(पिछिली पोस्ट से जारी……)
उसने
यह भी कहा
कि आप भी
हमारे साथ भोजन
करें और यहीं
आराम करें। बूढ़े
ने सोचा कि
आज खलीफा तो
आनेवाले हैं नहीं,
आनेवाले होते तो
अब तक संदेश
भिजवा देते। उसने
यह भी सोचा
कि ऐसे उदार
आदमी की बात
नहीं टालनी चाहिए।
इसलिए वह न
केवल उन्हें स्थान
देने पर राजी
हो गया अपितु
उसने खलीफा के
लिए रखे हुए
जड़ाऊ बरतनों में
उन्हें भोजन परोसा।
सब लोग खाना
खा कर हाथ
धो चुके तो
नूरुद्दीन ने कहा,
कुछ पीने को
भी मिल सकता
है?
रक्षक
ने कहा, मैं
शरबत ला सकता
हूँ लेकिन शरबत
खाने के पहले
पिया जाता है,
बाद में नहीं।
नूरुद्दीन बोला, आप ठीक
कहते हैं लेकिन
मेरा मतलब शरबत
से नहीं था,
अंगूरी शराब से
था। उद्यान-रक्षक
ने कहा, देखो
इस्लाम में शराब
हराम है। फिर
मैं तो चार
बार हज कर
आया हूँ, मैं
तो शराब पीना
क्या उसे हाथ
से भी नहीं
छू सकता। बल्कि
मैंने कभी शराब
देखी भी नहीं
है। नूरुद्दीन ने
कहा, मैं एक
तरकीब बताता हूँ।
बाग की खाई
के पास एक
गधा बँधा है।
उसे ले आइए।
मैं रूमाल में
एक अशर्फी बाँध
कर उसकी पीठ
पर रख दूँगा।
आप उसे हाँकते
हुए शराबखाने तक
ले जाएँ और
शराबखाने के मालिक
को इशारे से
अशर्फी दिखा दें।
वह समझ जाएगा
और अशर्फी ले
कर शराब की
मटकियाँ गधे पर
लाद देगा। फिर
आप गधे को
यहाँ ले आएँ।
यहाँ हम वे
पात्र उतार लेंगे।
आपको शराब छूने
या मुँह से
माँगने की जरूरत
ही नहीं पड़ेगी।
बूढ़े
को इसमें कोई
बुरी बात नहीं
दिखाई दी। उसने
वही किया जो
नूरुद्दीन ने कहा
था। गधे के
वापस आने पर
नूरुद्दीन ने मटकियाँ
गधे से उतार
कर रखीं और
बूढ़े से कहा,
आपने हम लोगों
पर बड़ी कृपा
की है, अब
थोड़ी और दया
कीजिए। दो-तीन
गिलास और शराब
के साथ खाने
के लिए कुछ
फल ले आइए।
बाग के रक्षक
दारोगा ने यह
चीजें भी ला
कर दीं और
साफ कपड़ा जमीन
पर बिछा कर
उस पर फल
काट कर तश्तरियों
में रख दिए
और गिलास भी।
यह कर के
वह कुछ दूर
जा बैठा ताकि
कहीं यह लोग
मुझ से भी
मदिरा पान के
लिए न कहें।
जब
दोनों को शराब
पी कर नशा
आ गया तो
नूरुद्दीन ने हुस्न
अफरोज से कहा
कि हम लोग
कितने भाग्यवान हैं
कि इस निपट
अनजाने शहर में
भी हमें ऐसी
सुंदर जगह ठहरने
को मिली है।
फिर वे दोनों
गाने लगे। उनका
गाना सुन कर
दारोगा खुश हुआ
और कुछ पास
आ कर गाना
सुनने लगा। नूरुद्दीन
ने उससे कहा,
दारोगा साहब, आप बहुत
अच्छे आदमी हैं।
आप भी हमारे
इस आनंद में
शामिल हो जाएँ।
मैं आपकी प्रशंसा
में कसीदा सुनाऊँगा।
दारोगा ने हँस
कर कहा, आप
दोनों के आनंद
से मुझे काफी
आनंद आ रहा
है, अब और
आनंद क्या चाहिए।
यह कह कर
वह फिर दूर
जा बैठा।
हुस्न
अफरोज ने नूरुद्दीन
से कहा, आप
कहें तो में
इस बूढ़े कर्मकांडी
को भी शराब
पिला दूँ।
उसने
कहा, ऐसा हो
जाए तो बड़ा
मजा आएगा। हुस्न
अफरोज बोली, आप
उसे बुला कर
अपने हाथ से
शराब का गिलास
दें। वह पी
ले तो ठीक
है वरना आप
खुद उस गिलास
को पी कर
चारपाई पर लेट
कर सोने का
बहाना करना। फिर
देखो मैं इसे
किस तरह राह
पर लाती हूँ।
नूरुद्दीन ने यह
मान लिया।
नूरुद्दीन
ने दारोगा को
आवाज दे कर
कहा, बुजुर्गवार, यह
अच्छा नहीं लगता
कि आप जीने
में बैठे रहें
और हम यहाँ
चाँदनी का आनंद
लें। हम कोई
जबरदस्ती तो आपको
पिला नहीं देंगे।
आप कृपया यहाँ
आ कर इस
सुंदरी के बगल
में बैठें। बूढ़ा
यह सुन कर
खुश तो हुआ
कि ऐसी सुंदरी
के पास बैठने
को मिलेगा किंतु
प्रकटतः नाक-भौं
चढ़ाता हुआ आया
और हुस्न अफरोज
के बगल में
बैठ गया। नूरुद्दीन
ने इशारा किया
तो हुस्न अफरोज
ने सुंदर गाना
आरंभ किया। गाना
खत्म होने पर
नूरुद्दीन ने एक
गिलास भर कर
दारोगा को दिया
और कहा कि
अगर आप गाने
से खुश हैं
और इसका इनाम
देना चाहते हैं
तो यह गिलास
तो पी ही
लें।
बूढ़े
ने कहा, मैं
पहले ही आपको
अपनी मजबूरी बता
चुका हूँ। वरना
आपकी बात क्यों
टालता? नूरुद्दीन ने कहा,
जैसी आपकी इच्छा।
यह कह कर
वह गिलास को
खुद पी गया।
अब हुस्न अफरोज
ने एक सेब
के दो टुकड़े
किए और एक
टुकड़ा वृद्ध की ओर
बढ़ा कर बोली,
शराब नहीं पीते
तो फल तो
लीजिए, इसे खाने
से तो धर्म
नहीं रोकता। बूढ़े
ने धन्यवाद सहित
सेब ले लिया
और उसे खाने
लगा। हुस्न अफरोज
ने फिर गाना
शुरू किया। अब
बूढ़े पर हुस्न
अफरोज का जादू
चढ़ने लगा था।
नूरुद्दीन पलंग पर
जा कर सोने
का बहाना करने
लगा।
गाना
खत्म होने पर
हुस्न अफरोज ने
शिकायत के स्वर
में बूढ़े से
कहा, देखिए, इनकी
कैसी बुरी आदत
है। दो गिलास
पी कर ही
नींद की गोद
में चले जाते
हैं। मैं अकेली
रह जाती हूँ।
अब कृपया आप
मुझे अकेला न
छोड़ें, मेरे और
पास आ कर
बैठ जाएँ। बूढ़ा
तो उसके नयन-शर से
पहले ही बिंध
चुका था, वह
उसके पास जा
बैठा। हुस्न अफरोज
समझ गई कि
अब इसे पिलाई
जा सकती है।
उसने शराब का
एक गिलास भर
कर उसकी ओर
बढ़ा कर कहा,
देखिए, आपको मेरे
सिर की कसम
है, इससे इनकार
न कीजिए। इसके
पीने से जो
पाप आप पर
पड़ेगा वह मैं
अपने सिर लेती
हूँ। यह कह
कर उसने हाव-भाव के
साथ गिलास उसके
मुँह से लगा
दिया। बूढ़ा उसे
पी गया और
बचा हुआ आधा
सेब भी खा
गया। हुस्न अफरोज
ने दूसरा गिलास
बढ़ाया तो उसने
बगैर हिचके पी
लिया। इसके बाद
उसे नशा चढ़ा
तो वह खुद
अपने हाथ से
भर-भर कर
कई गिलास पी
गया। इतने में
नूरुद्दीन भी पलँग
से उठ कर
आया और मुस्कुरा
कर बोला, बड़े
मियाँ, तुम तो
बड़े परहेजगार थे,
अब क्या हो
गया। बूढ़ा ठठा
कर हँसा और
कहने लगा, मैंने
पी कहाँ है,
यह तो तुम्हारी
साथिन ने जबर्दस्ती
मुझे पिलाई है।
इसी तरह वे
लोग हँसी-खुशी
के साथ आधी
रात तक बैठे-बैठे मदिरापान
करते रहे।
जब
दारोगा को काफी
नशा चढ़ गया
तो हुस्न अफरोज
ने कहा कि
अब अँधेरा डरावना
लगता है, कहो
तो शमादान (मोमबत्तियों
के पात्र) जला
दूँ। बूढ़े ने
कहा, अच्छा, यही
चाहती हो तो
जला लो लेकिन
दो-चार ही
जलाना। किंतु हुस्न अफरोज
ने वहाँ के
सारे ही शमादान
जला दिए।
बूढ़ा
नशे में था
और हुस्न अफरोज
के सौंदर्य से
मस्त भी। उससे
हुस्न अफरोज ने
पूछा, कहिए तो
जीने के शमादान
भी जला दूँ
ताकि किसी आने-जानेवाले को कष्ट
न हो। बूढ़े
ने बगैर समझे-बूझे इस
की भी अनुमति
दे दी। वह
इस समय हुस्न
अफरोज की हर
बात मानने को
तैयार था।
खलीफा
हारूँ रशीद उस
दिन देर तक
राज-काज में
लगा रहा था।
आधी रात को
उसकी इच्छा हुई
कि बाग में
जा कर थकन
मिटाए। महल से
उसने देखा तो
बाग की बारहदरी
के ऊपर प्रकाश-पुंज दिखाई
दिया क्योंकि हुस्न
अफरोज ने सारे
शमादान जला दिए
थे। उसने अपने
मंत्री जाफर से
कहा, समझ में
नहीं आता। मैं
तो यहाँ हूँ,
इस बाग की
बारहदरी में रोशनी
किसने करवाई है।
जाफर की समझ
में भी कुछ
न आया लेकिन
वह दिल का
अच्छा आदमी था।
बाग के दारोगा
को बचाने के
लिए झूठ बोल
गया, बाग के
दारोगा ने एक
मानता मानी थी
और कहा था
कि यह पूरी
होगी तो अपने
मित्रों को दावत
दूँगा। उसने आज
दावत दी होगी।
खलीफा
को इस बात
पर विश्वास न
हुआ, उसने खुद
भी साधारण नागरिक
के वस्त्र पहने
और जाफर तथा
अपने प्रधान अंगरक्षक
मसरूर को भी
पहनवाए और उन
दोनों को ले
कर चुपके से
बाग की ओर
चला। वहाँ जा
कर देखा कि
बाग का बाहरी
द्वार खुला है।
उसे दारोगा की
असावधानी पर रोष
हुआ और वह
कहने लगा कि
यह दरवाजा क्यों
खुला है? जाफर
इसका क्या जवाब
देता। फिर खलीफा
इन लोगों को
बाग में बिठा
कर खुद चुपचाप
जीने पर चढ़
कर छत का
तमाशा देखने लगा।
उसने देखा कि
एक अति सुंदर
युवक के साथ
एक अनिंद्य सुंदरी
बैठी है और
दारोगा शराब का
गिलास उस स्त्री
को देते हुए
कह रहा है,
हे परमसुंदरी, मैंने
अभी जी भर
कर तुम्हारा गाना
नहीं सुना। एक
गाना सुनाओ। इसके
बाद मैं भी
तुम्हें गाना सुनाऊँगा।
किंतु वह स्त्री
का गाना सुनने
के बजाय खुद
गाने लगा। स्पष्ट
था कि उसे
गाना नहीं आता
था, यूँ ही
रेंक रहा था।
खलीफा
को यह देख
कर आश्चर्य हुआ।
उसने सोचा कि
इस दारोगा को
क्या हो गया,
यह तो बड़ा
सदाचारी था। वह
चुपके से उतरा
और मंत्री जाफर
को साथ ला
कर उसे इशारे
से दिखाया कि
यहाँ क्या हो
रहा है। उसने
कहा, सरकार, मैं
तो कुछ समझ
नहीं पाया। खलीफा
ने कहा, मैं
इन सब को
कड़ा दंड दूँगा
किंतु यदि इस
सुंदरी ने अच्छा
गाया तो क्षमा
कर दूँगा। वे
दोनों छुप कर
सुनने लगे। बूढ़े
ने कहा, कुछ
ऐसा गाओ कि
जी खुश हो
जाए। हुस्न अफरोज
बोली, यहाँ बाँसुरी
होती तो मैं
वह गाना सुनाती
कि तुम भी
याद करते। अगर
मिल सके तो
बाँसुरी लाओ।
बूढ़ा
झूमता हुआ उठा
और एक कोठरी
खोल कर उसमें
से बाँसुरी निकाल
लाया। हुस्न अफरोज
बाँसुरी बजाने लगी। खलीफा
ने मंत्री से
कहा, यह स्त्री
तो बड़ी अच्छी
बाँसुरी बजाती है। इस
कारण मैंने इसका
अपराध क्षमा किया
और उसके कारण
उसके साथी को
भी। किंतु बूढ़े
की हरकत प्रशासन
की बात है
और तुम्हारी जिम्मेदारी
है, इसलिए तुम
जरूर फाँसी पाओगे।
मंत्री ने कहा,
भगवान करता कि
वह बुरा बजाती।
खलीफा ने कहा,
तुम यह बात
क्यों कर रहे
हो।
मंत्री
बोला, अगर ऐसा
होता तो यह
दोनों मारे जाते
और इन दोनों
के साथ मरने
में सुख मिलता।
खलीफा इस चतुराई
के उत्तर से
हँस पड़ा।
हुस्न
अफरोज ने बार-बारी से
बाँसुरी और गले
से वही राग
निकाला तो खलीफा
लोट-पोट हो
गया। वह संगीत
का अच्छा मर्मज्ञ
था। उसने इस
डर से कि
जीने ही में
कहीं उससे वाह-वाह न
निकल जाए, मंत्री
के साथ चुपचाप
नीचे उतर आया
और बोला, भाई,
यह स्त्री तो
गाने और बजाने
दोनों में अद्वितीय
है। हमारा दरबारी
गवैया गाने- बजाने
में विश्वविख्यात है
किंतु इसके सामने
वह अनाड़ी बच्चा
मालूम होता है।
मैं चाहता हूँ
कि पास से
जा कर इसका
गायन-वादन सुनूँ
किंतु मेरी समझ
में नहीं आ
रहा है कि
यह बात कैसे
हो।
मंत्री
ने कहा, आपकी
बात बिल्कुल ठीक
है। अगर आप
उन लोगों के
सामने गए तो
दारोगा आपको इन
साधारण वस्त्रों में भी
पहचान लेगा और
डर के मारे
ही मर जाएगा।
और यह दोनों
भी आप के
डर से गाना-बजाना भूल जाएँगे।
खलीफा ने कुछ
सोच कर कहा,
तुम मसरूर के
साथ बाग में
बैठो। मैं बाहर
जा रहा हूँ।
मेरे लौटने तक
प्रतीक्षा करो।
खलीफा
ने बाग से
निकलते ही देखा
कि एक मछवाहा
चार-पाँच बड़ी-बड़ी मछलियाँ
ले कर नदी
की ओर से
आ रहा है।
खलीफा ने उसे
रोक कर कहा
कि मुझे दो
अच्छी मछलियाँ बेच
दो। मछवाहे ने
खलीफा को साधारण
वस्त्रों में भी
पहचान लिया और
डर के मारे
काँपने लगा। खलीफा
ने कहा, तुम
डरो नहीं। मैं
तुम्हें अच्छा इनाम दूँगा।
लेकिन तुम मेरे
यह कपड़े पहन
लो और अपने
कपड़े मुझे दे
दो और चुपचाप
घर चले जाओ।
उसने ऐसा ही
किया। खलीफा उसके
कपड़े पहन कर
दो बड़ी मछलियाँ
ले कर बाग
में आ गया।
जाफर
और मसरूर उसे
इस वेश में
देख कर पहचान
न सके। मंत्री
ने समझा कि
यह मछवाहा बेवक्त
कुछ इनाम माँगने
आया है। उसने
झिड़क कर उससे
भाग जाने के
लिए कहा। इस
पर खलीफा खिलखिला
कर हँस पड़ा।
अब मंत्री ने
गौर से देखा
तो उसे पहचान
गया और क्षमा
माँगने लगा कि
आपको पहचान न
पाने पर ऐसी
भूल हुई। उसने
कहा, जब मैं
ही इस वेश
में आपको पहचान
नहीं सका तो
और कोई क्या
पहचानेगा। अब आप
बेधड़क बारहदरी की छत
पर जाएँ और
जी भर कर
उस सुंदरी का
गाना सुनें।
खलीफा
मछवाहे के वेश
में और दो
मछलियाँ लिए हुए
ऊपर गया और
दरवाजा खटखटाया। दारोगा ने
पूछा, कौन है?
खलीफा ने दरवाजा
खोल कर बहुत
झुक कर सलाम
किया ताकि पहचाना
न जाए। फिर
वह बोला, मैं
करीम मछवाहा हूँ।
मैंने सुना है
कि आपने अपने
मित्रों की दावत
की है। इसलिए
मैं आपकी सेवा
में दो बहुत
ही उत्तम मछलियाँ
लाया हूँ ताकि
आप मेहमानों को
भली भाँति संतुष्ट
कर सकें। दारोगा
ने नशे में
खलीफा को बिल्कुल
न पहचाना और
बोला, तुम मछवाहे
हो या चोर?
रात में इस
तरह घूमते हो?
खैर, यहाँ आओ
और दिखाओ कि
क्या लाए हो।
खलीफा
मछलियाँ ले गया
तो हुस्न अफरोज
को वे पसंद
आईं। उसने दारोगा
से कहा कि
इन्हें भुनवा दीजिए तो
मजा आ जाए।
दारोगा ने हुक्म
दिया, करीम, फौरन
बावरचीखाने में जाओ
और यह मछलियाँ
भून लाओ। खलीफा
बोला, बहुत अच्छा
सरकार। यह कह
कर नीचे आया
और जाफर और
मसरूर से कहा
कि इन मछलियों
को साफ कर
के भूनना है।
जाफर पाक-शास्त्र
में निपुण था।
चुनांचे तीनों बावरचीखाने में
गए और तेल,
मसाला आदि ढूँढ़
कर मछलियों को
साफ कर के
उन्हें अच्छी तरह प्रकार
से भूना। उन्होंने
कुछ नींबू भी
काट कर मछली
के टुकड़ों के
साथ थालियों में
सजा दिए और
उन्हें ऊपर ले
गए। उन तीनों
ने स्वाद ले
ले कर मछलियाँ
खाईं क्योंकि जाफर
ने बहुत स्वादिष्ट
मछलियाँ बनाई थीं।
हुस्न अफरोज ने
कहा, वास्तव में
मैंने जीवन में
ऐसी स्वादिष्ट मछलियाँ
नहीं खाई थीं।
नूरुद्दीन को भी
मछलियाँ पसंद आईं।
फिर हुस्न अफरोज
की प्रशंसा से
उस पर और
असर पड़ा। उसने
अशर्फियों की थैली
निकाली और मछवाहा
बने हुए खलीफा
को दे कर
कहा, देखो भाई,
मेरे पास जो
कुछ था वह
सब मैंने तुम्हें
दे डाला। काश,
तुम मेरे पास
पहले आए होते
जब मैं वास्तव
में इनाम देने
की हालत में
था। तब तुम
देखते कि में
किस तरह खुश
होने पर इनाम
दिया करता हूँ।
अभी जो मिला
है उसी से
संतोष करो।
खलीफा
ने थैली खोली
तो देखा कि
उसमें चौबीस अशर्फियाँ
हैं। उसे आश्चर्य
हुआ कि यह
कौन ऐसा मनचला
है कि पकी
हुई मछलियों के
लिए चौबीस अशर्फियाँ
दिए डाल रहा
है। उसने कहा,
मालिक, भगवान आप को
युगों-युगों तक
कुशलतापूर्वक और प्रसन्नतापूर्वक
रखे। मैंने अपने
सारे जीवन में
आप जैसा दानवीर
नहीं देखा। अब
आप नाराज न
हों तो एक
निवेदन करूँ। मैंने आपकी
सुंदरी साथिन के पास
बाँसुरी रखी देखी
है। मालूम होता
है कि इसे
बाँसुरी बजाने का शौक
है। मुझे भी
संगीत सुनना बहुत
अच्छा लगता है।
आप आज्ञा दें
तो मैं भी
दो मिनट बैठ
कर इनकी वादन
कला देख लूँ
और फिर आप
लोगों को आशीर्वाद
देता हुआ अपने
घर चला जाऊँ।
नूरुद्दीन
उदारता की धुन
में तो था
ही। उसने हुस्न
अफरोज से कहा,
चलो इस बेचारे
को भी कुछ
सुना दो। इसे
कहाँ गाना-बजाना
सुनने को मिलता
होगा। हुस्न अफरोज
पर भी शराब
का नशा खूब
चढ़ा था, साथ
ही सुस्वादु मछलियाँ
खा कर वह
भी बहुत प्रसन्न
थी। उसने सोचा
कि मैं अपना
पूरा कमाल दिखाऊँ।
उसने बाँसुरी उठाई
और एक साथ
ही बाँसुरी और
मुँह से एक
ही राग इस
कौशल के साथ
निकाला कि दोनों
में एक स्वर
का भी अंतर
नहीं था। खलीफा
ने बहुत प्रशंसा
की। फिर उसने
खाली बाँसुरी पर
एक बड़ा कठिन
राग निकाला।
खलीफा
ने जी खोल
कर प्रशंसा की।
उसने कहा, मालिक,
मैंने ऐसी गुणवंती
नारी कभी नहीं
देखी। इनमें संगीत
निपुणता भी है
और अमृत जैसा
कंठ भी। ऐसा
गुणज्ञ संसार भर में
कोई न होगा।
आप धन्य हैं
कि आपको ऐसी
अनिंद्य सुंदरी और ऐसी
गुणवंती साथिन मिली है।
नूरुद्दीन
की आदत थी
कि अगर कोई
उसकी चीज की
बहुत प्रशंसा करता
था तो वह
चीज उसी को
दे देता था।
हुस्न अफरोज उसकी
दासी थी। उसने
कहा, अगर यह
नारी तुम्हें ऐसी
ही पसंद है
तो इसे ले
जा सकते हो।
मैंने इसे तुम्हें
दे डाला। तुम
संगीत मर्मज्ञ जान
पड़ते हो, इसकी
अच्छी कद्र करोगे।
हुस्न
अफरोज को बड़ी
परेशानी हुई कि
ऐसे सुंदर मालिक
के बजाय मछवाहे
के साथ रहना
पड़ेगा। नूरुद्दीन उठ कर
चलने लगा था।
हुस्न अफरोज ने
आँसू भर कर
कहा, मालिक, चलते-चलते मेरा
एक और गीत
तो सुनते जाओ।
नूरुद्दीन रुक गया।
हुस्न अफरोज ने
छुप कर आँसू
पोंछे और एक
सद्यःरचित वियोग गीत गाने
लगी जिसका अर्थ
यह था कि
मुझे अपने पास
ही रखो, मछवाहे
के हाथ में
न दो। नूरुद्दीन
ने उसका भाव
तो समझ लिया
किंतु वह विवश
हो कर चुप
बैठा रहा, दी
हुई चीज के
लिए कैसे कहता
कि मैं इसे
नहीं दूँगा।
खलीफा
ने आश्चर्य से
पूछा, यह स्त्री
आपकी दासी है?
उसके स्वर में
सहानुभूति पाई तो
नूरुद्दीन ठंडी साँस
भर कर कहने
लगा, करीम, तुम
इतने पर क्या
आश्चर्य करते हो।
मेरी पूरी कहानी
सुनो तो वास्तव
में आश्चर्य में
पड़ जाओगे। यह
कह कर उसने
सारा किस्सा उसे
बताया।
मछवाहे
बने हुए खलीफा
ने कहा, अब
आप कहाँ जाएँगे,
क्या करेंगे? नूरुद्दीन
ने कहा, जो
भी भगवान चाहेगा
वही होगा। खलीफा
ने कहा, आप
कहीं न जाएँ,
वापस बसरा चले
जाएँ। मैं वहाँ
के हाकिम को
एक छोटा-सा
पत्र लिखे देता
हूँ। वह जुबेनी
को दे देना।
इसके बाद तुम्हारे
सारे दुख दूर
हो जाएँगे।
नूरुद्दीन
ठठा कर हँस
पड़ा। बोला, भाई,
तेरा दिमाग तो
ठीक है? कहाँकहाँ
राजा और कहाँ
रंक।। जुबैनी तेरे
पत्र पर क्या
ध्यान देगा? खलीफा
ने कहा, आप
जानते नहीं। जुबैनी
मेरा बचपन का
साथी है। वह
कई बार मुझे
मंत्री बनाने के लिए
बुला चुका है
किंतु मैं उसका
अहसान लेने के
बजाय पैत्रिक धंधा
करना पसंद करता
हूँ। नूरुद्दीन इस
पर पत्र लेने
को तैयार हो
गया। खलीफा ने
कलम और कागज
ले कर इस
प्रकार का पत्र
लिखा :
मैं
मेहँदी का पुत्र
खलीफा हारूँ रशीद
अपने चचेरे भाई
जुबैनी को, जो
बसरा का हाकिम
है, यह आदेश
देता हूँ कि
इस पत्र को
देखते ही मंत्री
खाकान के पुत्र
नूरुद्दीन को, जिसके
हाथों यह पत्र
जा रहा है,
अपनी जगह बसरा
का हाकिम बनाओ
और शासन की
कुरसी पर बिठाओ।
इस आज्ञा का
रंचमात्र भी उल्लंघन
नहीं होना चाहिए।
यह लिख कर
खलीफा ने पत्र
बंद किया और
जाफर को दिया।
उसने चुपचाप खलीफा
की मुहर उस
पर लगा दी।
फिर वह पत्र
नूरुद्दीन को दे
दिया।
यह
ज्ञात रहे कि
खलीफा जिस समय
मछली भूनने गया
था उसी समय
उसने मसरूर से
कहा था कि
मेरे लिए राजमहल
से राजसी पोशाक
ले आना। वह
पोशाक आ गई
थी। खलीफा ने
यह भी कहा
था कि तुम
जीने पर प्रतीक्षा
करना और जब
मैं जीने के
दरवाजे पर हाथ
मारूँ तो तुम
सिपाहियों के साथ
पोशाक ले कर
छत पर आ
जाना।
इधर
बूढ़ा दारोगा नशे
की हालत में
यह सब देख
रहा था। नूरुद्दीन
जब पत्र ले
कर गया तो
हुस्न अफरोज भी
उसके पीछे रोती
हुई जीने के
दरवाजे तक गई
और फिर लौट
आई। दारोगा ने
खलीफा से कहा,
करीम, तू एक-दो कौड़ी
का मछवाहा है।
तेरी दो मछलियों
का मूल्य दो-चार आने
से अधिक नहीं।
इनके बदले में
तूने इतनी अशर्फियाँ
और ऐसी सुंदर
और गुणवंती दासी
पाई। तू यह
सब अकेले हजम
नहीं कर सकेगा।
इनमें से आधा
मुझे दे दे
वरना मैं तुझे
बड़ी मुसीबत में
फँसा दूँगा। खलीफा
ने कहा, मुझे
थैली में नहीं
मालूम अशर्फियाँ हैं
या कुछ और।
चलो जो भी
होगा आधा-आधा
बाँट लेंगे। लेकिन
तुम इस लौंडी
में हिस्सा पाने
की आशा छोड़
दो। यह मुझे
मिली है और
मैं इसे अपने
पास रखूँगा। अब
इसमें चाहे आप
खुश हों या
नाखुश।
दारोगा
नशे में तो
था ही, तथाकथित
मछवाहे की इस
बात पर उसे
इतना क्रोध आया
कि उसने एक
चीनी की तश्तरी
फेंक कर खलीफा
के सर पर
मारी। खलीफा सिर
टेढ़ा कर के
चोट से बच
गया और तश्तरी
दीवार से टकरा
कर टूट गई।
दारोगा इस बात
से और आगबबूला
हुआ और रोशनी
ले कर एक
कोठरी में गया
ताकि वहाँ से
लकड़ी ला कर
मछवाहे को मारे।
इसी बीच खलीफा
ने जीने के
किवाड़ पर हाथ
मारा। इस पर
मसरूर और चार
गुलाम छत पर
आ गए। वहाँ
एक छोटा सिंहासन
भी पड़ा था।
खलीफा राजसी वस्त्र
पहन कर उस
पर जा बैठा
और उसके पीछे
चारों गुलाम और
बगल में एक
ओर जाफर और
दूसरी ओर मसरूर
खड़े हो गए।
बारहदरी की छत
पर छोटा-मोटा
दरबार लग गया।
उधर
बूढ़ा एक मोटी
लाठी ले कर
आया और मछवाहे
को ढूँढ़ने लगा।
उसे मछवाहा न
दिखाई दिया बल्कि
खलीफा तख्त पर
बैठा दिखाई दिया।
वह आँखें मल-मल कर
देखने लगा कि
यह स्वप्न है
या सत्य। कुछ
क्षणों के बाद
खलीफा बोला, बड़े
मियाँ, क्या बात
है? क्यों घबराहट
में इधर-उधर
देख रहे हो?
अब बूढ़े ने
पहचाना कि खलीफा
ही मछवाहा बना
हुआ था। वह
उसके पाँवों पर
गिर पड़ा और
अपनी दाढ़ी खलीफा
की जूतियों पर
मल-मल कर
अपने अपराध के
लिए क्षमा माँगने
लगा। खलीफा ने
कहा, तुम्हारे एक
नहीं, कई अपराध
हैं। बाग को
खुला छोड़ दिया,
अजनबियों के साथ
शराब पी, दूसरे
को मिली चीज
में हिस्सा बँटाने
लगे और न
मिलने पर मार-पीट पर
उतारू हो गए।
लेकिन मुझे तुम्हारे
बुढ़ापे और तुम्हारे
सारे जीवन के
सदाचार का ख्याल
है इसलिए मैं
तुम्हारे सारे अपराध
क्षमा करता हूँ।
लेकिन आगे से
होशियार रहना।
अब
हुस्न अफरोज समझ
गई कि यह
बाग का मालिक
स्वयं खलीफा है।
उसे इस बात
से बड़ा संतोष
मिला कि किसी
मछवाहे के हाथ
नहीं दी गई।
खलीफा ने उससे
कहा, अब तो
तुम्हें मालूम ही हो
गया होगा कि
मैं कौन हूँ।
मैंने संसार भर
में नूरुद्दीन से
बढ़ कर बड़े
दिलवाला कोई आदमी
नहीं देखा जो
केवल प्रशंसा करने
पर अपनी सब
से प्यारी चीज
दे डाले। मैंने
पत्र द्वारा उसे
बसरा का हाकिम
नियुक्त किया है।
जब वह अपना
काम सँभाल लेगा
तो मैं तुम्हें
भी उसके पास
भेज दूँगा। तब
तक तुम मेरे
महल में रहोगी।
यह सुन कर
हुस्न अफरोज की
खुशी का ठिकाना
नहीं रहा। खलीफा
उसे ले कर
महल में आया।
दूसरे दिन उसने
हुस्न अफरोज को
अपनी रानी जुबैदा
के हाथ में
सौंपा और कहा
कि इसका ख्याल
रखना, यह बसरा
के नए हाकिम
नूरुद्दीन की स्त्री
है और कुछ
दिनों बाद इसे
उसी के पास
भेजना है।
इधर
नूरुद्दीन एक जहाज
में बैठ कर,
जो उसी समय
छूट रहा था,
बसरा पहुँचा और
अपने किसी मित्र
या परिचित से
मिले बगैर सीधे
हाकिम जुबैनी के
पास पहुँचा। वह
उस समय मुकदमों
के फैसले कर
रहा था। नूरुद्दीन
बेधड़क उसके पास
पहुँचा और कहा,
आपके पुराने मित्र
ने यह पत्र
आप के लिए
दिया है। जुबैनी
ने खलीफा की
हस्तलिपि देख कर
पत्र को चूमा
और मंत्री सूएखाकान
से उसे पढ़ने
के लिए कहा।
मंत्री ने पत्र
देखा तो उसकी
जान निकल गई।
उसने प्रकाश में
अच्छी तरह पत्र
पढ़ने के बहाने
बाहर आ कर
खलीफा की मुहरवाला
लिफाफे का भाग
दाँतों से कुतर
कर खा लिया।
वापस दरबार में
आ कर कहा
कि इस पत्र
में नूरुद्दीन को
बसरा का हाकिम
बनाने को लिखा
है किंतु यह
पत्र जाली मालूम
होता है। उसने
कहा, सरकार, मुझे
ऐसा मालूम होता
है कि नूरुद्दीन
ने मुझसे और
आपसे अपने अपमान
का बदला लेने
के लिए यह
ढोंग रचा है।
इसने खलीफा से
हम लोगों की
शिकायत जरूर की
होगी किंतु खलीफा
बच्चा तो है
नहीं जो बहकावे
में आ जाए।
वह ज्यादा से
ज्यादा यह लिखता
कि इसे दंड
न दो या
कोई नौकरी दे
दो। ऐसे निठल्ले
आदमी को वह
बसरे का हाकिम
किस तरह बना
देगा?
उसने
यह भी कहा
कि आप नूरुद्दीन
को मेरे सुपुर्द
कर दीजिए, मैं
खोज कर के
असल तथ्य का
पता लगाऊँगा। जुबैनी
भी क्यों आसानी
से अपना पद
देता। उसने सूएखाकान
की बात मंजूर
कर ली। सूएखाकान
नूरुद्दीन को अपने
भवन में लाया।
वह उसकी जान
का प्यासा हो
ही रहा था।
चुनांचे उसने नूरुद्दीन
को इतना पिटवाया
कि वह बेहोश
हो कर गिर
गया और मरने
के समीप हो
गया। फिर उसने
उसे एक तंग
कोठरी में बंद
कर दिया और
उस पर कड़ा
पहरा बिठा दिया
और आदेश दिया
कि इसे दिन
में सिर्फ एक
बार कुछ रोटी
के टुकड़े और
पानी दिया जाए,
इससे अधिक कुछ
न दिया जाए।
नूरुद्दीन
को होश आया
तो देखा कि
उसे एक सीली,
दुर्गंधपूर्ण और ऐसी
तंग कोठरी में
बंद किया गया
है जिसमें वह
हिल-डुल भी
नहीं सकता। उसे
यह तो मालूम
ही नहीं था
कि जुबैनी के
नाम पत्र में
क्या लिखा था।
वह रो-रो
कर कहने लगा,
वाह रे मछवाहे!
मैंने तो तुझे
अपना सब कुछ
दे डाला। अशर्फियों
के साथ अपनी
प्राणों से भी
प्यारी दासी भी
दे डाली। और
तूने मेरे इस
उपकार का बदला
इस प्रकार दिया।
भगवान तुझे तेरी
इस दुष्टता के
लिए कभी क्षमा
नहीं करेगा। मैं
भी कैसा नादान
हूँ कि उस
मछवाहे के कहने
में आ गया।
सूएखाकान
ने नूरुद्दीन को
छह दिन तक
ऐसे ही कष्ट
में रखा। वह
चाहता तो था
कि नूरुद्दीन का
प्राणांत हो जाए
किंतु उसकी हिम्मत
उसे अपने घर
में मारने की
नहीं हो रही
थी, वह उसे
हाकिम ही से
मृत्युदंड दिलाना चाहता था।
सातवें दिन उसने
अच्छी-अच्छी चीजों
की टोकरियाँ नौकरों
के सिर पर
लदवाईं और जुबैनी
के सामने पेश
कीं। उसने पूछा
यह क्या है,
तो सूएखाकान ने
कुटिलतापूर्वक कहा, यह
बसरे के नए
हाकिम ने आप
के पास भेजा
है ताकि इनके
बदले आप उसे
बसरे का हाकिम
बनाएँ। इससे जुबैनी
को बड़ा गुस्सा
आया। उसने कहा,
वह अभी जिंदा
है? मैंने समझा
था कि तुमने
उसे मार डाला
होगा। मंत्री ने
कहा, मुझे किसी
को प्राणदंड देने
का अधिकार नहीं
है। जुबैनी ने
कहा, मैं आज्ञा
देता हूँ कि
तुम उसकी गर्दन
उतारो। कमबख्त मुझसे मजाक
करता है? सूएखाकान
ने कहा, आपकी
आज्ञा सिर-आँखों
पर किंतु मैं
चाहता हूँ कि
वह सर्वसाधारण के
सामने मारा जाए,
तभी मैं उससे
उस सार्वजनिक अपमान
का बदला लूँगा
जो उसने किया
है।
जुबैनी
ने मान लिया।
शहर में मुनादी
की गई कि
कल नूरुद्दीन की,
जिसने मंत्री का
खुलेआम अपमान किया था,
अमुक स्थान पर
गरदन काटी जाएगी।
सुएखाकान उसे अत्यंत
अपमानपूर्वक अंधे, बेजीन के
घोड़े पर बिठा
कर वधस्थल पर
लाया। नूरुद्दीन ने
कहा, बुड्ढे खबीस,
तू मुझ निर्दोष
को झूठ और
छल से अपमानपूर्वक
मरवा रहा है।
मगर याद रखना
कि भगवान निर्दोष
व्यक्ति का खून
बहानेवाले आदमी को
कभी क्षमा नहीं
करता। सूएखाकान दाँत
पीस कर बोला,
दुष्ट, तू इस
तरह से मेरा
सब लोगों के
सामने अपमान कर
रहा है? खैर,
इसकी सजा क्या
दी जाए। तुझे
तो सबसे बड़ी
सजा मिलनेवाली है।
नूरुद्दीन
को महल से
लगे एक बड़े
मैदान में पहुँचा
दिया गया जहाँ
लोगों को आम
जनता के सामने
मारा जाता था।
जल्लाद ने कहा,
मुझे आपके पिता
का जमाना याद
है। मैं आपका
सेवक हूँ किंतु
इस समय मेरा
कर्तव्य आपको मारना
है। आपकी कुछ
अंतिम इच्छा हो
तो कहें। नूरुद्दीन
ने कहा कि
मुझे पानी पीना
है। जल्लाद ने
एक आदमी से
पानी मँगाया और
नूरुद्दीन पीने लगा।
सूएखाकान
जल्लाद पर बिगड़ने
लगा कि देर
क्यों कर रहा
है, तुरंत ही
इसकी गरदन क्यों
नहीं काट देता।
जो लोग वहाँ
मौजूद थे वे
मंत्री की कठोरता
पर उसे बुरा-भला कहने
लगे किंतु उस
पर कुछ प्रभाव
न हुआ। जल्लाद
ने देखा कि
मंत्री नाराज हो रहा
है तो उसने
तलवार निकाली। वह
वार करना ही
चाहता था कि
जुबैनी ने महल
की खिड़की से
सिर निकाल कर
कहा, अभी इसे
न मारो। मुझे
दिखाई देता है
एक बड़ी फौज
चली आ रही
है, पहले मालूम
तो हो कि
यह क्या मामला
है। सूएखाकान चाहता
था कि नूरुद्दीन
जल्दी से जल्दी
मारा जाए। उसने
कहा, यह धूल
तो उन लोगों
के आने से
उठी है जो
इस पापी के
मारने का तमाशा
देखने आ रहे
हैं। आप जल्लाद
को आज्ञा दें
कि वह तुरंत
अपना काम करें।
जुबैनी बोला, नहीं, यह
सेना ही है।
अभी जल्लाद हाथ
रोके रहे। मैं
पहले पता तो
लगाऊँ कि कौन
आ रहा है।
हुआ
यह था कि
हुस्न अफरोज को
अपनी मलिका के
पास भेज कर
खलीफा उसके और
नूरुद्दीन के बारे
में भूल गया
था। दो-चार
दिन बाद उसने
अपने महल में
एक दुखभरे गाने
की आवाज सुनी।
उसे
आश्चर्य हुआ कि
इतना दुखी हो
कर कौन गा
रहा है। पुछवाया
तो सेवकों ने
बताया कि यह
नूरुद्दीन की दासी
है जिसे आपने
आश्रय दिया था,
वही नूरुद्दीन के
वियोग में विरह-गीत गा
रही है। मंत्री
जाफर को बुला
कर कहा, नूरुद्दीन
के मामले में
देर नहीं होनी
चाहिए। तुम मेरी
सनद और हुक्मनामा
ले कर फौज
के साथ खुद
जाओ। अगर सूएखाकान
ने दुरभिसंधि कर
के नूरुद्दीन को
मरवा डाला हो
तो तुम फौरन
उसे मरवा डालना।
अगर नूरुद्दीन जिंदा
हो तो तुरंत
उसे और जुबैनी
को मेरे पास
ले आओ। मैं
इस संबंध में
सारे फरमान लिखवा
कर देता हूँ।
नूरुद्दीन
के सौभाग्य से
जाफर ठीक उसी
समय पहुँचा जब
जल्लाद नूरुद्दीन को मारने
ही वाला था।
उसकी सेना नगर
में आई तो
लोगों ने सत्कारपूर्वक
उसे रास्ता दिया।
जाफर जुबैनी के
दरबार में पहुँचा।
जुबैनी उसके सम्मानार्थ
अपने तख्त से
उतर कर स्वागत
के लिए दरवाजे
तक आया। जाफर
ने पूछा, नूरुद्दीन
का क्या हाल
है? उसे मरवा
तो नहीं डाला?
अगर वह जिंदा
है तो उसे
तुरंत मेरे सामने
लाओ। नूरुद्दीन उसी
तरह बँधा-बँधाया
लाया गया। जाफर
ने उसकी रस्सी
खुलवाई और खलीफा
का फरमान दिखा
कर सूएखाकान को
उसी रस्सी में
बँधवाया।
जाफर
उस दिन तो
वहीं ठहरा। दूसरे
दिन नूरुद्दीन, जुबैनी
और बंदी अवस्था
में सूएखाकान को
ले कर बगदाद
की ओर चल
पड़ा। वहाँ पहुँचने
पर उसने और
जुबैनी ने खलीफा
से सारी कहानी
कही। खलीफा ने
कहा, नूरुद्दीन, तुम
पर भगवान की
असीम कृपा है।
जाफर को पहुँचने
में थोड़ी भी
देर हो जाती
तो तुम मारे
जाते। अब तुम
अपने इस पुराने
दुश्मन को अपने
हाथ से मारो।
नूरुद्दीन
ने खलीफा के
सामने की भूमि
को चूम कर
कहा, सरकार, इसमें
संदेह नहीं कि
यह मेरा पुराना
शत्रु है किंतु
यह इतना बड़ा
पापी है कि
मैं इसके खून
से अपने हाथ
रँगना नहीं चाहता।
आप मुझे इस
बारे में माफी
दें। खलीफा ने
मुस्कुरा कर कहा,
तुम सचमुच बड़े
सुसंस्कृत आदमी हो।
नहीं चाहते तो
इसे न मारो।
यह कह कर
उसने जल्लाद को
इशारा किया और
जल्लाद ने तुरंत
ही सूएखाकान का
सिर उसके धड़
से अलग कर
दिया। नूरुद्दीन को
बसरा का हाकिम
बनाने की बात
पर वह बोला,
सरकार, आप की
बड़ी कृपा है
किंतु मैं उस
मनहूस शहर में
नहीं जाना चाहता।
मुझे अपने चरणों
ही में रहने
की अनुमति दीजिए।
खलीफा
ने उसकी बात
मान ली। उसे
एक बड़ी जागीर
और विशाल भवन
दे कर अपना
दरबारी बना लिया
और हुस्न अफरोज
को उसे दे
दिया। खलीफा जुबैनी
से भी नाराज
था कि उसने
पहली आज्ञा क्यों
नहीं मानी। किंतु
जाफर ने उसकी
सिफारिश की कि
इसी ने अंत
समय में नूरुद्दीन
की हत्या रुकवाई।
अतएव खलीफा ने
उसका पद उसे
वापस दे दिया।
दुनियाजाद
ने कहा, बहन,
बहुत ही बढ़िया
कहानी कही। तुम्हें
तो बहुत अच्छी
कहानियाँ आती हैं।
कोई और कहानी
कहो ना। बादशाह
शहरयार ने भी
अपने मौन द्वारा
दुनियाजाद की बात
का समर्थन किया
और शहजाद ने
अगली कहानी आरंभ
कर दी।
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