शहरजाद
ने कहा कि खलीफा हारूँ रशीद के जमाने में बगदाद में एक धनी व्यापारी था। उस का एक
ही पुत्र था जिसका नाम अबुल हसन था। व्यापारी बड़ा कंजूस था। वह धन एकत्र ही करता
था, खर्च
बहुत कम करता था। इसलिए जब वह मरा तो उस ने बेहद धन-दौलत छोड़ी। अबुल हसन का स्वभाव इस से उलटा था।
उस ने जब पिता का धन पाया तो दोनों हाथों से खर्च करने लगा। उस ने अपने मित्रों को
खूब पैसा दिया। फिर उस ने अपनी दौलत के दो भाग किए। एक से उस ने मकान खरीदे जिनका
किराया उस के सारे जीवन के लिए काफी था। दूसरे को उस ने पूर्ववत रागरंग पर लुटाना
शुरू कर दिया। उस के यहाँ हमेशा नाच-गाना होता था और शराब चलती थी। वह अपने मित्रों
के साथ अति मूल्यवान पात्रों में स्वादिष्ट भोजन करता था। नाच-गाने
की महफिलों के साथ भाँड़ और अन्य लोग उसे तरह-तरह के तमाशे दिखाते थे।
इस प्रकार एक ही वर्ष में अबुल हसन ने अपने पिता का सारा
संचित धन खर्च कर डाला। जब उस ने मित्रों को दावतें देना छोड़ दिया तो उन्होंने भी
उस के घर आना छोड़ दिया। यद्यपि वे सब अबुल हसन के कारण धनवान हो गए थे तथापि
उन्होंने खराब भावना प्रदर्शित की। वे उस से राह-बाट में मुँह चुराने लगे। अगर वह किसी को रोक
कर बात भी करता तो वह कोई बहाना बना कर अपनी राह चला जाता।
अबुल हसन को अपने मित्रों की इस अमैत्री से बड़ा क्षोभ हुआ।
अक्सर पछताया करता कि मैं ने ऐसे लोगों पर क्यों धन लुटाया जिनकी आँखों में
बिल्कुल शील नहीं है। एक दिन वह इसी चिंता में अपनी माँ के पास बैठा था। माँ ने उस
से उदासी का कारण पूछा, क्योंकि वह साधारणतः प्रफुल्लित रहता था। वह
कुछ न बोला तो माँ ने कहा, मैं जानती हूँ कि तुम्हें क्या दुख है। तुमने
इस बीच बड़ी मूर्खता की कि अपना सारा धन लुटा दिया। मैं जानती थी कि तुम एक दिन
धनहीन हो जाओगे। मैं तुम्हें तुम्हारी हरकतों से रोकती भी थी किंतु तुम तो अपनी
लफंगे दोस्तों के फेर में पड़े थे। तुमने मेरी बात नहीं मानी। अब वे स्वार्थी और
नीच लोग तुम्हारी बात कहाँ पूछते होंगे।
अबुल हसन ने कहा, वे मुझ से बात तो कम करते हैं किंतु वे नीच
नहीं मालूम होते। संभव है कि वे अधिक व्यस्त हो गए हैं। मैं उनकी परीक्षा लेने के
लिए उनसे ॠण माँगता हूँ। मुझे विश्वास है कि वे इस से इनकार नहीं करेंगे। यह कह कर
वह एक-एक
करके उन सभी के पास गया और उनसे व्यापार आरंभ करने के लिए ॠण माँगने लगा। किंतु
सबने टका-सा
जवाब दे दिया यद्यपि वह धन जिस पर वे ऐश कर रहे थे अबुल हसन ही का था। उनमें से कई
ने तो अबुल हसन को फटकार भी दिया।
अब वह माँ के पास आ कर बोला, तुम ठीक कहती थीं। वे सभी बड़े दुष्ट और नीच
हैं। मैं अब किसी व्यक्ति को मित्र नहीं बनाऊँगा। उस ने अपने बचे हुए धन को सँभाला, कुछ
मुल्यवान गृह सामग्री बेच कर कुछ रुपया इकट्ठा किया और छोटा-मोटा
व्यापार शुरू किया। शाम को वह नदी के पुल पर चला जाता और एक परदेशी को घर ले आता, उसे
स्वादिष्ट भोजन कराता और आधी रात तक उस से बातें करता। फिर सुबह उसे विदा करके
कहता कि अब तुम कभी मेरे घर न आना।
उस की यह हरकत इसलिए थी कि उसे अकेले भोजन करने की आदत नहीं
थी। इसलिए खाने पर किसी को साथ रखता। मैत्री वह करना भी नहीं चाहता था। उस के
मेहमानों में से अगर उसे संयोगवश कोई व्यक्ति बाद में किसी स्थान पर मिल जाता था
तो वह उस की ओर से मुँह फेर लेता था और अगर वह अबुल हसन से कुछ बात करना चाहता था
तो यह ऐसा बन जाता जैसे उसे पहले कभी देखा ही नहीं हो।
एक दिन अपनी दैनिक चर्या के अनुसार अबुल हुसन पुल पर किसी
अकेले परदेशी की प्रतीक्षा में बैठा था। इसी समय खलीफा हारूँ रशीद केवल एक दास को
ले कर उधर से निकला। खलीफा का नियम था कि वह कभी-कभी वेश बदल कर प्रजा का हाल देखने के लिए
निकला करता था। इस समय भी उसे पहचानना संभव नहीं था। खलीफा के प्रशासन में
मंत्रियों और अधिकारियों की कमी नहीं थी किंतु वह प्रजा की कठिनाइयाँ अपनी आँखों
से देखना चाहता था।
इस समय खलीफा ने मोसिल के व्यापारी का रूप धरा था। और किसी
आकस्मिक दुखदायी स्थिति से निपटने के लिए एक विशालकाय दास भी अपने साथ रखा था।
अबुल हसन ने यही समझा कि वह मोसिल से आनेवाला कोई व्यापारी है। वह उस के समीप गया
और सलाम करने के बाद उस से कहने लगा कि आप परदेशी हैं, मुझ
पर इतनी कृपा कीजिए कि मेरी कुटिया पर चल कर रूखा-सूखा भोजन कीजिए और रात को वहीं शयन भी कीजिए।
खलीफा को आश्चर्य हुआ कि कोई ऐसा दानवीर हो सकता है जो खुद
जा कर परदेशियों को अपने घर आ कर भोजन और शयन को कहे। अबुल हसन का चेहरा-मोहरा
और बातचीत का ढंग भद्रतापूर्ण था। खलीफा की इच्छा हुई कि उस के बारे में कुछ
विस्तारपूर्वक जाने। इसलिए उस ने अबुल हसन का निमंत्रण स्वीकार कर लिया। अबुल हसन
ने उसे एक सजे-सजाए
कमरे में बिठाया, जहाँ
झाड़-फानूस
आदि लगे थे। फिर उस के सामने स्वच्छ और मूल्यवान पात्रों में भाँति-भाँति
के स्वादिष्ट व्यंजन ला कर रखे। उस की माँ पाक कला में प्रवीण थी और अपने पुत्र की
प्रसन्नता के विचार से खुद ही भोजन बनाती थी। उस ने तीन तरह के सालन परोसे। एक
मुर्गे के मांस का, एक
कबूतर के मांस का और एक भुने हुए मांस का। भोजन की मात्रा इतनी अधिक थी कि कई
व्यक्ति उस से तृप्त हो सकते थे। अबुल हसन खलीफा के सामने बैठ कर उस के साथ भोजन
करने लगा। खलीफा ने भोजन की बड़ी प्रशंसा की।
भोजनोपरांत खलीफा के दास ने जल पात्र ला कर दोनों के हाथ
धुलाए। फिर अबुल हसन की माँ ने बादाम और अन्य मेवे भिजवाए। कुछ रात ढलने पर अबुल
हसन शराब की सुराहियाँ और प्याले लाया और उधर माँ से कहा कि मेहमान के गुलाम को
पेट भर भोजन करा दे। फिर उस ने एक प्याला भर कर खलीफा को दिया और खलीफा के पीने के
बाद प्याले में बची शराब खुद पी गया। खलीफा ने भी इस के जवाब में ऐसा ही किया।
खलीफा ने अबुल हसन का शिष्ट व्यवहार देख कर उस का नाम, परिवार
आदि पूछा। उस ने कहा कि मेरी कथा विचित्र है। खलीफा ने उसे सुनाने पर जोर दिया।
अबुल हसन बोला, मेरा नाम अबुल हसन है। मेरा स्वर्गीय पिता एक
साधारण किंतु खाता-पीता
व्यापारी था। उस के मरने पर उस का धन मुझे मिला। मैं ने अपनी नादानी में उस धन का
अपव्यय कर दिया। मेरे पास कई दुष्ट प्रकृति के लोग मित्र बन कर आ गए और मैं ने उन
पर अपना सारा धन लुटा डाला। जब मेरे पास कुछ नहीं रहा और उन्होंने देखा कि मैं
अंदर से ढोल की तरह खोखला हो गया हूँ तो उन्होंने मेरे घर आना-जाना
छोड़ दिया। मेरे पास धन की कमी हो गई थी। इसलिए व्यापार करने के लिए मैं ने उनसे
उधार माँगा किंतु सभी ने मुझे धता बताया। मैं ने समझ लिया कि यह सभी लोग बड़े
स्वार्थी और लज्जाहीन हैं। मैं ने भी उनसे संबंध तोड़ लिया और प्रण किया कि बगदाद
के कमीने निवासियों से कोई सरोकार नहीं रखूँगा। हर रात को एक परदेसी को अपने साथ
ला कर भोजन कराऊँगा और सवेरे उसे विदा करने के बाद उस से भी आगे के लिए कोई संबंध
नहीं रखूँगा। इसी तरह मैं आज तुम्हें लाया हूँ।
खलीफा अबुल हसन की बातों से बहुत खुश हुआ। उस ने कहा, भाई, तुमने
यह बड़ा अच्छा किया कि ऐसे स्वार्थी और नीच मित्रों का साथ छोड़ दिया। अब तुम
वास्तव में सुख से होंगे। तुम्हारी यह आदत भी बड़ी अच्छी है कि एक विदेशी को केवल
एक रात के लिए मेहमान बनाते हो फिर उस से कोई संबंध नहीं रखते। सच पूछो तो मुझे
तुम्हारे भाग्य पर ईर्ष्या हो रही है।
फिर वह काफी देर तक मैत्री वार्ता और हँसी-मजाक
करते रहे। फिर खलीफा ने कहा, अब सोना चाहिए क्योंकि कल मुझे बहुत दूर की
यात्रा करनी है। मैं सुबह तुम्हारे जागने के पहले चला जाऊँगा। किंतु तुमने बड़ी
सुंदरता से मेरा आतिथ्य सत्कार किया है। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारे अहसान का बदला
दूँ। तुम्हारी कोई इच्छा हो तो कहो। अबुल हसन ने कहा, मुझे
भगवान ने मेरी जरूरतों से ज्यादा दिया है, मेरी कोई इच्छा नहीं। मेरा तुम पर कोई अहसान
नहीं है। परदेशियों का सत्कार कर के मुझे खुद ही खुशी होती है। यह तो तुम्हारी
कृपा है कि तुमने मुझे वह खुशी दी है।
खलीफा ने कहा, फिर भी तुम्हारी कोई इच्छा तो होगी ही। अबुल
हसन ने कहा, मेरी
इच्छा सुनोगे तो मुझ पर हँसोगे और मुझे पागल समझोगे। खलीफा ने फिर भी जोर दिया तो
अबुल हसन बोला, तुम
जानते ही हो कि बगदाद में हजारों गलियाँ हैं। प्रत्येक गली में एक या एक से अधिक
मसजिदें हैं। हर एक मसजिद में एक मुअज्जिन होता है जो पाँचों वक्त नमाज के लिए
अजान दिया करता है। इस गली की मसजिद का मुअज्जिन एक बूढ़ा है। वह बड़ी दुष्ट
प्रकृति का आदमी है और मुहल्लेवालों की हानि करके और उन्हें कष्ट देने के उपाय
सोचता रहता है। उस के चार साथी भी हैं जो उस की दुष्टता में उस का साथ देते हैं।
वे उसी मुअज्जिन के घर में जा कर अपनी दुष्टतापूर्ण योजनाएँ बनाते हैं। उन लोगों
से सभी को कुछ न कुछ क्षति पहुँची है। मुझे भी उनकी वजह से परेशानी हो रही है।
मुझे तो उन लोगों की सूरत देख कर भी घृणा होती है।
खलीफा ने कहा, यह तो तुमने किस्सा बताया, अपनी
इच्छा तो नहीं बताई। अबुल हसन बोला, अगर भगवान अपनी शक्ति से मुझे खलीफा हारूँ रशीद
की तरह तख्त पर बिठा दे तो मैं इन पाँचों को यथोचित दंड दूँगा। खलीफा ने कहा, उन्हें
क्या दंड दोगे? अबुल
हसन बोला, बूढ़े
को चार सौ कोड़े और उस के साथियों को सौ-सौ कोड़े लगवाऊँगा।
खलीफा बड़ा विनोदप्रिय था। उसे मजाक का एक मौका मिला। उस ने
कहा, मित्र, मैं
भी चाहता हूँ कि ऐसे दुष्टों को ऐसा ही कठोर दंड मिले। ईश्वर की लीला अपरंपार है।
कुछ असंभव नहीं कि तुम्हारी इच्छा पूरी हो और तुम पाँचों दुष्टों को यथोचित दंड दे
सको। मैं तो व्यापारी मात्र हूँ और वह भी परदेशी। मुझे अधिकार होता तो मैं उन
लोगों को तुम्हरे हाथ से दंड दिलवाता। अबुल हसन ने कहा, तुम
निश्चय ही मुझे पागल समझ कर मेरा मजाक उड़ा रहे हो। भला मुझे ऐसा अधिकार कैसे मिल
सकता है? खलीफा
ने कहा, मैं
मजाक नहीं उड़ा रहा, विशेषतः
तुम्हारे जैसे उदार और शिष्ट व्यक्ति का कैसे मजाक उड़ाऊँगा जिसने मेरा ऐसा सत्कार
किया है। खलीफा को तुम्हारी बात मालूम होगी तो वह भी तुम्हारी बात का समर्थन
करेगा।
फिर खलीफा ने कहा, अब सोना चाहिए, बहुत रात हो गई है। अबुल हसन बोला, ठीक
बाते है। यह थोड़ी-सी शराब
रह गई है। हम लोग उसे खत्म कर दें फिर सोने के लिए जाएँ। हाँ, एक
बात कहनी है। सवेरे तुम्हारी आँख खुले तो मुझ से विदा लिए बगैर चले जाना और दरवाजा
बंद कर जाना। खलीफा ने कहा, अच्छी बात है। लेकिन एक बात मेरी चलेगी। अभी तक
तुमने प्याले भर-भर
कर शराब पिलाई है, यह
बाकी बची शराब मैं तुम्हें पिलाऊँगा। अबुल हसन ने मान लिया। खलीफा ने एक प्याला
खुद पिया फिर एक प्याला भर कर अबुल हसन को दिया और उस में नजर बचा कर बेहोशी की
दवा, जिसे
वह अपने साथ लाया था, मिला
दी। बेहोशी की दवा बहुत तेज थी। उस ने फौरन अपना असर दिखाया। अबुल हसन ने खाली
प्याला भी बड़ी कठिनाई से जमीन पर रखा। उस का सिर घुटनों में जा लगा। खलीफा यह देख
कर खूब हँसा।
फिर खलीफा ने अपने दास को बुलाया। वह भोजन कर के आज्ञा की
प्रतीक्षा में खड़ा ही था। खलीफा ने कहा, इस आदमी को उठा कर कंधे पर रख कर ले चल। और इस
मकान को अच्छी तरह पहचान ले। जब मैं आदेश दूँ तो महल से इस आदमी को इसी तरह ला कर
इसी जगह छोड़ जाना। दास ने आसानी से अबुल हसन को कंधे पर लाद लिया और खलीफा ने
चलते समय मकान का दरवाजा बंद कर दिया। महल में जा कर वह दास को लिए हुए चोर दरवाजे
से अंदर पहुँचा। वहाँ बीसियों दास-दासियाँ खलीफा के शयन कक्ष के बाहर उस की
प्रतीक्षा में थे।
खलीफा ने आज्ञा दी, इस आदमी को मेरे जैसे शयनवस्त्र पहनाओ और मेरे
पलंग पर सुलाओ। तुम सब लोग रात भर जागते रहो। सुबह जागने के समय तुम लोग उसी
प्रकार इसे प्रणामादि करना जैसे मुझे करते हो। इसकी आज्ञा का पालन भी यथावत करना
ओर इसे खलीफा कह कर संबोधित करना। उन सबों ने कहा, बहुत अच्छा, हम ऐसा ही करेंगे। फिर खलीफा बाहर आया और उस ने
मंत्री को उस के घर से बुला कर कहा, मेरे पलंग पर सोए हुए इस आदमी को देख लो। कल यह
मेरे राजसी वस्त्र पहन कर मेरी जगह सिंहासन पर बैठेगा। तुम सब लोग इस के साथ ऐसा
ही बरताव करना जैसा मेरे साथ करते हो। मेरे कोष से जो कुछ इनाम वगैरह किसा को
दिलाए फौरन दे देना और इसी तरह जो दंड किसी को दिलवाए वह भी देना। सवेरे सभी
दरबारी इसका स्वागत ऐसे ही करें जैसा मेरा करते हैं। फिर उस ने महल के प्रबंधक
मसरूर को भी आदेश दिया कि हर सुबह जिस तरह मुझे नमाज पढ़ने के लिए जगाया करते हो
वैसे ही इसे भी जगाया करना और अन्य व्यवहार भी ऐसे ही करना।
यह आदेश दे कर खलीफा बगल के एक कमरे में जा कर सो रहा। सुबह
वह जल्दी ही जाग गया और परदे के पीछे छुप कर देखने लगा कि अबुल हसन क्या करता है
और क्या बोलता है। उधर खलीफा के आदेशानुसार सारे कर्मचारी और दास-दासियाँ
खलीफा के अपने शयन कक्ष में अबुल हसन की सेवा के लिए एकत्र थे। जब नमाज का समय हुआ
तो मसरूर ने, जो
अबुल हसन के सिरहाने खड़ा हुआ था, उस की नाक के नीचे सिरके में भीगा हुआ स्पंज
रखा। सिरके की तेज गंध से अबुल हसन को छींक आई और उस ने खखार कर बलगम निकालना चाहा
तो एक दासी ने आगे बढ़ कर उसे एक सोने के उगालदान में ले लिया। यह इसलिए किया जाता
था कि नीचे बिछे हुए मूल्यवान कालीन गंदे न हो जाएँ और खलीफा को नित्य प्रति इसी
तरह सिरके में डूबा स्पंज सुँघा कर जगाया जाता था ताकि वह उठ कर नमाज पढ़े।
अबुल हसन ने आँखें खोल कर अतिशय सुसज्जित शयन कक्ष देखा जिस
में कीमती परदे लगे थे और जिस की दीवारों और छत पर रंग-बिरंगी
सुंदर चित्रकारी की हुई थी। उस ने यह भी देखा कि अति सुंदर नवयौवना दासियाँ बीसियों
की संख्या में खड़ी हैं, किसी के हाथ में उगालदान है किसी के हाथ में
मोरछल, कइयों
के हाथों में वाद्य यंत्र थे। महलों की रखवाली करनेवाले ख्वाजासरा (जनखे) भी
सुनहरी पोशाक पहने खड़े थे। उस ने अपने पलंग के लिहाफ और चादर को भी देखा कि वे
गुलाबी रंग के कमख्वाब नामी कपड़े के बने थे और उनमें हीरे-मोती
की झालरें लटकती थीं। इसी प्रकार मसहरी आदि भी सोने की बनी हुई थी। पास ही एक
तिपाई पर खलीफा का ताज रखा था।
यह देख कर अबुल हसन ने सोचा कि यह सब कुछ वास्तविक नहीं हो
सकता। उस ने सोचा, गत
रात्रि को मैं ने खलीफा होने की बात कहीं थी इसीलिए मुझे स्वप्न में यह चीजें
दिखाई दे रही हैं। यह सोच कर वह फिर आँखें बंद करके सोने का प्रयत्न करने लगा। इस
पर एक ख्वाजासरा पास आया और हाथ जोड़ कर बोला, हे दीनबंधु कृपासिंधु प्रजावत्सल महाराज, यह
समय सोने का नहीं है। सूर्योदय होने ही वाला है। कृपा करके शैय्या त्याग करें और
सर्वशक्तिमान परमेश्वर की आराधना के लिए नमाज पढ़ें। अबुल हसन को यह सुन कर
आश्चर्य हुआ किंतु उस ने अब भी इसे स्वप्न समझा और एक बार खोल कर फिर आँखें बंद कर
लीं। ख्वाजासरा ने फिर विनय की, सरकार सुबह की नमाज का समय हो गया है। अब तुरंत
शैय्या त्याग करें वरना नमाज का समय निकल जाएगा और आप को पश्चात्ताप होगा।
अब अबुल हसन को विश्वास हो गया कि यह स्वप्न नहीं है।
स्वप्न इतनी देर तक ठहरा नहीं करता। उस ने आँख खोल कर देखा तो सुबह का उजाला फैल
रहा था। उसे दिन के प्रकाश में भी वही चीजें दिखाई दीं जो कुछ देर पहले दीपकों के
प्रकाश में देखी थीं। वह पलंग से उठ गया और बड़ा प्रसन्न हुआ क्योंकि उसे विश्वास
हो गया था कि भगवान ने उस की सुन ली है और खलीफा का पद उसे प्रदान किया है। परदे
के पीछे बैठा हुआ खलीफा अलग उसी दशा का आनंद ले रहा था। इतने में एक दासी ने सामने
आ कर उस के पाँव चूमे और गाने-बजानेवाली दासियों ने मधुर संगीत छेड़ दिया।
संगीत की लहरियों ने उसे आत्म-विस्मृत कर दिया और वह सोचने लगा कि यह सब क्या
हो रहा है। उस ने आँखों पर हथेलियाँ रख लीं और सोचने लगा कि यह सुनहरे वस्त्र पहने
हुए दास और यह मनमोहिनी नवयौवना दासियाँ और यह मधुर संगीत क्या है और कहाँ से आ
गया। यह भी स्वप्न तो नहीं है, यह सोच कर वह अपनी आँखों पर हथेलियाँ रगड़ने
लगा।
इतने में ख्वाजासरा मसरूर आया और सिर झुका कर बोला, सरकार, क्या
कारण है कि आज आप ने नमाज अदा नहीं की? क्या रात को आप की नींद में व्याघात हुआ था? क्या, भगवान
न करे, आप
का शरीर कुछ अस्वस्थ है? अब सरकार उठ कर नित्य कर्म करें और फिर दरबार
में पदार्पण करें। वहाँ सभी दरबारी और सामंत आप की राह देख रहे हैं। मसरूर की
बातें सुन कर अबुल हसन को और विश्वास हुआ कि मैं जाग रहा हूँ और यह सब कुछ स्वप्न
नहीं है किंतु उस की समझ में अब भी नहीं आया कि मुझे खलीफा पद कैसे प्राप्त हो
गया। उस ने मसरूर से पूछा, तुमने यह बातें किस आदमी से कही हैं? किसे
तुम बादशाह और खलीफा कहते हो? मैं ने तो तुम्हें कभी नहीं देखा। तुमने शायद
किसी और के धोखे में मुझे खलीफा समझ लिया है?
मसरूर ने कहा, पृथ्वीपालक, आप यह क्या कह रहे हैं? क्या
आप इस सेवक की परीक्षा ले रहे हैं? क्या आप ही खलीफा नहीं हैं? और
क्या समस्त संसार में आ पका आदेश नहीं माना जाता? आप की कृपा हम सब पर रहे। जान पड़ता है आप ने
रात कोई दुःस्वप्न देखा है जिस से यह अजीब बातें कर रहे हैं।
मसरूर की यह बातें सुन कर अबुल हसन हँसने लगा। हँसते-हँसते
वह मसनद पर पीठ के बल गिर पड़ा। खलीफा को भी जोरों की हँसी आई और वह ठट्टा मार कर
हँसनेवाला ही था कि उस ने यह सोच कर अपनी हँसी दबा ली कि कहीं अबुल हसन आवाज न
पहचान पाए। अबुल हसन बहुत देर तक हँसता रहा। फिर वह उठ बैठा और एक लड़के को, जिस
का रंग मसरूर की तरह काला था, बुला कर पूछने लगा कि सच बता मैं कौन हूँ। उस
के लड़के ने सविनय निवेदन किया कि आप खलीफा हैं। अबुल हसन ने कहा, तू
बड़ा झूठा है, इसी
कारण तेरा रंग काले कुत्ते जैसा हो गया है। लड़के ने कहा, सरकार
विश्वास कीजिए कि मैं झूठ नहीं बोल रहा हूँ, आप वास्तव में खलीफा हैं।
अबुल हसन की समझ में अब भी नहीं आ रहा था कि यह सब लोग क्या
कह रहे हैं। उसे फिर स्वप्न देखने का संदेह हुआ। उस ने पास खड़ी हुई एक दासी से
कहा, हाथ
बढ़ा कर मेरा हाथ अपने हाथ में ले और दाँतों से मेरी उँगली का पोर काट। दासी तो यह
जानती थी कि खलीफा छुप कर सारी बातें देख रहा है। वह आगे बढ़ी और उस ने अबुल हसन
की उँगली का पोर धीमे से दाँत के तले दबाया। कष्ट हुआ तो अबुल हसन ने अपना हाथ
खींच लिया और कहा, हे
भगवान, मैं
रातोंरात ही खलीफा किस तरह बन गया। फिर उस ने एक बार और दासी से पूछा, तुझे
भगवान की सौंगध है, सच
कह कि क्या मैं वास्तव में तेरा स्वामी और खलीफा हूँ। उस ने कहा, निस्संदेह
आप हमारे स्वामी खलीफा हैं।
जब अबुल हसन उठने लगा तो एक दास ने उसको सहारा दिया। जब वह
खड़ा हुआ तो सारे महल में जयघोष उठने लगा और सारे ख्वाजासराओं और दासियों ने आगे
बढ़ कर दुआएँ दीं कि भगवान आज दिन भर आप पर प्रसन्न रहें। अबुल हसन सोचता रहा कि
यह क्या बात है, कल
तक मैं अबुल हसन था आज खलीफा कैसे बन गया, कैसे मुझे अचानक ही यह महान पद मिल गया। फिर
सेवकों ने उसे राजसी परिधान पहनाया और दरवाजे तक दोनों ओर पंक्तिबद्ध हो कर खड़े
हो गए। शाही महल के प्रबंध कर ख्वाजासरा मसरूर उस के आगे चलता हुआ उसे दरबार तक ले
गया।
अबुल हसन दरबार के कक्ष के अंदर जा कर सिंहासन के समीप इस
प्रतीक्षा में खड़ा हो गया कि उसे सिंहासन पर चढ़ाया जाए। दो बड़े सरदारों ने उस
की बाँह पकड़ कर सहारा दिया और उसे तख्त पर बिठा दिया।
वह ज्यों ही तख्त पर बैठा कि चारों ओर से सलामी की आवाजें
उठने लगीं। वह यह जयघोष सुन कर बड़ा प्रसन्न हुआ। उस ने अपने दाएँ-बाएँ
निगाह डाली तो देखा कि राज्य के बड़े-बड़े सरदार सिर झुकाए और हाथ बाँधे खड़े हैं।
उस ने एक-एक
कर के सारे सरदारों का अभिवादन स्वीकार किया। फिर राज्य का मंत्रि, जो
सिंहासन के पीछे खड़ा था और दरबार का इंतजाम देख रहा था, अबुल
हसन के सामने आया और फर्शी सलाम करके उसे दुआ देने लगा, भगवान
आप को लाखों बरस की उम्र दे और सदैव अपनी कृपा आप के ऊपर बनाए रखे। भगवान करे कि
आप के मित्र और शुभचिंतक सुखी और आप के शत्रु परास्त रहें। यह सब देख कर अबुल हसन
को पूर्ण विश्वास हो गया कि मैं स्वप्न नहीं देखता, वास्तव में खलीफा बन गया हूँ।
फिर मंत्री ने उस से कहा कि महल के बाहर सेना पंक्तिबद्ध
खड़ी है, आप
उस का निरीक्षण करें। अबुल हसन सारे सरदारों के साथ बाहर गया और उस ने एक ऊँचे
चबूतरे से फौज की सलामी ली। वह फिर दरबार में वापस हुआ और मंत्री ने प्रजा के
आवेदन पत्र उस के सामने पेश किए। उनकी समझ में जैसा आया उसे वैसा ही फैसला किया।
फिर मंत्री ने राज्य के समाचार सुनाने शुरू किए। अभी यह समाचार पूरे नहीं हुए थे
कि अबुल हसन ने शहर के कोतवाल को बुलाया। वह आया तो उसे अपनी गली का नाम बता कर
कहा, तुम
सिपाहियों को ले कर वहाँ जाओ। वहाँ की मसजिद में एक बूढ़ा मुअज्जिन है। उसे तलवे
ऊपर करके उन पर चार सौ डंडे लगवाओ और उस के चार साथियों को सौ कोड़े लगवाओ। फिर उन
सबों को ऊँट पर पीछे की ओर मुँह करवा कर नगर भर में फिराओ ओर एलान कराते जाओ कि जो
लोग अपने पड़ोसियों को दुख पहुँचाते हैं उनका यही परिणाम है। इस के बाद पाँचों
आदमियों को नगर से निष्कासित करो। कोतवाल ने जा कर चुपके से खलीफा से पूछा तो उस
ने इसकी अनुमति दे दी क्योंकि उसे अबुल हसन पहले से उन सभी की दुष्टों की बातें
बता चुका था। कोतवाल यह आदेश पा कर अबुल हसन की गली में गया और दरबार में आ कर
सूचना दी कि मैं ने खलीफा का आदेश पूरा कर दिया है। अबुल हसन ने मुस्कुरा कर उस से
कहा, हम
तुम्हारी मुस्तैदी से बहुत खुश हुए। खलीफा परदे के पीछे बैठा हुआ यह सब देख रहा था
और इस तमाशे का आनंद ले रहा था। इस के बाद अबुल हसन ने आज्ञा दी, खजाने
से एक हजार अशर्फियों का एक तोड़ा ले जाया जाए और उसी गली में, जिस
में यह मुअज्जिन था, रहनेवाले
व्यक्ति अबुल हसन की माँ को दिया जाए।
वह बुढ़िया तो यह सब तमाशा जानती नहीं थी। वह धन पा कर बड़ी
प्रसन्न हुई और सोचने लगी कि खलीफा कैसे मुझ पर कृपालु हो गया। अबुल हसन के बारे
में उस ने सोच लिया था कि कहीं घूमने-फिरने निकल गया होगा।
जब अबुल हसन राजकाज से निवृत्त हुआ तो सारे दरबारी और सरदार
उसे सलाम करके विदा हो गए और उस के पास केवल मंत्री और प्रबंधक ख्वाजासरा मसरूर रह
गए। फिर मंत्री की सहायता से अबुल हसन सिंहासन से नीचे उतरा और उसी भवन की ओर जाने
लगा जहाँ से वह दरबार में आया था। रास्ते में अबुल हसन को दिशा जाने की जरूरत
पड़ी। मसरूर ने एक ओर उसे ले जा कर शाही शौचालय खोल दिया। वह न केवल अति स्वच्छ था
अपितु उस में मखमल का फर्श था। अंदर जाने के पहले उस के एक अंगरक्षक ने एक सुनहरे
काम का स्लीपर, जिसे
पहन कर खलीफा दिशा को जाता था, दिया। अबुल हसन उस का उपयोग नहीं जानता था
इसलिए उस ने जूते को अपनी ढीली आस्तीन में रख लिया। इस बात पर मंत्री और मसरूर
दोनों को बड़ी हँसी आई किंतु खलीफा के भय से उसे दबा गए। मंत्री ने कहा, सरकार, आप
को शायद याद नहीं रहा। यह जूता शौचालय में पहन कर जाने के लिए होता है। यह सुन कर
उस ने जूता पहन लिया।
शौचालय से निकलने पर मसरूर उसे भोजन के कक्ष में ले गया। उस
के पहुँचते ही वहाँ का द्वार खोल दिया गया और सेवकगण गानेवालियों को बुलाने चले
गए। जब वह भोजन करने को तैयार हुआ तो गानेवालियों ने मधुर स्वर में गाना-बजाना
शुरू कर दिया। अबुल हसन को यह सब देख कर अति प्रसन्नता हुई और वह सोचने लगा कि मैं
कहीं स्वप्न तो नहीं देख रहा। फिर उस ने कहा कि यह स्वप्न नहीं हो सकता, स्वप्न
इतना लंबा नहीं होता। मुझे अभी तक यह वहम था कि मैं खलीफा नहीं हूँ, कोई
और हूँ किंतु वास्तविकता यह है कि मैं ही खलीफा हूँ क्योंकि मैं ने दंड और दान के
जो आदेश दिए सब पर कार्य हुआ।
उस स्थान पर ढेर सारे सोने-चाँदी के बरतन थे और सात सुंदर दासियाँ उस के
समीप गाना-बजाना
कर रही थीं। छत में अति सुंदर सात झाड़ लगे थे जिनमें कपूर की बनी मोमबत्तियाँ जल
रही थीं। फर्श पर चमचमाते भोजन पात्र रखे थे और कोनों में सात सुनहरी अँगीठियों
में भाँति-भाँति
की सुगंधियाँ जलाई जा रही थीं और सुंदर वस्त्रीभूषण पहने सात दासियाँ उस की सेवा
के लिए खड़ी थीं। उन के हाथों में मोरछल और हलके पंखे थे जिनके हत्थों में रत्न
जड़े हुए थे। अबुल हसन यह सब देख कर खुश हो रहा था। फिर वह भोजन के आसन पर बैठा।
उस के बैठते ही सातों दासियाँ मोरछल और पंखियाँ झलने लगीं। अबुल हसन उन्हें देख कर
खुश हुआ। वह बोला, तुम
लोगों में से हर एक बारी-बारी से मोरछल हिलाए और बाकी मेरे साथ बैठ कर
खाएँ।
चुनांचे उस ने तीन को अपनी दाईं और तीन को बाईं ओर बिठा
लिया। वे उस के आदेश पर बैठ तो गईं किंतु खलीफा के भय से उन्होंने भोजन को हाथ
नहीं लगाया।
अबुल हसन ने देखा तो मुस्कुरा कर बोला, तुम
लोग खाना क्यों नहीं खा रही हो? वे सब चुप रहीं। फिर उस ने उन के नाम पूछने
शुरू किए। एक ने अपना नाम मेहताब, दूसरी ने हसीना, तीसरी ने माहलका, चौथी ने नजीफा, पाँचवीं ने हूरे-जिनाँ और सातवीं ने अपना नाम साइका बताया। अब
उस ने हँस कर मोरछल झलनेवाली दासी से कहा कि तुम भी अपना नाम बताओ। उस ने कहा कि
मेरा नाम माहे-मुनीर
है। खलीफा यह सब तमाशे देख कर आनंद ले रहा था कि एक बाहरी अनाड़ी व्यक्ति खलीफा बन
कर किस तरह व्यवहार करता है।
जब अबुल हसन ने भोजन से हाथ खींचा तो प्रतीक्षारत सेवकगण
जल्दी से आगे आए। एक ने उस के हाथों के नीचे चिलमची रखी और दूसरे ने पानी धार डाल
कर उस के हाथ धुलाए। भोजन से निवृत्त होने पर सेवकगण उसे कक्ष में ले गए जहाँ उसे
मसनद पर बिठा दिया गया। इस कक्ष की सजावट भोजन कक्ष से अधिक थी। उस में छत से सात
कंदीलें लटक रही थीं जिनमें लाल जड़े हुए थे और उन के अंदर कई-कई
बत्तियाँ जल रही थीं। उस की दीवारों पर कुशल कारीगरों द्वारा बनाए गए प्राकृतिक
दृश्यों के रंगीन चित्र अंकित थे। उन के नीचे सूखे मेवों और ताजे फलों की सात
कश्तियाँ लगी थीं। वहाँ भी अति सुंदरी सात दासियाँ और वे परम सुंदरी थीं। अबुल हसन
उन पर भी मोहित हो गया और सबसे उन के नाम पूछने लगा और अपने हाथ से उन्हें मेवे
खिलाने लगा।
फिर मसरूर उसे तीसरे कमरे में ले गया। वहाँ पर सात समूह
गानेवालियों के थे। यह गायिकाएँ पिछली सभी गायकाओं से अधिक कुशल थीं। उन के अलावा
सात अति सुंदर दासियाँ सात पात्र लिए खड़ी थीं जिनमें तरह-तरह
के शरबत भरे थे। वहाँ उस के जाते ही गाना बजाना शुरू हुआ। उस ने थोड़ा-थोड़ा
शरबत चख कर दासियों से कहा कि तुम्हें जो शरबत पसंद हो वह पी लो। उस ने इन दासियों
से भी नाम पूछे ओर उन के बताने पर खूब खुश हुआ। वह बहुत देर तक उनसे हास-परिहास
भी करता रहा। खलीफा भी छुपे-छुपे उस की सारी हरकतें देखता रहा और मजे लेता
रहा।
सूर्यास्त होने पर ख्वाजासरा मसरूर अबुल हसन को चौथे कमरे
में ले गया। वह भी वैसा ही सजा हुआ था जैसे और कमरे थे, बल्कि
उनसे भी कुछ अधिक ही सजा हुआ था। इसमें हीरों जड़े सात फानूस थे जिनमें कपूर की
बनी मोमबत्तियाँ जल रहीं थी और यह बत्तियाँ इतनी अधिक थीं कि कमरे में दिन जैसी
रोशनी हो रही थी। कमरे के बाहरी दालान में गायिकाओं और वादिकाओं के सात समूह बैठे
हुए थे और अपनी-अपनी
कला का वे सभी प्रदर्शन कर रही थीं। वास्तव में वे अपनी-अपनी
कलाओं में इतनी पारंगत थीं कि संसार में शायद कोई कलाकार उनकी स्पर्धा करने के
योग्य नहीं होगा।
उन गायिकाओं के अतिरिक्त बहुत-सी
अति सुंदर दासियाँ, जिनमें
से हर एक अपने रूप से पूर्ण चंद्र को लजानेवाली थीं, बहुमूल्य वस्त्राभूषण पहने खड़ी थीं। उन के
हाथों में सुनहरे पात्र थे। उनमें तरह-तरह के कुलचे, मिठाइयाँ और अन्य प्रकार की गजक थी जिसे
मद्यपान के साथ प्रयोग किया जाता है। कमरे में एक ओर चाँदी की सात सुराहियाँ शराब
की रखी थीं। उन के पास ही सात प्याले बिल्लौर पत्थर के बने हुए रखे थे। बगदाद नगर
की यह रीति थी कि जितने बड़े आदमी थे वे दिन में मद्यपान से परहेज रखते थे बल्कि
शराब का नाम भी अपनी जिह्वा पर नहीं लाते थे किंतु रात को घरों में छुप कर मद्यपान
जरूर करते थे। यही रीति खलीफा के महल में चलती थी।
अबुल हसन जब इस मद्यपान के कक्ष में आया तो उस ने देखा कि
यहाँ की दासियाँ पिछले कक्षों की सभी दासियों से अधिक सुंदर और आकर्षक हैं। उस ने
उन्हें देखा तो देखता ही रह गया। उस की आवाज भी गले में फँसने लगी क्योंकि वह उन
के सौंदर्य से अत्यधिक अभिभूत हो गया था। उस का जी चाहने लगा कि उन सुंदरियों के
साथ हास-परिहास
करूँ। किंतु संगीत के स्वर इतने ऊँचे उठ रहे थे कि कुछ कहना-सुनना
मुश्किल था। अतएव उस ने ताली बजाई जिसका अर्थ था कि संगीत बंद हो जाए। अतएव संगीत
बंद कर दिया गया। अबुल हसन ने अपने पास खड़ी हुई एक दासी को हाथ पकड़ कर अपने समीप
बिठाया और पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है। उस ने कहा कि मेरा नाम सिलके-गुहर
(मोती
माला) है।
अबुल हसन बोला, जिसने
तुम्हारा नाम रखा है उस ने नाम रखने में कंजूसी की है। वास्तविकता यह है कि तुम्हारी
दंत-पंक्ति
हीरे की माला की तरह चमकती है। मैं सोच कर कोई इस से अच्छा तुम्हारा नाम रखूँगा।
अब तुम अपने कोमल हाथों से भर कर मुझे मद्य का एक प्याला दो ताकि मैं तुम्हारे मुख
की और देखता हुआ उसे पियूँ।
सिल्के-गुहर ने तुरंत ही स्वच्छ और सुगंधित मदिरा से
भर कर एक प्याला अबुल हसन को दिया जिसे उस ने तुरंत ही खाली कर दिया। फिर अबुल हसन
ने उस से कहा कि एक प्याला शराब तुम भी पियो। सिल्के-गुहर
ने उस के आदेश पर एक प्याला भर कर पी लिया। शराब पी कर सिल्के-गुहर
ने एक अति नवीन राग बाँसुरी पर गाया। इस राग को सुन कर अबुल हसन झूमने लगा।
इस के बाद अबुल हसन ने अपने हाथ से उसे एक फल खिलाया। और
दूसरी दासी को अपने पास बिठा कर उस से उस का नाम पूछा। उस ने कहा कि मेरा नाम
माहजबीं (चंद्रमा
सदृश माथेवाली) है।
अबुल हसन बोला, तुम्हारा
भी नाम इस से अधिक सुंदर होना चाहिए था क्योंकि तुम्हारी आँखें चंद्रमा से भी अधिक
प्रकाशवान हैं। उस ने उस के हाथ से भी शराब पी और उसे पीने को कहा और उसे भी फल
खिलाया। इसी प्रकार उस ने सातों दासियों के हाथ से मदिरा पी और पिलाई और उसे काफी
नशा हो गया और उस की आँखें बंद होने लगीं।
अब परदे के पीछे छुपे हुए खलीफा ने सिल्के-गुहर
नाम की दासी को इशारा किया। दासी ने एक प्याला शराब का भरा और उस में बेहोशी की
दवा डाल कर अबुल हसन के सामने लाई और बोली, हुजूर, अब इस रात का आखिरी जाम मेरे हाथ से पिएँ। इस
के बाद मैं एक राग सुनाऊँगी। वह राग मैं ने आज सुबह ही बनाया है और अभी तक किसी और
ने उसे नहीं सुना है। अबुल हसन ने एक ही साँस में सारा प्याला पी लिया। दासी ने
बाँसुरी ले कर वह राग बजाया जिसे उस ने नवीनतम राग कहा था। अबुल हसन ने उसे पसंद
किया और दुबारा सुनाने को कहा। जब दासी ने दुबारा वह राग सुनाया तो अबुल हसन ने
चाहा कि उस की प्रशंसा करे। किंतु उस पर बेहोशी की दवा का पूरा असर हो गया इसलिए
उस के मुँह से आवाज न निकल सकी और वह मुँह खोल कर रह गया। उस की आँखें बंद हो गईं
और उस के हाथ-पाँव
ऐसे ढीले हो गए जैसे किसी गश खाए हुए आदमी के हो जाते हैं। उस के हाथ से मद्यपान
गिरने लगा जिसे एक दासी ने दौड़ कर सँभाल लिया।
अबुल हसन बेहोश हो गया तो खलीफा परदे के पीछे से निकल आया।
उस ने अबुल हसन के शाही वस्त्र उतरवाए और उस के अपने कपड़े उसे पहनवा दिए। फिर उस
ने उसी विशालकाय दास को आदेश दिया कि इसे इस के घर में लिटा आ और वापसी में द्वार
खुला छोड़ देना। वह उसे उठा कर महल के चोर दरवाजे से निकला और जैसा खलीफा ने कहा
था वैसा ही किया। खलीफा ने वहाँ उपस्थित लोगों को कहा, यह
आदमी भगवान से प्रार्थी था कि एक दिन के लिए खलीफा बन जाऊँ तो गली के मुअज्जिन और
उस के साथियों को दंड दूँ। मैं ने इसे यह अवसर दे दिया।
सुबह बेहोशी दूर होने पर जब अबुल हसन की आँख खुली तो से
आश्चर्य हुआ कि मैं इस साधारण घर में किस तरह आ गया। वह महल की दासियों सिल्के-गुहर, मेहताब
आदि को आवाज देने लगा कि तुम कहाँ मर गई हो, मेरी सेवा के लिए क्यों नहीं आतीं। जब कोई न
बोला तो वह बड़ी ऊँची आवाज में उन्हें बुलाने लगा और नाराज हो कर अनाप-शनाप
बकने लगा। उस की माँ यह चीख-पुकार सुन कर दौड़ी आई और उस से कहने लगी, बेटे, तुझे
क्या हो गया है? तू
किस पर बिगड़ रहा है?
अबुल हसन ने बड़े घमंड से उस की तरफ देखा और कहा, श्रीमती
जी, आप
किसे अपना बेटा कह रही हैं? माँ ने कहा, तू ही मेरा बेटा अबुल हसन है, और
किस आदमी को मैं बेटा कहूँगी। यह अजीब बात है कि चौबीस घंटे के अंदर तू मुझे भूल
गया। अबुल हसन ने सहूलियत से कहा, देवी जी, तुम्हें कुछ भ्रम हुआ है। मैं अबुल हसन नहीं
हूँ। मैं खलीफा हूँ। उस की माँ ने कहा, हाय हाय बेटे, तुम कैसी बातें कर रहे हो। तुम अबुल हसन नहीं
हो? अबुल
हसन बोला, तुम
बकवास किए ही चली जाती हो। मैं खलीफा हूँ और तुम मुझे अपना बेटा समझती हो।
बुढ़िया ने कहा, धीरे बोलो बेटे, इतनी बड़ी बात मुँह से नहीं निकालते। बगदाद के
लोग तुम्हें पागल समझेंगे और तुम्हारी पिटाई कर देंगे। अबुल हसन ने कहा, खूब
बातें करती हो तुम। पहले मुझे अपना बेटा बनाया, अब कह रही हो कि मैं पागल हूँ। मैं तुम से कहता
हूँ कि मैं पागल नहीं हूँ। मैं अपने पूरे होश-हवास में हूँ। मैं खलीफा हूँ जिसे सब लोग अपने
भूलोक का स्वामी कहते हैं और जिसके अधीन दुनिया के सभी राजा-महाराजा
हैं। माँ बोली, हाय
भगवान, मै
क्या करूँ तुम्हारे सिर पर कोई भूत प्रेत सवार हो गया है या खुद शैतान तुम्हें
बहका रहा है। भगवान तुम्हारी रक्षा करें। देखो, तुम अबुल हसन हो। तुम मेरी कोख से इसी घर में
पैदा हुए हो। यहाँ की हर एक चीज को देखो और पहचानो। इसी घर पर तुम्हारा राज है, सारी
दुनिया पर नहीं। खलीफा का पद तुम्हें न मिला है न मिल सकता है।
अबुल हसन कुछ देर माथे पर हाथ धर कर सोचता रहा जैसे कि कोई
भूली हुई बात याद कर रहा हो। फिर धीरे-धीरे बडबड़ाने लगा, हो
सकता है कि इस बुढ़िया की बात ठीक हो, यही मेरी माता हो और मैं खलीफा न हो कर अबुल
हसन हूँ। फिर चौंक कर कहने लगा, नहीं-नहीं, यह नहीं हो सकता। न जाने मेरे मन में यह तुच्छ
विचार कैसे आ गया कि मैं खलीफा नहीं बल्कि अबुल हूँ। बुढ़िया ने सोचा कि शायद इस
ने कोई दुःस्वप्न देखा है जिस से अभी तक अच्छी तरह जाग नहीं सका है। उस ने प्यार
से पूछा, बेटे, क्या
तुमने रात को कोई स्वप्न देखा है जो ऐसी बातें कर रहे हो? तुम्हें
खलीफा बनने की खब्त क्यों है?
अबुल हसन ने डाँट कर कहा, बुढ़िया, जबान सँभाल कर बोल। क्या तेरा दिमाग फिर गया है
कि खलीफा को अपना बेटा बना रही है और बकवास करती ही जा रही है? इस
के अलावा खलीफा की शान में गुस्ताखी भी करती जा रही है। बुढ़िया ने दुखी हो कर कहा, बेटा, भगवान
के लिए ऐसी बातें न करो। क्या तुमने गली के मुअज्जिन और उस के साथियों का हाल नहीं
सुना कि उन्हें कैसी कड़ी सजा दी गई। मुअज्जिन को चार सौ कोड़े लगे और उस के चार
साथियों को सौ-सौ
और फिर उन सबों को पीछे की ओर मुँह करके ऊँट पर बिठा कर शहर में घुमाया गया और फिर
शहर से निकाल दिया गया। कहीं ऐसा न हो कि खलीफा के पास तुम्हारी यह बातें कोई
पहुँचा दे और तुम्हारा भी वही हाल हो।
अबुल हसन ने कहा, तुम्हारी इस बात से और भी साबित हो गया कि मैं
खलीफा हूँ। मैं तुम्हारा पुत्र नहीं हूँ न हो सकता हूँ। कल दिन में मैं ने ही
आज्ञा दी थी कि मुअज्जिन और उस के साथियों को वही दंड दिया जाए जिसका तुमने अभी
उल्लेख किया है। कोतवाल ने मेरे आदेश ही पर उन पाँचों दुष्टों को दंड दिया था और
मुझे आ कर बताया था कि सजा दे दी गई।
अबुल हसन की माँ को बड़ी चिंता हुई कि इसे क्या हो गया कि
मुअज्जिन की सजा की बात सुन कर यह और जोरों से कहने लगा कि मैं खलीफा हूँ। उस ने
फिर कहा, बेटा, सोच-समझ
कर बात करो, तुम्हारी
बातों को अगर कोई सुनेगा तो तुम्हें क्या कहेगा। अबुल हसन को अब बड़ा क्रोध चढ़ा, वह
बोला, देख
मक्कार बुढ़िया, मैं
ने तेरी बदतमीजी बहुत सह ली। अब अपनी जबान बंद कर ले। वरना मैं उठ कर तुझे इतना
मारूँगा कि सारी जिंदगी याद करेगी। मैं खलीफा हँ और खलीफा रहूँगा। अब तेरी जबान से
एक बार भी नहीं निकलना चाहिए कि मैं तेरा बेटा हूँ।
उस की माँ यह देख कर रोने लगी कि लड़के का पागलपन बढ़ता ही
जा रहा है। अबुल हसन को यह देख कर और गुस्सा आया। वह अपने बिस्तर से उठा और उस ने
हाथों में एक छड़ी ले ली और बुढ़िया से घुड़क कर कहने लगा, बोल, अब
क्या कहती है? मैं
कौन हूँ, खलीफा
या तेरा बेटा? उस
ने कातर दृष्टि से देख कर कहा, तुम मेरे बेटे हो, खलीफा
कैसे हो जाओगे? तुम
अबुल हसन हो। तुम्हें मैं ने जन्म दिया है और दूध पिलाया है। खलीफा के पद पर तो
सिर्फ हारूँ रशीद हैं जिनकी हम दोनों और दूसरे लोग प्रजा हैं। वे सारे राजाओं के
सर्वेसर्वा हैं। अभी कल ही उन्होंने कृपा करके मेरे पास एक हजार अशर्फियों का
तोड़ा भिजवाया था।
अशर्फियों के नाम पर अबुल हसन को खलीफा होने का और भी
निश्चय हो गया। उस ने अपनी माँ से कहा, धूर्त स्त्री, तू बड़ी कृतघ्न है। कल मैं ने ही अपने मंत्री
जाफर के हाथ तेरे पास अशर्फियों का तोड़ा भिजवाया और आज तू बेटा बना कर मुझी पर
कब्जा करना चाहती है? तेरी
इस धृष्टता का दंड तुझे मिलना चाहिए। यह कह कर उस ने माँ का हाथ पकड़ा और डपट कर
पूछा, मैं
कौन हूँ? उस
ने कहा, मेरा
बेटा। अबुल हसन ने उसे एक छड़ी जमाई। वह इसी तरह बार-बार
पूछता और जब बुढ़िया उसे बेटा बताती तो उसे छड़ी मारता। बुढ़िया के चिल्लाने से
पड़ोसी घर में आ गए और उस के हाथ से छड़ी छीन कर कहने लगे, तुम्हें
क्या हो गया है, अबुल
हसन? कोई
अपनी माँ को ऐसे मारता है?
अबुल हसन ने लाल आँखें करके उन्हें देखा और कहा, तुम
क्या बक रहे हो? अबुल
हसन कौन है? पड़ोसी
यह सुन कर परेशान हुए और बोले, तुम्हीं हो अबुल हसन, और
कौन होगा? हम
तुम्हारे पड़ोसी हैं। यह तुम्हारा घर है और यह तुम्हें जननेवाली तुम्हारी माँ है।
अबुल हसन चीखा, बकवास
बंद करो तुम लोग। मैं इस दुष्ट स्त्री को जानता भी नहीं। मैं तुम्हें भी नहीं
जानता। मैं खलीफा हूँ। खलीफा के भी कहीं पड़ोसी होते हैं?
पड़ोसियों ने समझ लिया कि अब यह पागल हो गया है और इस से
अधिक बातचीत की तो यह हम से भी मारपीट करेगा। उन में से एक उस क्षेत्र के दारोगा
को जानता था और दौड़ कर उसे बुला लाया। अबुल हसन ने दारोगा से डाँट-डपट
की तो उस ने उसे दो-चार
चाबुक जड़ दिए और जब अबुल हसन भागने लगा तो उसे सिपाहियों ने पकड़ लिया। पुलिसवाले
उस के हाथों में हथकड़ी और गले में जंजीर डाल कर ले चले। रास्ते में सिपाही उसे
घूँसों और थप्पड़ों से मारते जाते थे जैसे पागल आदमियों को काबू में रखने के लिए
किया जाता है। बेचारा अबुल हसन हैरान था कि मेरा मस्तिष्क तो ठीक है, यह
लोग मुझ से उन्मत्तों जैसा व्यवहार क्यों कर रहे हैं। फिर भी उस की समझ में कुछ न
आया।
दारोगा ने उसे हवालात में बंद कर दिया। रोजाना चालीस-पचास
कोड़े उस पर पड़ते। तीन सप्ताह तक उसे इसी हालत में रखा गया। दारोगा रोज उसे पूछता
कि तू कौन है और वह जब स्वयं को खलीफा बताता तो उस पर कोड़े पड़ते। उस की माँ रोज
हवालात में जा कर देखती और उस की दशा पर आँसू बहाती। अबुल हसन दिनोंदिन सूखता जा
रहा था। रात-दिन
उसे मार और अपमान से शारीरिक और मानसिक कष्ट रहता था। उस की पीठ और बाजुओं पर मार
के कारण काले-नीले
निशान पड़ गए थे और जगह-जगह से खाल भी उधड़ गई थी। वह बराबर रोता रहता
था। लेकिन उस की माँ की हिम्मत उस से बात करने की नहीं होती थी कि कहीं उस का
पागलपन बढ़ न जाए।
जब अबुल हसन ने चुप रहना शुरू किया तो उस की माँ ने सोचा कि
इस से बात करूँ, शायद
वह कुछ सँभला हो। उधर वह बराबर सोचता था कि मैं किस बात को सपना समझूँ और किसे सच।
वह सोचने लगा था कि महल और दरबार की सारी बातें स्वप्न ही होंगी। स्वप्न की बात न
होती तो इतने दिन मेरी यह दुर्दशा क्यों होती और मेरे हजार आवाज देने पर भी मेरी
दासियाँ और दास क्यों न आते। साथ ही वह यह भी सोचता कि अगर वह सब सचमुच सपना था तो
मेरी आज्ञा से मंत्री ने मेरी माँ को अशर्फियाँ क्यों दीं और कोतवाल ने मुअज्जिन
को और उस के साथियों को दंड क्यों दिया। वह बहुत सोचता कि असलियत क्या है। उस की
समझ में कुछ नहीं आता था किंतु इस द्विविधा का परिणाम यह हुआ कि उस ने स्वयं को
खलीफा कहना छोड़ दिया।
ऐसे ही जब एक दिन उस की माँ उसे देखने आई तो उस ने माँ को
बड़े विनयपूर्वक प्रणाम किया। माँ यह देख कर खुश हुई और बोली, बेटा, अब
तुम्हारा क्या हाल है? वह निराधार विचार जिसने तुम्हारी यह दशा करवाई
अब भी तुम्हारे मन में है या नहीं? अबुल हसन ने कहा, अम्मा, जो कुछ अपराध और जो कुछ धृष्टता मुझ से हुई उसे
क्षमा कर दो। पड़ोसियों से जो दुर्व्यवहार मैं ने किया उस के लिए उनसे क्षमा चाहता
हूँ और यह बात उन्हें बता देना। मैं खलीफा बिल्कुल नहीं हूँ। मैं अबुल हसन हूँ।
तुम मेरी माँ हो और मैं तुम्हारा बेटा हूँ।
उस की माँ यह सुन कर प्रसन्न हुई। उस ने समझा कि बेटे का
दिमाग ठीक हो गया है। वह कहने लगी, मेरे विचार से उस परदेशी के कारण यह सब हुआ
जिसे तुम आखिरी बार घर लाए थे। वह जाते समय दरवाजा खुला छोड़ गया था जिस से शैतान
ने आ कर तुम्हें बहका दिया। अबुल हसन ने कहा, मैं तो समझता था कि मोसिल का वह व्यापारी द्वार
बंद करके गया है किंतु तुमने दरवाजा खुला देखा तो निश्चय ही शैतान ने आ कर मुझे
बहका दिया। अबुल हसन की माँ ने दारोगा से कहा कि मेरा बेटा ठीक हो गया है तो उस ने
उसे छोड़ दिया।
अब फिर अबुल हसन पहले की तरह कारोबार करने और रोज शाम को एक
परदेशी का आदर-सत्कार
करके सुबह उसे विदा देने लगा। एक दिन वह पुल पर नए मेहमान की खोज में बैठा था कि
खलीफा फिर मोसिल के व्यापारी के वेश में उसी दास के साथ वहाँ आया। अबुल हसन उसे
दूर से देख कर जान गया कि यह वही मोसिल का व्यापारी है जिसके कारण मुझ पर इतनी
मुसीबतें पड़ीं। यही दरवाजा खुला छोड़ गया था जिस से शैतान ने आ कर मुझे बहका
दिया। वह डर कर भगवान से प्रार्थना करने लगा कि इस बार इसकी लाई हुई मुसीबत से
मुझे बचा। उस के पास आने पर अबुल हसन उस की ओर से मुँह फेर कर नदी की लहरों की ओर
देखने लगा।
खलीफा उसे खोज ही रहा था और इसलिए पुल पर आया था। खलीफा का
इरादा था कि एक बार फिर उसे महल में ले जा कर तमाशा देखे। उसे जासूसों से यह भी
मालूम हो गया था कि तीन सप्ताह तक अबुल हसन को हवालात में मार पड़ी है और उस के
कष्टों का यथोचित प्रतिकार भी करना चाहता था। इसलिए खलीफा जा कर उस के पास खड़ा
हुआ और बोला, सलाम
अलैकुम। अबुल हसन ने अभद्र हो कर कहा, भाड़ में जाए तुम्हारा सलाम अलैकुम। तुम अपनी
राह लगो। क्यों मुझे परेशान कर रहे हो?
खलीफा ने कहा, तुमने मुझे नहीं पहचाना? महीना
भर हुआ कि तुमने अपने घर ले जा कर मेरी अभ्यर्थना की थी। अबुल हसन ने कहा, मुझे
कुछ भी याद नहीं कि कब तुम मेरे घर आए थे। मैं तुम्हें नहीं जानता। अपनी राह चले
जाओ। खलीफा ने समझा कि शायद यह इसलिए ऐसा व्यवहार कर रहा है कि एक व्यक्ति को एक
ही बार ले जाने की प्रतिज्ञा कर चुका है। खलीफा ने कहा, आश्चर्य
है कि तुम मुझे इतनी जल्दी भूल गए। ऐसा मालूम होता है कि तुम पर इस बीच कुछ ऐसी
विपत्ति पड़ी है कि तुम बहुत उद्विग्न हो गए हो। अगर तुम मुझ से अपनी मुश्किल कहो
तो मैं उस में तुम्हारी सहायता का प्रयत्न करूँ। अबुल हसन ने कहा, क्या
सहायता करोगे?
खलीफा ने आगे बढ़ कर उसे गले लगा लिया और कहा, भाई, अगर
मेरी वजह से तुम्हें कोई कष्ट हुआ तो मैं तुम से उस के लिए क्षमा चाहता हूँ।
तुम्हें शिकायत है तो आज रात मैं तुम्हारे घर जरूर ठहरूँगा और तुम्हारी बात सुन कर
तुम्हारी शिकायत दूर कर दूँगा। तुम्हारे घर का भोजन और मदिरा मुझे अब तक याद है और
तुम्हारा सद्व्यवहार भी। इसलिए आज तो तुम्हें मेरा आतिथ्य सत्कार करना ही होगा।
अबुल हसन ने कहा, भाई, मैं
ने पहले भी कहा और बार-बार कहूँगा कि तुम चले जाओ। तुम अपना यह
मायाजाल कहीं और फैलाओ। मैं ने एक बार तुम्हें अपने घर ले जा कर बहुत दुख झेले हें, अब
और सहने की मुझ में शक्ति नहीं। भगवान के लिए मेरा पीछा छोड़ो। खलीफा ने उसे
दोबारा गले लगाया और कहा, बड़े अफसोस की बात है कि मुझ से नाराज हुए चले
जाते हो और इसका कारण भी नहीं बताते। तुम मुझे बताओ तो कि तुम पर मेरे कारण कौन-सी
मुसीबत पड़ी। मैं तुम्हें उस का पूरा बदला दूँगा।
अबुल हसन बेचारा खलीफा की बातों में आ गया। उस ने खलीफा को
पास बिठा लिया। उस ने विस्तारपूर्वक राजमहल का हाल कहा। खलीफा तो यह सब कुछ खुद ही
करा ओर अपनी आँखों से देख चुका था। मजे ले कर सब सुनता रहा। अबुल हसन ने वह सारा
वर्णन करके कहा, यह
सपना मेरे मन में ऐसा समा गया है कि मैं खुद को खलीफा समझने लगा और इस के कारण
लोगों से मुझे घोर अपमान सहना पड़ा और मैं ने बड़ी मार खाई। उस से भी अधिक खेद
मुझे इस बात का है कि मैं ने उस मूर्खता में अपनी माँ पर हाथ उठाया। मैं ने उसे
गालियाँ भी दीं और पड़ोसियों को भी भला-बुरा कहा। और यह सब इसलिए हुआ कि तुमने मेरी
बात नहीं मानी और जाते समय द्वार बंद नहीं किया जिस से शैतान ने मुझे बहका दिया।
खलीफा को तो सब मालूम था। अबुल हसन की बातें सुन कर जोरों
से हँसने लगा। अबुल हसन और बिगड़ा और बोला, मैं ने तो समझा था कि तुम्हें अपने काम पर
पछतावा होगा लेकिन तुम हँस रहे हो। तुम्हें मेरी बात का विश्वास नहीं है। यह कह कर
उस ने अपना कुरता उतार दिया। खलीफा ने काले निशान देखे तो बड़ी सहानुभूति प्रकट की
और एक बार फिर उसे गले लगा कर कहा, भाई, मुझे तुम्हारी बात पर पूरा विश्वास हुआ।
तुम्हारी दुर्दशा पर मुझे बड़ा खेद हे। मैं अपनी गलती मानता हूँ और उस का बदला भी
दूँगा। लेकिन आज मैं तुम्हारा मेहमान अवश्य बनूँगा।
यद्यपि अबुल हसन ने किसी व्यक्ति की दोबारा अभ्यर्थना न
करने का प्रण किया था और इस आदमी के कारण उस पर घोर कष्ट भी पड़ा था तथापि वह इस
प्रकार उस के पीछे पड़ा कि अबुल हसन इनकार न कर सका और उसे ले कर अपने घर में आया।
रास्ते में खलीफा ने कहा, तुम मुझ पर विश्वास रखो कि हर हाल में तुम्हारी
भलाई की बात करूँगा। मैं तुम्हारा हितचिंतक हूँ और तुम्हें मुझ पर किसी तरह का
संदेह नहीं करना चाहिए। अबुल हसन ने कहा, चलो, मान लिया। किंतु आज के बाद तुम कभी मेरे यहाँ
आतिथ्य सत्कार की आशा न रखना। तुम्हारे कारण जो दुख मुझ पर पड़े हैं उन्हें भूल
पाना मेरे लिए संभव नहीं है। खलीफा ने मुस्कुरा कर कहा, भाई, बड़े
अड़ियल आदमी हो। मैं इतनी देर से तुम्हारी दोस्ती का दम भर रहा हूँ और तुम्हें
विश्वास नहीं होता। लेकिन मैं तुम्हें विश्वास दिला कर ही रहूँगा।
वे लोग बातें करते-करते अबुल हसन के घर पहुँचे। उस की माँ ने रोज
की तरह भोजन का प्रबंध कर रखा था। खाने के बाद अबुल हसन की माँ ने फल, शराब
आदि भेजी। यह करके वह अपनी कोठरी में जा कर सो रही। इन दोनों ने खूब शराब पी। जब
अबुल हसन को नशा चढ़ गया तो खलीफा ने उस से पूछा, तुम्हें किसी से प्रेम हुआ है? वह
बोला, न
मुझे प्रेम हुआ है न मेरी विवाह की इच्छा है। मैं केवल यह चाहता हूँ कि दोस्तों के
साथ अच्छी शराब पियूँ और गप्पे लड़ाऊँ। हाँ, एक सुंदरी को जरूर चाहता हूँ जिसने उस सपने में
मेरे साथ बैठ कर मद्यपान किया था। किंतु वैसी स्त्री राजमहल ही में मिल सकती है, और
फिर यह सब स्वप्न ही की तो बातें हैं। कौन सचमुच की ऐसी स्त्री है।
अब उस ने शराब का प्याला भर कर खलीफा को दिया, आज
रात का अंतिम प्याला मेरे हाथ से पियो। खलीफा उसे पी गया फिर उस ने वह रस्मी तौर
पर अपनी ओर से अंतिम प्याला अबुल हसन को दिया, लेकिन फिर से उस में बेहोशी की दवा डाल दी और
प्याला उसे दे कर कहा, लो, यह प्याला पियो और सपनेवाली महलों की सुंदरी का
ध्यान धर कर सो जाओ। अबुल हसन ने मुस्कुरा कर प्याला लिया और पी गया और कुछ क्षणों
में बेहोश हो कर गिर गया। खलीफा ने अपने बलिष्ठ दास को संकेत किया और वह अबुल हसन
को कंधे पर डाल कर ले चला। खलीफा भी बाद में निकला और उस ने अब की बार द्वार बंद
कर दिया। महल में पहुँच कर खलीफा ने दास से कहा कि इसे उसी कक्ष में ले जा कर लिटा
दे जहाँ से उठा कर इस के घर ले गया था। फिर ख्वाजासराओं (जनखों) से
कहा कि इस के वस्त्र उतार कर इसे मेरे कपड़े पहना दो। उन्होंने उस की आज्ञा का
पालन किया।
खलीफा रात को एक कमरे में जा कर सो गया और सुबह होते ही
अबुल हसन के कमरे के पास छुप कर बैठ गया कि उस का तमाशा देख सके। जब अबुल हसन पर
से बेहोशी की दवा का असर हटा और उस की नींद खुली तो वह फिर भौचक्का रह गया। उस ने
देखा कि वह न केवल अपना पुराना राजमहलवाला सपना देख रहा है बल्कि वहाँ की हर चीज
बिल्कुल वैसी ही रखी है जैसी उस ने पहले देखी थी। यहाँ तक कि सोने का उगालदान भी
वही रक्खा था। उस की आँख खुलते ही वहाँ उपस्थित गायिकाओं ने सुर मिलाए और साजों पर
गाना शुरू किया। विशेषतः नफीरी की आवाज पर तो अबुल हसन झूम उठा। उस ने यह भी देखा
कि उस के चारों ओर ख्वाजासरा लोग खड़े हैं और उस के आदेश की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
उस ने दालान पर हर तरफ नजर दौड़ाई और पहचान गया कि पिछली बार भी सपने में यही
दालान देखी थी। फिर खलीफा के इशारे पर गाना बंद हुआ क्यों कि वह अबुल हसन की बातें
सुनना और उस की हरकतें देखना चाहता था।
अबुल हसन ने स्वप्न से जागने के लिए दाँत से अपनी उँगली
काटी और कहने लगा, अजीब
मुसीबत है। मैं वही सपना फिर देख रहा हूँ जो मैं ने पिछली बार देखा था और जिसके
कारण मुझ पर हवालात में इतनी मार पड़ी। कल मैं ने जिसे मेहमान बनाया था उस ने फिर
बदमाशी की। उसी के कारण पिछली बार मैं ने वह सपना देखा जिस से महीना भर मेरी
दुर्दशा होती रही। इस बार मैं ने ताकीद की थी कि दरवाजा बंद कर जाना किंतु वह
दुष्ट फिर दरवाजा खोल कर चला गया जिस से मुझे शैतान ने बहका दिया मुझे फिर ऐसा
सपना दिखाई दे रहा है जिस से मैं स्वयं को खलीफा समझूँ और दोबारा अपमान सहन करूँ।
हे भगवान, मुझे
शैतान के जाल से बचा।
यह कह कर उस ने आँखें बंद कर लीं और बहुत देर तक लेटा रहा
ताकि सपना समाप्त हो जाए। किंतु जब आँखें खोलीं तो सभी वस्तुएँ यथावत देखीं। उस ने
फिर आँखें बंद कर लीं और भगवान से प्रार्थना करने लगा कि मुझे शैतान की माया से
बचा। वह शायद इसी तरह पड़ा रहता किंतु खलीफा के इशारे से उसे दास-दासियों
ने चैन न लेने दिया। आरामे-जाँ नाम की एक सुंदर दासी जिसे पहले भी अबुल
हसन ने बहुत पसंद किया था, उस के निकट आ कर बैठ गई और बोली, ऐ
सारी दुनिया के मालिक, दासी का अपराध क्षमा हो। मेरी प्रार्थना है कि
आप निद्रा त्याग करें। यह समय सोने के लिए नहीं है। सूरज निकल आया है।
अबुल हसन ने डाँट कर कहा, भाग जा शैतान यहाँ से। दासी का रूप धर कर आया
है और मुझे खलीफा कह कर बहका रहा है? आरामे-जाँ बोली, यह क्या फरमा रहे हैं सरकार? आप
खलीफा नहीं तो कौन हैं? आप ही सारे संसार के मुसलमानों एवं अन्य
धर्मावलंबियों के स्वामी हैं और मैं आप की एक तुच्छ दासी हूँ। लगता है आप ने रात
कोई दुःस्वप्न देखा है। आप आँखें खोलें, आप का भ्रम दूर हो जाएगा। रात को आप बहुत देर
तक सोए और हमने आप के शयन में विघ्न डालना उचित न समझा, इसी
बीच आप ने सपना देखा होगा।
अबुल हसन ने आँख खोली तो सारी दासियों को फिर मौजूद पाया।
इस बार वे उस के अति निकट आ खड़ी हुईं। फिर आरामे-जाँ कहने लगी, हुजूर, यह समय आप के जागने का है, देखिए
उजाला हो गया है। अबुल हसन ने आँखें मल कर कहा, तुम मुझे खलीफा क्यों कह रही हो? मैं
अच्छी तरह जानता हूँ कि मैं खलीफा नहीं हूँ। मैं अबुल हसन हूँ। आरामे-जाँ
बोली, हम
लोग किसी अबुल हसन को नहीं जानते। हम आप को जानते हैं जो हमारे स्वामी और खलीफा
हैं। हाँ, आप
यह न कहें कि मैं खलीफा नहीं हूँ। अबुल हसन ने चारों ओर नजर दौड़ाई और बोला, हे
भगवान, इस
सपने की तो सभी चीजें जैसी की तैसी दिखाई दे रही हैं। क्या फिर तेरी यही मरजी है
कि यह स्वप्न मेरा दिमाग फेर दे और मैं पहले जैसे दुख उठाऊँ और मार खाऊँ?
खलीफा को यह सब सुन कर बड़ी हँसी आ रही थी किंतु उस ने हँसी
पर काबू रखा। अबुल हसन उपर्युक्त बातें कह कर फिर आँखें बंद करके लेट गया। आरामे-जाँ
फिर बोली, सरकार, इस
दासी ने दो बार आप से निवेदन किया कि आप शैय्या को छोड़ें। समय गुजर रहा है। सारे
दरबारी और सरदार आप के स्वागत के लिए खड़े हैं। आप ही का तो आदेश है कि आप को
सूर्योदय के पहले जगा दिया जाए। फिर उस के इशारे से दोनों और दो-दो
दासियों ने उस के बाजू पकड़ कर उसे उठा दिया और उसे ला कर मसनद पर बिठा दिया और
स्वयं उस के सामने आकर्षक नृत्य और गान करने लगीं। साथ ही चारों ओर से कुशल वादकों
ने बाजे बजाने शुरू कर दिए।
अबुल हसन यह सब देख कर सोचने लगा कि कहीं सचमुच तो ऐसा नहीं
कि मैं वास्तविक खलीफा हूँ और मैं ने हवालात में बंद होने और मार खाने का सपना ही
देखा हो। वह इस बात को पूछना चाहता था किंतु गाने-बजाने का बहुत शोर हो रहा था। उस ने हाथ के
इशारे से नाच-गाना
रोका और अपने आगे नाचती हुई दासी महलका को पास बुला कर पूछा, सच
बता कि मैं कौन हूँ।
वह बोली, आप बार-बार हमारी परीक्षा क्यों ले रहे हैं? आप
निःसंदेह खलीफा हैं। आप कुछ अधिक सोए रहे और आप ने कोई सपना देखा है। कल ही आप ने
पाँच आदमियों को सजा दिलाई और एक वृद्धा के पास अशर्फियाँ भेजीं। फिर आप भोजन कक्ष
में गए और अमुक-अमुक
वस्तु का स्वाद लिया। फिर आप ने फल खाए और हम लोगों के हाथों से मद्य पान किया और
हमारा गाना सुनते हुए अपने पलंग पर सो गए। सुबह आप बहुत देर से उठे हैं। अन्य
दासियों और ख्वाजासराओं ने भी महलका की बात का समर्थन किया और सब के सब कहने लगे, अब
आप उठें। नमाज का समय अभी नहीं बीता है। नमाज पढ़ें और दरबार करें।
अबुल हसन ने दासियों से कहा, तुम सब झूठी और मक्कार हो। तुम्हें भगवान ने
रूप और कलाएँ तो प्रदान की हैं किंतु तुम में झूठ बोलने की आदत भी डाल दी है। तुम
मुझे फिर बहकाने आई हो? पहले भी मैं ने ऐसा ही सपना देखा था। उस का असर
ऐसा हुआ कि मेरा बड़ा अपमान हुआ और मुझे रोज पचास कोड़े कई सप्ताह तक खाने पड़े।
मेरी पीठ की खाल उधड़ गई और मेरी बाँहों और पीठ पर मार के काले-नीले
निशान पड़ गए। महलका ने जवाब दिया, सरकार, यह आप का भ्रम है। आप को सजा देनेवाला और
मारनेवाला दुनिया में कहाँ है। आप ने स्वप्न मात्र देखा है। आप कहीं बाहर गए ही
नहीं। रात भर इस कक्ष में सोते रहे हैं। हाँ, आज सुबह आप की आँखें देर में जरूर खुली हैं।
अबुल हसन ने सिर थाम कर कहा, शायद तू ठीक कहती है। जब मैं इस महल से बाहर ही
नहीं निकला तो यह सब सपना ही होगा।
किंतु उस का संदेह नहीं गया। वह सोचता रहा कि वास्तविकता
क्या है, मैं
खलीफा हूँ या अबुल हसन? मैं मार खाने को सपना समझूँ या इस सब को जो मैं
देख रहा हूँ? फिर
उस ने ऊपर के कपड़े उतारे और अपनी बाँहों पर पड़े मार के निशान देखे। उस ने दासियों
को यह निशान दिखा कर कहा, धूर्तो, देखो। कहीं सोए हुए आदमी के बदन पर ऐसे मार के
निशान पड़ते हैं जिन्हें दबाने से दर्द हो। अब तो यह निश्चित हो गया कि मैं खलीफा
अलीफा नहीं, केवल
गरीब अबुल हसन हूँ। कोई विश्वास नहीं कर सकता कि किसी पर सपने में मार पड़े और उस
के शरीर पर मार के वास्तविक निशान पड़ जाएँ। फिर भी उसे वर्तमान दृश्यों के स्वप्न
होने को सिद्ध करना था। उस ने एक दासी से कहा, तू मेरी उँगली में काट खा। खलीफा के इशारे से
दासी ने उस की उँगली में जोर से दाँत गड़ा दिए। अबुल हसन ने चीख कर उँगली खींची।
इस के साथ ही जोर से बाजे बजने लगे।
अबुल हसन के मस्तिष्क ने इतने सोच-विचार
और इतने उलझन के बाद काम करना बंद कर दिया था। उस ने कुर्ता भी नहीं पहना और जब
दासियों ने गाने के साथ नाच शुरू कर दिया तो वह उठ कर सिर्फ पजामा पहने हुए उन के
साथ नाचने लगा। वह बराबर ताली बजा रहा था और नृत्य की भंगिमाओं में कभी इधर झुकता
था कभी उधर और बराबर थिरक रहा था। कभी वह इतना झुकता कि दुहरा-सा
होता जाता, कभी
पीछे की तरफ झुक जाता। संक्षेप में यही कहना चाहिए कि कोई मसखरापन ऐसा नहीं बचा जो
अबुल हसन ने नाचती और हँसती दासियों के आगे न किया हो।
खलीफा अब हँसी न रोक सका। लेकिन अबुल हसन अपनी धुन में वह
हँसी न सुन पाया। कुछ देर हँसने के बाद खलीफा ने पुकार कर कहा, बंद
कर अबुल हसन। क्या तू हँसाते-हँसाते मुझे मार ही डालना चाहता हैं? खलीफा
के बोलते ही नाच-गाना
और बाजे बंद हो गए। अबुल हसन भी नाच रोक कर देखने लगा कि आवाज किस ओर से आई और किस
ने मुझे नाम ले कर पुकारा।
खलीफा को देख कर उस ने कहा, अच्छा, तो आप ही व्यापारी बने हुए थे। फिर वह अपनी दशा
देख कर कुछ लज्जित हुआ और उसे लगा कि खलीफा ने उस के साथ मजाक किया है। फिर उसने
कहा, सरकार
आप ही तो दो बार मोसिल के व्यापारी बन कर आए थे और आप ही के कारण मुझ पर हफ्तों
मार पड़ी। खलीफा ने कहा, तुम ठीक कहते हो। किंतु अब मैं तुम्हारे साथ
इतनी भलाई करूँगा कि सभी पहलेवाले कष्ट भूल जाओगे। यह कह कर खलीफा ने आदेश दिया कि
अबुल हसन को दरबारियों जैसे वस्त्र पहनाए जाएँ।
अबुल हसन ने कहा, सरकार यह तो बताएँ कि मेरे साथ यह सलूक क्यों
किया गया। खलीफा ने कहा, देखो, मैं हर महीने की पहली तारीख को वेश बदल कर
प्रजा के बीच जाता हूँ। महीने भर पहले तुमने मेरा अच्छा आतिथ्य सत्कार किया और तभी
तुमने कहाँ कि अगर एक दिन को खलीफा बन जाऊँ तो मुअज्जिन और उस के साथियों को कोड़े
लगवाऊँ। इसलिए मैं तुम्हें बेहोश कर के यहाँ ले आया और एक दिन के लिए खलीफा बना
दिया। किंतु इस से तुम वाकई अपने को खलीफा समझने लगे और सब से मार-पीट
करने लगे। तभी तुम्हें हफ्तों मार पड़ी। कल रात को फिर मैं तुम्हारे घर से तुम्हें
बेहोश करके ले आया कि तुम कुछ और तमाशा दिखाओ।
अबुल हसन ने कहा, पृथ्वीपालक, अब मुझे कोई शिकायत नहीं है। यदि आप के मनोरंजन
के लिए मुझ पर मार पड़े तो मैं इसे अपना सौभाग्य समझूँगा। किंतु आप से एक निवेदन
करना चाहता हूँ। मुझे अनुमति दीजिए कि मैं आप का सेवक बन कर रहूँ, हमेशा
मुझे आप के पास आने की अनुमति हो। खलीफा ने कहा, मैं ने तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार कर ली। तुम
जब चाहो मेरे पास आ सकते हो, तुम्हें कोई नहीं रोकेगा। यह कह कर खलीफा ने
उसे दरबार की नौकरी दे दी और उस का मासिक वेतन एक हजार अशर्फी नियत कर दिया।
जब खलीफा दरबार को गया तो अबुल हसन अपनी माँ के पास गया। उस
ने बताया कि मैं ने पहले भी कोई स्वप्न नहीं देखा था बल्कि खलीफा ने अपने मनोरंजन
के लिए मेरे साथ यह किया और अब एक हजार अशर्फी मासिक पर मुझे अपना दरबारी बनाया
है। यह समाचार उस के पड़ोस ही में नहीं, सारे नगर में फैल गया। उस दिन से अबुल हसन रोज
दरबार में जाया करता और अपनी बकवास और मसखरेपन से खलीफा का जी बहलाया करता। एक दिन
खलीफा ने उसे महल में जा कर मलिका जुबैदा से मिलाया और फिर वह अकसर मलिका के पास
भी आने-जाने
लगा।
एक दिन मलिका जुबैदा ने खलीफा से कहा, यह
अक्सर महजबीन नाम की दासी को बड़े प्यार से देखा करता है और वह भी इस से राजी
मालूम होती है। कहिए तो दोनों का विवाह करवा दें। खलीफा ने कहा, यह
तो तुमने मेरे मन की बात कह दी। मैं ने इस से वादा भी किया था कि तुम्हें मनचाही
स्त्री दूँगा किंतु अभी तक यह न जान पाया कि इसे कौन स्त्री पसंद है। फलतः अबुल
हसन का महजबीन से विवाह कर दिया गया। महजबीन मलिका जुबैदा की प्रिय दासी थी इसलिए
उस ने खूब दहेज महजबीन को दिया। खलीफा ने भी अबुल हसन की शादी पर खूब धूम-धाम
की। अबुल हसन अपनी पत्नी को खलीफा के दिए हुए मकान में ले गया। दोनों ने कई रोज तक
वहाँ अपने तौर पर खूब जश्न किया। फिर दोनों पति-पत्नी आराम से रहने लगे। वे सिर्फ उसी समय एक-दूसरे
से अलग होते जब अबुल हसन दरबार में जाता और महजबीन मलिका जुबैदा के पास उस की
संगिनी बन कर जाती।
अबुल हसन महजबीन के सान्निध्य में इतना मस्त हो गया कि उसे
खर्च की कोई परवाह न रही। दोनों अच्छे से अच्छे कपड़े पहनते, बढ़िया
भोजन करते और शराब पीते और दास-दासियों और ख्वाजासराओं को, जो
उन के घर आया करते थे, बगैर खिलाए- पिलाए नहीं आने देते थे और साथ ही उन्हें वापसी
में उत्तमोत्तम वस्त्र और अच्छा इनाम देते। वे तरह-तरह के मूल्यवान मेवे, अचार, मुरब्बे
आदि प्रयोग करते और खाते समय गायन-वादन आदि का भी प्रबंध करते थे। इस प्रकार
उन्होंने अमीर-उमरा
की तरह रहना शुरू किया, यद्यपि उनकी आय इतनी न थी। रसोइयों और सेवकों
ने उनका यह हाल देखा तो खुद भी लूट शुरू कर दी ।
एक दिन रसोइए ने आ कर खर्च का हिसाब दिखा कि इतना बनियों का
उधार हो गया है। कुछ देर में तोशखाने के अध्यक्ष ने बताया कि बजाजों से इतने-इतने
के कपड़े उधार लिए गए हैं। अबुल हसन और महजबीन ने अपने पास का सारा नकद रुपया दे
दिया, फिर
भी बहुत-सा
कर्ज बाकी रहा। अबुल हसन ने खलीफा से वादा किया था कि वेतन के अलावा कुछ नहीं
माँगूँगा।
शादी में जो मिला था वह उस ने माँ को दे दिया था। वह कहीं
से कुछ नहीं माँग सकता था। महजबीन भी जुबैदा से इतना ले चुकी थी कि उसे और कुछ
माँगने की हिम्मत नहीं हुई।
अबुल हसन ने महजबीन से कहा, यह तो बड़ी मुसीबत है। इस से छुटकारे की एक ही
तरकीब समझ में आती है। तुम तरकीब बताओ, लेकिन तरकीब में पूरी सफलता निश्चित होनी
चाहिए। अबुल हसन ने कहा, सफलता निश्चित है। लेकिन इस के लिए हम दोनों को
मरना होगा। महजबीन भड़क कर बोली, तुम्हें मरने का शौक है तो तुम मर जाओ, मैं
तो नहीं मरती। मुझे तो बहुत कुछ दुनिया देखनी है। अबुल हसन ने कहा, आखिर
हो तो औरत ही, अक्ल
कहाँ से आएगी तुम में। औरतों के बारे में तो विद्वानों ने कहा ही है कि बुद्धिहीन
होती हैं। अरे, मैं
सचमुच मरने को कहाँ कह रहा हूँ, मैं तो सिर्फ यह कह रहा था कि हम लोग मरने का
बहाना करते। एक तुम हो कि मरने का नाम सुना और होश गायब हो गए। महजबीन ने कहा कि
अगर बहाना ही बनाना है तो मैं तैयार हूँ लेकिन तुम मुझे पूरी योजना बताओ कि मैं उस
पर कार्य कर सकूँ।
अबुल हसन ने कहा, मैं दालान में पश्चिम की ओर पाँव करके लेट
जाऊँगा। तुम मेरे सिर पर एक पगड़ी रख देना और मेरे शरीर पर सफेद चादर डाल देना।
फिर कपड़े फाड़ कर बाल बिखरा कर विलाप करते हुए जुबैदा के पास जाना। वह जरूर
तुम्हें कुछ धन दे देगी ताकि मेरा जनाजा अच्छी तरह से निकले। और वह तुम्हें भी नए
थान देगी कि अपने कपड़े सिला लो। जब तुम धन ले कर महल से आना तो मैं उठ बैठूँगा और
तुम लेट कर मरने का स्वाँग करना। मैं तुम पर सफेद चादर डाल कर कपड़े फाड़ कर बाल
बिखरा कर खलीफा के पास जाऊँगा और तुम्हारे मरने की सूचना दूँगा। आशा है कि जुबैदा
जितना देगी खलीफा उस से अधिक देगा। महजबीन ने कहा, यह योजना बहुत अच्छी है। वे लोग निस्संदेह
हमारी अच्छी मदद करेंगे। हमने होशियारी और पूरे सहयोग के साथ काम किया तो जरूर
फायदा होगा।
अतः अबुल हसन पश्चिम की ओर पाँव करके लेट गया। उस की पत्नी
ने उसे सफेद चादर उढ़ा दी और उस के मुँह पर मलमल का कपड़ा डाल कर पगड़ी रख दी ताकि
उस की साँस न रुके। फिर अपने सिर का कपड़ा फाड़ कर बाल बिखरा कर विलाप करने लगी और
ऐसी ही हालत में जुबैदा के महल में गई और उसे अबुल हसन की मौत की खबर दी। जुबैदा
तथा अन्य दासियों को यह सुन कर बहुत अफसोस हुआ। महजबीन जुबैदा की चहेती दासी रह
चुकी थी। उस ने महजबीन को एक हजार अशर्फियाँ और कमख्वाब का एक भारी थान दिया और
कहा कि थान को कफन के काम में लाना और अशर्फियों से अंतिम संस्कार करना। महजबीन
अपने घर आई और उस ने अशर्फियों का तोड़ा और थान दिखाया। अबुल हसन इन्हें देख कर
बहुत खुश हुआ और उठ कर खड़ा हो गया।
अब महजबीन ने कहा कि मैं मरने का स्वाँग रचती हूँ और तुम जा
कर खलीफा से कुछ सहायता की जुगाड़ करो। अबुल हसन ने कहा, तुम
मुझे क्या सिखा रही हो। मेरी ही बताई हुई तो यह तरकीब है। मैं इन बातों में तुम से
कुछ कम चतुर नहीं हूँ। तुम मुर्दा तो बनो फिर देखो कि मैं कितना बढ़िया नाटक करता
हूँ। अब महजबीन पश्चिम की ओर पाँव करके लेट गई और अबुल हसन रोता-पीटता
दरबार की ओर चला गया। दरबार में जा कर उस ने इतने ऊँचे स्वर में विलाप किया कि
वहाँ के सारे कामकाज रुक गए और सब लोग उस की ओर देखने लगे। खलीफा ने पूछा, अबुल
हसन, तुम्हें
क्या हुआ है? क्यों
इस तरह रो रहे हो? उस
ने कहा, सरकार, मैं
तो लुट गया। आप ने जिस सुंदरी महजबीन से मेरी शादी कराई थी वह भगवान को प्यारी हो
गई। अब मैं क्या करूँ, सरकार?
खलीफा को उस का दुख देख कर बड़ा खेद हुआ और उस के चेहरे पर
दुख के चिह्न प्रकट हुए। यह देख कर खुशामदी दरबारियों ने भी हाय-हाय
करनी शुरू कर दी। खलीफा ने भी एक हजार अशर्फियाँ और भारी कमख्वाब का थान दे कर उसे
विदा किया। उस ने घर जा कर यह चीजें महजबीन को दिखाईं तो महजबीन भी बहुत खुश हुई।
उधर खलीफा को महजबीन के मरने का इतना अफसोस हुआ कि वह दरबार का काम जल्दी निबटा कर
महल में आया और बेगम को शोकमग्न देख कर दिलासा देने लगा, भगवान
की इच्छा के आगे किसी का वश नहीं है। अब तुम महजबीन को भूल जाओ। वह वापस नहीं आ
सकती। जुबैदा ने कहा, आप
क्या कह रहे हैं? महजबीन
नहीं बल्कि अबुल हसन मरा है। मैं तो महजबीन के वैधव्य से दुखी थी। खलीफा ने हँस कर
मसरूर से कहा, देखो
बेगम जैसी समझदार औरत ऐसी पागलपन की बात कर रही हैं, मरी है महजबीन और यह कह रही हैं कि अबुल हसन
मरा है। अरे बेगम साहबा, अबुल हसन के मरने का रंज न करो, वह
तो मरा ही नहीं है। तुम अगर अपनी पुरानी और प्रिय दासी की मृत्यु का शोक करो तो
समझ में आनेवाली बात है और स्वाभाविक भी है। अबुल हसन हट्टा-कट्टा
है। अभी कुछ ही देर पहले वह अपनी स्त्री की मौत पर रोता-बिलखता
दरबार में आया था। सभी लोगों ने उसे देखा। यह मसरूर भी उस समय मौजूद था, यह
भी मेरी बात की पुष्टि करेगा। इस से पूछो कि मैं ने क्रिया-कर्म
के लिए अबुल हसन को एक हजार अशर्फियाँ और कमख्वाब का एक थान दिलवाया है या नहीं।
अबुल हसन रोते-रोते
ही दुआएँ दे कर चला गया।
मलिका जुबैदा बोली, हुजूर, मैं जानती हूँ कि विनोदप्रियता आप के स्वभाव
में है इसीलिए ऐसी बात कह रहे हैं। किंतु यह अवसर हँसी-मजाक
का नहीं है। अबुल हसन बहुत अच्छा आदमी था। आप का तो वह प्रिय दरबारी था। स्वाभाविक
तो यह था कि आप को उस की मृत्यु पर खेद होता और आप हैं कि कहते हैं महजबीन मर गई।
खलीफा ने कहा, बेगम, मैं
तुम्हें कैसे समझाऊँ कि मैं मजाक नहीं करता। यह वास्तविकता है कि अबुल हसन जीता है
और महजबीन की मृत्यु हो गई है। जुबैदा ने कहा, आप को कुछ भ्रम है। दासी का पति मरा है, वह
नहीं मरी। अभी कुछ देर पहले वह रोती हुई मेरे पास आई थी और बहुत देर तक अपने पति
की मृत्यु पर विलाप करती रही। उस की दशा देख कर यह सब दासियाँ रोने लगीं बल्कि
मुझे भी रोना आ गया। आप इन सब से पूछ सकते हैं कि यह बात ठीक है या नहीं। मैं ने
महजबीन को मृतक का संस्कार करने के लिए एक हजार अशर्फियाँ और कमख्वाब का एक थान
दिया है। मैं तो आप के पास अबुल हसन के मरने की खबर भिजवानेवाली थी। दोनों देर तक
इसी तरह तकरार करते रहे।
अंत में तंग आ कर खलीफा ने मसरूर से कहा, मैं
जानता हूँ कि महजबीन मरी है। फिर भी यह बहस खत्म होनी चाहिए। तुम जा कर अपनी आँखों
देख कर आओ कि महजबीन मरी है या नहीं। मसरूर के जाने के बाद भी खलीफा और जुबैदा में
बहस होती रही। दोनों अपनी-अपनी बात पर अड़े थे। खलीफा ने कहा, इसी
बात पर हम दोनों में बाजी लग जाए। अगर अबुल हसन के मरने की तुम्हारी बात सच निकले
तो मैं फलाँ बाग तुम्हारे नाम कर दूँगा और अगर महजबीन की मौत की मेरी बात सच निकली
तो मैं तुम्हारा कठपुतलियोंवाला महल ले लूँगा। जुबैदा ने कहा कि मुझे यह शर्त
मंजूर है। वे दोनों मसरूर की वापसी की प्रतीक्षा करने लगे।
अबुल हसन को यह तो मालूम ही था कि इस बात को ले कर खलीफा और
मलिका जुबैदा में तकरार हो जाएगी और वास्तविकता की जाँच कराई जाएगी। इसलिए वह
होशियार था। उस ने अपना दरवाजा बंद कर रखा था लेकिन एक छेद से अपने घर की ओर
आनेवालों को देख रहा था। जब उस ने मसरूर को सीधा अपने घर की ओर आते देखा तो समझ
गया कि यह खलीफा का भेजा हुआ आ रहा है। उस ने महजबीन से कहा, जल्दी
से एक बार फिर मरने का नाटक करो। महजबीन पश्चिम की ओर पाँव करके लेट गई और अबुल
हसन ने उस पर खलीफा का दिया हुआ कमख्वाब का थान डाल दिया और दरवाजा खोल कर उस के
सिरहाने अपनी आँखों पर रूमाल रख कर बैठ गया।
मसरूर आया और जब उस ने अबुल हसन को मातम करते देखा तो उसे
संतोष हुआ कि खलीफा बेगम के सामने अपनी बात सिद्ध कर देगा। अबुल हसन उठा और
आदरपूर्वक उस के हाथ चूम कर कहने लगा, आप देख रहे हैं कि मुझ पर कैसा पहाड़ टूटा है।
महजबीन जैसी स्त्री मुझे कहाँ मिलेगी। आप तो खुद उसे अच्छी तरह जानते थे। मसरूर की
आँखों में भी आँसू आ गए। उस ने महजबीन के सिर की ओर का कफन उठा कर उस का मुख देखा।
महजबीन ने साँस रोक ली।
मसरूर ने उस का मुँह फिर ढक कर कहा, भाई, भगवान
की मरजी में कौन दखल दे सकता है। महजबीन को मैं अपनी बहन की तरह चाहता था और मुझे
उस की मृत्यु पर बड़ा दुख है। कुछ देर बार वह बोला, स्त्रियों में बुद्धि नहीं होती। अब यह देखो कि
मलिका जुबैदा जैसी औरत इस बात पर अड़ी हुई है कि तुम मरे हो, महजबीन
जीवित है। वह देर से इस बात पर खलीफा से झाँय-झाँय कर रही है। मैं तो जानता ही था कि महजबीन
मरी है क्योंकि मेरे सामने तुम दरबार में रोते-पीटते आए थे, और मैं ने इस बात को कहा भी। लेकिन जुबैदा फिर
भी अपनी बात पर अड़ी रही तो खलीफा ने मुझे भेजा कि तथ्य का पता लगाऊँ। अब मैं ने
जो देखा है वह कहूँगा और खलीफा को सच्चा साबित करूँगा।
अबुल हसन बोला, खलीफा को भगवान चिरायु करे। उनकी मुझ पर बड़ी
कृपा रही है। उनकी बात सही साबित करने को मैं खुद ही महल में जाता किंतु बार-बार
मुर्दे को घर में छोड़ कर कहाँ जाऊँ। मसरूर ने कहा, तुम्हें खलीफा के पास जाने की जरूरत नहीं है।
महजबीन का मुर्दा चेहरा मैं ने खुद देखा है और यही कहूँगा। अगर मुझे खलीफा को इस
मामले की आँखों देखी सूचना न देनी होती तो मैं स्वयं यहाँ बैठता और तुम्हारे दुख
में सम्मिलित होता। लेकिन मजबूरी है। मैं अब चलता हूँ।
अबुल हसन ने उठ कर दरवाजे तक मसरूर को पहुँचाया। जब मसरूर
दूर चला गया तो उस ने जुबैदा के ऊपर से थान उठाया और कहा, अब
तुम उठ बैठो। मुझे विश्वास है कि मलिका जुबैदा मसरूर की बात पर विश्वास नहीं
करेंगी और अपनी किसी विश्वस्त दासी को यहाँ का हाल जानने के लिए भेजेंगी। महजबीन
ने उठ कर वही मातमी कपड़े पहन लिए। दोनों दरवाजे के छेदों से बाहर देखते रहे कि
देखें, अब
कौन अंदर आता है ताकि उस के अनुसार कार्य करें।
मसरूर ने महल में पहुँच कर कहा, वही
बात है जो मैं कहता था। महजबीन मरी है। खलीफा ने यह सुन कर जोरों से ठहाका लगाया
और कहा बेगम साहिबा, आप शर्त
हार गई हैं, अब
कठपुतलियों का महल मेरे हवाले कीजिए। मसरूर भी हँसने लगा। जुबैदा का चेहरा लाल हो
गया। खलीफा ने मसरूर से कहा, पूरा हाल बताओ। मसरूर ने कहा, हे
पृथ्वीपालक, मैं
पहुँचा तो देखा कि घर का दरवाजा खुला है। अबुल हसन मुर्दे के सिरहाने बैठा आँसू
बहा रहा था। महजबीन दालान के बीच पड़ी थी और आप का दिया हुआ कमख्वाब का थान उस के
ऊपर पड़ा था। मैं लाश के पास पहुँचा और उस के सिर की तरफ से कफन उठा कर देखा।
महजबीन की साँस बंद थी और चेहरा पीला पड़ा था और कुछ सूजा भी था। मैं ने फिर से
कफन उस के मुँह पर डाल दिया और कुछ देर बैठ कर चला आया। मुझे महजबीन के मरने से
कोई संदेह तो पहले भी नहीं था किंतु आप के कहने से गया तो अपनी आँखों से देख कर
आया हूँ कि महजबीन मर गई।
खलीफा ने जुबैदा से कहा, अब तो तुम्हें अबुल हसन के मरने का संदेह नहीं
होना चाहिए, मसरूर
अपनी आँखों से देख कर आया है। जुबैदा ने कहा, मुझे इस हब्शी के कहने पर बिल्कुल विश्वास नहीं
है। मैं न अंधी हूँ न पागल। मैं ने खुद यहाँ महजबीन को विलाप करते देखा है। मैं
कैसे मान लूँ कि वह मरी है और उस का पति जिंदा है? मसरूर बोला, मालिक, मैं खलीफा और आप दोनों ही की कसम खा कर कहता
हूँ कि मैं ने जो कुछ कहा है सच कहा है। जुबैदा ने दाँत पीस कर कहा, मसरूर
मियाँ, मैं
तुम्हारा झूठ साबित करूँगी। अपनी विश्वस्त दासी को भेज कर असलियत का पता करूँगी।
फिर उस ने उपस्थित दासियों से पूछा, सच
कहो कि खलीफा के शुभागमन के कुछ पहले कौन मेरे पास रोता और बाल नोचता आया था। उन
सबों ने एक स्वर से कहा कि महजबीन आई थी। फिर जुबैदा ने अपनी भंडारिन से कहा, मेरे
कहने पर तुमने किसे कमख्वाब का थान और हजार अशर्फियाँ दी थीं? उस
ने कहा, महजबीन
को। जुबैदा ने दाँत पीस कर कहा, झूठे हब्शी, अब बता कि तू क्या कहता है? यह
सब दासियाँ क्या कह रही हैं। क्या यह सब झूठ है और उन के साथ मैं भी झूठी हूँ?
मसरूर तो जुबैदा का क्रोध देख कर चुप हो रहा लेकिन खलीफा ने
हँस कर कहा, विद्वानों
ने स्त्रियों को बुद्धिहीन कहा है सो ठीक ही कहा है। तुम यह तो देखो कि मसरूर खुद
अपनी आँखों से महजबीन की लाश देख कर आया है और अबुल हसन को इस ने उस के सिरहाने
बैठ कर रोते देखा है। अब भी तुम्हें विश्वास क्यों नहीं होता? जुबैदा
ने कहा, मसरूर
पर मुझे विश्वास कैसे हो? वह तो आप की-सी ही कहेगा। अनुमति हो तो मैं भी अपनी एक
विश्वस्त दासी भेज कर पता लगाऊँ।
खलीफा ने अनुमति दे दी। उसे विश्वास था कि दासी मसरूर के
वक्तव्य का समर्थन करेगी और फिर जुबैदा को विश्वास हो जाएगा। जुबैदा ने एक बूढ़ी
दासी को, जिसने
जुबैदा को दूध पिलाया था, अबुल हसन के घर वास्तविकता का पता लगाने के लिए
भेजा और कहा, तुम
आ कर निर्भय हो कर जो देखा है सच-सच कहना। मैं तुम्हें इनाम दूँगी। बुढ़िया
जुबैदा और खलीफा को अभिवादन करके अबुल हसन के घर को चल दी।
अबुल हसन दरवाजे की सेंध से देख रहा था। दूर से बुढ़िया को
आते देखा तो समझ गया कि यह जुबैदा की भेजी आ रही है। उस ने अपनी पत्नी से कहा, अब
मैं मरने का स्वाँग करता हूँ और तुम मातम का स्वाँग करो। वह दालान में लेट गया और
महजबीन ने उस के मुँह पर पगड़ी और शरीर पर जुबैदा का दिया हुआ थान डाल दिया। जब
बुढ़िया दासी उन के घर पहुँची तो उस ने दरवाजा खुला पाया और देखा कि महजबीन उसी
प्रकार बाल बिखराए कपड़े फाड़े छाती पीटते हुए महाविलाप कर रही है। बुढ़िया ने उस
से कहा कि मैं तुम्हारे मातम में शरीक नही हो सकूँगी क्योंकि मुझे दूसरे काम को
भेजा गया है। महजबीन ने उस की बात अनसुनी कर दी जैसे बहुत दुख में हो और बोली, हाय
अम्मा, मेरा
दुर्भाग्य तो देखो। खलीफा और मलिका ने कितने चाव से हमारा विवाह कराया था लेकिन
मेरा सुहाग दो दिन भी नही रहा। फिर वह छाती पीट कर चिल्लाने लगी, अबुल
हसन, तुम
मुझे छोड़ कर कहाँ चले गए? तुम्हारे बगैर मैं क्या करूँगी? मुझे
किसके सहारे छोड़े जा रहे हो?
बूढ़ी दासी ने देखा कि यहाँ तो जो कुछ है वह मसरूर के कथन
से उलटा है। उस ने कहा, खुदा की मार पड़े उस मुए मसरूर पर, उस
ने झूठ बोल कर खलीफा और बीबी में झगड़ा डलवा दिया।
फिर उस ने महजबीन से कहा, बेटी, तुमने और कुछ सुना है। वह नालायक हब्शी मसरूर
खलीफा से क्या कह रहा था? उस ने कहा कि तुम (भगवान
न करे) मर
गई हो और अबुल हसन तुम्हारी लाश के सिरहाने बैठ कर आँसू बहा रहा है। इस बात पर
जुबैदा बीबी क्रुद्ध हुईं और उन्होंने मुझे यहाँ भेजा।
महजबीन रो कर बोली, अम्मा, काश मसरूर का कहा हुआ सच होता। रँड़ापे से तो
मौत कहीं अच्छी है। हाय, अब मेरे जीवन में भी क्या रखा है। यह कह कर वह
फिर बुक्का फाड़ कर रोने लगी। बुढ़िया भी उस के साथ मिल कर रोने लगी। इसी विलाप के
बीच उस ने चतुरता से अबुल हसन के मुँह से पगड़ी उठा कर मुँह देखा और रोती हुई बोली, अबुल
हसन, भगवान
तुझे स्वर्ग भेजे और तेरी आत्मा को शांति दे। तू कितना भला आदमी था। फिर महजबीन से
कहने लगी, अच्छा
बेटी, खुदा
हाफिज। मैं तो चाहती थी तुम्हारे साथ बैठ कर मातम करती रहती किंतु कुछ ऐसी विवशता
है कि तुम्हारे यहाँ अधिक नहीं ठहर सकूँगी। जुबैदा बीबी मेरी राह देख रही होंगी।
इस झूठे मसरूर ने उन्हें नाराज कर रखा है। उस बेशर्म ने उन्हीं की कसम खा कर कहा
है कि तुम मर गई हो और तुम्हारा पति जीवित है जब कि मैं देख रही हूँ कि वह मरा
पड़ा है और तुम उस की लाश पर रो-पीट रही हो। यह कह कर वह आँसू पोंछती हुई चली
गई।
अबुल हसन भी उठ बैठा और दोनो दरवाजे बंद करके उस की सेंध से
देखने लगा कि देखिए अब क्या होता है। साथ ही वे सोचने लगे कि अब इस झूठ को किस
प्रकार निभाया जाए। पैसा तो मिल गया किंतु खलीफा और जुबैदा तो बुरी तरह पीछे पड़े
हैं। उधर बुढ़िया अपनी कमजोरी के बावजूद पाँव घसीटती हुई महल को गई। वह जुबैदा के
कमरे में पहुँची और उसे बुला कर सारी बात बताई। उस ने कहा, मेरे
साथ आओ और सारी बात खलीफा के सामने बताओ। मसरूर खुश-खुश बैठा था कि दासी वही कहेगी जो मैं ने कहा
है। लेकिन दासी मसरूर से बोली, मियाँ, तुम बड़े ही झूठे आदमी हो। तुमने कैसे यहाँ सब
के सामने कहा कि महजबीन मर गई है और अबुल हसन जीवित है? मैं
ने खुद अपनी आँख से देखा कि वह मरा पड़ा है और बेचारी महजबीन छाती पीट-पीट
कर रो रही है। तुम्हें ले कर ही महल का प्रबंध बनाया गया है। ऐसे जिम्मेदार आदमी
हो कर तुम्हें सफेद झूठ बोलते शर्म नहीं आई? तुम्हें तो इस प्रकार अपने स्वामी को धोखा देने
के अपराध में करावास मिलना चाहिए।
मसरूर चीख कर बोला, क्या बकवास कर रही है बुढ़िया? मरने
के करीब हो गई है लेकिन झूठ बोलना न छोड़ा। कयामत के दिन खुदा को क्या मुँह
दिखाएगी। तुझे नरक में जाने का भी डर नहीं है। मैं ने खुद उस स्त्री को मृत देखा
है। बुढ़िया बुरी तरह बिगड़ कर बोली, झूठा तू खुद और तेरे बाप दादे। मुझे झूठा बना
रहा है। मैं खुद देख कर आ रही हूँ कि अबुल हसन की लाश पड़ी है। उस का मरा मुँह
देखा है। मसरूर बोला, शैतान
की खाला, बराबर
झूठ बोले जा रही है। खुदा तेरा मुँह काला करे। बुढ़िया बोली, तेरा
मुँह तो पहले ही से काला है, भगवान तुझसे समझेगा। जुबैदा ने खलीफा से कहा, देखिए
आप का नौकर कितना झूठा और धृष्ट है। इस ने मेरी दूध पिलानेवाली को क्या-क्या
नहीं कहा। आप सब कुछ सुन कर भी चुप रहे, उसे कुछ नहीं कहा।
यह कह कर जुबैदा ने अंतिम अस्त्र अपनाया यानी रोना शुरू कर
दिया।
खलीफा की समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि किसे झूठा समझे किसे
सच्चा। वह बहुत देर तक चुप रहा। अन्य लोग भी चुप हो गए। अंत में खलीफा ने कहा, हम
दोनों में कोई दूसरे के सामने अपने को सच्चा साबित नहीं कर सका। मसरूर और तुम्हारी
दाई भी एक-दूसरे
को झूठा कह रहे हैं।
अब एक ही बात मुमकिन है। वह यह कि हम सभी अबुल हसन के घर चल
कर देखें कि क्या बात है। जुबैदा ने मंजूर किया क्योंकि अबुल हसन का घर पास ही था।
सब लोग पैदल ही चल पड़े। रास्ते में भी मसरूर और बुढ़िया दासी झगड़ते और एक-दूसरे
को झूठा कहने लगे। जुबैदा ने भी दाई का पक्ष ले कर मसरूर को बुला-भला
कहा। मसरूर बोला, मलिका, यह
सच्ची हो तो मेरे साथ शर्त बदे। मैं झूठा हूँ तो इसे एक सुनहरी कमख्वाब का थान दूँ
और अगर इसका झूठ साबित हो तो यह मुझे ऐसा ही थान दे। जब इसे कमख्वाब का थान देना
पड़ेगा तो मालूम होगा कि झूठ बोलने का नतीजा क्या होता है। बुढ़िया बोली, मुझे
शर्त मंजूर है। थान मसरूर ही को देना पड़ेगा, मुझे नहीं।
अबुल हसन और महजबीन दोनों ने देखा कि सभी लोग चले आ रहे
हैं। महजबीन घबरा कर बोली, मारे गए। अबुल हसन बोला, डरती
क्यों हो। घबराहट में तुम वह भी भूल गई जो मैं ने तुम से कहा था। तुम वही करो, बाकी
बात मैं सँभाल लूँगा। उस के बाद दोनों ही अपने-अपने कफन के लिए मिला हुआ थान अपने-अपने
ऊपर डाल कर लेट गए।
जब खलीफा, जुबैदा और उनका दल मकान पर पहुँचा तो सब लोग
दरवाजा ठेल कर अंदर पहुँचे और देखा कि दोनों मुर्दे की तरह पड़े हैं। जल्दी में वे
यह भी न सोच पाए कि दोनों मुर्दों पर कफन कैसे पड़ा है।
जुबैदा ने खलीफा से कहा, हाय, अभागी महजबीन बेचारी अपने पति का वियोग नहीं
सहन कर सकी और खुद भी मर गई। फिर दाईं और मसरूर की ओर देख कर बोली, तुम
लोगों के बार-बार
आने-जाने
से इसका रंज इतना बढ़ा कि यह भी मर गई। खलीफा ने कहा, नहीं, यह
बात बिल्कुल नहीं है। पहले महजबीन मरी है, फिर रंज की वजह से अबुल हसन मरा है। मैं शर्त
जीत गया और कठपुतलियों का महल तुम्हारे हाथ से गया। जुबैदा ने कहा, आप
का बाग मेरा हुआ क्योंकि मैं जीती हूँ। अभी मेरी दाई महजबीन को जीवित देख गई है, स्पष्ट
है कि वही बाद में मरी है। इसी तरह की बहस मसरूर और बूढ़ी दासी के बीच होने लगी
क्योंकि कोई भी शर्त हारना नहीं चाहता था। अजीब स्थिति थी। सभी के आने पर भी
समस्या जहाँ की तहाँ रही। अब यह कौन बताता कि पहले किसकी मृत्यु हुई।
खलीफा ने बहुत देर तक विचार किया। फिर अबुल हसन और महजबीन
के बीच में बैठ गया और पुकार कर बोला, मैं इसी समय एक हजार अशर्फियाँ उस आदमी को
दूँगा जो स्पष्ट रूप से सिद्ध कर सके कि इन दोनों में पहले कौन मरा। एक हजार
अशर्फियों का लालच दोनों को हुआ। अबुल हसन ने अपने ऊपर का थान उतार फेंका और खलीफा
के पैरों पर गिर कर बोला, सरकार, पहले यह मरी थी। इसी तरह महजबीन जुबैदा के
पाँवों पर गिर कर बोली, महारानी, मैं नहीं, यह पहले मरा है। जुबैदा मुर्दों को बोलते देख
कर चीख कर खलीफा से लिपट गई। खलीफा भी स्तंभित-सा रह गया।
कुछ देर बाद स्वस्थ होने पर जुबैदा हँसते हुए बोली, दुष्टा, तेरे
ही कारण मैं और खलीफा दिन भर एक-दूसरे से लड़ते रहे। खैर, मुझे
यही संतोष है कि तू जीवित है। तुझे सजा न दूँगी। लेकिन यह तो बता कि यह तमाशा
क्यों किया था? इसी
प्रकार खलीफा ने भी हँसते हुए अबुल हसन से कहा, क्यों बे, यह क्या हरकत थी? तुम दोनों के इस नाटक से हम लोग आपस में लड़ते
रहे और इस समय मेरी हँसी नहीं रुक रही। अगर मैं ने हँसना शुरू किया तो शायद हँसते-हँसते
मर जाऊँगा।
अबुल हसन ने कहा, सरकार, आप ने कृपापूर्वक हम दोनों का विवाह कराया। हम
लोग आनंदपूर्वक रहने लगे। किंतु हमारा आनंद अधिक ही बढ़ गया। मेरा हाथ खुल गया और
मैं अनाप-शनाप
खर्च करने लगा। मुझ पर इतना कर्जा हो गया कि तनख्वाह में उस की अदायगी संभव हो
नहीं थी। आप की सेवा में आने के बाद व्यापार भी मैं ने बंद कर दिया था। विवश हो कर
आखिर इस नीच हरकत पर उतर आया ताकि झूठ बोल कर ही कुछ पैसा मिल जाए। मैं ने सब कुछ
आप से कह दिया। आप का अधिकार है चाहे क्षमा करें चाहे दंड दें।
खलीफा ने हँस कर कहा, यह क्यों नहीं कहता कि मैं ने जो छल तुझ से
किया था तूने उस का बदला ले लिया। खैर, मुझे तेरा नाटक बहुत पसंद आया। तूने यह भी
अच्छा किया कि किसी और के आगे हाथ नहीं फैलाया। अब यह तीन हजार अशर्फियाँ और दोनों
थान तुम लोगों के हुए। लेकिन आयंदा सँभल कर खर्च करना। अब की बार ऐसी हरकत हुई तो
कठोर दंड दिया जाएगा। अबुल हसन और उस की पत्नी ने सिर नवाया। इस के बाद सारी
जिंदगी उन दोनों ने हँसी, खुशी और आराम से बिताई।
दुनियाजाद ने कहा, बहन, यह कहानी तो बड़े मजे की रही। शहरजाद ने कहा, मैं
अलादीन और जादुई चिराग की कहानी भी सुनाऊँगी। शहरयार ने कहा, कल
सुनाना, आज
सवेरा हो गया है।
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