा
हुई कि मैं
अपने राज्य के
नगरों और द्वीपों
को जाकर देखूँ,
वहाँ के निवासियों
को, जो मेरे
पिता की मृत्यु
से शोकाकुल थे,
सांत्वना दूँ और
उन्हें आदेश दूँ
कि वे नागरिक
कार्यों और व्यापार
में तत्परता से
लगे रहें। साथ
ही मुझे यह
शौक हुआ कि
मैं जहाज चलाना
सीखूँ। इस उद्देश्य
से मैं एक
बड़े जहाज पर
सवार होकर चला।
मेरे जहाज के
साथ दस जहाज
और चल रहे
थे। चालीस दिन
तक वायु हमारे
अनुकूल रही किंतु
फिर ऐसा तूफान
आया कि हम
जीवन की आशा
खो बैठे। दूसरे
दिन आकाश साफ
हो गया। हम
लोग एक द्वीप
पर उतर पड़े।
दो दिन आराम
करने और जहाज
के भंडार भरने
के बाद हम
फिर चले। आशा
थी कि दस
दिन में हम
अपने देश को
वापस पहुँच जाएँगे।
किंतु ऐसा न
हुआ। कारण यह
था कि जहाज
एक अन्य तूफान
में रास्ते से
भटक गए थे।
हमारे कप्तान ने
एक आदमी को
मस्तूल पर चढ़ाया
कि शायद कहीं
जमीन दिखाई दे।
उसने बताया कि
दाईं तरफ कोई
काली-सी वस्तु
दिखाई दे रही
है, शायद भूमि
हो। लेकिन यह
सुनकर कप्तान सिर
पीटने और बाल
नोचने लगा और
बोला, 'हे स्वामी,
अब हम सब
खत्म हो जाएँगे।
हमारे बचने का
कोई उपाय नहीं
है।' यह कहकर
वह और बुरी
तरह रोने-पीटने
लगा। उसकी यह
दशा देखकर अन्य
माँझी भी घबरा
गए।
मैंने
हैरान होकर कप्तान
से पूछा कि
हम क्यों समाप्त
हो जाएँगे। उसने
बताया कि 'तूफान
के कारण हमें
दिशा ज्ञान नहीं
रहा और हम
मार्ग से भटक
गए और अब
हवा के कारण
हमारा जहाज उस
काली वस्तु के
पास जा पहुँचेगा।
वह एक चुंबक
का पहाड़ है।
जहाज वहाँ पहुँचेगा
तो उसकी सारी
कीलें और लौह
पट्टिकाएँ लकड़ी से अलग
होकर उससे जा
चिपकेंगी और जहाज
टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा।
चुंबक पत्थर में
यह गुण होता
है कि वह
लोहे को आकृष्ट
करता है और
जैसे-जैसे लोहा
उसके समीप आता
है कि चुंबक
की आकर्षण शक्ति
बढ़ जाती है।
सैकड़ों जहाजों के लोहे
के टुकड़े इस
पर्वत में जा
चिपके हैं जिनके
कारण वह ऊपर
से नीचे तक
लोहे के टुकड़ों
से ढँक गया
है और रंग
में काला दिखाई
देता है। कहते
हैं यह पहाड़
बहुत ऊँचा है।
उसके सभी किनारे
ढलवाँ हैं। उसकी
चोटी पर एक
बहुत बड़ी पीतल
की गोल और
मोटी चादर है
जो पीतल के
खंभों पर टिकी
हुई है। उस
चादर पर एक
घुड़सवार की मूर्ति
पीतल की बनी
हुई है। सवार
की छाती पर
एक सीसे की
तख्ती लगी है
जिस पर कुछ
जादू के अक्षर
खुदे हैं। कहते
हैं कि पहाड़
की आकर्षण शक्ति
का कारण वही
मूर्ति है।'
यह
कहकर कप्तान फिर
रोने-पीटने लगा
और उसके साथ
जहाज के दूसरे
माँझी भी रोने-चिल्लाने लगे। मुझे
भी लगने लगा
कि मेरी उम्र
अब खत्म होने
को है और
मेरी मौत मुझे
खींच कर यहाँ
लाई है। सभी
लोग इस चिंता
में पड़े कि
कैसे अपने प्राणों
की रक्षा करें।
वह लोग यह
भी कहने लगे
कि जो कोई
हमारे प्राण बचाए
हम सदा के
लिए उसके गुलाम
हो जाएँगे। सब
ने कोई न
कोई उपाय सोच
लिया। सुबह को
हमारा जहाज उस
काले पहाड़ के
सामने जा पहुँचा।
उसे देखकर सबके
छक्के छूट गए
और जो उपाय
लोगों ने बचाव
के लिए सोचे
थे सब भूल
गए और जहाज
में ऐसा करुण
क्रंदन होने लगा
जिसका ठिकाना न
था।
दोपहर
को वही हुआ
जो अनुभवी कप्तान
ने कहा था
यानी पहाड़ ने
जहाजों को इतनी
जोर से खींचा
कि उनकी कीलें
और लोहे की
दूसरी चीजें उड़-उड़ कर
पहाड़ से चिपकने
लगीं। जहाजों के
टूटने से महा
भयानक शब्द होने
लगा और कुछ
ही क्षणों में
ग्यारहों जहाज सागर
तल में समा
गए। उन जहाजों
की किसी वस्तु
और किसी मनुष्य
का पता न
लगा। एक मैं
ही भगवान की
दया से जीता
रहा। संयोग से
एक जहाज का
टुकड़ा मेरे हाथ
आ गया और
मैं उसी के
सहारे तैरने लगा।
कुछ ही देर
में मैं किनारे
पर पहाड़ के
नीचे पहुँचा। मैं
पहाड़ पर चढ़कर
सुरक्षित होना चाहता
था लेकिन वह
ऐसी खड़ी ढलान
का पहाड़ था
कि कहीं ऊपर
जाने की गुंजाइश
ही नहीं मालूम
होती थी।
अचानक
मुझे एक ओर
नीचे से ऊपर
जाते हुए मानव
पदचिह्न गहरे खुदे
हुए दिखाई दिए
जिनसे ऊपर तक
सीढ़ियाँ-सी बन
गई थीं। मैंने
भगवान का नाम
लेकर चढ़ना शुरू
किया। चढ़ने की
जगह बड़ी तंग
थी और कहीं
भी दूसरा मार्ग
नहीं दिखाई देता
था। साथ ही
हवा इतने वेग
से चल रही
थी कि प्रतिक्षण
गिरने का भय
था। लेकिन भगवान
की कृपा से
मैं धीरे-धीरे
ऊपर तक जा
पहुँचा और पीतल
के गोले के
अंदर जाकर भगवान
को धन्यवाद देने
लगा कि उसने
इतनी कठिन परिस्थितियों
में भी मुझे
जीवित रखा। रात
हो गई थी
इसलिए उसी वृत्त
के अंदर लेट
कर सो गया।
स्वप्न
में देखा, मुझ
से एक बूढ़ा
कह रहा है,
'ऐ अजब, जागने
पर अपने पाँवों
के नीचे की
भूमि खोदना। तुम्हें
एक पीतल का
धनुष और सीसे
के तीन बाण
मिलेंगे। वे तीनों
तीर घोड़े पर
सवार मूर्ति को
मारना, इससे मूर्ति
समुद्र में जा
गिरेगी और घोड़ा
तेरे पैरों के
पास आ गिरेगा।
तुम घोड़े को
वहीं भूमि में
गाड़ देना। इसके
बाद समुद्र में
तूफान आएगा और
वह चढ़ने लगेगा
- यहाँ तक कि
तुम्हारे पास आ
जाएगा और एक
छोटी नाव से
तुम एक अन्य
समुद्र में पहुँच
जाओगे और फिर
अपने नगर को
पहुँच जाओगे। लेकिन
खबरदार, इस सारे
समय में भगवान
का नाम बिल्कुल
नहीं लेना।'
इसके
बाद मेरी आँख
खुल गई। मैं
अपने छुटकारे का
उपाय जान कर
अति प्रसन्न हुआ।
बूढ़े के कहने
के अनुसार धरती
को खोदा तो
उसमें से तीन
बाण और धनुष
निकले। मैंने कमान से
तीनों तीर पीतल
के घुड़सवार पर
छोड़े। तीसरे तीर के
लगते ही सवार
की मूर्ति समुद्र
में गिर गई
और घोड़े की
मूर्ति मेरे पाँवों
के पास आ
गिरी। मैंने उसे
उसी जमीन में
गाड़ दिया जहाँ
से धनुष और
बाण निकाले थे।
अब समुद्र चढ़ने
लगा और चढ़ते-चढ़ते पीतल के
घेरे के पास
आ गया। जहाँ
मैं था वहाँ
एक नाव भी
आ लगी जिसमें
पीतल का माँझी
बैठा था। मैं
नाव पर बैठ
गया।
वृद्ध
पुरुष की हिदायत
को ध्यान में
रखकर मैंने भगवान
का नाम न
लिया, बल्कि अपना
मुँह बंद ही
रखा। पीतल का
माँझी नौ दिन
तक नाव चलाता
रहा और ऐसी
जगह पहुँच गया
जहाँ आसपास कई
द्वीप दिखाई दे
रहे थे। मैं
बहुत खुश हुआ
कि अब कठिनाइयों
से उबर जाऊँगा
और इसी दशा
में भगवान को
धन्यवाद दे बैठा।
तुरंत ही माँझी
समेत वह नाव
समुद्र में डूब
गई।
अब
मैं फिर तैरने
लगा और एक
द्वीप की ओर
जाने लगा। कई
घंटे तक तैरता
रहा। यहाँ तक
कि शाम होने
लगी और मेरे
हाथ-पाँव भी
थकन से ऐसे
भारी हो गए
कि तैरा ही
नहीं जाता था।
ऐसे ही में
एक बड़ी भारी
लहर आई और
उसने मुझे तट
पर ला फेंका।
मैं दौड़कर आगे
चला गया कि
कहीं दूसरी लहर
आकर मुझे वापस
समुद्र में न
खींच ले जाए।
मैंने अपने कपड़े
उतार कर निचोड़ा
और हवा में
हिलाकर सुखाए। फिर मैं
इधर-उधर घूमकर
देखने लगा। कई
फल वाले पेड़
दिखाई दिए लेकिन
वहाँ आदमी कोई
नहीं दिखाई दिया।
मैंने कई फल
खाए और इस
तरह अपनी भूख
और थकान दूर
की। इसके बाद
मैंने अपनी चिंता
छोड़ दी और
सोचा कि जो
भगवान करेगा ठीक
ही होगा।
थोड़ी
देर बाद देखा
कि एक छोटा-सा जहाज
पाल उड़ाता हुआ
उस द्वीप की
ओर आ रहा
है। पहले मैंने
सोचा कि वह
तट पर आए
तो मैं उसके
पास जाऊँ। फिर
सोचा कि अच्छी
तरह देख लेना
चाहिए, ऐसा तो
नहीं कि उसमे
लुटेरे हों या
मेरे शत्रु हों।
इसलिए मैं एक
घने और ऊँचे
पेड़ पर चढ़
गया और छुपकर
बैठ गया और
ध्यानपूर्वक देखने लगा कि
जहाज के लोग
क्या करते हैं।
कुछ
ही देर में
जहाज किनारे पर
रुका और उसमें
से बहुत-से
आदमी फावड़े और
दूसरे औजार लेकर
निकले। फिर वे
कुछ दूर जाकर
भूमि खोदने लगे।
खोदते-खोदते वे
एक दरवाजे तक
पहुँच गए। फिर
वे जहाज में
वापस गए और
उसमें से बहुत-सी खाद्य
वस्तुएँ और बिस्तर,
फर्श आदि के
बोझों को लादे
हुए उसी दरवाजे
को उठाकर नीचे
चले गए। फिर
वे लोग जो
नौकर-चाकर ज्ञात
होते थे जहाज
में जाकर एक
वृद्ध पुरुष और
चौदह पंद्रह वर्ष
के अति सुंदर
बालक को लाए
और सब के
सब दरवाजे से
नीचे उतर गए
जहाँ स्पष्टतः ही
कोई मकान बना
हुआ था। वहाँ
से लौटकर उन्होंने
दरवाजा बंद कर
दिया और उस
पर मिट्टी डाल
कर बराबर कर
दी। लेकिन वे
वापस हुए तो
वह सुंदर बालक
उनके साथ नहीं
था।
मुझे
यह सब बातें
देखकर अत्यंत आश्चर्य
हुआ। मैं कुछ
देर और देखता
रहा। वह जहाज
फिर चल पड़ा
और जब मैंने
देखा कि वहाँ
कोई नहीं है
तो पेड़ से
उतर कर उस
स्थान पर गया
जहाँ पर उन्होंने
भूमि खोदी थी।
मैंने वहाँ की
मिट्टी हटाई तो
देखा कि एक
बड़ा चौकोर पत्थर
रखा है। उसे
उठाया तो दिखाई
दिया कि नीचे
तक सीढ़ियाँ गई
हैं। मैं उतरकर
नीचे गया तो
देखा कि बहुत
बड़ा मकान है
जहाँ हर तरफ
कालीन बिछे हैं।
दालान में कालीन
पर सुंदर गद्दे
पड़े हैं जिन
पर सुनहरे गिलाफ
चढ़े हैं। वहाँ
पर बालक बैठा
था। वह एक
हलका-सा पंखा
झल रहा था,
उसके पास दो
बड़ी मोमबत्तियाँ जल
रही थीं, कई
गुलदस्ते और खाने-पीने की
बहुत-सी चीजें
उसके पास रखी
थीं।
मुझे
वहाँ देखकर वह
बालक घबरा गया।
मैंने उसे तसल्ली
देते हुए कहा
कि 'तुम मुझसे
डरो नहीं। तुम
तो राजकुमारों जैसे
लगते हो। मैं
तुम्हारे जैसे बच्चों
को किसी प्रकार
की हानि नहीं
पहुँचाना चाहता। मुझे यह
देखकर दुख हुआ
कि तुम्हारे साथी
तुम्हें जीते जी
ही इस कब्र
में गाड़ गए
हैं। खैर, अब
तुम चिंता न
करो, मैं तुम्हें
इस कब्र से
निकाल दूँगा। लेकिन
पहले तुम अपना
किस्सा तो बताओ
कि वे लोग
तुम्हें यहाँ क्यों
गाड़ गए हैं।
देखो, सब कुछ
निडर होकर सच-सच बताना।
कुछ छुपाना नहीं।
यह तो मैं
देख चुका हूँ
कि उन सब
लोगों ने मिलकर
तुम्हें यहाँ दफन
किया है और
शायद तुम यहाँ
पर जबर्दस्ती लाए
गए हो। लेकिन
मैं यह जानना
चाहता हूँ कि
उन लोगों ने
ऐसा क्यों किया।'
मेरी
बातों से लड़के
को तसल्ली हुई।
उसने मुझे अपने
पास बैठने को
कहा और जब
मैं बैठ गया
तो उसे अपना
वृत्तांत आरंभ किया,
'हे महानुभाव, मेरी
कहानी बड़ी आश्चर्यजनक
है, आप उसे
सुनकर स्तंभित रह
जाएँगे। मेरा पिता
एक जौहरी है।
उसने अपनी लगन
और बुद्धिमानी से
बहुत साधन एकत्रित
किया है। उसके
सैकड़ों नौकर-चाकर
और बहुत-सी
कोठियाँ हैं। वह
अपने जहाजों पर
सवार होकर देश-देश घूमता
है। हर स्थान
पर उसके गुमाश्ते
हैं जो उसकी
ओर से रत्नों
का क्रय-विक्रय
करते हैं।
'इतना प्रचुर
धन होने पर
भी मेरे पिता
के यहाँ बहुत
दिनों तक कोई
संतान नहीं हुई।
एक रात उसने
स्वप्न में देखा,
कोई कह रहा
है कि तुम्हारे
यहाँ एक पुत्र
होगा किंतु उसकी
आयु बहुत कम
होगी। यह स्वप्न
देख कर मेरे
पिता को बड़ा
दुख और चिंता
व्याप्त हुई। उसके
कुछ दिनों बाद
मेरी माता ने
मेरे पिता को
बताया कि मुझे
गर्भ रह गया
है। उसके नौ
महीने बाद मैं
पैदा हुआ। मेरे
जन्म पर सारे
परिवार वालों और नातेदारों
को अतीव प्रसन्नता
हुई किंतु मेरे
पिता को अपना
स्वप्न याद करके
दुख ही बना
रहता था। अतएव
उसने ज्योतिषी लोगों
से सलाह ली।
उन्होंने कहा, इस
बालक को चौदहवें
वर्ष में मृत्यु
का भय है।
अगर उस समय
बच गया तो
फिर यह बहुत
दिन जिएगा और
इसकी आयु काफी
लंबी होगी।
'उन्होंने कहा
कि हमें ग्रहों
से यह भी
ज्ञात हुआ है
कि अजब नाम
का बादशाह एक
पीतल के घुड़सवार
को, जो एक
चुंबक के पर्वत
की चोटी पर
मौजूद हैं, समुद्र
में गिरा देगा,
उसके पचास दिन
के बाद अजब
बादशाह इस लड़के
को मार डालेगा।
मेरा पिता तो
पहले ही से
स्वप्न देखकर दुखी था,
अब ज्योतिषियों से
यह सुनकर और
भी चिंता में
पड़ गया और
रात-दिन यह
सोचता रहता कि
इस लड़के की
जान कैसे बचाई
जाए। इसीलिए उसने
यह तहखाने का
मकान बनवाया। मुझे
चौदहवाँ वर्ष लगा
तो दूसरे ही
दिन ज्योतिषियों ने
आकर कहा कि
दस दिन हुए
बादशाह अजब ने
पीतल के घुड़सवार
को समुद्र में
गिरा दिया है।
यह सोचकर मेरे
पिता की चिंता
और बढ़ी और
वह घंटों तक
सोचता रहा कि
मेरे सर से
ग्रह कैसे टले।
अंततः उसने इस
निर्जन द्वीप में पहले
से बनाए हुए
भूमिगत आवास में
मुझे बंद करने
का निश्चय किया।
उसने सोचा कि
बादशाह अजब जैसा
शक्तिशाली इस निर्जन
द्वीप में क्यों
आएगा और आएगा
भी तो यह
तहखाना कैसे पाएगा।
इसलिए चालीस दिन
तक मुझे इस
मकान में बंद
कर दिया जाए
जिससे न मैं
किसी को देखूँ
न कोई मुझे
देखे। यही कारण
है मेरे इस
स्थान पर लाए
जाने का।'
जब
वह बालक अपनी
बात कह चुका
तो मैं मन
ही मन ज्योतिषियों
को त्रिकालदर्शी होने
के दावे पर
हँसने लगा। मैं
सोचने लगा ऐसे
प्यारे निर्दोष बालक की
मैं क्यों हत्या
करने लगा। उसे
दिलासा देने के
खयाल से मैंने
उसे अपना नाम
तो न बताया
किंतु उससे कहा,
'तुम्हें अब डरने
की बिल्कुल आवश्यकता
नहीं है, मैं
तुम्हारी रक्षा के लिए
यहाँ आ गया
हूँ। यह संयोग
ही है कि
तुम्हारा रक्षक मैं बना
क्योंकि आज ही
तट के निकट
मेरा जहाज डूबा
और मैं अकेला
उसमें से बचा
और तैरता हुआ
इस द्वीप पर
आया जहाँ पर
मैंने तुम्हारा हाल
देखा। तुम भगवान
पर भरोसा रखो,
किसी प्रकार की
चिंता अपने मन
में न लाओ।
ज्योतिषियों की भविष्यवाणी
कभी सच्ची नहीं
होगी। मैं यहाँ
रह कर चालीस
दिन तक तुम्हारी
सेवा और रक्षा
करूँगा और भगवान
की दया से
यह चालीस दिन
की अवधि भी
कुशलतापूर्वक बीत जाएगी।
जब तुम्हारा पिता
तुम्हें लेने के
लिए आएगा तो
मैं भी तुम्हारे
साथ तुम्हारे देश
चला जाऊँगा। और
वहाँ से किसी
जहाज पर अपने
देश के लिए
रवाना हो जाऊँगा।
मैं आजीवन तुम्हारा
उपकार न भूलूँगा।'
मैंने
इस प्रकार उससे
धैर्य देने वाली
बहुत-सी बातें
कीं। मैंने ध्यान
रखा कि भूल
से भी मेरी
जिह्वा पर मेरा
या मेरे पिता
का नाम न
आए क्योंकि इससे
उस बालक के
मन में अकारण
भय उत्पन्न हो
जाता। उसका जी
बहलाने के लिए
मैं तरह-तरह
की कहानियाँ और
अन्य प्रकार के
वृत्तांत सुनाता रहा। वह
बालक अत्यंत कुशाग्र-बुद्धि जान पड़ता
था और इतने
दिनों तक चुपचाप
रहने के बाद
मुझे उससे वार्तालाप
कर के बड़ी
प्रसन्नता हो रही
थी। रात हुई
तो हम दोनों
ने मिलकर भोजन
किया। उसका पिता
इतनी खाद्य सामग्री
रख गया था
कि दो क्या
तीन आदमियों तक
को चालीस-इकतालीस
दिन तक काफी
होती।
रात
होने पर हम
लोग भोजन करने
के उपरांत सो
गए। दूसरे दिन
सुबह जागने पर
मैं उसके हाथ-मुँह धोने
के लिए उसके
पास जल ले
गया, फिर हम
लोगों ने स्वादिष्ट
व्यंजनों का नाश्ता
किया। दिन भर
उसके साथ शतरंज
और चौपड़ खेलकर
उसका जी बहलाता
रहा। रात को
भोजन करके हम
लोग फिर सो
रहे। हम लोग
इसी प्रकार दिन
व्यतीत करने लगे
और इसके कारण
हम दोनों में
एक-दूसरे के
प्रति स्नेह बहुत
बढ़ गया। विशेषतः
मुझे तो वह
बालक प्राणों से
भी प्यारा लगने
लगा।
मुझे
विश्वास हो गया
कि ज्योतिषियों का
यह कथन सिर्फ
बकवास था कि
बालक अजब बादशाह
के हाथ से
मारा जाएगा क्योंकि
अजब बादशाह को
- यानी मुझे - तो यह
जान से प्यारा
है। मैं इसकी
हत्या क्यों करूँगा।
इसी
प्रकार उनतालीस दिन तक
हम दोनों हँसी-खुशी उस
घर में रहे।
चालीसवें दिन वह
सवेरे जागा तो
बड़ा खुश था।
कहने लगा, 'देखिए
महोदय, आज चालीसवाँ
दिन है। भगवान
की दया से
और आपके अनुग्रह
से मैं सही-सलामत हूँ। मेरा
पिता जब सुनेगा
कि आपने इस
अवधि में मेरी
कितनी सेवा की
है और मेरा
कितना उपकार किया
है तो वह
आपका अत्यंत कृतज्ञ
होगा और आपको
सुरक्षापूर्वक आपके देश
में पहुँचा देगा।'
फिर
उस लड़के ने
मुझसे कहा कि
मेरे लिए कुछ
जल गर्म कर
दीजिए ताकि मैं
अच्छी तरह नहाकर
नए कपड़े पहनूँ
क्योंकि मेरा पिता
आज मुझे लेने
के लिए आएगा।
मैंने पानी गर्म
करके उसके नहाने-धोने का
प्रबंध कर दिया।
नहाने के बाद
वह बिस्तर में
आ लेटा। मैंने
उसे लिहाफ उढ़ा
दिया और वह
कुछ देर के
लिए सो गया।
सोकर उठने पर
उसने कहा कि
महोदय, मेरा जी
करता है कि
खरबूजा खाऊँ, आप एक
खरबूजा और थोड़ी-सी मिश्री
मेरे लिए ले
आइए। मैंने जाकर
खरबूजों के ढेर
में से एक
अच्छा खरबूजा छाँटा
और उसे चीनी
की तश्तरी में
रखकर उसके पास
लाया। फिर मैंने
उससे पूछा कि
इसे काटने के
लिए छुरी चाहिए,
छुरी कहाँ है।
उसने कहा, मेरे
सिरहाने की तरफ
जो आला है
उसमें छुरी रखी
है।
ताक
ऊँचा था, मैं
उस तक नहीं
पहुँच सका। इसलिए
मैंने उछलकर छुरी
उठाना चाहा। फिर
भी यह न
हो सका। इसलिए
मैं एक मोखे
का सहारा लेकर
ऊँचा हुआ और
छुरी मेरे हाथ
में आ गई।
मैं चाहता था
कि धीरे से
उतर जाऊँ लेकिन
संयोग से मेरा
पाँव फिसल गया
और मैं सँभल
ही न सका।
मैं उस जौहरी
के बेटे के
ऊपर ही गिरा
और मेरे हाथ
की छुरी उसके
हृदय में घुस
गई और वह
तड़प कर वहीं
ठंडा हो गया।
मुझे
अत्यंत शोक हुआ।
मैंने अपने कपड़े
फाड़ डाले और
सिर और छाती
पीटने लगा और
पछाड़ें खाकर जमीन
पर गिरने लगा।
मैं बराबर रो-रोकर कहता
था कि इस
अभागे दिन में
कुछ घड़ियाँ रह
गई थीं। यह
समय भी टल
जाता तो लड़के
की जान बच
जाती। ज्योतिषियों का
कहना ठीक ही
निकला और मैं
अभागा ही इस
प्यारे बच्चे की मृत्यु
का कारण बना।
मैंने आकाश की
ओर मुख किया
और दोनों हाथ
उठाकर कहने लगा
कि हे सर्वशक्तिमान
परमेश्वर, तू सब
कुछ देख रहा
हे और तू
सब कुछ जानता
है। तुझे ज्ञात
है कि इस
बालक को मैंने
जानबूझकर नहीं मारा
है, यदि इसकी
मृत्यु में मेरा
तनिक भी दोष
हो तो तू
इसी समय मेरे
प्राण ले ले।
इसी प्रकार मैं
बहुत देर तक
जौहरी के पुत्र
की लाश के
पास बैठकर रोता-कलपता रहा।
जब
दिन थोड़ा-सा
ही बाकी रहा
तो मैंने सोचा
कि अब इसका
बाप इसे लेने
को आता होगा।
मेरी इतने दिनों
की सेवा व्यर्थ
गई। अब मैं
क्या मुँह लेकर
उससे मिलूँ। अब
मेरा यहाँ ठहरना
ठीक नहीं। यह
सोचकर मैं मकान
से निकला और
जीने पर पत्थर
रखकर उस पर
मिट्टी डालकर बराबर कर
दी। बाहर निकल
कर देखा तो
जौहरी का जहाज
पाल उड़ाए चला
आता है। मैंने
सोचा जौहरी मुझे
देखेगा तो अपने
बेटे का हत्यारा
समझ कर मुझे
अपने नौकरों से
मरवा डालेगा। कारण
यह है कि
मैं झूठ नहीं
बोलता। इसलिए मैं एक
ऊँचे और घने
पेड़ पर चढ़
गया और देखने
लगा।
जहाज
ने किनारे पर
लंगर डाला और
उसमें से बूढ़ा
जौहरी अपने नौकरों
के साथ निकल
कर हँसी-खुशी
किनारे पर आया।
तहखाने के पास
जाकर उन लोगों
ने पत्थर हटा
कर जीने का
रास्ता खोला लेकिन
अब बूढ़े की
प्रसन्नता गायब हो
गई और उसके
मुँह पर झाईं-सी फिर
गई। कारण यह
था कि उसने
अपने पुत्र का
नाम लेकर पुकारा
तो अंदर से
कोई उत्तर न
आया। जब वे
लोग अंदर गए
तो देखा कि
लड़का मरा पड़ा
है और उसके
हृदय में छुरी
घुसी है, क्योंकि
मुझे छुरी निकालने
का ध्यान नहीं
रहा। लाश को
देखकर उन लोगों
में अचानक रोना-चिल्लाना शुरू हो
गया।
उन
लोगों का विलाप
और मृत बालक
का उनके मुँह
से गुणानुवाद सुनकर
मुझे भी रोना
आ रहा था।
बूढ़ा जौहरी तो
बेचारा अपने पुत्र
का शव देखकर
अचेत ही हो
गया। उसके सेवकों
ने उसे तहखाने
से बाहर निकाल
कर उसी पेड़
के नीचे बिठाया
जिसके ऊपर मैं
छुपा बैठा था।
फिर वे लड़के
की लाश को
बाहर लाए, उसे
नहलाया और सफेद
कफन पहनाया और
कब्र खोदकर उसमें
लाश उतार दी।
लड़के के पिता
ने जो इस
बीच बराबर रोता
रहा था तीन
बार कब्र में
मिट्टी डाली और
फिर उसके सेवकों
ने कब्र को
मिट्टी से ऊपर
तक भर के
बराबर कर दिया।
इसके
बाद वे लोग
तहखाने में गए
और वहाँ से
बची हुई खाद्य
वस्तुएँ और वस्त्र
बाहर लाकर जहाज
पर ले गए।
कुछ ही देर
में उनका जहाज
उन सबको लेकर
देश को चल
दिया। उसके बाद
देर बाद मैं
पेड़ से उतरा
और उसी तहखाने
में चला गया।
अब मेरा नियम
यह हो गया
था कि रात
मैं उसी घर
में रहता और
दिन में इधर-उधर घूमकर
वहाँ से निकलने
के लिए रास्ते
की खोज करता
रहता। भूख लगने
पर जंगली फलों
आदि से पेट
भरता रहता। इसी
प्रकार लगभग एक
महीना और बीत
गया।
फिर
मैंने देखा कि
समुद्र का जल
धीरे-धीरे घट
रहा है। समुद्र
के घटने से
द्वीप का विस्तार
बहुत बढ़ गया।
समुद्र इतना घटा
कि जहाँ सब
से गहरा था
वहाँ भी कमर
के बराबर पानी
रह गया और
किनारे से दूसरी
ओर की भूमि
दिखाई देने लगी।
कुछ समय के
बाद पानी और
घटा और पिंडलियों
के बराबर हो
गया। अब मैंने
उसे पार करने
की सोची। समुद्र
सूखने से मीलों
तक बालू निकल
आई थी। बड़ी
कठिनाई से वह
बालू भूमि पार
करके समुद्र तट
पर पहुँचा और
पानी लाँघ करके
दूसरी भूमि पर
पहुँचा। वहाँ दूर
पर आग जलती
दिखाई दी। मैंने
सोचा यहाँ पर
मनुष्य रहते होंगे
क्योंकि बगैर मनुष्यों
के आग कैसे
जलेगी। पास जाने
पर पता चला
कि वह आग
नहीं है बल्कि
ताँबे का बना
एक घर है
जिस पर सूर्य
की किरणें पड़
रही हैं। मैं
सोच ही रहा
था कि यह
मकान किसका हो
सकता है कि
उसमें से दस
नौजवान बाहर निकले
और उनके साथ
लंबे कद का
एक वृद्ध मनुष्य
भी था। सारे
जवान दाहिनी आँख
से काने थे।
मैं सोच ही
रहा था कि
ये लोग कौन
हैं, इतने में
उन्होंने स्वयं ही आकर
मुझ से नम्रतापूर्वक
पूछा कि आप
कौन हैं और
कहाँ से आए
हैं।
मैंने
कहा कि मेरी
कहानी बड़ी विचित्र
और बड़ी लंबी
है। यदि आप
धैर्यपूर्वक सुन सकें
तो मैं सुनाऊँ।
वे सब सुनने
को बैठ गए
और मैंने अपना
वृत्तांत आद्योपांत सुना दिया।
उन्हें यह सुनकर
बड़ा आश्चर्य हुआ।
फिर वे लोग
मुझे उस मकान
के अंदर ले
गए। उस मकान
में कई बड़ी-बड़ी दालानें
और बारह दरियाँ
पार करके फिर
एक बड़ा-सा
नीला घर दिखाई
दिया। उसके चारों
ओर दस कमरे
नीले रंग के
बने हुए थे
जिनमें एक- एक
मनुष्य आराम से
रह सकता था।
कमरों के घेरे
के बीच में
एक दालान था
जो उससे कुछ
ऊँचा था। वृद्ध
मनुष्य दालान में जा
बैठा और चारों
ओर के कमरों
में दसों जवान
कालीनों पर बैठ
गए। एक जवान
ने मुझ से
कहा, 'हे मित्र,
तुम भी घर
के बीच में
बिछे हुए कालीन
पर बैठ जाओ
लेकिन हम कुछ
भी करें उसका
कारण न पूछना,
न यह पूछना
कि तुम लोग
दाहिनी आँख से
काने क्यों हो।'
कुछ
देर में वह
बूढ़ा उठा और
दसों काने जवानों
के लिए खाना
लाया। उसने हर
एक को खाने
में से उसका
भाग दिया और
एक भाग मुझे
भी दिया जिसे
मैंने खा लिया।
भोजनोपरांत वृद्ध पुरुष ने
हम लोगों को
एक-एक प्याला
सुगंधित मदिरा का दिया।
फिर उन लोगों
ने मेरे वृत्तांत
को जो उन्हें
अद्भुत और रोचक
लगा था दुबारा
सुना। इसके बाद
हम इधर-उधर
की बहुत-सी
बातें करते रहे।
जब
काफी रात बीत
गई तो एक
जवान ने बूढ़े
से कहा कि
हमारे सोने का
समय हो गया
है, अभी तुम
हमारे दैनिक नियम
की चीजें नहीं
लाए। बूढ़ा एक
कोठरी के अंदर
जाकर वहाँ से
दस थाल नीले
ढक्कनों से ढके
हुए लाया और
हर जवान के
सामने उसने एक-एक थाल
रख दिया। ढक्कन
खोलने पर हर
थाल में राख
और काली स्याही
थी। उन्होंने राख
और स्याही को
मिलाकर अपने-अपने
चेहरे पर मल
लिया जिससे वे
सब कुरूप ही
नहीं भयानक भी
दिखाई देने लगें।
फिर वे सब
चिल्ला-चिल्ला कर रोने
लगे और मुँह
और सीना पीट-पीट कर
कहने लगे कि
हाय, हमने कैसी
भयानक मूर्खता की
है और उसका
हमें कैसा कुफल
मिला है। बहुत
देर तक वे
जवान इसी प्रकार
रोते-पीटते रहे।
जब उन्होंने विलाप
बंद किया तो
वही बूढ़ा एक-एक करके
सभी के पास
पानी और चिलमची
ले गया। सभी
ने अपना मुँह
धोया और जो
कपड़े फाड़ डाले
थे उन्हें उतार
कर बदला और
अपने-अपने कक्ष
में जाकर सो
रहे।
उन
लोगों की यह
दशा देखकर मैं
अत्यंत उत्कंठित हुआ। मैंने
वचन दिया था
कि उनसे कुछ
न पूछूँगा किंतु
मुझे उत्सुकता के
कारण रात भर
नींद न आई।
दूसरे दिन सुबह
हम सभी लोग
सैर के लिए
बाहर निकले तो
मैंने उनसे कहा,
'सज्जनो, आप लोग
हर तरह ज्ञानवान
और बुद्धिमान हैं
किंतु कल रात
आप लोगों ने
जो कुछ किया
वह उन्मत्तों के
अलावा कोई भी
नहीं करेगा। मैं
बड़ा परेशान हूँ।
मैंने आपको वचन
दिया है कि
मैं आपके कार्य
कलाप के बारे
में या आपके
काने होने का
कारण न पूछूँगा
किंतु यह भी
सत्य है कि
अब यह बातें
पूछे बगैर मुझसे
रहा नहीं जाता
है। इसलिए मैं
आप से पूछता
हूँ कि आप
लोगों ने अपना
मुँह क्यों काला
किया और क्यों
मातम किया और
यह भी कि
आप सभी दाहिनी
आँख से काने
क्यों हैं। किंतु
उन्होंने कहा कि
हम तुम्हें यह
सब बातें नहीं
बता सकते, अगर
तुम्हें हमारे साथ रहना
हो तो इन
प्रश्नों को भूल
जाओ।
वह
दिन भी बीता।
रात को हम
लोगों ने फिर
अलग-अलग भोजन
किया। उसके बाद
बूढ़े ने फिर
उन लोगों के
सामने स्याही और
राख से भरे
थाल रखे और
उन्होंने रोज की
रस्म के तौर
पर अपने मुँह
काले किए और
वही रोना-पीटना
शुरू किया। दूसरी
बार यह सब
देखकर मेरी उत्सुकता
और बढ़ गई।
अगले दिन मैंने
उनसे कहा, 'हे
मित्रो, अब मुझे
आप लोगों की
यह दशा चुपचाप
बैठकर नहीं देखी
जाती। आप कृपया
अपनी बातें मुझे
बताएँ और कोई
ऐसा भी उपाय
बताएँ जिससे मैं
अपने देश में
पहुँच जाऊँ।'
उनमें
से एक जवान
ने मुझ से
कहा, 'तुम हमारी
दशा देखकर दुखी
न हो। हम
लोग तुम्हारे मित्र
और हितचिंतक हैं
इसीलिए हम तुम्हें
यह बातें नहीं
बताते, कही ऐसा
न हो कि
तुम्हारी दशा भी
हम लोगों जैसी
हो जाए। वैसे
तुम बहुत जोर
देते हो तो
हम बता भी
सकते हैं किंतु
उसका फल अच्छा
नहीं होगा।' मैंने
कहा, मैं यह
सब जानना चाहता
हूँ, फल चाहे
जो कुछ हो।
वह जवान बोला,
'देखो, हम तुम्हें
एक बार फिर
समझाते हैं कि
इन बातों को
जानने की जिद
छोड़ दो। हमारा
कहना मानो और
इस बारे में
कुछ न पूछो
वरना हमारी तरह
तुम भी काने
हो जाओगे।' मैंने
कहा, इस बात
के फलस्वरूप मुझे
जो भी दुख
पहुँचे मैं उसे
सहने के लिए
तैयार हूँ, मैं
इसे अपना ही
दुर्भाग्य समझूँगा और आप
लोगों में से
किसी को इसके
लिए दोष नहीं
दूँगा। उस जवान
ने कहा, 'देखो,
अगर किसी कारणवश
तुम्हारी दाहिनी आँख फूटी
और तुम हमारे
पास वापस आए
तो तुम हमारे
साथ नहीं रह
पाओगे। तुम देख
रहे हो कि
यहाँ दस ही
कक्ष हैं और
दसों भरे हुए
हैं। यहाँ अब
ग्यारहवें आदमी के
रहने की गुंजाइश
नहीं है।' मैंने
कहा, मुझे यह
भी स्वीकार है
कि आप मुझे
यहाँ न रहने
दें, लेकिन अपना
भेद जरूर बताएँ।
जब
उन दस जवानों
ने देखा कि
मैं अपनी बात
पर अड़ा हुआ
हूँ तो उन्होंने
एक भेड़ का
वध किया और
उसकी खाल उतारी।
फिर छुरी मुझे
दे दी और
कहा, 'इसे होशियारी
से रखो, यह
तुम्हारे बहुत काम
आएगी। हम लोग
तुम्हें इस भेड़
की खाल में
सी देंगे और
यहाँ से हट
जाएँगे। फिर यहाँ
एक अति विशालकाय
पक्षी जिसे रुख
कहते हैं आएगा
और तुम्हें भेड़
समझ कर झपट्टा
मार कर उठा
लेगा और एक
बहुत ऊँचे पहाड़
की चोटी पर
रखकर तुम्हें खाना
चाहेगा। हम पहले
से होशियार किए
देते हैं। ज्यों
ही तुम्हें मालूम
हो कि जमीन
पर रखे गए
हो, इसी छुरी
से खाल को
चीरकर बाहर निकल
आना और जोर
से चीखना। रुख
पक्षी इससे डरकर
भाग जाएगा।
'इसके बाद
तुम निर्भय होकर
आगे बढ़ जाना।
कुछ दूर चल
कर तुम्हें आलीशान
महल मिलेगा। उस
महल पर ऊपर
से नीचे तक
हर जगह सोने
के पत्तर मढ़े
हैं और जगह-जगह पर
बड़े सुंदर ढंग
से हीरे और
दूसरे रत्न जड़े
हुए हैं। तुम
निर्द्वंद्व रूप से
मकान के दरवाजे
से, जो हमेशा
खुला रहता है,
अंदर चले जाना।
हम सभी एक-एक करके
उस मकान में
रहे हैं किंतु
उसमें क्या होगा
यह बताने की
जरूरत हम नहीं
समझते और जो
कुछ हमारे साथ
हुआ वह भी
नहीं बताएँगे क्योंकि
हमारी दशा ऐसी
नहीं है कि
उसके कहने-सुनने
से खुशी हो।
तुम स्वयं ही
वह सब देख-सुन लोगे।
यह जरूर कहते
हैं कि हमारी
तरह तुम भी
दाहिनी आँख से
काने हो जाओगे।
वैसे तो तुम
पर जो अभी
तक बीता है
और जो आगे
बीतेगा वह सब
लिखो तो पूरी
पुस्तक तैयार हो जाएगी
किंतु हम इससे
अधिक कुछ न
कहेंगे।'
जब
जवान अपनी बात
समाप्त कर चुका
तो मैंने भेड़
की खाल को
अपने चारों ओर
लपेट लिया उन
लोगों ने कुशलतापूर्वक
मुझे इस तरह
से सी दिया
कि मेरे साँस
लेने के लिए
जगह रहे। मुझे
इस प्रकार सीकर
और जंगल में
रख कर वे
घर के अंदर
चले गए। थोड़ी
ही देर में
रुख नामक विशाल
पक्षी आया और
भेड़ समझ कर
मुझे झपट्टा मारकर
पंजों में दबाकर
ले उड़ा और
एक ऊँचे पहाड़
की चोटी पर
ले जाकर रख
दिया। नीचे जमीन
लगते ही मैं
छुरी से खाल
फाड़ कर बाहर
आ गया और
चीख मारी। पक्षी
यह देखकर डरकर
उड़ गया।
मैं
वहाँ से बताए
हुए मार्ग पर
चल दिया और
तीसरे पहर के
लगभग महल तक
पहुँच गया। जैसा
सुना था उससे
भी अधिक अच्छा
उसे पाया। खुले
दरवाजे से अंदर
पहुँचा तो अंदर
एक और शानदार
चौकोर मकान देखा
जिसके चारों ओर
सौ द्वार थे,
एक द्वार स्वर्ण
का था और
निन्यानबे चंदन की
लकड़ी के थे।
अंदर कई सुसज्जित
वाटिकाएँ और गृह
थे। सामने एक
बड़ी बारहदरी थी
जिसमें चालीस सुंदरी नवयौवनाएँ
उत्तमोत्तम वस्त्रालंकारों से सुसज्जित
बैठी थीं। मुझे
देखकर वे उठ
खड़ी हुई। उन्होंने
हँस कर मेरा
स्वागत किया और
कहने लगीं कि
हम बहुत देर
से आप की
प्रतीक्षा में थे।
फिर मुझे उन्होंने
कुछ ऊँचे स्थान
पर बिठाया। मैंने
बहुत कहा कि
मैं आप लोगों
से ऊँचे पर
बैठने का अधिकारी
नहीं हूँ किंतु
वे नहीं मानीं।
वे बोलीं, 'आप
हम सभी के
पति और स्वामी
हैं और हम
सब आपकी पत्नियाँ
और दासियाँ हैं।'
उन्हें
देखकर और उनकी
बातें सुनकर जो
प्रसन्नता मुझे हुई
उसका वर्णन संभव
नहीं है। कोई
सुंदरी मेरे पाँव
धोने को गरम
पानी लाई, किसी
ने सुगंधित जल
से मेरे हाथ
धुलाए, किसी ने
बहुमूल्य वस्त्र लाकर मुझे
पहनाए, कोई नाना
प्रकार के स्वादिष्ट
व्यंजन मेरे सामने
ले आई और
उन्हें मेरे सामने
सजा दिया। कोई
नवयौवना सुगंधित मदिरा की
सुराही और प्याला
लेकर मुझे पिलाने
के लिए आ
गई। इसी प्रकार
वे देर तक
हँसी-खुशी तरह-तरह से
मेरी सेवा करती
रहीं। मैं यह
सब देखकर इतना
अभिभूत हुआ कि
अब तक के
अपने सारे दुख-दर्द भूल
गया और स्वयं
को सारे संसार
का अधिपति समझने
लगा।
मैंने
उन सभी सुंदरियों
के साथ बैठकर
भोजन और मदिरा
पान किया। भोजन
के बाद वे
मेरे चारों ओर
बैठ गईं और
उन्होंने मुझ से
मेरी यात्रा का
वृत्तांत पूछना आरंभ किया
और मैंने बताना।
इतने में रात
हो गई। उन
स्त्रियों ने मकान
में बड़ी सुंदर
रोशनी की और
कुछ स्त्रियों ने
मुझसे मनोहर ढंग
से बातचीत करनी
शुरू कर दी
।
फिर
उन्होंने भोजन के
पात्र हटाकर फल,
मिठाई, शर्बत आदि शीशे
के सुंदर पात्रों
में लेकर सामने
रख दिए और
मुझे ऊँचे आसान
पर बिठाकर मेरे
चारों तरफ बैठ
कर गाने-बजाने
लगीं और उनमें
जो नृत्य में
प्रवीण थीं वे
नृत्य भी करने
लगीं। इसी में
आधी रात बीत
गई। फिर उनमें
से एक ने
कहा कि आज
आप बहुत दूर
से आए हैं,
अब आराम करें।
उसने कहा कि
शयन कक्ष तैयार
हैं, और सोने
से पहले आप
हममें से एक
को चुन लें
तो वह आपके
साथ सो रहे।
मैंने कहा, 'यह
काम तो बड़ा
कठिन और अनुचित
होगा क्योंकि सौंदर्य
में तुम लोग
एक से एक
बढ़कर हो, मैं
किसे चुनूँ। फिर
जिसे चुनूँगा उसके
अलावा क्या दूसरों
को बुरा नहीं
लगेगा और क्या
वे मेरी धृष्टता
पर क्रुद्ध नहीं
होगी?' उस सुंदरी
ने कहा, 'यह
बात नहीं है।
हम सब की
हार्दिक इच्छा है कि
आप को प्रसन्न
करें। हममें परस्पर
ईर्ष्या नहीं है।
आप हम में
से जिसका चाहे
हाथ पकड़ कर
ले जाएँ, कोई
दूसरा बुरा नहीं
मानेगा क्योंकि हम सभी
चाहते हैं कि
आप एक-एक
करके हम सभी
का भोग करें।
आप हमसे प्रत्येक
का आनंद उड़ाएँगे
ही, किसी का
आज तो किसी
का कल। इसलिए
हमें बुरा लगने
का प्रश्न ही
नहीं है। अब
आप बगैर झिझक
हम में से
जिसे चाहें उसे
अपने साथ ले
जाएँ। हम सब
शहजादियाँ हैं किंतु
आपकी सेवा के
लिए हैं।'
यह
सुनकर मैंने उसी
सुंदरी की ओर
हाथ बढ़ाया जिसने
मुझसे ऐसी बुद्धिमानी
की बातें की
थीं। उसने तुरंत
अपना हाथ मेरे
हाथ में दे
दिया। मैं उसके
साथ अपने शयन
कक्ष में आ
गया और अन्य
उनतालिस स्त्रियाँ अपने-अपने
शयनगार में चली
गईं। दूसरे दिन
सवेरे मैं अच्छी
तरह उठ भी
नहीं पाया था
कि शेष उनतालिस
स्त्रियों ने मेरे
पास आकर अभिवादन
किया और पूछा
कि रात को
आराम से तो
सोए। हाँ, उनके
आने के पहले
मैंने वे सुंदर
वस्त्र और रत्न
पहन लिए थे
जो मेरे सिरहाने
रख दिए गए
थे। कुछ देर
बातचीत करने के
बाद वे स्त्रियाँ
मुझे स्नानागार में
ले गईं और
तरह-तरह की
मालिश करके मुझे
स्नान कराया। मेरे
नहा चुकने के
बाद उन्होंने दूसरे
वस्त्राभूषण जो पहले
वस्त्र आदि से
भी उत्तम थे
मुझे पहनाया। इसके
बाद सारे दिन,
बल्कि आधी रात
तक पहले दिन
की तरह हास-परिहास, किस्सा-कहानी,
खाना-पीना और
राग-रंग चलता
रहा। आधी रात
हुई तो उन्होंने
कहा कि आप
हममें से जिसे
चाहें चुन लें
कि वह आपके
साथ जाकर सो
जाए। मैंने एक
और सुंदरी का
हाथ पकड़ा और
उसे लेकर अपने
शयन कक्ष में
चला गया। सुबह
उठकर फिर उन
लोगों के साथ
स्नानागार में चला
गया।
फकीर
ने जुबैदा से
कहा कि हे
सुंदरी, मैं तुमसे
किस प्रकार और
कहाँ तक बताऊँ
कि कैसे आनंद
और संतोष में
मेरा समय बीतता
रहा। दिन भर
नाना प्रकार की
खाने- पीने और
अन्य विलास सामग्री
का उपभोग करता
और रात को
उन चालीस में
से किसी एक
सुंदरी को अपने
शयन कक्ष में
ले जाता। इसी
प्रकार लगभग एक
वर्ष आनंदपूर्वक उस
राजमहल में बीत
गया। जब वर्ष
पूरा होने में
एक दिन रह
गया तो सुबह
को वे सुंदरियाँ
जो हमेशा प्रसन्नवदन
होकर मुझसे मेरा
रात का हाल
पूछने आया करती
थीं, आँखों में
आँसू भरे हुए
आईं और कहने
लगी कि ऐ
शहजादे, हम सब
आपसे विदा होने
के लिए आए
हैं, आपको हम
भगवान को सौंपते
हैं, वही आपकी
रक्षा करेगा।
मुझे
उनकी इस बात
से बड़ा आश्चर्य
और दुख हुआ।
मैंने उनसे पूछा,
'ऐसा क्या हो
गया कि तुम
लोग इतनी दुखी
हो और यहाँ
से विदा होने
की बात क्यों
कर रही हो?
तुम्हें कहाँ जाना
है और क्यों
जाना है? भगवान
के लिए मुझ
से सारी बातें
कहो। अगर तुम
किसी संकट में
हो और तुम्हें
मेरी सहायता की
आवश्यकता हो तो
मुझ से जो
भी सहायता बन
पड़ेगी वह मैं
करूँगा।' उन्होंने कहा, 'कुछ
नहीं हो सकता।
भगवान की यही
इच्छा है कि
हम लोग हमेशा
के लिए अलग
हो जाएँ और
आज के बाद
न आप कभी
हमें देखें न
हम आपको देखें।
आपकी तरह पहले
भी यहाँ कई
लोग आए और
फिर ऐसे अलग
हुए कि हमें
आज तक उनका
कोई हाल मालूम
नहीं हुआ। वही
बात आपके साथ
होने वाली है।'
यह
कहने के बाद
उन सभी ने
विलाप करना आरंभ
कर दिया। मैं
और घबरा उठा
और मैंने उनसे
कहा कि तुम
लोग साफ-साफ
बताती क्यों नहीं
कि तुम्हारे दुख-संताप का कारण
क्या है। उन्होंने
कहा कि हम
आप को क्या
बताएँ क्यों दुखी
हैं। यह समय
हमारे आप से
सदा के लिए
बिछुड़ने का है,
हाँ एक बात
है कि अगर
आपको हमसे मिलने
की उत्कट इच्छा
हो और उसके
लिए जो प्रतिज्ञा
करें उस पर
दृढ़ रहें तो
हम लोगों का
आपसे फिर मिलन
हो भी सकता
है।
मैंने
कहा, 'मेरी समझ
में कुछ भी
नहीं आया कि
तुम्हारी बातों का क्या
अर्थ है। मैं
तुम्हें ईश्वर की सौगंध
दिलाता हूँ कि
सारी बात को
साफ समझा कर
कहो।' अब उनमें
से एक ने
कहा, 'सबसे पहले
तो आप यह
समझ लीजिए कि
हम चालीसों शहजादियाँ
हैं। हम लोग
इस स्थान पर
एक वर्ष तक
आमोद-प्रमोद के
लिए आया करते
हैं। इसके बाद
चालीस दिन के
लिए अपने आवश्यक
कार्यों के लिए
अपने-अपने देश
चले जाते हैं।
चालीस दिन बाद
फिर एक वर्ष
के लिए इस
महल में आ
जाते हैं। कल
हमारा यह वर्ष
पूरा हो गया
इसलिए आज हम
लोग आपसे विदा
ले रहे हैं।
यही कारण है
हमारे शोक और
विलाप का। हम
यहाँ से जाने
के पहले आपको
यहाँ के सौ
कोठों की कुंजियाँ
सौंप जाएँगे। हमारे
पीछे आप सभी
में घूम-फिर
कर अपना जी
बहलाएँ। लेकिन हम आपको
अपनी सौगंध देते
हैं कि इस
स्वर्णद्वार को न
खोलना। अगर आपने
इसे खोला तो
हमारा-आपका मिलन
फिर कभी न
हो सकेगा। लेकिन
हमें मालूम है
कि आप में
इतना आत्मसंयम नहीं
है कि उस
द्वार को न
खोलें। आप उसे
जरूर खोलेगें और
हमेशा के लिए
हमसे बिछुड़ जाएँगे।
यही कारण है
कि हम सारी
शहजादियाँ दुखी हैं।
अगर भगवान ने
आपको सद्बुद्धि दी
और आपने उस
स्वर्णद्वार को न
खोला तो आपको
कभी कोई दुख
न होगा, आप
संपूर्ण आयु चैन
से बिताएँगे और
हमारे साथ हमेशा
आनंद करेंगे। लेकिन
अगर आपने हमारे
कहने के विपरीत
किया तो आपको
बहुत अधिक शोक
और कष्ट होगा
और आपके कष्ट
से हमें भी
दुख और कष्ट
होगा। हम फिर
आप से सौगंध
देकर कहते हैं
कि इस स्वर्णद्वार
को न खोलना।
हमसे वादा कीजिए
कि आप ऐसा
नहीं करेंगे कि
आप हमसे हमेशा
के लिए बिछुड़
जाएँ।
'हम वैसे
इस स्वर्णद्वार की
चाबी अपने साथ
भी ले जा
सकते हैं किंतु
यह अच्छा नहीं
मालूम होता कि
आप जैसे जिम्मेदार
और बड़े आदमी
पर अविश्वास करें
और चाबी आपके
हाथ में न
दें। हाँ एक
बार फिर यह
कहते हैं कि
अगर आपने यह
स्वर्णद्वार खोला तो
हमें और आपको
अतीव कष्ट होगा।'
उनकी
बातें सुनकर मैं
भी दुखी हुआ।
मैंने उनसे कहा,
'मुझे तुम लोगों
से अलग होने
का अत्यंत दुख
है। खैर, किसी
प्रकार यह चालीस
दिन काटूँगा।तुम्हारी इस
नसीहत को हमेशा
याद रखूँगा कि
यह स्वर्णद्वार न
खोलूँ। मुझे तो
नहीं मालूम होता
कि मुझ में
इतना अधैर्य है
कि तुम से
किया हुआ वादा
तोड़ दूँ। इससे
अधिक साधारण बात
क्या होगी कि
मैं सौ दरवाजों
को खोल कर
घूमूँ-फिरूँ और
एक को खोलने
से बाज रहूँ।
अगर तुम लोग
इससे कठिन काम
करने को कहती
हो उसे भी
मैं स्वीकार कर
लेता। तुम्हारी बात
मानने में तो
मेरा ही लाभ
है। मैं भला
ऐसी बात क्यों
करूँगा जिससे मेरी गहरी
हानि हो और
तुम लोगों से
भी हमेशा के
लिए अलग होना
पड़ जाए। मैं
ऐसी बात कभी
नहीं करूँगा।'
यह
कहकर मैंने उन
सभी को एक-एक करके
गले लगाया। इसके
बाद वे सब
चली गईं और
मैं उस लंबे-चौड़े राजमहल में
अकेला ही रह
गया। मुझे अत्यंत
शोक हो रहा
था। यद्यपि वे
केवल चालीस दिन
बाद आने वाली
थीं तथापि उनके
वियोग में मुझे
एक-एक घड़ी
भारी पड़ रही
थी। फिर मैंने
अपना जी बहलाने
को सोचा कि
जिन दरवाजों की
चाबियाँ मेरे पास
हैं उन्हें खोल
कर देखूँ। मैंने
सोचा कि निषेध
तो केवल एक
द्वार के खोलने
का है, सो
उसे नहीं खोलूँगा।
इसलिए
मैंने पहला दरवाजा
खोला। अंदर गया
तो देखा कि
एक बड़ा भारी
फलों का बाग
है। ऐसा शानदार
फलों का बाग
संसार में शायद
ही कोई और
हो। उसमें सहस्रों
सघन और सुंदर
वृक्ष उचित दूरियों
पर लगे थे।
उनमें नाना प्रकार
के सुस्वादु और
आकर्षक रंगों के फल
लगे हुए थे।
उनमें से बहुत-से फल
ऐसे थे जिनका
मैं नाम भी
नहीं जानता था।
उन वृक्षों में
सिंचाई का प्रबंध
इस प्रकार किया
गया था कि
एक बड़ी और
पक्की नहर से
काट काटकर छोटी-छोटी नहरें
इस कारीगरी से
निकाली गई थीं
कि प्रत्येक वृक्ष
की जड़ में
पानी पहुँचता था।
उसके लिए किसी
आदमी की जरूरत
न थी कि
पेड़ों की जड़ों
में पानी पहुँचाए।
इससे हर पेड़
हरा-भरा रहता
था। कई वृक्ष
तो इतने अधिक
फलों से लदे
थे कि उनकी
डालियाँ झुक गई
थीं। कुछ वृक्षों
में केवल इतना
पानी पहुँचा था
कि उनमें फल
पकी हुई हालत
ही में रहें।
बाग को ऐसे
बुद्धिमानों ने लगाया
था कि प्रत्येक
वृक्ष को केवल
उतना पानी पहुँचने
का प्रबंध था
जिससे वे सदैव
हरे-भरे रहें
और ऐसा न
हो कि सड़
गल जाएँ।
मैं
बहुत देर तक
उस बाग में
घूमता-फिरता रहा।
वहाँ बहुत-सी
वस्तुएँ थीं जिन्हें
देख कर मुझे
आश्चर्य होता और
मैं प्रत्येक वस्तु
को ध्यानपूर्वक देखता।
फिर मैं उस
बाग में वापस
आया और उसके
दरवाजे में ताला
लगा दिया। फिर
मैंने दूसरा दरवाजा
खोला। इसके अंदर
एक फूलों का
बाग था। पहले
बाग की जैसी
कारीगरी ही से
इस बाग के
हर पौधे में
उचित मात्रा में
पानी पहुँचाने का
प्रबंध किया गया
था। संसार में
कोई ऐसा फूल
नहीं होगा जो
उस वाटिका में
न हो। गुलाब,
चमेली, नरगिस, बनफ्शा, सौसन,
चंपा, बेला, मोतिया
आदि नाना प्रकार
के फूल वहाँ
पर खिले हुए
थे। उनकी सुगंध
हवा में भरी
हुई थी और
उसके कारण मस्तिष्क
को बड़ा सुख
मिल रहा था।
मैं सुध-बुध
खोकर घंटो वहाँ
घूमता रहा।
फिर
मैंने उस बाग
का दरवाजा भी
बंद किया और
तीसरा दरवाजा खोला।
उसके अंदर एक
पक्षीगृह था। उसमें
सारा फर्श संगमरमर
का था और
ऊँचाई से चंदन
आबनूस की लकड़ियों
से बने पिंजरे
लटक रहे थे
जिनमें तोता, मैना, बुलबुल,
लाल इत्यादि भाँति-भाँति के पक्षी
थे। वे अपनी
मीठी बोलियों से
चित्त प्रसन्न कर
रहे थे। उन
पिंजरों में दाने
और पानी की
कुल्हियाँ बहुमूल्य पत्थरों की
बनी थीं। इतना
बड़ा पक्षी गृह
था कि कम
से कम आदमी
उसकी सँभाल के
लिए जरूरी थे
लेकिन वहाँ एक
भी आदमी दिखाई
नहीं देता था।
साथ ही इतनी
सफाई भी थी
कि एक तिनका
इधर-उधर पड़ा
दिखाई नहीं देता
था।
शाम
हुई तो सारे
पक्षी अपने-अपने
पंखों में चोंच
डाल कर सो
गए और मैं
भी पक्षीगृह का
ताला लगा कर
अपने शयन कक्ष
में आ गया
और सो रहा।
दूसरे दिन सुबह
एक और द्वार
खोला तो उसमें
एक बड़ा महल
देखा। उसमें चालीस
प्रकोष्ठ बने थे
किंतु सभी के
दरवाजे खुले थे।
एक कोठे में
सिर्फ मोती भरे
थे। मोतियों के
विभिन्न आकारों के हिसाब
से ढेर लगे
थे। एक ढेर
में कबूतर के
अंडे जितने बड़े
मोती थे। फिर
उनसे छोटे मोतियों
के कई ढेर
थे। दूसरे कोठे
में नीलम भरे
थे, चौथे में
सोने की ईंटें,
पाँचवें में अशर्फियाँ,
छठे में चाँदी
की ईंटें, सातवें
में मुद्रा की
ढेरियाँ थीं। इसी
प्रकार अन्य कोठों
में किसी में
पुखराज, किसी में
पन्ना, किसी में
मूँगा आदि रत्न
भरे हुए थे।
मैं इस असीम
रत्नागार को देखकर
आश्चर्यान्वित हुआ और
सोचने लगा कि
मैं कितना भाग्यशाली
हूँ कि इतने
खजाने और चालीस
सुंदर शहजादियों का
स्वामी हूँ।
फकीर
ने जुबैदा से
कहा कि हे
सुंदरी, मैं उस
ऐश्वर्य का उल्लेख
करने में असमर्थ
हूँ जो मैंने
वहाँ देखा। उनतालीस
दिनों तक मैं
विभिन्न द्वारों में जाकर
वहाँ की आश्चर्यप्रद
वस्तुएँ देखता रहा। चालीसवें
दिन मेरे देखने
के लिए सिर्फ
एक दरवाजा रह
गया। यह वही
दरवाजा था जिसे
खोलने को मुझ
से मना किया
गया था। मुझे
शैतान ने बहका
दिया और मैंने
अपनी कसमें और
वादे तोड़कर उस
दरवाजे को भी
खोल डाला। दरवाजा
खोलते ही उससे
बड़ी तेज सुगंध
आई जिससे मैं
सुध-बुध खो
बैठा। होश में
आया तो अंदर
गया और ठहर
कर उस गंध
के कम होने
की प्रतीक्षा करने
लगा। फिर अंदर
जाकर देखा तो
बहुत बड़ा महल
है जिसके फर्श
पर केसर बिछी
है और सोने
की तिपाइयों पर
चाँदी के दीपक
जल रहे हैं
जिनमें इत्र के
जैसे सुगंधित तेल
भरे थे। इसी
से वहाँ तेज
सुगंध हो रही
थी। और भी
कई आश्चर्य की
चीजें मैंने वहाँ
पर देखीं।
मैंने
देखा कि एक
ओर बहुत उम्दा
मुश्की घोड़ा बँधा है।
उसके सामने जो
जल पात्र था
उसमें गुलाब जल
भरा हुआ था
और खाने की
नाँद में तिल
और जौर भरे
थे। उस घोड़े
की लगाम में
सोने के पत्तर
लगे थे। मैंने
उस घोड़े की
लगाम पकड़ कर
उसे बाहर निकाला
कि बाहर के
प्रकाश में उसे
भली प्रकार देख
लूँ। बाहर लाकर
मैं उस पर
सवार हो गया
और उसे चलने
का इशारा दिया।
लेकिन वह न
चला। फिर मैंने
उसे एक चाबुक
मारा। चाबुक लगते
ही घोड़ा भयानक
रूप से हिनहिनाया
और अपने पंखों
से -जिन्हें मैंने
पहले नहीं देखा
था - उड़ चला।
मैं घबराकर उसकी
अयाल पकड़ कर
लटक गया। घोड़ा
मुझे लेकर इतना
ऊँचा उड़ा कि
वहाँ से पृथ्वी
बहुत छोटी दिखाई
देती थी। फिर
वह उतर कर
उसी ताँबे के
मकान की छत
पर पहुँच गया
जहाँ पर मैं
पहले पहुँचा था।
वहाँ उसने अपने
शरीर को इतने
जोर का झटका
दिया कि मैं
पीठ के बल
जमीन पर गिरा।
घोड़े ने अपनी
पूँछ मेरी दाहिनी
आँख में मारी
जिससे वह फूट
गई। फिर घोड़ा
उड़ गया।
मैं
किसी तरह गिरता-पड़ता नीचे आया।
नीचे बारहदरी और
उसके इर्दगिर्द बने
हुए दस कमरों
को देखकर मुझे
विश्वास हो गया
कि यह वही
महल है जहाँ
मैं पहले आया
था। उस समय
वे दस जवान
वहाँ नहीं थे।
मैं उनकी प्रतीक्षा
करने लगा। कुछ
देर में वे
लोग बूढ़े आदमी
के साथ वहाँ
आए। उन्होंने न
मेरी ओर कुछ
ध्यान दिया न
मेरी आँख फूटने
पर सहानुभूति प्रकट
की। उन्होंने कहा,
'देखो भाई, हम
लोग तो तुम्हारे
दुर्भाग्य का कारण
नहीं सिद्ध हुए।'
मैंने कहा, 'आप
लोग ठीक कहते
हैं। मुझ पर
जो मुसीबत पड़ी
वह अपनी ही
मूर्खता के कारण
पड़ी किंतु मैं
जानना चाहता हूँ
कि इस मुसीबत
को दूर करने
का भी उपाय
है या नहीं।'
उन्होंने
कहा, 'अगर हम
ऐसा उपाय जानते
तो अपनी मुसीबत
को दूर न
कर लेते? तुम्हारी
तरह हम लोग
भी एक-एक
वर्ष तक उन
शहजादियों के साथ
आनंदपूर्वक रहे। अगर
हम वह स्वर्णद्वार
न खोलते तो
हम उनके साथ
आनंदपूर्वक रहते। तुम हम
लोगो से अधिक
बुद्धिमान दिखाई देते थे
फिर भी तुम
वह सोने का
दरवाजा खोलने से बाज
न आ सके
और अपने को
ऐसी मुसीबत में
डाल बैठे। अच्छा;
यह तो हम
तुम्हें पहले ही
बता चुके हैं
कि अब यहाँ
ग्यारहवें आदमी के
रहने के लिए
स्थान नहीं है।
तुम्हारे लिए यही
उचित होगा कि
तुम यहाँ से
बगदाद जाओ जहाँ
का रास्ता हम
बता देंगे। वहाँ
तुम्हें ऐसा व्यक्ति
मिलेगा जो तुम्हारे
दुख दूर करेगा।'
उनकी सलाह मानकर
मैं बगदाद पहुँचा।
रास्ते में दाढ़ी-मूँछ और
भवें मुँडवा दीं
और फकीरों के
वस्त्र पहन लिए।
चलते-चलते बहुत
दिन बाद आज
शाम को बगदाद
पहुँचा। परकोटे पर इन
दोनों साथियों से
भेंट हुई। फिर
तुम्हारे घर आए
जहाँ तुमने हमारा
बड़ा सत्कार किया।
जब
तीसरा फकीर अपना
हाल कह चुका
तो जुबैदा ने
उससे और उसके
दोनों साथियों से
कहा कि मैंने
तुम तीनों का
अपराध क्षमा किया,
अब तुम लोग
यहाँ से चले
जाओ। एक फकीर
ने कहा कि
आप कृपा करके
हमे इतनी अनुमति
दें कि हम
यहाँ रुक कर
इन बाकी तीन
आदमियों की कहानी
भी सुन लें।
जुबैदा ने खलीफा,
जाफर और मसरूर
की ओर देखकर
अपना-अपना हाल
कहने का इशारा
किया। वह यह
तो जानती ही
न थी कि
यह लोग कितने
उच्च पद के
हैं, इसीलिए उसने
उन्हें अपना-अपना
हाल सुनाने की
आज्ञा दी।
खलीफा
के मंत्री जाफर
ने निवेदन किया,
'हे सुंदरी, हम
लोग इस महल
में प्रवेश करने
के समय ही
अपना-अपना हाल
कह चुके हैं।
अब तुमने फिर
पूछा है तो
कहते हैं कि
हम लोग मोसिल
से आए हुए
व्यापारी हैं। हम
अपनी व्यापार की
वस्तुएँ बेचने यहाँ आए
थे और एक
सराय में उतरे
थे। आज रात
के लिए एक
व्यापारी ने हमें
खाने का निमंत्रण
दिया। जब हम
उसके घर पहुँचे
तो उसने हम
लोगों को अत्यंत
स्वादिष्ट भोजन कराया
और बढ़िया शराब
पिलाई। फिर देर
तक उसके यहाँ
संगीत और नृत्य
का कार्यक्रम चला।
वहाँ का शोर
इतना बढ़ा कि
गश्त पर निकले
सिपाही आ गए।
उन्होंने कई लोगों
को गिरफ्तार कर
लिया। हम लोग
भाग्यशाली थे कि
किसी प्रकार बचकर
निकल आए। लेकिन
रात अधिक बीत
जाने के कारण
हमारी सराय का
द्वार बंद हो
गया था। हम
लोग परेशान थे
कि रात कहाँ
बिताएँ। इधर-उधर
भटकते हुए तुम्हारी
गली में आ
गए। तुम्हारे घर
में हँसने-बोलने
और गाने-बजाने
की आवाजें आ
रही थीं। इसीलिए
हमने दरवाजा खुलवाया।
तुमने कृपा कर
हम लोगों का
आदर-सत्कार किया।
यही हमारी कहानी
है।
मंत्री
ने यह बात
इतने आत्मविश्वास और
इतनी कुशलता से
कही कि जुबैदा
को उसकी सत्यता
में विश्वास हो
गया। उसने कहा,
'अच्छा, हमने तुम्हारा
भी अपराध क्षमा
किया और अब
तुम सब यहाँ
से चले जाओ।'
वे लोग उठने
में झिझके तो
जुबैदा ने क्रोध
में भर कर
कहा, 'जाते हो
या जान देना
चाहते हो?' उसकी
डाँट सुनकर वे
सातों व्यक्ति मजदूर,
तीनों फकीर, खलीफा
और उसके दोनों
साथी - चुपचाप उठकर बाहर
आ गए क्योंकि
सात हब्शी नंगी
तलवारें लिए उनके
सर पर खड़े
थे। सातों व्यक्तियों
के घर से
निकलते ही स्त्रियों
ने घर का
दरवाजा बंद कर
लिया।
बाहर
आकर खलीफा ने
इन फकीरों से
कहा कि इतनी
रात बीत गई
है, अब तुम
लोग कहाँ जाओगे
क्योंकि तुम इस
नगर से परिचित
भी नहीं हो।
उन तीनों ने
कहा कि हम
लोग भी इसी
चिंता में हैं।
खलीफा ने कहा,
तुम लोग हमारे
साथ आओ, हम
तुम्हारी सहायता करेंगे। यह
कह कर खलीफा
ने मंत्री के
कान में कहा
कि इन तीनों
को अपने घर
ले जाकर ठहराओ
और कल मेरे
दरबार में हाजिर
करो। अतएव मंत्री
जाफर उन तीनों
फकीरों को अपने
घर ले गया
और इधर मसरूर
सहित खलीफा भी
अपने महल में
आ गया।
खलीफा
शयन कक्ष में
जाकर अपनी शय्या
पर लेट गया
किंतु उसे सारी
रात नींद नहीं
आई। उसने जो
कुछ देखा-सुना
था उस का
वैचित्र्य उसके चित्त
से उतरता ही
नहीं था। वह
इसी चिंता में
था कि यह
बात जान ले
कि जुबैदा कौन
है और उसने
दोनों कुतियों को
क्यों मारा और
फिर क्यों प्यार
किया, साथ ही
उसे यह जानने
की भी बड़ी
इच्छा थी कि
अमीना के शरीर
पर जो काले
निशान पड़े हैं
उनका क्या भेद
है।
सुबह
वह नित्य कर्म,
नाश्ता आदि से
निश्चिंत होकर दरबार
में गया और
सिंहासन पर बैठ
गया। कुछ देर
में मंत्री ने
आकर उसे प्रणाम
किया। खलीफा ने
मंत्री से कहा,
'जब तक मैं
उन तीनों स्त्रियों
और दोनों काली
कुतियों का पूरा
हाल न जान
लूँगा मुझे चैन
न मिलेगा। इसी
कारण मुझे रात
भर नींद नहीं
आई है। तुम
तुरंत जाओ और
उन तीनों फकीरों
और तीनों स्त्रियों
को मेरे सन्मुख
उपस्थित करो।' मंत्री ने
उस मकान में
जाकर पिछली रात
की बातों का
उल्लेख किए बगैर
उन तीनों स्त्रियों
से कहा कि
खलीफा तुम लोगों
से कुछ बात
करना चाहते हैं,
तुम दरबार में
चलो। अतएव वे
तीनों अपने ऊपर
बुरका डाल कर
मंत्री के साथ
चल दीं। रास्ते
में मंत्री ने
अपने घर होते
हुए तीनों फकीरों
को भी बगैर
उन्हें कुछ बताए
अपने साथ ले
लिया।
खलीफा
उन स्त्रियों और
फकीरों को देखकर
बड़ा प्रसन्न हुआ।
उसने तीनों स्त्रियों
को अपने पीछे
की ओर परदे
के पीछे बिठाया
ताकि दरबारियों और
सेवकों पर प्रकट
हो जाए कि
ये सम्मानीय महिलाएँ
हैं। फिर उसने
उन तीनों फकीरों
को जो दरअसल
राजा और राजकुमार
थे, उनकी प्रतिष्ठा
के अनुसार अपने
समीप आसन दिए।
स्त्रियों के आसन
ग्रहण करने के
बाद खलीफा ने
उनकी ओर मुँह
करके कहा, 'कल
रात मैंने मोसिल
के व्यापारी के
रूप में तुमसे
भेंट की थी।
हमारी बातों से
तुम लोगों को
कुछ दुख हुआ
था और इसीलिए
तुम हम लोगों
से नाराज हुई
थीं। मैंने आज
जो तुम्हें बुलाया
है वह इसलिए
नहीं कि मैं
तुम लोगों को
कोई दंड देना
चाहता हूँ। मैंने
वह बात तो
भुला दी है।
मैं तुम्हारे आने
से बड़ा प्रसन्न
हूँ। तुममें जो
सद्बुद्धि है वह
यदि बगदाद की
सारी स्त्रियों में
आ जाए तो
कितना अच्छा हो।
यद्यपि हमने अपना
वादा तोड़ कर
तुम्हें दुख पहुँचाया
किंतु फिर भी
तुमने हम लोगों
पर कृपा करके
हमें छोड़ दिया।'
खलीफा
ने आगे कहा,
'कल रात में
मोसिल का व्यापारी
था और तुम्हारे
आदेश में था।
इस समय मैं
हारूँ रशीद, अब्बास
वंश का सातवाँ
खलीफा और हजरत
मुहम्मद का वंशज
हूँ। मैंने तुम्हें
इसलिए बुलाया है
कि मैं जानूँ
कि तुम कौन
हो और तुम
तीनों में से
एक स्त्री के
कंधों पर काले
निशान किसलिए हैं।'
यद्यपि खलीफा ने यह
सब स्पष्ट शब्दों
में उनसे कहा
था तथापि मंत्री
ने एक बार
फिर इन बातों
को दुहरा दिया।
यह सुनकर जुबैदा
ने आप बीती
आरंभ कर दी।
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