सिंदबाद
ने कहा कि
मैंने अच्छी-खासी
पैतृक संपत्ति पाई
थी किंतु मैंने
नौजवानी की मूर्खताओं
के वश में
पड़कर उसे भोग-विलास में उड़ा
डाला। मेरे पिता
जब जीवित थे
तो कहते थे
कि निर्धनता की
अपेक्षा मृत्यु श्रेयस्कर है।
सभी बुद्धिमानों ने
ऐसा कहा है।
मैं इस बात
को बार-बार
सोचता और मन
ही मन अपनी
दुर्दशा पर रोता।
अंत में जब
निर्धनता मेरी सहन
शक्ति के बाहर
हो गई तो
मैंने अपना बचा-खुचा सामान
बेच डाला और
जो पैसा मिला
उसे लेकर समुद्री
व्यापारियों के पास
गया और कहा
कि अब मैं
भी व्यापार के
लिए निकलना चाहता
हूँ। उन्होंने मुझे
व्यापार के बारे
में बड़ी अच्छी
सलाह दी। उसके
अनुसार मैंने व्यापार की
वस्तुएँ मोल लीं
और उन्हें लेकर
उनमें से एक
व्यापारी के जहाज
पर किराया देकर
सामान लादा और
खुद सवार हो
गया। जहाज अपनी
व्यापार यात्रा पर चल
पड़ा।
जहाज
फारस की खाड़ी
में से होकर
फारस देश में
पहुँचा जो अरब
के बाईं ओर
बसा है और
हिंदुस्तान के पश्चिम
की ओर। फारस
की खाड़ी लंबाई
में ढाई हजार
मील और चौड़ाई
में सत्तर मील
थी। मुझे समुद्री
यात्रा का अभ्यास
नहीं था इसलिए
कई दिनों तक
मैं समुद्री बीमारी
से ग्रस्त रहा।
फिर अच्छा हो
गया। रास्ते में
हमें कई टापू
मिले जहाँ हम
लोगों ने माल
खरीदा और बेचा।
एक दिन हमारा
जहाज पाल उड़ाए
हुए जा रहा
था। तभी हमारे
सामने एक हरा-भरा सुंदर
द्वीप दिखाई दिया।
कप्तान ने जहाज
के पाल उतरवा
लिए और लंगर
डाल दिए और
कहा कि जिन
लोगों का जी
चाहे वे इस
द्वीप की सैर
कर आएँ। मैं
और कई अन्य
व्यापारी, जो जहाज
पर बैठे-बैठे
ऊब गए थे,
खाने का सामान
लेकर उस द्वीप
पर नाव द्वारा
चले गए। किंतु
वह द्वीप उस
समय हिलने लगा
जब हमने खाना
पकाने के लिए
आग जलाई। यह
देखकर व्यापारी चिल्लाने
लगे कि भाग
कर जहाज पर
चलो, यह टापू
नहीं, एक बड़ी
मछली की पीठ
है। सब लोग
कूद-कूद कर
जहाज की छोटी
नाव पर बैठ
गए। मैं अकुशलता
के कारण ऐसा
न कर सका।
नाव जहाज की
ओर चल पड़ी।
इधर मछली ने,
जो हमारे आग
जलाने से जाग
गई थी, पानी
में गोता लगाया।
मैं समुद्र में
बहने लगा। मेरे
हाथ में सिर्फ
एक लकड़ी थी
जिसे मैं जलाने
के लिए लाया
था। उसी के
सहारे समुद्र में
तैरने लगा। मैं
जहाज तक पहुँच
पाऊँ इससे पहले
ही जहाज लंगर
उठा कर चल
दिया।
मैं
पूरे एक दिन
और एक रात
उस अथाह जल
में तैरता रहा।
थकन ने मेरी
सारी शक्ति हर
ली और मैं
तैरने के लिए
हाथ-पाँव चलाने
के योग्य भी
न रहा। मैं
डूबने ही वाला
था कि एक
बड़ी समुद्री लहर
ने मुझे उछाल
कर किनारे पर
फेंक दिया। किंतु
किनारा समतल नहीं
था। बल्कि खड़े
ढलवान का था।
मैं किसी प्रकार
मरता-गिरता वृक्षों
की जड़ें पकड़ता
हुआ ऊपर पहुँचा
और मुर्दे की
भाँति जमीन पर
गिर रहा।
जब
सूर्योदय हुआ तो
मेरा भूख से
बुरा हाल हो
गया। पैरों से
चलने की शक्ति
नहीं थी इसलिए
घुटनों के बल
घिसटता हुआ चला।
सौभाग्य से कुछ
ही दूर पर
मुझे मीठे पानी
का एक सोता
मिला जिसका पानी
पीकर मुझमें जान
आई। मैंने तलाश
करके कुछ मीठे
फल और खाने
लायक पत्तियाँ भी
पा लीं और
उनसे पेट भर
लिया। फिर मैं
द्वीप में इधर-उधर घूमने
लगा। मैंने एक
घोड़ी चरती देखी।
बहुत सुंदर थी
किंतु पास जाकर
देखा तो पाया
कि खूँटे से
बँधी थी। फिर
पृथ्वी के नीचे
से मुझे कुछ
मनुष्यों के बोलने
की आवाज आई
और कुछ देर
में एक आदमी
जमीन से निकल
कर मेरे पास
आकर पूछने लगा
कि तुम कौन
हो, क्या करने
आए हो। मैं
ने उसे अपना
हाल बताया तो
वह मुझे पकड़कर
तहखाने में ले
गया।
वहाँ
कई मनुष्य और
थे। उन्होंने मुझे
खाने को दिया।
मैंने उनसे पूछा
कि तुम लोग
इस निर्जन द्वीप
में तहखाने में
बैठे क्या कर
रहे हो। उन्होंने
बताया, हम लोग
बादशाह के साईस
हैं। इस द्वीप
के स्वामी बादशाह
वर्ष भर में
एक बार यहाँ
अपनी अच्छी घोड़ियाँ
भेजते हैं ताकि
उन्हें दरियाई घोड़ों से
गाभिन कराया जाए।
इस तरह जो
बछेड़े पैदा होते
हैं वे राजघराने
के लोगों की
सवारी के काम
आते हैं। हम
घोड़ियों को यहाँ
बाँध देते हैं
और छुपकर बैठ
जाते हैं। दरियाई
घोड़े की आदत
होती है कि
वह संभोग के
बाद घोड़ी को
मार डालता है।
जब वह घोड़ा
संभोग के बाद
हमारी घोड़ी को
मारना चाहता है
तो हम लोग
तहखाने से बाहर
निकलकर चिल्लाते हुए उसकी
ओर दौड़ते हैं।
घोड़ा हमारा शब्द
सुनकर भाग जाता
है और समुद्र
में डुबकी लगा
लेता है। कल
हम लोग अपनी
राजधानी को वापस
होंगे।
मैंने
उनसे कहा कि
मैं भी तुम
लोगों के साथ
चलूँगा क्योंकि इस द्वीप
से तो किसी
तरह खुद अपने
देश को जा
नहीं सकता। हम
लोग बातचीत कर
ही रहे थे
कि दरियाई घोड़ा
समुद्र से निकला
और घोड़ी से
संभोग करके वह
उसे मार ही
डालना चाहता था
कि साईस लोग
चिल्लाते हुए दौड़े
और घोड़ा भाग
कर समुद्र में
जा छुपा। दूसरे
दिन वे सारी
घोड़ियों को इकट्ठा
करके राजधानी में
आए। मैं भी
उनके साथ चला
गया। उन्होंने मुझे
अपने बादशाह के
सामने पेश किया।
उसके पूछने पर
मैंने अपना सारा
हाल कहा। उसे
मुझ पर बड़ी
दया आई। उसने
अपने सेवकों को
आज्ञा दी कि
इस आदमी को
आराम से रखो।
अतएव मैं सुख-
सुविधापूर्वक रहने लगा।
मैं
वहाँ व्यापारियों और
बाहर से आने
वाले लोगों से
मिलता रहता था
ताकि कोई ऐसा
मनुष्य मिले जिसकी
सहायता से मैं
बगदाद पहुँचूँ। वह
नगर काफी बड़ा
और सुंदर था
और प्रतिदिन कई
देशों के जहाज
उसके बंदरगाह पर
लंगर डालते थे।
हिंदुस्तान तथा अन्य
कई देशों के
लोग मुझसे मिलते
रहते और मेरे
देश की रीति-रस्मों के बारे
में पूछते रहते
और मैं उन
से उनके देश
की बातें पूछता।
बादशाह
के राज्य में
एक सील नाम
का द्वीप था।
उसके बारे में
सुना था कि
वहाँ से रात-दिन ढोल
बजने की ध्वनि
आया करती है।
जहाजियों ने मुझे
यह भी बताया
कि वहाँ के
मुसलमानों का विश्वास
है कि सृष्टि
के अंतकाल में
एक अधार्मिक और
झूठा आदमी पैदा
होगा जो यह
दावा करेगा कि
मैं ही ईश्वर
हूँ। वह काना
होगा और गधा
उसकी सवारी होगी।
मैं एक बार
वह द्वीप देखने
भी गया। रास्ते
में समुद्र में
मैंने विशालकाय मछलियाँ
देखीं। वे सौ-सौ हाथ
लंबी थीं बल्कि
उनमें से कुछ
तो दो-दो
सौ हाथ लंबी
थीं। उन्हें देखकर
डर लगता था।
किंतु वे स्वयं
इतनी डरपोक थीं
कि तख्ते पर
आवाज करने से
ही भाग जाती
थीं। एक और
तरह की मछली
भी मैंने देखी।
उसकी लंबाई एक
हाथ से अधिक
न थी किंतु
उसका मुँह उल्लू
का-सा था।
मैं इसी प्रकार
बहुत समय तक
सैर-सपाटा करता
रहा।
एक
दिन मैं उस
नगर के बंदरगाह
पर खड़ा था।
वहाँ एक जहाज
ने लंगर डाला
और उसमें कई
व्यापारी व्यापार वस्तुओं की
गठरियाँ लेकर उतरे।
गठरियाँ जहाज के
ऊपरी तख्ते पर
जमा थीं और
तट से साफ
दिखाई देती थीं।
अचानक एक गठरी
पर मेरी नजर
पड़ी जिस पर
मेरा नाम लिखा
था। मैं पहचान
गया कि यह
वही गठरी है
जिसे मैंने बसरा
में जहाज पर
लादा था। मैं
जहाज के कप्तान
के पास गया।
उसने समझ लिया
था कि मैं
डूब चुका हूँ।
वैसे भी इतने
दिनों की मुसीबतों
और चिंता के
कारण मेरी सूरत
बदल गई थी
इसलिए वह मुझे
पहचान न सका।
मैं
ने उससे पूछा
कि यह लावारिस-सी लगने
वाली गठरी कैसी
है। उसने कहा,
हमारे जहाज पर
बगदाद का एक
व्यापारी सिंदबाद था। हम
एक रोज समुद्र
के बीच में
थे कि एक
छोटा-सा टापू
दिखाई दिया और
कुछ व्यापारी उस
पर उतर गए।
वास्तव में वह
टापू न था
बल्कि एक बहुत
बड़ी मछली की
पीठ थी जो
सागर तल पर
आकर सो गई
थी। जब व्यापारियों
ने खाना बनाने
के लिए उस
पर आग जलाई
तो पहले तो
वह हिली फिर
समुद्र में गोता
लगा गई। सारे
व्यापारी नाव पर
या तैरकर जहाज
पर आ गए
किंतु बेचारा सिंदबाद
वहीं डूब गया।
ये गठरियाँ उसकी
ही हैं। अब
मैंने इरादा किया
है इस गठरी
का माल बेच
दूँ और इसका
जो दाम मिले
उसे बगदाद में
सिंदबाद के परिवार
वालों के पास
पहुँचा दूँ।
मैंने
उससे कहा कि
जिस सिंदबाद को
तुम मरा समझ
रहे हो वह
मैं ही हूँ
और यह गठरी
तथा इसके साथ
की गठरियाँ मेरी
ही हैं। उसने
कहा, 'अच्छे रहे,
मेरे आदमी का
माल हथियाने के
लिए खुद सिंदबाद
बन गए। वैसे
तो शक्ल-सूरत
से भोले लगते
हो मगर यह
क्या सूझी है
कि इतना बड़ा
छल करने को
तैयार हो गए।
मैंने स्वयं सिंदबाद
को डूबते देखा
है। इसके अतिरिक्त
कई व्यापारी भी
साक्षी हैं कि
वह डूब गया
है। मैं तुम्हारी
बात पर कैसे
विश्वास करूँ।
मैंने
कहा, भाई कुछ
सोच-समझ कर
बात करो। तुमने
मेरा हाल तो
सुना ही नहीं
और मुझे झूठा
बना दिया। उसने
कहा, अच्छा बताओ
अपना हाल। मैंने
सारा हाल बताया
कि किस प्रकार
लकड़ी के सहारे
तैरता रहा और
चौबीस घंटे समुद्र
में तैरने के
बाद निर्जन द्वीप
में पहुँचा और
किस तरह से
बादशाह के साईसों
ने मुझे वहाँ
से लाकर बादशाह
के सामने पेश
किया।
कप्तान
को पहले तो
मेरी कहानी पर
विश्वास न हुआ।
फिर उसने ध्यानपूर्वक
मुझे देखा और
अन्य व्यापारियों को
भी मुझे दिखाया।
सभी ने कुछ
देर में मुझे
पहचान लिया और
कहा कि वास्तव
में यह सिंदबाद
ही है। सब
लोग मुझ नया
जीवन पाने पर
बधाई और भगवान
को धन्यवाद देने
लगे।
कप्तान
ने मुझे गले
लगाकर कहा, ईश्वर
की बड़ी दया
है कि तुम
बच गए। अब
तुम अपना माल
सँभालो और इसे
जिस प्रकार चाहो
बेचो। मैंने कप्तान
की ईमानदारी की
बड़ी प्रशंसा की
और कहा कि
मेरे माल में
से थोड़ा-सा
तुम भी ले
लो। किंतु उसने
कुछ भी नहीं
लिया, सारा माल
मुझे दे दिया।
मैं
ने अपने सामान
में से कुछ
सुंदर और बहुमूल्य
वस्तुएँ बादशाह को भेंट
कीं। उसने पूछा,
तुझे यह मूल्यवान
वस्तुएँ कहाँ से
मिलीं? मैंने उसे पूरा
हाल सुनाया। वह
यह सुनकर बहुत
खुश हुआ। उसने
मेरी भेंट सहर्ष
स्वीकार कर ली
और उसके बदले
में उनसे कहीं
अधिक मूल्यवान वस्तुएँ
मुझे दे दीं।
मैं उससे विदा
होकर फिर जहाज
पर आया और
अपना माल बेचकर
उस देश की
पैदावार यथा चंदन,
आबनूस, कपूर, जायफल, लौंग,
काली मिर्च आदि
ली और फिर
जहाज पर सवार
हो गया। कई
देशों और टापुओं
से होता हुआ
हमारा जहाज बसरा
के बंदरगाह पर
पहुँचा। वहाँ से
स्थल मार्ग से
बगदाद आया। इस
व्यापार में मुझे
एक लाख दीनार
का लाभ हुआ।
मैं अपने परिवार
वालों और बंधु-बांधवों से मिलकर
बड़ा प्रसन्न हुआ।
मैं ने एक
विशाल भवन बनवाया
और कई दास
और दासियाँ खरीदीं
और आनंद से
रहने लगा। कुछ
ही दिनों में
मैं अपनी यात्रा
के कष्टों को
भूल गया।
सिंदबाद
ने अपनी कहानी
पूरी करके गाने-बजाने वालों से,
जो उसके यात्रा
वर्णन के समय
चुप हो गए
थे, दुबारा गाना-बजाना शुरू करने
को कहा। इन्हीं
बातों में रात
हो गई। सिंदबाद
ने चार सौ
दीनारों की एक
थैली मँगाकर हिंदबाद
को दी और
कहा कि अब
तुम अपने घर
जाओ, कल फिर
इसी समय आना
तो मैं तुम्हें
अपनी यात्राओं की
और कहानियाँ सुनाऊँगा।
हिंदबाद ने इतना
धन पहले कभी
देखा न था।
उसने सिंदबाद को
बहुत धन्यवाद दिया।
उसके आदेश के
अनुसार हिंदबाद दूसरे अच्छे
और नए वस्त्र
पहन कर उसके
घर आया। सिंदबाद
उसे देखकर प्रसन्न
हुआ और उसने
मुस्कराकर हिंदबाद से उसकी
कुशल-क्षेम पूछी।
कुछ
देर में सिंदबाद
के अन्य मित्र
भी आ गए
और नित्य के
नियम के अनुसार
स्वादिष्ट व्यंजन सामने लाए
गए। जब सब
लोग खा-पीकर
तृप्त हो चुके
तो सिंदबाद ने
कहा, दोस्तो, अब
मैं तुम लोगों
को अपनी दूसरी
सागर यात्रा की
कहानी सुनाता हूँ,
यह पहली यात्रा
से कम विचित्र
नहीं है। सब
लोग ध्यान से
सुनने लगे और
सिंदबाद ने कहना
शुरू किया।
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