नाई
ने कहा कि
अब मेरे आखिरी
भाई शाह कबक
का वृत्तांत रह
गया है। इसे
भी सुन लीजिए,
फिर मैं आप
से विदा लूँ।
इस भाई का
नाम शाह कबक
था और उसके
होंठ खरगोश की
तरह ऊपर को
चढ़े हुए थे
और वह चलता
भी खरगोश की
तरह कूद-कूद
कर था। पिता
के मरने पर
उसे अपने हिस्से
के रुपए मिले
और उसने उनसे
व्यापार किया जिससे
उसे काफी मुनाफा
हुआ किंतु कुछ
दिनों बाद दुर्भाग्य
से उसे ऐसा
घाटा हुआ कि
दाने-दाने को
मुहताज हो गया।
मतलब यह कि
उसके पास बहुत
ही कम धन
रह गया।
अब
उसने यह धंधा
शुरू किया कि
अमीरों के घर
जाता और द्वारपालों
से साठ-गाँठ
करता और उन्हें
घूस देता। वे
उसे अंदर जाने
देते जहाँ वह
गृहस्वामी के पाँव
पकड़ कर उससे
भीख माँगता। द्वारपाल
भी कहते कि
बेचारा वास्तव में अत्यंत
दुखी है, इसे
जरूर कुछ दे
दीजिए।
एक
दिन घूमते-घूमते
वह एक विशाल
भवन के सामने
गया जहाँ बहुत-से नौकर-
चाकर दौड़-भाग
कर रहे थे।
उसने एक सेवक
से पूछा कि
यह किसका मकान
है। उसने कहा,
मालूम होता है
तू परदेसी है
तभी इस महल
के स्वामी का
नाम पूछ रहा
है। हमारा स्वामी
तो सूर्य की
भाँति प्रसिद्ध है।
उसका नाम जाफर
बरमकी है जो
खलीफा का विश्वासपात्र
मंत्री है। मेरे
भाई ने उन
सेवकों से पूछा
कि क्या मुझे
यहाँ कुछ भिक्षा
मिल सकती है।
उन्होंने कहा कि
हमारा स्वामी अति
दयालु है, वह
किसी याचक को
नहीं रोकता, तुम
बेखटक अंदर चले
जाओ और हमारे
मालिक से भीख
माँगो, वह तुम्हें
निहाल कर देगा।
मेरा
भाई अंदर गया
तो वहाँ का
ऐश्वर्य देख कर
उसकी आँखें फट
गईं। महल बहुत
बड़ा था और
अत्यंत मूल्यवान वस्तुओं से
सजा हुआ था।
उसमें शानदार संगमरमर
का फर्श था
और हर जगह
रंगीन रेशमी परदे
लटक रहे थे।
कई दालानों और
वाटिकाओं से होता
हुआ मेरा भाई
एक दालान में
पहुँचा जहाँ बहुत-से नौकर-चाकर थे
और एक वृद्ध
पुरुष एक सोने
के कामवाली गद्दी
पर बैठा था।
मेरा भाई समझ
गया कि यही
बरमकी है। उसने
प्रणाम किया तो
बरमकी बोला, क्या
चाहते हो?
मेरे
भाई ने उसे
झुक कर सलाम
किया और कहा,
सरकार मैं निर्धन
मनुष्य हूँ और
आप जैसे ऐश्वर्यवान
व्यक्ति से कुछ
माँगने आया हूँ।
बरमकी इस बात
से खुश हुआ
और उसकी दीन-हीन दशा
देख कर बोला
कि आश्चर्य है
कि हमारे बगदाद
शहर में भी
कोई ऐसा निर्धन
व्यक्ति है। मेरा
भाई यह समझा
कि यह मुझे
बहुत कुछ देगा
और उसने बरमकी
को बहुत आशीर्वाद
दिया। बरमकी ने
उससे कहा कि
मैं तुम्हें ऐसा
दान दूँगा जिसे
तुम जीवन भर
याद रखोगे। फिर
मेरा भाई बोला
कि मैं सौगंधपूर्वक
कहता हूँ कि
मैंने अभी तक
कुछ नहीं खाया
है। बरमकी बोला,
यह तो बड़े
दुख की बात
है कि तुम
अत्यंत भूखे भी
हो। मैं तुम्हारे
लिए अभी भोजन
मँगवाता हूँ।
यह
कह कर बरमकी
ने जोर से
आवाज दी, छोकरे,
हाथ धोने के
लिए पानी ला।
न कोई छोकरा
आया न पानी
किंतु बरमकी अपने
हाथ ऐसे मल-मल कर
धोने लगा जैसे
कि उन पर
कोई पानी डाल
रहा हो। उसने
मेरे भाई से
कहा कि तुम
भी आगे आओ
और हाथ धोओ।
मेरे भाई ने
सोचा कि बरमकी
परिहास-प्रिय है। वह
भी आगे बढ़
कर झूठ-मूठ
हाथ धोने लगा।
फिर बरमकी बोला
कि अभी भोजन
भी आ रहा
है। कुछ क्षणों
के बाद वह
अपने मुँह तक
हाथ ले गया
और ऐसे मुँह
चलाने लगा जैसे
ग्रास को चबा
रहा है। उसने
मेरे भाई से
कहा कि तुम
भी खाओ। संकोच
क्यों कर रहे
हो। इस घर
को अपना ही
समझो। मेरा भाई,
जो वास्तव में
भूखा था, इस
झूठ-मूठ की
दावत से कुढ़
कर रह गया
और कुछ न
बोला।
बरमकी
ने कहा, क्या
बात है? क्या
तुम्हें यह शीरमाल
और यह कबाब
अच्छे नहीं लगते?
तुम खा क्यों
नहीं रहे हो?
मेरे भाई ने
कुछ और उपाय
न देख कर
बरमकी की भाँति
ही झूठ-मूठ
खाना शुरू कर
दिया। कुछ देर
बाद बरमकी ने
पुकार कर कहा,
सच कहो तुमने
ऐसा स्वादिष्ट चकोर
और बटेर का
मांस कभी खाया
है। फिर इसी
प्रकार उसने झूठ-मूठ बतख
का मांस खाया
और खिलाया। फिर
बरमकी बोला कि
देखो यह मुर्गे
का कैसा स्वादिष्ट
मांस है, एक
टाँग और एक
बाजू तुम भी
लो। फिर कहा,
देखो यह बकरी
के बच्चे का
भुना मांस है।
उसे भी उसने
झूठ-मूठ खाया
और खिलाया।
इसी
प्रकार कई प्रकार
के कल्पित व्यंजन
उसने मँगाए और
झूठ-मूठ खाए
और खिलाए। फिर
एक व्यंजन का
एक ग्रास ले
कर मेरे भाई
के मुँह की
ओर ले गया
और कहा कि
इसे मेरे हाथ
से खाओ।
शाह
कबक ने उस
झूठे ग्रास को
चबाया और कहा,
वास्तव में इसका
स्वाद अद्वितीय है।
बरमकी बोला कि
मैं पहले ही
कहता था कि
तुम इसे पसंद
करोगे, अच्छा अब एक
और चीज खा
कर देखो। यह
कह कर वह
फिर एक हवाई
ग्रास शाह कबक
के मुँह की
ओर ले गया।
शाह कबक ने
यूँ ही मुँह
चला कर कहा,
वाह, इसके स्वाद
का क्या कहना,
यह भी पिछले
व्यंजन से कम
नहीं है। इसमें
से अंबर, लौंग,
जायफल और जावित्री
सब की सुगंध
आ रही थी
और कोई सुगंध
किसी दूसरी सुगंध
को दबा नहीं
रही है। बरमकी
बोला कि जी
भर कर इसे
खाओ।
फिर
बरमकी ने छोकरे
को (जो कहीं
उपस्थित नहीं था)
आवाज दी कि
खाने के बरतन
उठा ले और
फल ला। फिर
मेरे भाई से
कहा कि यह
बादाम आज ही
तोड़े गए हैं।
इसके बाद वे
दोनों काल्पनिक रूप
से बादामों को
तोड़ कर उनका
छिलका फेंक कर
गूदा खाने लगे।
इसी प्रकार और
भी भाँति-भाँति
के मेवों और
फलों को बरमकी
ने झूठ-मूठ
खाया खिलाया। शाह
कबक ने खूब
तारीफ की और
कहा कि बहुत
ही स्वादिष्ट चीजें
खाने को मिलीं
जिनसे मुँह थक
गया लेकिन मन
न भरा।
अब
बरमकी ने मुस्कुरा
कर उसकी ओर
हाथ बढ़ाया और
कहा कि यह
मदिरा पियो। शाह
कबक ने कहा
कि हमारे परिवार
में मदिरापान वर्जित
है किंतु बरमकी
बराबर जोर देता
रहा तो उसने
झूठ-मूठ का
प्याला अपने गले
में उड़ेल लिया
और कहा, मालिक,
मैंने सुना था
कि शराब में
नशा होता है,
मुझे तो बिल्कुल
नशा नहीं चढ़ा।
बरमकी ने कहा
कि अब मैं
तुम्हें एक नए
प्रकार की तेज
शराब पिलाता हूँ।
यह कह कर
उसने एक काल्पनिक
प्याला मेरे भाई
की ओर बढ़ाया।
उसने उसे झूठ-मूठ पी
लिया और मद्यप
की तरह चेष्टाएँ
करने लगा। कुछ
देर में उसने
बरमकी को एक
घूँसा मारा, फिर
एक और घूँसा
मारा। तीसरी बार
बरमकी ने उसका
हाथ पकड़ लिया
और कहा कि
तू पागल हो
गया है क्या?
मेरे
भाई ने ऐसा
हाव-भाव दिखाया
जैसे नशे से
चौंका हो। फिर
वह हाथ जोड़
कर बोला, सरकार,
मुझ से बड़ा
अपराध हुआ। आप
ने मुझे इतने
सुस्वादु व्यंजन खिलाए और
मैंने आप के
साथ ऐसी धृष्टता
की। किंतु आपने
मुझे तेज शराब
भी पिला दी।
मैंने आपसे पहले
ही निवेदन किया
था कि मेरे
परिवार में मद्यपान
नहीं होता है
और मुझे इसकी
आदत नहीं है।
इसी के नशे
में मुझ से
भूल हुई। मुझे
क्षमा करें।
बरमकी
यह सुन कर
क्रुद्ध होने के
बजाय हँस पड़ा
और बोला, मुझे
बहुत दिनों से
तेरे जैसे मनुष्य
की ही तलाश
थी। मैं तेरा
अपराध इस शर्त
पर क्षमा कर
सकता हूँ कि
तू यहीं हमेशा
मेरे साथ रह।
अभी तक हम
लोगों ने झूठ-मूठ का
भोजन किया है,
अब सचमुच का
करेंगे। यह कह
कर उसने सेवकों
को आज्ञा दी
और वे सब
एक-एक कर
के वहीं व्यंजन
लाए जिन्हें अब
तक बरमकी ने
झूठमूठ खाया और
खिलाया था। मेरे
भाई ने रुचिपूर्वक
वे स्वादिष्ट व्यंजन
पेट भर खाए।
फिर बरतन उठाए
गए और उत्तम
मदिरा के पात्र
लाए गए। मद्यपान
के बीच ही
कई रूपसी नवयुवतियाँ
आईं और उन्होंने
सुरीले वाद्यों के साथ
मधुर स्वर में
देर तक गाना-बजाना किया।
मेरा
भाई इन सब
बातों से स्वभावतः
ही बड़ा प्रसन्न
हुआ। उसने बरमकी
की उदारता की
बड़ी प्रशंसा की
और उसे बहुत
आशीर्वाद दिया। बरमकी ने
कहा कि अब
तुम यह फटे-पुराने कपड़े उतारो
और कायदे के
कपड़े पहनो। यह
कह कर उसने
सेवकों को आज्ञा
दी कि इसके
लिए नए कपड़े
लाओ। वे बरमकी
के अपने वस्त्रागार
से बहुमूल्य वस्त्र
शाह कबक के
लिए ले आए।
बरमकी
ने मेरे भाई
को हर तरह
से बुद्धिमान और
व्यवहार-कुशल पाया
और अपने घर
का सारा प्रबंध
उसके सुपुर्द कर
दिया। इस प्रकार
वह बड़ा संतुष्ट
और प्रसन्न हो
कर बरमकी के
महल में रहने
लगा। किंतु उसके
इस सौभागय ने
बहुत दिनों तक
उसका साथ न
दिया। खलीफा ने
बरमकी के मरने
पर उसकी सारी
संपत्ति और धन
जब्त कर लिया।
मेरे भाई ने
जो संपत्ति अर्जित
की थी वह
भी उससे छीन
ली गई। वह
बेचारा अपना थोड़ा-बहुत बचा
हुआ रुपया ले
कर व्यापारियों के
एक दल के
साथ विदेश को
चला कि कुछ
व्यापार करें। किंतु रास्ते
में डाकुओं ने
उन सब व्यापारियों
पर हमला कर
के उन्हें लूट
लिया और उन्हें
गुलाम बना कर
बेच दिया।
मेरा
भाई भी एक
जंगली आदमी के
हाथ बेच दिया
गया। वह जंगली
उसे मारा-पीटा
करता और कहता
कि मुझे इतने
रुपए दे तो
तुझे आजाद कर
दूँगा। मेरे भाई
ने कसम खा
कर कहा कि
मेरे पास एक
पैसा भी नहीं
है। इस पर
उस जंगली ने
छुरी निकाल कर
मेरे भाई के
होंठ चीर डाले।
इस पर भी
उस पर दया
न की और
होंठ ठीक हो
जाने के बाद
उसे कठिन परिश्रम
के काम पर
लगा दिया गया।
बेचारा इसी तरह
दुख में जीवन
बिताने लगा।
उस
जंगली की पत्नी
बड़ी सुंदर थी।
वह जब लूट-मार करने
जाता था तो
अपनी पत्नी की
रक्षा का भार
मेरे भाई पर
छोड़ जाता था।
पति के जाने
के बाद वह
स्त्री शाह कबक
से बड़ी मीठी-मीठी बातें
करती, उसकी हर
जरूरत का ध्यान
रखती और बड़े
आकर्षक हाव-भाव
दिखाती। शाह कबक
समझ गया कि
यह मुझे चाहती
है और मेरे
साथ भोग की
इच्छुक है। किंतु
अपने जंगली मालिक
के डर से
शाह कबक उससे
अलग ही रहता
और जब एकांत
में वह उसे
आकर्षक हाव-भाव
दिखाती तो आँखें
नीचे कर लेता।
एक
दिन प्रेमावेश में
वह स्त्री पति
की उपस्थिति ही
में शाह कबक
के सामने ऐसी
चेष्टाएँ करने लगी।
जंगली ने उसे
शाह कबक की
शरारत समझा और
क्रोध में आ
कर एक ऊँट
पर अपने पीछे
उसे बिठाया और
एक ऊँचे पहाड़
पर ले जा
कर उसे छोड़
दिया ताकि वह
भूख-प्यास से
मर जाए। वह
स्वयं अकेला ऊँट
पर बैठ कर
नीचे उतर आया।
कुछ दिनों में
उधर से कुछ
लोग बगदाद की
तरफ आते हुए
निकले। वे स्वयं
तो मेरे भाई
को न लाए
किंतु बगदाद आ
कर मुझे उसका
हाल बता दिया।
मैंने जा कर
उसे सांत्वना दी
और उसे अपने
घर ले आया।
नाई
ने कहा कि
यह सब कथाएँ
सुन कर खलीफा
बहुत हँसा। उसने
मुझे अच्छा इनाम
दिया और गंभीर
व्यक्ति का खिताब
दिया। लेकिन कहा
कि तुम बगदाद
से निकल जाओ।
कुछ वर्षों बाद
मैंने सुना कि
खलीफा का देहांत
हो गया है
इसलिए अपने घर
वापस आया। उस
समय तक मेरे
छहों भाई भी
मर गए थे।
इसके बाद कई
वर्ष तक मैंने
इस लँगड़े और
उसके बाप की
सेवा की जैसा
कि आप लोगों
ने स्वयं ही
इसके मुँह से
सुना है। फिर
भी यह अत्यंत
दुख की बात
है कि इनकी
इतनी भलाई करने
पर भी इसने
कृतघ्नता का सबूत
दिया और मुझसे
घृणा करता रहा।
इसके शहर से
निकलने पर इसे
ढूँढ़ता हुआ मैं
काशगर पहुँचा।
दरजी
ने काशगर के
बादशाह के सामने
नाई के मुख
से सुना वृत्तांत
सुना कर कहा
कि नाई की
कहानी के बाद
सब लोगों ने
भोजन किया और
तीसरे पहर मैं
अपनी दुकान पर
गया। शाम को
घर आने लगा
तो देखा कि
यह कुबड़ा शराब
में धुत्त हो
कर मेरी दुकान
के सामने बैठा
गा-बजा रहा
है। मैं उसे
अपने घर ले
गया। मेरी पत्नी
ने उस दिन
मछली पकाई थी।
हम दोनों के
खाने के लिए
वह कई मछलियाँ
लाई। मैंने कुबड़े
को कुछ मछलियाँ
खाने को दीं।
वह मूर्ख उनके
काँटे निकाले बगैर
ही उन्हें खा
गया। काँटे उसके
गले में अटक
गए और वह
बेहोश हो कर
गिर पड़ा। मैंने
उसे ठीक करने
के बहुत- से
प्रयत्न किए किंतु
जब वह मर
गया तो मैं
उसे यहूदी हकीम
के दरवाजे से
टिका कर घर
लौट आया।
दरजी
ने फिर कहा,
जहाँपनाह, इसके बाद
की सारी बातें
आप को ज्ञात
हैं। हकीम ने
उसे मरा जान
कर व्यापारी के
गोदाम में गिरा
दिया। व्यापारी ने
उसे चोर समझ
कर उसको थप्पड़
लगाए और समझा
कि यह उसी
मार से मर
गया है अतएव
इसे बाजार में
एक दुकान के
सहारे खड़ा कर
दिया। मैंने सारी
बातें सच-सच
आप को बता
दीं। अब आप
को अधिकार है
चाहे मुझे मृत्युदंड
दें या क्षमादान
करें।
बादशाह
दरजी की बात
सुन कर संतुष्ट
हो गया और
बोला कि दरजी
और बाकी तीनों
लोग निर्दोष हैं,
उन्हें छोड़ दिया
जाए। उसने यह
भी कहा कि
मैं लँगड़े और
नाई के छह
भाइयों के किस्से
सुन कर बहुत
प्रसन्न हुआ, निस्संदेह
यह कुबड़े की
कहानियों से भी
अधिक मनोरंजक हैं।
लेकिन उसने आज्ञा
दी कि उस
नाई को, जो
इसी शहर में
है, यहाँ लाया
जाए और जब
तक वह यहाँ
न आए न
कुबड़े की लाश
को दफन किया
जाए और न
किसी अभियुक्त को
घर जाने दिया
जाए।
अतएव
बादशाह के आदेश
से उसके नौकर-चाकर दरजी
के साथ गए
और कुछ देर
में खोज कर
के नाई को
बादशाह के सामने
ले आए। नाई
की अवस्था नब्बे
वर्ष की थी,
उसकी दाढ़ी, मूँछें
और भवें बर्फ
की तरह सफेद
थीं। उसकी नाक
बहुत लंबी थी
और उसके कान
बुढ़ापे के कारण
काफी लटक आए
थे। बादशाह को
उसका यह विचित्र
रूप देख कर
बरबस हँसी आ
गई। उसने नाई
से कहा, मैंने
सुना है कि
तुम बड़ी विचित्र
और विस्मयकारी कहानियाँ
कहते हो। मैं
चाहता हूँ कि
तुम्हारी कुछ कहानियाँ
तुम्हारे मुँह से
सुनूँ।
नाई
ने हाथ जोड़
कर कहा, हे
पृथ्वीनाथ, मैं आपका
दासानुदास हूँ। मुझे
जो भी आज्ञा
होगी उसके पालन
में मैं सदैव
तत्पर हूँ। किंतु
कहानियाँ सुनाने के पहले
एक प्रश्न पूछने
की धृष्टता करना
चाहता हूँ। कृपया
यह बताएँ कि
यह दरजी, यह
यहूदी हकीम और
इतने सारे नागरिक
यहाँ क्यों जमा
हैं और यह
कुबड़ा आदमी जमीन
पर किस लिए
लेटा है। बादशाह
ने कहा, तुझे
इन बातों से
क्या लेना-देना।
नाई ने कहा,
मैं सिर्फ यह
साबित करना चाहिता
हूँ कि मैं
बकवासी नहीं हूँ।
मैं बोलता हूँ
तो सुनना भी
चाहता हूँ।
बादशाह
उसकी यह बात
सुन कर हँस
पड़ा और उसने
पूरी घटना बताई
कि किस तरह
कुबड़े की हत्या
के अपराध पर
चार आदमी फाँसी
चढ़ाए जानेवाले थे।
नाई यह कथा
सुनते समय गंभीरतापूर्वक
सिर हिलाता रहा
जैसे वह सब
समझ रहा है
और किसी ऐसे
भेद को पा
गया है जो
वह अपने हृदय
में छुपाए है।
फिर उसने बादशाह
से कुबड़े को
देखने की अनुमति
चाही। अनुमति मिलने
पर वह उठ
कर कुबड़े के
पास गया और
बहुत देर तक
उसके शरीर का
निरीक्षण करता रहा
और नाड़ी, आँखें
आदि देखता रहा।
यकायक
वह बड़े जोर
से हँसा। वह
हँसता ही रहा
और हँसते-हँसते
पीठ के बल
गिर पड़ा। उसे
यह भी ध्यान
न रहा कि
बादशाह के सामने
इस प्रकार हँसना
बड़ी उद्दंडता है।
उठने के बाद
भी बहुत देर
तक हँसता रहा।
फिर बोला सरकार,
इस कुबड़े की
कहानी तो ऐसी
है कि स्वर्णाक्षरों
में लिखवा कर
रखी जाए। लोग
उसकी बात सुन
कर आश्चर्यचकित हुए
और कहने लगे
कि या तो
इस नाई का
मस्तिष्क फिर गया
है या बुढ़ापे
के कारण इसकी
मति मारी गई
है। बादशाह ने
भी विनोदपूर्वक कहा,
हे अल्पभाषी, बुद्धिसागर
महोदय, आपको इतनी
हँसी किस कारण
आ रही है?
नाई
ने कहा, पृथ्वीपाल,
मैं आपकी न्यायप्रियता
और क्षमाशीलता की
सौंगध खा कर
कहता हूँ कि
यह कुबड़ा मरा
ही नहीं है।
मैं इसे ठीक
कर सकता हूँ।
आप अनुमति दें
तो मैं इसका
इलाज करूँ। अगर
मैं सफल न
होऊँ तो फिर
आप मुझे दुर्बुद्धि
या विक्षिप्त जो
भी चाहें ठहराएँ
और जो दंड
चाहें वह दें।
बादशाह से अनुमति
पा कर नाई
ने अपना संदूकचा
खोला और उसमें
से एक तेल
निकाल कर कूबड़े
के हाथ और
गले पर कुछ
देर तक मलता
रहा। फिर उसने
एक औजार से
कुबड़े का मुँह
खोला और एक
चिमटी उसके मुँह
के अंदर डाल
कर उसके गले
में अटका मछली
का काँटा पकड़ा
और जोर लगा
कर उसे बाहर
निकाल लिया। उसने
काँटा सभी उपस्थित
व्यक्तियों को दिखाया।
कुछ ही देर
में कुबड़े के
हाथ-पैरों में
हरकत हुई और
उसने अपनी आँखें
खोल दीं। इसके
अतिरिक्त भी उसके
शरीर में जीवन
के कई चिह्न
दिखाई दिए।
काशगर
का बादशाह और
सारे उपस्थित व्यक्ति
इस बात को
देख कर घोर
आश्चर्य में पड़
गए कि एक
पूरे दिन-रात
मुर्दों के समान
पड़े रहने के
बाद भी कुबड़ा
यकायक जी उठा।
सभी लोगों को
इस बात से
खुशी हुई। बादशाह
ने आज्ञा दी
कि कुबड़े की
तथाकथित मृत्यु की घटना
और नाई की
कही हुई कहानियाँ
लिपिबद्ध की जाएँ
और शाही ग्रंथागार
में रखी जाएँ।
उसने यह भी
आज्ञा दी कि
चूँकि दरजी, यहूदी
हकीम, मुसलमान व्यापारी
और ईसाई को
कुबड़े की वजह
से बड़ा मानसिक
और शारीरिक कष्ट
सहना पड़ा है
इसलिए इन लोगों
को शाही खजाने
से काफी इनाम
दे कर विदा
किया जाए। उसने
तीसरी आज्ञा यह
दी कि नाई
का कुछ मासिक
वेतन नियत कर
के दरबार में
रख लिया जाए
ताकि वह अपनी
कहानियों से हमारा
मनोरंजन किया करे।
मंत्री
की बेटी शहरजाद
इस संपूर्ण कथा
को कहने के
बाद चुप हो
रही। दुनियाजाद ने
कहा, दीदी, यह
तो बहुत अच्छी
कहानी थी। मैंने
तो समझा था
कि बेचारा कुबड़ा
मर ही गया
होगा। वास्तव में
नाई बहुत ही
कुशल और बुद्धिमान
था कि उसने
उसे जीवनदान दे
दिया।
हिंदुस्तान
के बादशाह शहरयार
ने कहा, मैं
भी इस कहानी
को सुन कर,
विशेषतः लँगड़े और नाई
के वृत्तांतों को
सुन कर अत्यंत
प्रसन्न हूँ। शहरजाद
ने कहा, यदि
बादशाह सलामत मुझे आज
प्राणदान दें तो
मैं बका के
पुत्र अबुल हसन
और खलीफा हारूँ
रशीद की प्रेयसी
शमसुन्निहार की कहानी
सुनाऊँगी। यह कहानी
कुबड़े की कहानी
से भी अधिक
मनोरंजक है।
चुनांचे
उस कहानी के
सुनने की इच्छा
के कारण बादशाह
ने उस दिन
भी शहरजाद का
वध न करवाया।
वह दिन भर
दरबार में बैठ
कर अपने राज्य
प्रबंध में लगा
रहा और रात
को आ कर
शहरजाद के साथ
सो गया। दूसरी
सुबह होने के
एक पहर पहले
दुनियाजाद ने शहरजाद
को जगा कर
कहा कि अब
वह कहानी सुनाओ
जिसे सुनाने को
कहा था। शहरयार
भी जाग गया
और कहानी सुनने
को उत्सुक हो
गया। शहरजाद ने
कहना शुरू किया।
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