ख्वाजा हसन ने कहा
कि मैं अपनी बात बताने के पहले अपने दो मित्रों के बारे में बताना चाहता हूँ। वे
अभी जीवित हैं और यहीं बगदाद में रहते हैं। वे मेरे प्रत्येक कथन की पुष्टि
करेंगे। उनमें से एक का नाम सादी है। सादी का विश्वास था कि संसार में आनंद धन ही
से मिलता है और धन उद्योग और परिश्रम ही से प्राप्त होता है। इसके विरुद्ध साद का
मत था कि धन ईश्वर की कृपा और मनुष्य के भाग्य ही से मिलता है। दोनों में गाढ़ी
दोस्ती थी और कोई झगड़ा नहीं होता था किंतु इस विषय पर हमेशा बहस होती थी। एक दिन
इस बात को ले कर दोनों के बीच बहुत अधिक वाद-विवाद हुआ। सादी का कहना था, या तो
आदमी गरीब परिवार में पैदा हो कर हमेशा गरीब रहता है, या धनी परिवार में
जन्म ले कर जवानी में भोग-विलास में धन को फूँक कर निर्धन हो जाता है। वरना उद्यमी
और समझदार आदमी गरीब नहीं होता। साद कहता था, उद्यम और बुद्धि से
कुछ नहीं होता। आदमी अपने भाग्य ही से धनवान होता है। गरीबी और अमीरी प्रारब्ध के
खेल हैं। पूँजी और उद्यम के अलावा और भी कई रास्तों से दौलत आती है। सादी ने कहा,
तुम्हारी यह बात बिल्कुल झूठ है। आओ, हम दोनों अपने-अपने
कथन की परीक्षा करें। हम किसी गरीब पेशेवर आदमी को तलाश करेंगे। मैं उसे कुछ धन
दूँगा। तुम देख लेना कि वह उस धन के बल पर उद्यम करके बड़ा आदमी बन जाएगा। तभी
तुम्हें मेरी बात का विश्वास होगा।
फिर वे दोनों
घूमते-घूमते मेरे घर की ओर आए। मैं अपने घर के सामने बैठा हुआ रस्सी बट रहा था,
क्योंकि रस्सी बटने का पेशा मेरे बाप-दादा के जमाने से होता आया था।
उन दोनों को देख कर मैंने सलाम किया। उन्हें मेरे वस्त्रों और घर की हालत देख कर
मेरी निर्धनता का बोध हुआ। साद ने सादी से कहा, यह ऐसा ही आदमी है
जैसा तुम तलाश कर रहे थे। मैं इसे काफी दिनों से जानता हूँ। यह बड़ा गरीब है। दिन
भर कड़ी मेहनत करके रस्सी बटता रहता है और फिर भी कठिनता से परिवार का पालन- पोषण
करता है। सादी ने कहा, अच्छा, लेकिन पहले हम उसे
अच्छी तरह देख तो लें। उन्होंने यह बातें इतने धीमे स्वर में की थीं कि मैं कुछ
सुन न सका। फिर सादी ने, जो साद से अधिक धनवान था, मेरे और
पास आ कर मेरा नाम पूछा।
मैंने कहा, मेरा
नाम हसन है और रस्सी बटने के कारण मुझे लोग हसन हव्वाल कहते हैं। सादी ने कहा,
तुम्हें अपने पेशे में अच्छी-खासी आमदनी हो जाती होगी। तुम्हारे
बाप-दादा भी यही काम करते थे, इसलिए उन्होंने भी तुम्हारे लिए बहुत कुछ छोड़ा
होगा। तुमने भी अपनी मेहनत से काफी पैसा कमाया होगा और तुम्हारी संपत्ति और बढ़ गई
होगी। मैंने उत्तर दिया, ऐसी बात बिल्कुल नहीं है। मेरे पास कुछ भी
धन-संपत्ति नहीं है। मुझे पेट भर खाना भी नसीब नहीं होता। मैं सुबह से शाम तक
रस्सी बटता हूँ, एक क्षण के लिए भी आराम नहीं लेता हूँ। फिर भी
जैसे-तैसे सूखी रोटी ही अपने परिवार के लिए जुटा पाता हूँ। मेरे छोटे-छोटे पाँच
बच्चे हैं। उनमें से कोई योग्य नहीं कि मेरी मदद कर सके। मैं अकेला ही उनके लिए
खाना कपड़ा जुटाता हूँ। मैं रस्सी बेचता हूँ, उसके मूल्य से कुछ
तो खाने आदि में खर्च करता हूँ और बाकी का सन खरीद कर दूसरे दिन उससे रस्सी बनाता
हूँ। फिर भी मैं ईश्वर का धन्यवाद देता हूँ कि मैं केवल निर्धन हूँ। किसी का गुलाम
नहीं हूँ, आजादी से अपना काम करता हूँ।
सादी ने कहा,
तुमने अपना पूरा हाल मुझे बताया। इसके लिए धन्यवाद लेकिन मैं जो कुछ
समझा था इससे तो उलटा ही निकला। अच्छा, अगर मैं तुम्हें दो सौ अशर्फियाँ दे दूँ
तब तो तुम्हारी यह दशा नहीं रहेगी। दो सौ अशर्फी पा कर तो तुम धनवान हो जाओगे और
आनंदपूर्वक जीवन निर्वाह करोगे? मैंने कहा, दो सौ अशर्फियाँ खुद
तो मुझे धनवान नहीं बना सकतीं। लेकिन इससे मैं अपने पेशे को और अच्छी तरह चला सकता
हूँ और अधिक धनोपार्जन कर सकता हूँ। सादी ने देखा कि मैं विश्वसनीय आदमी हूँ तो
उसने अपनी जेब से दो सौ अशर्फियों की थैली निकाली और मुझे दे कर कहा, मैं यह
दो सौ अशर्फियाँ तुम्हें दे रहा हूँ। यह उधार नहीं, दान में दे रहा हूँ।
तुम इससे अपना व्यापार बढ़ाओ। भगवान तुम्हारी कमाई में बरकत दें। लेकिन यह ध्यान
रहे कि यह धन बेकार खर्च न हो। तुम्हारी समृद्धि में मैं ही नहीं, मेरा
परम मित्र साद भी प्रसन्न होगा। भगवान तुम पर अपनी कृपा करें।
मैं दो सौ अशर्फियाँ
पा कर फूला न समाया। मैंने धन्यवादस्वरूप सादी का वस्त्र चूमा और उसकी दीनबंधुता
की बड़ी प्रशंसा की। इसके बाद वे दोनों चले गए। उनके जाने के बाद मुझे यह चिंता
हुई कि मैं इन अशर्फियों को कहाँ रखूँ। मेरे घर में न तो कोई सुरक्षित स्थान था न
संदूकचा ही था जहाँ मैं इतना धन, जो मैंने सारी उम्र नहीं देखा था, रखता।
आखिर में यह तय किया कि थैली को अपनी पगड़ी ही में छुपा लूँ। मैंने थैली में से दस
अशर्फियाँ ले कर जेब में डालीं और थैली का मुँह कस कर डोरे से बाँधा और उसे
सावधानी से पगड़ी में रख लिया। मैंने अपने स्त्री-बच्चों को इस धन के बारे में कुछ
भी नहीं बताया। वही पगड़ी सिर पर रख कर मैं बाजार गया और यथेष्ट सन खरीदा। लौटते
समय कसाई के यहाँ से थोड़ा-सा मांस शाम के भोजन के लिए खरीदा क्योंकि महीनों से
मांस खाने को नहीं मिला था। खरीदा हुआ मांस मेरे हाथ में था। रास्ते में एक चील ने
मांस पर झपट्टा मारा। मैंने हाथ खींच कर दूसरे हाथ से चील को भगाया। अब चील ने
दूसरी ओर से झपट्टा मारा। मैंने इस बार भी मांस को बचा कर दूसरे हाथ से चील को
भगाया। लेकिन इस उछलकूद में मेरी पगड़ी मेरे सिर से गिर पड़ी और कमबख्त चील वही
पगड़ी ले कर उड़ गई और शीघ्र ही, निगाहों से ओझल हो गई। मैं एकदम से चिल्ला
उठा। इससे मुहल्ले की औरतें-बच्चे जमा हो गए और मेरा हाल सुन कर चील के पीछे
दौड़ने लगे लेकिन चील कहाँ हाथ आने वाली थी। मैं महादुखी हो कर अपने घर आया और
पगड़ी के साथ जानेवाली एक सौ नब्बे अशर्फियों का अफसोस करने लगा जो मेरी मूर्खता
के कारण मेरे हाथ से निकल गई थीं।
खैर दस अशर्फियाँ तो
थी हीं। उनके बल पर कुछ दिन मेरे स्त्री-बच्चों ने भरपेट भोजन किया।
दो-एक कपड़े भी
स्त्री-बच्चों के लिए बन गए। किंतु यह कब तक चल सकता था। कुछ ही दिनों के बाद मैं
पूर्ववत निर्धन हो गया। मैंने अपनी दशा पर संतोष कर के भगवान को धन्यवाद दिया कि
मेरा अपना तो कुछ नहीं गया था। मैं अपने जी को यह सोच-सोच कर तसल्ली देता था कि जब
निर्धनता और परिश्रम ही मेरे भाग्य में लिखा है तो मुझे उसी में संतोष करना चाहिए,
अगर वे अशर्फियाँ मेरे भाग्य की होतीं तो मेरे हाथ से निकलतीं ही
क्यों।
मैं तरह-तरह से अपने
मन को समझाता था फिर भी खोए हुए धन की कसक मेरे मन से नहीं निकलती थी। मैंने
अशर्फियों का हाल पत्नी और बच्चों को भी नहीं बताया था। वे सब मेरी चिंता और उदासी
देख कर मुझसे उसका कारण पूछने लगे। मेरे कई पड़ोसियों ने भी आ कर पूछा कि तुम इतने
उदास क्यों रहने लगे हो। पहले मैं चुप रहा किंतु उन लोगों के बहुत जोर देने पर
मैंने उन्हें सारी बात बता दी। मेरे पड़ोसी, यहाँ तक कि बच्चे भी,
मेरी बातों पर हँसने लगे। वे कहने लगे, तुमने सारे जीवन में
एक भी अशर्फी देखी है कि दो सौ अशर्फियों की बातें करते हो? तुम्हारे
पास दो सौ अशर्फियाँ आईं कहाँ से? चील के पगड़ी ले कर उड़ने की बात भी खूब
रही, चील पगड़ी का क्या करेगी? पड़ोसियों ने तो विश्वास न किया किंतु
मेरी पत्नी को मेरी बात पर विश्वास था और वह इस पर बहुत रोई। फिर जीवन वैसे ही
चलने लगा।
छह महीने बाद दोनों
मित्र सादी और साद मेरी गली में आए। साद ने कहा कि चल कर हसन हव्वाल को देखें कि
दो सौ अशर्फियाँ पा कर उसकी दशा कितनी बदलती है। सादी ने कहा, यह बहुत
अच्छा कहा। हम उसे जरूर देखेंगे। अगर उसकी दशा में सुधार हुआ तो हमें यह देख कर
संतोष होगा कि हमारे दिए हुए धन से एक निर्धन का जीवन सुधरेगा। वे दोनों और निकट
आए तो साद ने कहा, भाई, मुझे तो उसकी दशा पहले जैसी लग रही है।
उसके कपड़े वैसे ही फटे-पुराने हैं, हाँ, उसकी पगड़ी जरूर नई
मालूम हो रही है। तुम भी देखो, शायद मुझसे देखने में भूल हुई हो। सादी ने भी
देखा और कहा, तुम ठीक कहते हो।
अब दोनों मेरे पास
आए। साद ने कहा, हसन भाई, अब तुम्हारा क्या
हाल है? दो सौ अशर्फियों से तुम्हारा व्यापार तो अच्छा-खासा बढ़ गया होगा।
मैंने कहा, मैं अपने दुर्भाग्य का हाल आप लोगों से क्या
कहूँ। मुझे कहते हुए शर्म आती है। न बताऊँ तो भी काम नहीं चलता। आप लोगों ने मुझ
पर इतनी कृपा की, आप से छुपाऊँ भी क्या, हालाँकि मेरा हाल
सुन कर आप को ताज्जुब ही होगा। यह कह कर मैंने सारा हाल बताया। सादी ने कहा,
हसन, क्यों हमें बेवकूफ बना रहे हो। चील खाने की चीजें
लेती है या पगड़ियाँ। तुमने भी वही किया है जो तुम्हारे जैसे लोग करते हैं। जब
अप्रत्याशित रूप से धन मिलता है तो अपना काम-काज छोड़ भोग-विलास में पड़ जाते हैं।
और कुछ दिनों में सब कुछ लुटा कर फिर फटीचर बन जाते हैं। तुमने भी यही किया है।
मैंने कहा, मेरे
लिए जो कुछ भी कहें उसे कहने का आपको पूरा हक है। किंतु मैंने कुछ भी झूठ नहीं कहा
है। मुझ पर जो कुछ गुजरी है वह यहाँ सभी लोग जानते हैं। मैं भी जानता हूँ कि
साधारणतः चील पगड़ियाँ नहीं ले जातीं किंतु मेरे साथ यह अघट घटना घटी है और उसके
साक्षी बहुत-से लोग हैं। साद ने मेरा पक्ष ले कर कहा, इसमें अविश्वास करने
की कोई बात नहीं है। कई बार ऐसा देखा गया है कि चीलों ने ऐसी वस्तुएँ भी ले ली हैं
जो उनके खाने के काम नहीं आ सकती। यह सुन कर सादी ने अपनी जेब से एक भारी थैली
निकाली और उसमें से दो सौ अशर्फियाँ गिन कर मुझे दे दीं और कहा, भाई हसन,
मैं फिर तुम्हें दो सौ अशर्फियाँ दे रहा हूँ। इन्हें सावधानी से
सुरक्षापूर्वक रखना और पहले की भाँति इन्हें खो मत देना। इससे अपना व्यापार बढ़ाना
जिससे तुम्हारी आर्थिक अवस्था ठीक हो जाए। इनका कोई दुरुपयोग भी न करना। मैंने सादी
को बहुत धन्यवाद दिया और उसकी लंबी उम्र की कामना की। इसके बाद दोनों मित्र से
विदा ले कर चले गए।
मैं अशर्फियाँ ले कर
अपने घर के अंदर गया। उस समय मेरी पत्नी और पुत्र कहीं गए हुए थे। मैंने सोचा कि
अशर्फियों को किसी ऐसी जगह रखा जाए जहाँ किसी बाहरी आदमी की नजर न पड़े। मैंने दस
अशर्फियाँ निकाल कर शेष अशर्फियाँ एक पुराने-से चीथड़े में बाँधीं किंतु घर में
कोई संदूक आदि तो था ही नहीं। इधर-उधर देखा तो एक कोने में एक नाँद रखी दिखाई दी
जिसमें भूसी भरी हुई थी। मैंने उसी भूसी के अंदर अशर्फियों की पोटली रख दी। कुछ
देर में मेरी स्त्री आई। मैंने फिर उससे अशर्फियों की बात छुपाई और रस्सी के लिए
सन खरीदने को बाजार चला गया। इधर एक फेरीवाला अया जो सिर धोने की मिट्टी बेचता था।
मेरी पत्नी को मिट्टी की जरूरत थी किंतु घर में एक पैसा भी नहीं था। उसने फेरीवाले
से कहा, भाई मेरे, पास पैसा तो है नहीं, तुम मुझे इतनी
मिट्टी दे दो और इसके बदले में नाँद समेत यह भूसी ले जाओ। फेरीवाले को यह सौदा
लाभदायक लगा और उसने इसे मंजूर कर लिया। अतएव वह फेरीवाला सिर धोने की मिट्टी दे
कर भूसी की नाँद उठा ले गया।
उसके जाने के बाद
मैं सन का गट्ठा सिर पर लादे अपने घर आया। घर में आ कर सबसे पहले भूसी की नाँद को
देखा तो उसे वहाँ नहीं पाया जहाँ वह रखी थी। मैंने अपनी पत्नी से पूछा कि नाँद
कहाँ गई तो उसने कहा कि फेरीवाले को नाँद दे कर सिर धोने की मिट्टी ले ली। मैंने
यह सुन कर सिर पीट लिया और अपनी पत्नी पर बरसने लगा। मैंने कहा, कमबख्त
तूने गर्दन काटने का काम किया है। सारे परिवार को भूखों मार दिया और फेरीवाले का
घर भर दिया। तू जा कर कहीं डूब मर। उसकी समझ में मेरी नाराजगी नहीं आई और उसने
पूछा, क्यों चिल्ला रहे हो तो मैंने बताया कि एक मित्र ने मुझे फिर दो सौ
अशर्फियाँ दी थीं जिनमें से दस निकाल कर बाकी को एक कपड़े में बाँध कर मैंने भूसी
में छुपा दिया था ताकि किसी और की निगाह उन पर न पड़े।
यह सुन कर मेरी
पत्नी ने अपना सिर पीट डाला और चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगी। उसने कहा, हाय अब
मैं उस बदमाश फेरीवाले को कहाँ पाऊँगी। मैं तो उसको पहचानती भी नहीं। कोई
मुहल्लेवाला भी उसे नहीं जानता। वह तो पहली बार ही मुहल्ले में आया था। और तुम भी
मुझे अपना दुश्मन समझते हो कि मुझे नहीं बताया। दोनों बार मुझसे अशर्फियों को
छुपाया और दोनों बार उसे खो दिया। मैंने उससे कहा, अभागी, जो हानि
होगी वह तो हो ही गई। अब क्यों इतना चिल्ला रही हो? पड़ोसी यह सुनेंगे
तो हमारी मूर्खता पर हँसेंगे ही। अब रोने-पीटने से क्या लाभ।
हम दोनों ने दस
अशर्फियों से कुछ सामान घर-गृहस्थी का खरीदा, फिर उसी तरह
निर्धनता का जीवन व्यतीत करने लगे। मेरी चिंता और लज्जा का ठिकाना न था। गरीबी की
तो शुरू से आदत थी। उसकी इतनी चिंता नहीं थी। परेशानी यह थी कि अब की बार सादी
आएगा तो उससे क्या कहूँगा। मैं कोई झूठ बात कह नहीं सकता और सच बात का उसे विश्वास
नहीं होगा और वह यही समझेगा कि मैंने भोग-विलास में दो सौ अशर्फियाँ उड़ा दीं। कुछ
दिनों के बाद फिर मेरे बारे में बहस करते हुए साद और सादी मेरे घर आए। मैं उन्हें
दूर से आता देख कर सोचने लगा कि अब इनसे कैसे आँखें मिलाऊँगा। मैं चाहता था कि उठ
कर कहीं चला जाऊँ किंतु वे सीधे मेरे पास आ गए। और मुझे सलाम करके मेरी कुशल-क्षेम
पूछने लगे। मैं शर्म के मारे सिर झुकाए बैठा रहा। वे लोग मेरी निर्धनता को पूर्ववत
देख कर आश्चर्य करने लगे। सादी ने कहा, क्या बात है? मैंने कहा, आप
विश्वास करें या न करें, सच्ची बात यह है कि आपके जाने के बाद मैंने
अशर्फियों को एक नाँद में भूसी के अंदर छुपा दिया था। हाँ, उसमें
से दस अशर्फियाँ जरूर पहले निकाल ली थीं। उस समय घर में मेरे सिवा कोई न था। दस
अशर्फियाँ ले कर मैं बाजार गया ताकि सन मोल लूँ। इस बीच मेरी पत्नी घर आ गई थी।
कुछ देर में एक फेरीवाला सिर धोने की मिट्टी बेचता हुआ इधर से निकला। मेरी पत्नी
के पास उस समय एक पैसा भी नहीं था। उसने भूसी को बेकार समझ कर फेरीवाले से कहा कि
भूसी की नाँद के बदले मुझे सिर धोने की मिट्टी दे दो। फेरीवाला इस सौदे पर राजी हो
गया। और मेरी पत्नी ने मिट्टी के बदले उसे भूसी की नाँद दे दी। उसके साथ आपकी दी
हुई अशर्फियों में से एक सौ नब्बे अशर्फियाँ भी चली गईं।
सादी ने कहा,
तुमने अपनी पत्नी को यह बताया क्यों नहीं कि नाँद में अशर्फियाँ रखी
हैं? मैंने कहा, आपने कहा था कि अशर्फियाँ सावधानी से रखना सो
मैंने उन्हें सुरक्षित स्थान में रखा। स्त्री के आने पर मुझे बाजार जाने की जल्दी
थी और फिर मैं उसे बताना भी नहीं चाहता था क्योंकि स्त्रियों के पेट में बात पचती
नहीं है। यह भी डर था कि वह कहीं अपनी शौकीनी में उन्हें खर्च न कर दें। आप ने
दो-दो बार मुझे निर्धन से धनवान बनाने का प्रयत्न किया किंतु क्या आप कर सकते हैं
और क्या मैं कर सकता हूँ। निर्धनता तो मेरे भाग्य ही में लिखी हैं, फिर
मेरे पास धन आएगा कहाँ से। हाँ, आप ने जो अहसान मुझ पर किया उसे मैं जन्म भर नहीं
भूलूँगा और जीवन भर आपके गुण गाता रहूँगा। सादी ने कहा, भाई, मैंने
तुम्हें जो सहायता दी थी वह अपने गुण गवाने के लिए नहीं दी थी बल्कि इसलिए दी थी
कि तुम धनवान बनो। मुझे अत्यंत खेद है कि दो बार प्रयत्न कर करने पर भी मैं यह न
कर सका।
अब साद ने, जो मुझे
पहले से जानता था, अपनी जेब से एक ताँबे का पैसा निकाला। उसने सादी
से कहा, यह पैसा मैं हसन को दे रहा हूँ। तुम देखना कि ईश्वर ने चाहा तो इसी से
इसकी किस्मत पलट जाएगी और यह धनवान हो जाएगा। सादी इस बात पर ठहाके लगा कर हँसने
लगा। कहने लगा, यह एक पैसा जरूर इसे निर्धन से धनवान बनाएगा। इस
एक पैसे को व्यापार में लगा कर यह हजारों रुपए पैदा कर लेगा। तुम भी क्या मूर्खता
की बातें कर रहे हो। यह कह कर वह फिर हँसने लगा।
साद ने मुझ से कहा,
तुम सादी की बातों का ख्याल न करो। इसे हँसने दो। इसकी तो आदत ही है
कि बगैर सोचे-समझे हँसता रहता है। तुम देखना। ईश्वर चाहेगा तो एक दिन के अंदर ही
तुम्हें इसका चमत्कार दिखाई देगा। इसी से तुम्हारी दरिद्रता दूर हो जाएगी। मुझे भी
इस बात पर विश्वास न हुआ कि एक पैसे से दरिद्रता कैसे दूर होगी। फिर भी मैंने
धन्यवाद दे कर वह पैसा अपनी जेब में रख लिया। कुछ देर में दोनों मित्र विदा हो गए
और मैं पूर्ववत रस्सी बटने लगा और पैसे को भूल ही गया।
रात में सोने के लिए
जब मैं कपड़े उतारने लगा तो वह पैसा जमीन पर गिर गया। मैंने उसे उठा कर एक ताक में
रख लिया। संयोग से उसी रात को एक मछवारे को एक पैसे की जरूरत पड़ी। उसका जाल कुछ
टूट गया था और उसे ठीक करने के लिए उसे सुतली लेनी थी। उसने अपनी स्त्री से कहा कि
किसी पड़ोसी से एक पैसा माँग ला। वह सब के घर गई किंतु उसे एक पैसा कहीं से नहीं
मिला। मछवारे ने उससे पूछा कि तू हसन हव्वाल के यहाँ गई थी या नहीं। उसने कहा,
मैं वहाँ नहीं गई, उसका घर दूर पड़ता है। मछवारे ने उसे डाँटा कि
तुझसे जरा-सा पाँव भी नहीं हिलाए जाते, तू अभी वहाँ जा, उसके यहाँ से पैसा
जरूर मिलेगा। चुनांचे वह स्त्री बड़बड़ाती हुई मेरे घर आई और दरवाजा खुलवा कर बोली,
हसन भैया, हमें जाल के लिए सुतली लाने के लिए एक पैसा चाहिए,
तुम्हारे पास हो तो दे दो। मुझे उस पैसे का ध्यान आया जो मैंने उसी
समय ताक पर रखा था। और मैंने अपनी पत्नी से कहा कि ताक पर रखा पैसा इसे दे दे।
मछुवारे की स्त्री ने मेरी पत्नी का बड़ा अहसान माना और कहा, तुम
लोगों की वजह से हमारा कल का दिन खराब होने से बच गया। मेरा पति दिन निकलने के
पहले ही मछलियाँ पकड़ने जाता है। मैं तुमसे वादा करती हूँ कि पहली बार जाल डालने
से जितनी मछलियाँ आएँगी वह मैं तुम्हें दे दूँगी। मेरी पत्नी ने इस पर कुछ नहीं
कहा। मछवारे की स्त्री ने जब उसे पैसा दिया और कहा कि मैं पहली बार की मछलियों के
देने का वादा कर आई हूँ तो उसने खुशी से यह बात स्वीकार कर ली।
सुबह मुँह अँधेरे
मछवारा उठा और नदी पर चला गया। उसने भगवान का नाम ले कर जाल डाला और खींचा तो
उसमें सिर्फ एक ही मामूली आकार की मछली आई। उसने उसे अलग रख लिया क्योंकि उस मछली
को मुझे देना था। फिर उसने कई बार जाल फेंका और हर बार बड़ी-बड़ी और कई-कई मछलियाँ
जाल में फँसीं। सभी मछलियाँ उस मछली से बड़ी थीं जिसे पहली बार के जाल डालने में
पकड़ा गया था। दिन चढ़े वह मछवाहा मछलियों की खेप ले कर अपने घर आया और उन्हें
बाजार ले जाने के पहले मेरे हिस्से की मछली ले कर मेरे घर आया और मुझसे बोला,
हसन भाई, रात को मेरी पत्नी ने तुम लोगों से वादा किया था
कि पहले जाल की मछलियाँ तुम्हें दी जाएँगी। वह मैं तुम्हारे लिए लाया हूँ। अब यह
तुम्हारा भाग्य है कि पहली बार सिर्फ यही एक मामूली-सी मछली फँसी। अगर पहली बार
में अधिक मछलियाँ आतीं तो वो सब तुम्हें देता। अब इसी एक मछली को स्वीकार करो।
मैंने कहा, मैंने
पैसा तुम्हारी जरूरत को देख कर दिया था, मछली पाने के लिए
नहीं दिया था। तुम इसे भी ले जाओ। लेकिन मछवारा अपना वादा निभाने पर अड़ा रहा और
अंततः जबर्दस्ती मुझे मछली दे कर चला गया। मैंने अपनी पत्नी को बुला कर कहा,
तुमने कल जो पैसा मछवारे की स्त्री को दिया था उसके बदले में यह मछली
मिली है। वह पैसा साद का था और साद ने कहा था कि इस एक पैसे ही से तुम्हारा भाग्य
चमकेगा। सो भाग्य चमकाने के लिए यह एक मछली आई है। वह यह सुन कर हँसने लगी।
उसने सोचा कि घर में
तेल-मसाला तो है नहीं जिससे यह मछली शोरबेदार बनाई जाए। इसलिए उसने सोचा कि वैसे
ही भून कर बच्चों को खिलाई जाए। उसने ले जा कर मछली को साफ किया तो उसके अंदर से एक
बड़ा-सा हीरा निकला। हम लोगों ने हीरा काहे को देखा था। मेरी पत्नी ने समझा कि यह
शीशे का टुकड़ा है। लेकिन उसने उसे फेंका नहीं बल्कि एक तरफ रख दिया ताकि सबसे
छोटे बच्चे को खेलने के लिए उसे दे दे। छोटा बच्चा आया तो मेरी स्त्री ने वह हीरा
उसे खेलने के लिए दे दिया। वह कुछ देर उससे खेलता रहा। फिर उसके भाइयों ने उससे
हीरा ले लिया और एक-एक करके सभी बच्चे थोड़ी थोड़ी देर के लिए उससे खेलते रहे। वे
लोग शाम तक उससे खेलते रहे। अँधेरा होने पर वे उसे घर में ले आए।
जब दिया जलाया गया
तो उसकी रोशनी में हीरा अत्यधिक जगमगाने लगा। सब बच्चे उसे देख कर खूब खुश होने और
चिल्लाने लगे। वे काफी देर तक उससे खुश होते रहे। फिर मेरी स्त्री ने भोजन तैयार
करके सभी को भोजन करने के लिए बुलाया। भोजन करते समय बड़े लड़के ने हीरे को एक ओर
रख दिया और सब लोग शांतिपूर्वक भोजन करते रहे। भोजन के उपरांत मैं अपनी चारपाई पर
लेट गया और बच्चे फिर हीरे से खेलने और शोर-शराबा करने लगे क्योंकि हर बच्चा
जगमगाते हीरे से खेलना चाहता था। पहले उनके झगड़े पर हमने ध्यान नहीं दिया किंतु
जब उनका शोर बहुत बढ़ गया तो मैंने उनसे पूछा कि क्या बात है। उन्होंने कहा कि माँ
ने एक शीशे का टुकड़ा हमें खेलने के लिए दिया था। उसी पर लड़ाई हो रही है।
मैंने उसे मँगा कर
देखा तो मुझे भी उसकी चमक देख कर आश्चर्य हुआ। मैंने पत्नी से पूछा कि तुमने यह
टुकड़ा कहाँ पाया। उसने कहा, मछली के पेट में। मैंने दिए को ओट में रखवाया तो
भी टुकड़े में इतना प्रकाश था कि हम सब कुछ अच्छी तरह देख सकते थे। मैंने कहा,
चलो इतना ही काफी है। हमें ऐसी चीज मिली है जिससे तेल बत्ती की बचत हो
जाएगी।
जब बच्चों ने देखा
कि वह शीशे का टुकड़ा जगमगाता ही नहीं बल्कि अँधेरे में रोशनी भी देता है तो वे और
भी उछलने-कूदने और शोर-शराबा करने लगे। रात काफी हो गई थी इसलिए मुहल्ले के और
लोगों ने भी उनकी आवाज सुनी। जब शोर बहुत बढ़ा तो मैंने उन्हें डाँट-डपट कर चुप
करा दिया। हम सब लोग अपने बिस्तरों पर सो रहे और उस शीशे के टुकड़े के बारे में
मैं बिल्कुल भूल गया।
हमारे पड़ोस में एक
बूढ़ा यहूदी जोड़ा रहता था। हमारे बच्चों की चीख-पुकार से उन दोनों की नींद खुल गई
और फिर बहुत देर तक नहीं आई। सुबह बुढ़िया इस उलाहने को ले कर मेरे घर आई। उस समय
तक मैं अपने काम में लग गया था। जब बूढ़ी यहूदिन हमारे घर आई तो मेरी पत्नी समझ गई
कि क्या उलहना ले कर आई होगी। उसके बोलने के पहले ही मेरी पत्नी ने कहा, दीदी,
मैं जानती हूँ कि रात को इन कमबख्तों के शोर की वजह से तुम लोगों को
नींद नहीं आई होगी। हमने भी इन्हें बहुत डाँटा है, तुम भी इन्हें क्षमा
करो। क्या किया जाए, बच्चे तो बच्चे ही हैं, जरा-सी बात पर खुश
हो जाते हैं, जरा-सी बात पर आसमान सिर पर उठा लेते हैं। यह
देखो, इसी शीशे के टुकड़े के लिए यह अभागे कल रात को लड़े मरे जा रहे थे। यह
कह कर मेरी पत्नी ने वह हीरा उसे दिखाया।
यहूदी खुद रत्नों का
व्यापारी था और यहूदिन को भी रत्नों की पहचान थी। वह आश्चर्य से जड़वत हो गई,
फिर बोली, ऐसा ही एक शीशे का टुकड़ा मेरे पास है। तुम इसे
बेच दो तो मैं जोड़ा बना कर पहन लूँगी। उसने अपनी चालाकी से यह न बताया कि यह अत्यंत
ही मूल्यवान हीरा है। मेरी पत्नी उसे बेच भी देती लेकिन सारे बच्चे रोने लगे कि यह
टुकड़ा न बेचो, हम अब कभी शोर न करेंगे। इसलिए बात खत्म हो गई
क्योंकि बुढ़िया अस्लियत नहीं बताना चाहती थी। लेकिन घर जाने के पहले मेरी स्त्री
से चुपके से कह गई कि इसको कोई देखने न पाए और बगैर मुझे बताए इसे किसी के हाथ न
बेचना। फिर बुढ़िया ने अपने पति की दुकान पर जा कर उस हीरे का पूरा वर्णन किया तो
उसने कहा, ऐसे दुर्लभ हीरे को किसी भी मूल्य पर खरीद लो।
पहले तुम उसका थोड़ा दाम लगाना। वे लोग उसका मूल्य तो जानते नहीं हैं, शायद
थोड़े ही में उसे दे दें। न मानें तो धीरे-धीरे दाम बढ़ाना। लेकिन किसी मूल्य पर
भी हो, उसे ले जरूर लेना।
अपने पति के आदेश पर
यहूदिन मेरी स्त्री के पास आई और बोली, मैं इस शीशे के टुकड़े के लिए तुम्हें बीस
अशर्फी दे सकती हूँ। मेरी स्त्री यह सुन कर चौंकी और समझ गई कि इस टुकड़े में कोई
खास बात है तभी यह इतना दाम देने को तैयार है। उसने कुछ उत्तर नहीं दिया। इतने में
मैं भी दोपहर का भोजन करने के लिए घर में आया और दोनों स्त्रियों को बातें करते
देखा। मेरी पत्नी मुझे अलग ले जा कर बोली, यह यहूदिन शीशे के
टुकड़े के लिए बीस अशर्फियाँ दे रही है। मैंने अभी तक कोई जवाब नहीं दिया है। तुम
कहो तो ले लूँ, आखिर शीशे का टुकड़ा ही तो है।
मुझे उसी समय साद की
बात याद आई कि यह पैसा तुम्हारी किस्मत चमका देगा। मैं कुछ कहता इसके पहले यहूदिन
मेरे पास आ कर कहने लगी कि मैं इस टुकड़े को बीस अशर्फियों में लेना चाहती हूँ।
मैं चुप ही रहा। फिर यहूदिन बोली, हसन मियाँ, अगर तुम्हें बीस
अशर्फियाँ कम लगती हों तो मैं पचास दे दूँगी। मैंने देखा कि वह बीस से एकदम पचास आ
गई है तो समझ लिया कि इस टुकड़े का बहुत मूल्य होगा। मैं फिर भी चुप रहा। उसने कहा,
अच्छा सौ अशर्फी ले लो, हालाँकि मेरा पति इतने दाम देने पर
क्रुद्ध होगा। मैंने कहा, देखो भाई, मैं इसे लाख
अशर्फियों से कम पर न बेचूँगा। हाँ, तुम लोग पड़ोसी हो इसलिए यह कहता हूँ कि
कोई दूसरा लाख अशर्फी से अधिक देगा तो भी तुम्हें ही लाख अशर्फियों में दूँगा।
यहूदिन बढ़ते-बढ़ते
पचार हजार अशर्फियों तक आ गई किंतु मैं नहीं माना तो वह कहने लगी कि शाम तक इसे
किसी के हाथ न बेचना, शाम को मेरा पति आ कर तुमसे खुद ही बात करेगा।
शाम को बूढ़ा यहूदी आया। उसने दिए की रोशनी में हीरे को भली-भाँति परखा और उसके
खरेपन को उसे विश्वास हुआ तो बोला, मेरी स्त्री इसकी पचास हजार अशर्फियाँ लगा
गई है, मैं सत्तर हजार लगाता हूँ। उससे अधिक न दे सकूँगा।
मैंने कहा, तुम्हें
तुम्हारी पत्नी ने बताया होगा कि मैं हीरे को एक लाख अशर्फियों से कम पर बेचने को
तैयार नहीं हूँ। अगर तुम इतने पर उसे लेने को तैयार नहीं हो तो मैं दूसरे जौहरी से
सौदा करूँगा। काफी झिकझिक करने के बाद यहूदी जौहरी एक लाख अशर्फियों के सौदे पर
राजी हो गया क्योंकि हीरा बहुत बड़ा था और एक लाख अशर्फियों में खरीद कर भी यहूदी
को बड़ा मुनाफा होना था। यहूदी ने मुझे दो हजार अशर्फियाँ बयाने में दीं और कहा कि
कल शाम तक मैं पूरा दाम दे दूँगा और हीरा ले जाऊँगा। दूसरे दिन यहूदी जौहरी ने
अपने कई मित्रों से कर्ज ले कर अठानबे हजार अशर्फियाँ मुझे दीं और हीरा ले लिया।
इतना धन पा कर मैंने
ईश्वर को धन्यवाद दिया। उसी भगवान के दिए हुए द्रव्य से मैंने धनवानों जैसा गृहस्थी
का सामान खरीदा और मेरी पत्नी ने भी अपने लिए और लड़कों के लिए अच्छे कपड़े बनवाए।
मैंने रहने के लिए एक बड़ा मकान खरीदा। उसमें परदे, फर्श आदि लगवाए।
मैंने अपनी पत्नी से कहा, हमें इतना पैसा जरूर मिल गया है लेकिन अपना पेशा
मैं पैत्रिक ही रखूँगा। वह भी इस बात से सहमत हुई। मैंने अपनी पूँजी का कुछ भाग ही
व्यापार में लगाया, शेष को सावधानी से रख दिया ताकि आड़े समय काम आए।
मैंने नगर के कई कारीगरों को नौकरी पर रखा और कई सौ अशर्फियाँ दे कर नगर में रस्सी
बटनेवाले बहुत-से कारखाने लगवाए। कई विश्वस्त व्यवस्थापक भी रखे जिन्होंने उन
कारखानों का भार सँभाल लिया। इस समय बगदाद नगर में कोई गली ऐसी नहीं है जिसमें
मेरा रस्सी बटनेवाला कारखाना मौजूद न हो। इसी प्रकार अन्य बड़े नगरों और जिलों के
प्रशासन केंद्रों में भी मैंने रस्सी के कारखाने खोले। वहाँ व्यवस्थापक और
हिसाब-किताब के लिए मुनीमों को नौकर रखा। इससे मुझे बहुत धन प्राप्त हुआ।
मैंने एक बड़ा
पुराना मकान लिया जिसमें जमीन बहुत थी। उसकी इमारत तुड़वा कर वहीं एक बड़ी इमारत
बनवाई। वही आपने कल देखी थी। उसे मैंने अपना केंद्रीय कार्यालय बनाया और घर का
अतिरिक्त सामान भी वहीं रखा। पुराने घर को छोड़ कर नए घर में जा बसा।
काफी दिन बाद साद और
सादी मेरे पुराने मकान में मुझे पूछते हुए आए। मुहल्ले के लोगों ने कहा कि अब उसे
हसन कोई नहीं कहता, अब उसे ख्वाजा हसन हव्वाल कह कर बुलाते हैं और वह
उस मुहल्ले में एक बड़े मकान में रहता है। उसका बहुत बड़ा कारोबार हो गया है। वे
दोनों मित्र मुझे पूछते हुए मेरे घर पर आए। उस समय सादी को यह बिल्कुल विश्वास न
हुआ कि साद के दिए हुए पैसे से मेरी दशा बदली है, वह समझता था कि
मैंने अशर्फियों के खोने की दो बार झूठी कहानी गढ़ी है।
उसने साद से कहा कि
हसन ने दो बार मुझसे झूठ बोला कि मेरी दी हुई अशर्फियाँ उससे खो गई हैं, यह
व्यापार उसने कहाँ से बढ़ाया अगर वे अशर्फियाँ खो गई थीं। किंतु उसने कहा कि हसन
ने सच बोला या झूठ, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता, मुझे
उसकी समृद्धि देख कर प्रसन्नता ही होगी। यह मानने को मैं बिल्कुल तैयार नहीं हूँ कि
जो ताँबे का पैसा तुमने उसे दिया था उससे वह अमीर बना है।
साद ने कहा, तुम्हारी
बात बिल्कुल निर्मूल है। मैं हसन को बहुत दिनों से जानता हूँ। वह निर्धन था किंतु
उसकी झूठ बोलने की कभी आदत नहीं थी। जो कुछ भी उसने उन अशर्फियों के बारे में कहा
सब सच होगा। तुम्हें यह भी मालूम हो जाएगा कि मेरे एक पैसे की बदौलत ही उसका
व्यापार इतना चमका है।
इसी प्रकार बहस
करते-करते वे मेरे घर आए। उन्होंने दरवाजे पर आवाज दी तो दरबान ने फाटक खोल दिया।
सादी अंदर बहुत-से नौकरों को देख कर डरा कि किसी सरदार के मकान में तो नहीं आ गया।
उसने दरबान से पूछा कि ख्वाजा हसन हव्वाल यही रहते हैं? दरबान ने कहा,
यहीं रहते हैं और इस समय अपनी बैठक में बैठे हैं। आप अंदर जाइए। नौकर
आपके आने की सूचना उन्हें दे देगा। उन दोनों के आने की सूचना मिली तो मैं उन्हें
बुलाने के बजाय दीवानखाने से उठ कर उनके स्वागत के लिए चला। उन्हें देख कर मैंने
दौड़ कर सम्मानार्थ उनके वस्त्र चूमे। वे मुझे गले लगाना चाहते थे किंतु मैंने ऐसा
न होने दिया क्योंकि उन्हें अब भी अपने से ऊँचा समझता था। अंदर ले जा कर मैंने
उन्हें एक दालान में एक ऊँचे स्थान पर बिठाया। वे मुझे अपने बराबर बिठाना चाहते थे
किंतु मैंने कहा, महानुभावो, मैं यह नहीं भूला कि
मैं वही रस्सी बटनेवाला हसन हूँ और आप लोग मेरे उपकारकर्ता हैं। मैं उनके सामने
बैठ गया और हम लोगों में प्रारंभिक शिष्टाचार के बाद बातें होने लगीं।
सादी ने कहा,
हसन भाई, तुम्हारी इस समृद्धि को देख कर मुझे अतीव
प्रसन्नता हो रही है। मैं जैसा तुम्हें देखना चाहता था वैसा ही तुम्हें देख रहा
हूँ। मुझे यह पूरा विश्वास है कि तुम्हारी सारी समृद्धि उन चार सौ अशर्फियों के
कारण हुई हैं जो मैंने दो बार में तुम्हें दी थीं। अब यह सच-सच बताओ कि दोनों बार
मुझसे झूठ क्यों बोले थे कि अशर्फियाँ तुमसे खो गई हैं। साद मन ही मन कुढ़ता हुआ
उसकी बातें सुनता रहा और उसके चुप हो जाने पर बोला, तुम क्यों अपनी
बेतुकी हाँके जा रहे हो और क्यों हसन को झूठा बना रहे हो। मैं तुमसे कह चुका हूँ
कि यह झूठा आदमी नहीं है। इस पर उन दोनों में फिर तकरार हो गई।
मैंने कहा, सज्जनो,
आप लोग मेरी बात को ले कर आपस में झगड़ा न करें। आप सच मानें या झूठ,
अशर्फियाँ मुझसे उसी तरह खो गई थीं जैसा मैंने आप लोगों को बताया था।
और यह धन-संपदा मैंने कैसे प्राप्त की वह मैं आप को अभी बताता हूँ। इसके बाद,
सरकार, मैंने मछली के पेट से हीरे के निकलने की बात जैसी
अभी आपके सम्मुख बताई है वैसे ही उन्हें बताई। इस पर सादी ने कहा, हसन,
उस छोटी मछली के पेट से इतना बड़ा हीरा निकलने की बात ऐसी ही है जैसी
कि चील के पगड़ी ले जाने की बात। इन बातों पर किसे विश्वास होगा? भूसी की
नाँद में रखी हुई अशर्फियों की बात संभव है किंतु विश्वास मुझे उस पर भी नहीं। खैर
छोड़ो। जो हुआ अच्छा हुआ। इसके बाद दोनों विदा होने के लिए उठे। मैंने कहा,
आप लोगों ने इतनी कृपा करके मेरी कुटिया को पवित्र किया है तो मेरी
इतनी प्रार्थना भी स्वीकार करें कि रात को यहीं ठहरें और कल मेरे साथ चल कर मेरे
देहात के मकान को भी देखें जो मैंने मनोरंजन के लिए बनवाया है और जहाँ मैं काम से
थक कर आराम करने के लिए चला जाता हूँ।
पहले तो उन्होंने यह
बात नहीं मानी लेकिन मैंने बहुत जोर दिया तो वे रुकने को राजी हो गए। मैंने उनके
लिए भाँति-भाँति के व्यंजन बनवाए। उन्हें मैंने अपने घर का मूल्यवान सामान दिखाया।
वे यह सब देख कर बड़े प्रसन्न हुए और हँसी-मजाक की बातें करते रहे। भोजन तैयार
होने पर मैं उन्हें अपने भोजन कक्ष में ले गया। वहाँ मेरे सेवकों के तैयार किए हुए
नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन रखे थे। जगह-जगह उचित स्थानों पर बड़े-बड़े दीप
जल रहे थे, एक ओर गायक वादक मधुर स्वरों में गा बजा रहे थे,
दूसरी ओर नर्तकों और नर्तकियों का कला प्रदर्शन हो रहा था। भोजन के
उपरांत उन लोगों के मनोरंजन के लिए बहुत-से खेल-तमाशों का भी प्रबंध किया गया।
इसके बाद हम लोग सो
रहे। सुबह उठ कर नित्यकर्म से निश्चिंत होने के बाद हम लोग एक नाव पर सवार हुए और
नदी की राह से मेरे देहातवाले मकान की ओर रवाना हुए। कुछ घंटों में हम वहाँ पहुँच
गए। नाव से उतर कर हम लोग गाँव की सैर करते हुए मेरे देहाती मकान में आए। वहाँ भी
मैंने कारखाना लगा रखा था। वे लोग घर और कारखाने की साज-सज्जा को देख कर खुश हुए।
फिर मैं उन्हें उस वाटिका में ले गया जो मैंने वहाँ लगवाई थी। बाग में तरह-तरह के
फलों और फूलों के वृक्ष लगे थे। नदी से पक्की नहरों द्वारा सिंचाई का पानी वहाँ
आता था। पेड़ों पर तरह-तरह के पके फल लगे थे। तरह-तरह के फूल चारों ओर सुगंध बिखेर
रहे थे। जगह-जगह फव्वारे और ऊपर से नीचे गिरनेवाली पानी की चादरें दिखाई दे रही
थीं। वे दोनों मित्र यह सब देख कर और भी प्रसन्न हुए। उन्होंने मुझे इस बात का
धन्यवाद दिया कि मैंने उन्हें इतने सुंदर स्थान की सैर कराई। साथ ही उन्होंने मुझे
हृदय से आशीर्वाद भी दिया कि मेरी समृद्धि और बढ़े।
फिर मैं उन्हें बाग
ही में बने हुए एक छोटे-से मकान में ले गया। दोपहर के भोजन का प्रबंध मैंने उसी
बगीचे के मकान में किया था। वहाँ एक सुंदर और स्वच्छ स्थान पर जहाँ मसनद तकिए लगे
हुए थे उन लोगों को बिठाया। उन लोगों को यहाँ लाने के दो-तीन दिन पहले मैंने अपने
दो पुत्रों और उनके शिक्षक को देहाती मकान में आबोहवा बदलने के लिए भेज रखा था। वे
लड़के भी बाग में चिड़ियों के घोंसले तलाश करते घूम रहे थे। एक पेड़ पर उन्हें एक
बड़ा और सफेद घोंसला दिखाई दिया। वे छोटे भी थे और पेड़ों पर चढ़ना भी नहीं जानते
थे, इसलिए उन्होंने एक नौकर से कहा कि ऊपर चढ़ कर उनके खेलने के लिए वह
घोंसला उतार लाए। नौकर पेड़ पर चढ़ा तो उसे देख कर आश्चर्य हुआ कि घोंसले में एक
पगड़ी रखी है जिसका एक सिरा हवा के कारण घोंसले के चारों ओर लिपट गया है। नौकर ने
वह घोंसला उतार कर लड़कों के हाथ में दे दिया।
लड़के मेरे पास
घोंसला ले कर दौड़े आए और खुश हो कर उछल-कूद कर कहने लगे, देखिए
अब्बा, यह घोंसला कपड़े का बना हुआ है। मुझे तो यह देख कर आश्चर्य हुआ ही,
साद और सादी मुझसे भी अधिक आश्चर्यान्वित हुए कि घोंसले में इतना बड़ा
कपड़ा कहाँ से आया। मैंने कपड़े को देखा तो मालूम हुआ कि यह पगड़ी है और वही पगड़ी
है जो मेरे सिर से चील ले उड़ी थी। मैंने दोनों मित्रों से कहा, देखिए,
यह वही पगड़ी है या नहीं जो मैं उस दिन पहने बैठा था। साद ने कहा,
मैंने तुम्हारी पगड़ी पर ध्यान नहीं दिया इसलिए यह नहीं कह सकता कि यह
वही पगड़ी है या नहीं।
सादी ने कहा,
मैं भी तुम्हारी पगड़ी नहीं पहचानता। लेकिन अगर यह वही पगड़ी है तो
इसमें बाकी बची हुई एक सौ नब्बे अशर्फियाँ भी होंगी। मैंने कहा, मैं तो
पहचानता हूँ। यह पगड़ी वही है जिसे चील ले गई थी।
मैंने पगड़ी को
घोंसले से उठाया तो वह काफी भारी लगी। मैंने उसकी तहें खोलीं तो उसमें से थैली
निकली। मैंने सादी से कहा, आप मेरी पगड़ी नहीं पहचानते किंतु आप यह थैली तो
पहचानते ही होंगे। दरअसल मुझे सादी के अविश्वास पर रोष आया था किंतु उसका अहसान
याद करके मैंने पहले कुछ नहीं कहा था। सादी ने कहा, यह थैली तो वाकई वही
है जो मैंने तुम्हें दी थी। इसमें अशर्फियाँ भी होनी चाहिए। मैंने थैली खोल कर
उसके सामने उलट दी और कहा कि अशर्फियाँ भी गिन लीजिए। उसने अशर्फियाँ गिनीं तो
उनकी संख्या ठीक एक सौ नब्बे निकली।
सादी यह देख कर
लज्जित हुआ किंतु उसने कहा, तुम्हारी एक बार की कही हुई बात तो साबित हो गई
लेकिन मैं यह नहीं मानता कि एक पैसे में तुम्हारी किस्मत बदली है। तुमने चार सौ
अशर्फियों से न सही, उन दो सौ अशर्फियों से जरूर व्यापार आरंभ किया
होगा जो मैंने तुम्हें दूसरी बार दी थीं। मैं इस पर चुप हो रहा किंतु साद ने फिर
उसे टोका कि तुम बेकार की जिद पर अड़ हुए हो। उन दोनों में फिर से वही बेतुकी बहस
शुरू हो गई।
खैर भोजन आया तो बहस
खत्म हुई। भोजन के बाद हम लोग वहीं सो रहे। साद और सादी को दूसरे दिन जरूरी काम था
और रात ही में हम लोगों को लौटना था। रात में धारा से उलटे चल कर नदी की राह से
वापस होने में कोई तुक न थी। इसलिए हम तीनों शाम को घोड़ों पर सवार हो कर बगदाद को
रवाना हुए। हमारे साथ तीन गुलाम थे। रात काफी हो गई तो हम एक जगह उतर गए। घोड़ों
को शाम को दाना नहीं मिला था इसलिए मैंने दासों से कहा कि कहीं से घोड़ों के चारे
का प्रबंध करें। रात हो जाने से सारी दुकानें बंद हो गई थीं, सिर्फ
एक परचून की दुकान खुली थी। दाना तो नहीं मिला किंतु भूसी से भरी एक नाँद मिली।
मेरे दासों ने इसी को गनीमत जाना और भूसी के दाम दे कर और सवेरे खाली नाँद के वापस
करने का वादा करके नाँद उठा लाए। एक नौकर नाँद में से भूसी निकाल-निकाल कर घोड़ों
को देने लगा तो उसका हाथ एक पोटली पर लगा और उसे वह मेरे पास ले आया ताकि सवेरे
दुकानदार को थैली दे दी जाए।
मैंने पोटली को देखा
तो पहचान गया कि वही पोटली है जिसमें अशर्फियाँ बाँध कर मैंने भूसी की नाँद में
रखा था। बाहर जा कर नाँद को देखा तो उसे भी पहचान लिया कि मेरी ही है। मैंने दोनों
मित्रों को बुला कर नाँद और उसमें से निकली पोटली दिखाई, फिर पोटली खोल कर
उसमें की अशर्फियाँ सादी के सामने उलट दीं, और कहा, इन्हें
गिन लीजिए। उसने गिनीं तो पूरी एक सौ नब्बे निकलीं। सादी ने कहा, अब मुझे
हसन की सत्यवादिता पर और तुम्हारे सिद्धांत पर पूरा विश्वास हुआ कि धन न पूँजी के
बल पर आता है, न उद्यम के बल पर बल्कि भाग्य से मिलता है। इसके
बाद हम सो रहे ओर सवेरे बगदाद आ गए जहाँ दोनों मित्र मुझसे विदा हो कर अपने घर चले
गए।
खलीफा ने हसन की
पूरी कहानी सुन कर कहा, हसन मियाँ, तुम्हारे पड़ोसियों
से सुना था कि तुम धन को समझ-बूझ कर खर्च करनेवाले आदमी हो। तुम्हारी कहानी से
मालूम हुआ कि तुम सीधे-सच्चे और सभ्य आदमी भी हो। तुम जिस हीरे की बात कर रहे हो वह
खजाने में हैं, मैंने उसे यहूदी जौहरी से डेढ़ लाख अशर्फियों में
खरीदा था। तुम सादी को यहाँ भेजना कि वह हीरा देखे और इत्मीनान कर ले। तुम मेरे
कोषाध्यक्ष के पास जा कर मेरा आदेश दो कि वह तुम्हारे मुँह से हीरे की प्राप्ति का
वृत्तांत सुने और लिखवा कर हीरे के साथ रखवा दे।
यह कह कर खलीफा ने
हसन को विदा होने के लिए इशारा किया। वह सिंहासन का पाया चूम कर वापस हुआ। बाबा
अब्दुल्ला और सीदी नुमान भी खलीफा के सिंहासन का पाया चूम कर अपने-अपने घरों को
चले गए।
कहानी सुन कर
दुनियाजाद ने उसकी प्रशंसा की और पूछा कि और कोई कहानी भी आती है या नहीं। शहरजाद
ने कहा कि एक बड़ी मनोरंजक कहानी है। किंतु शहरयार ने कहा, अब
सवेरा हो गया है। दूसरी कहानी कल शुरू करना।
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