(पिछिली पोस्ट से जारी……)
कमरुज्जमाँ
उतनी जल्दी न
जा सका क्योंकि
माली का रोग
बढ़ता गया और
दूसरे दिन वह
मर गया। कमरुज्जमाँ
उसकी लाश को
वैसे छोड़ कर
नहीं जा सकता
था। उसने वहाँ
के नागरिकों को
इकट्ठा किया और
उसे नहला-धुला
कर उसका अंतिम
संस्कार करवाने में कमरुज्जमाँ
को कुछ अधिक
समय लग गया।
इससे निश्चिंत हो
कर उसने बाग
को ताला लगा
कर उसकी चाबी
अपनी जेब में
रखी और फिर
समुद्र तट पर
देखने गया कि
जहाज है या
चला गया। जहाज
वास्तव में उसके
स्वर्ण चूर्ण से भरे
पात्र ले कर
जा चुका था।
कमरुज्जमाँ को बहुत
खेद हुआ किंतु
हो ही क्या
सकता था। उसने
कुछ और हाँडियाँ
खरीदीं और माली
के हिस्से का
स्वर्ण चूर्ण उनमें भर
कर उनमें ऊपर
से जैतून का
तेल रख दिया।
इन्हें सुरक्षित स्थान में
रख कर उसने
बाग के मालिक
को चाबी देने
के बजाय खुद
बाग में रहने
लगा और माली
की जगह स्वयं
उसकी देखभाल करने
लगा क्योंकि अब
तो उसे एक
साल और काटना
ही था।
उधर
वह जहाज अनुकूल
वायु पा कर
शीघ्र ही अवौनी
देश में पहुँचा।
बदौरा हर नए
जहाज को देखती
थी कि शायद
उसका पति उसमें
आया हो। इस
जहाज को भी
देखने पहुँची। उसने
बहाना बनाया कि
मुझे जहाज से
कुछ व्यापार की
वस्तुएँ खरीदनी हैं। उसने
जा कर जहाज
के कप्तान से
पूछा कि तुम
कहाँ से आ
रहे हो और
जहाज में क्या-
क्या माल है।
कप्तान ने कहा
कि जहाज पर
हमेशा यात्रा करनेवाले
व्यापारी ही हैं
और माल भी
वही है जिसे
यह जहाज साधारण
तौर पर लाता
है। अर्थात सादा
और छपाईदार कपड़ा,
जवाहिरात, सुगंधियाँ, कपूर, केसर,
जैतून आदि। बदौरा
को जैतून बहुत
पसंद था। उसने
कहा कि मुझे
तुम्हारा सारा जैतून
और उसका तेल
चाहिए और उसका
मुँह माँगा दाम
दे दिया जाएगा,
सारा जैतून अभी
उतरवाओ।
कप्तान
ने सारा जैतून
उतरवाया। और माल
के दाम तो
व्यापारियों को वहीं
दे दिए किंतु
कप्तान ने कहा
कि एक व्यापारी
पीछे छूट गया
है, उसकी जैतून
के तेल से
भरी पचास हाँडियाँ
भी मेरे पास
हैं। बदौरा ने
कहा, मुझे वह
भी खरीदना है,
तुम इसका दाम
अगली बार जाने
पर उस व्यापारी
को दे देना।
उसने उस माल
का दाम भी
पूछा। कप्तान ने
कहा कि वह
बहुत छोटा व्यापारी
था, आप इस
माल के साढ़े
चार हजार रुपए
दे दें। बदौरा
ने कहा, नहीं,
जैतून के तेल
के भाव ऊँचे
हैं। तुम्हें इसके
लिए नौ हजार
रुपए मिलेंगे जो
तुम इसके मालिक
को अपना किराया
काट कर दे
देना। किसी निर्धन
व्यापारी की अनुपस्थिति
का अनुचित लाभ
उठाना ठीक नहीं
है।
बदौरा
के सुपुर्द वे
हाँडियाँ कर के
जहाज के कप्तान
ने अन्य व्यापारियों
का माल उतरवाया।
बदौरा हाँडियों को
महल में ले
गई और उन्हें
खोल कर देखने
लगी। उसे यह
देख कर बड़ा
आश्चर्य हुआ कि
आधी-आधी हाँडियाँ
स्वर्ण-चूर्ण से भरी
थीं। एक हाँडी
की तह में
उसे वही यंत्र
मिला जिसके साथ
उसका पति गायब
हो गया था।
वह उसे देख
कर अचेत हो
गई। दासियों ने
बेदमुश्क का अरक
और अन्य दवाएँ
छिड़क कर उसे
प्रकृतस्थ किया। होश में
आने पर वह
बहुत देर तक
उस यंत्र को
चूमती और आँखों
से लगाती रही।
उसने दासियों के
सामने तो कुछ
न कहा किंतु
अपनी सहेली यानी
अवौनी की शहजादी
को एकांत में
जैतून के तेल
की हाँडियों, स्वर्ण
चूर्ण और मणि
पर अंकित यंत्र
का हाल बताया
और कहा कि
अब मुझे आशा
हो गई है
कि जिस प्रकार
मेरे हाथ यह
यंत्र वापस आया
है उसी प्रकार
मेरा पति भी
वापस आएगा।
दूसरे
दिन बदौरा फिर
समुद्र तट पर
गई और उसने
उस जहाज के
कप्तान को बुला
भेजा और उसे
उस व्यापारी का
विस्तृत हाल पूछा
जिसकी जैतून के
तेल की हाँडियाँ
थीं। कप्तान ने
उसे बताया वह
है तो मुसलमान
किंतु प्रस्तर पूजकों
के देश में
रहता है। वह
एक बूढ़े माली
के साथ रहता
है और उसी
के साथ बाग
में काम करता
है। मैंने स्वयं
बाग में उससे
भेंट की थी।
उसने कहा था
कि मेरा माल
जहाज पर ले
चलो और कुछ
समय के पीछे
मैं भी आता
हूँ। मैंने दो-तीन दिन
तक उसकी प्रतीक्षा
की किंतु न
मालूम क्या कारण
हो गया कि
वह नहीं आया।
मैंने मजबूरी में
जहाज का लंगर
उठा दिया क्योंकि
बाद में अनुकूल
वायु न रहती।
अब
बदौरा ने अपने
युवराज और मंत्री
होने के अधिकार
का प्रयोग किया।
उसने सारे व्यापारियों
और कप्तान का
माल जहाज से
उतरवा कर जब्त
कर लिया और
कप्तान से बोली,
तुम्हें नहीं मालूम
कि उस आदमी
को न ला
कर तुमने कितना
बड़ा अपराध किया
है। मुझे खजांची
से मालूम हुआ
कि वह आदमी
हमारा लाखों का
देनदार है और
भगा हुआ है।
तुम तुरंत ही
जहाज को वापस
ले जाओ और
उस व्यक्ति को
ले कर मेरे
सुपुर्द करो। जब
तक तुम यह
न करोगे तुम्हारा
और अन्य व्यापारियों
का माल नहीं
छोड़ा जाएगा। यह
भी समझ लो
कि अगर तुम
उसे यहाँ न
लाए तो तुम्हें
कठोर दंड दिया
जाएगा। अब देर
न करो, तुरंत
प्रस्तर पूजकों के देश
की ओर रवाना
हो जाओ क्योंकि
उधर जाने के
लिए वायु अनुकूल
है।
कप्तान
बेचारा जहाज ले
कर तुरंत ही
प्रस्तर पूजकों के देश
की ओर चल
दिया। कुछ ही
दिनों में वह
वहाँ पहुँच गया।
उसने जहाज का
लंगर डाला और
एक नाव पर
कुछ खलासियों को
ले कर बैठा
तो तट पर
उतरा। बाग बस्ती
के किनारे था।
वहाँ जा कर
उसने आवाज दी
कि दरवाजा खोलो।
कमरुज्जमाँ कई रातों
से बदौरा की
याद और माली
की मृत्यु से
दुखी हो कर
ठीक से सोया
नहीं था। वह
इस समय सो
रहा था। लगातार
आवाजों और दरवाजा
भड़भड़ाए जाने से
वह उठा और
द्वार खोल कर
उसने पूछा कि
क्या बात है,
तुम लोग क्यों
शोर कर रहे
हो। कप्तान और
उसके साथ के
खलासियों ने इसकी
बात का कोई
उत्तर न दिया।
वे एक साथ
उस पर टूट
पड़े और उसके
लाख चीख-पुकार
करने पर भी
वे लोग उसे
अपने जहाज पर
ले गए और
यह काम पूरा
होते ही उन्होंने
जहाज का लंगर
उठा दिया।
जब
जहाज चल पड़ा
तो कमरुज्जमाँ से
पूछा कि अब
तो मुझे बताओ
कि मेरा कसूर
क्या है, तुमने
मुझे पकड़ कर
क्यों जहाज पर
चढ़ाया है और
अब मुझे कहाँ
लिए जा रहे
हो। कप्तान ने
कहा कि तुम
पर अवौनी के
बादशाह का लाखों
का कर्ज है
और हमें आदेश
है कि तुम्हें
पकड़ कर शीघ्रातिशीघ्र
अवौनी के बादशाह
के सामने पेश
करें। कमरुज्जमाँ ने
कहा, भाई, जरूर
उसे कोई भ्रम
हुआ है। मैंने
कभी उस बादशाह
की सूरत भी
नहीं देखी है।
यह कैसे संभव
है कि मैंने
उसका लाखों का
ॠण लिया हो?
कप्तान ने कहा,
हम तो उस
बादशाह के आदेश
का पालन मात्र
कर रहे हैं।
हम तुम्हारे साथ
होनेवाले न्याय-अन्याय का
फैसला नहीं कर
सकते। किंतु मैं
तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ
कि वह बादशाह
बहुत ही न्यायप्रिय
है और यदि
उसने वास्तव में
भ्रमवश ही तुम्हें
गिरफ्तार करने का
आदेश दिया है
और तुम वास्तव
में निरपराध हो
तो विश्वास रखो
कि तुम्हारे साथ
पूरा न्याय किया
जाएगा और तुम्हें
कोई दुख नहीं
पहुँचेगा। कम से
कम यात्रा के
दौरान तुम्हारी सुख-सुविधा का पूरा
ध्यान रखा जाएगा
क्योंकि इसके लिए
मुझे आदेश मिला
है।
जहाज
कुछ ही दिनों
में अवौनी द्वीप
में पहुँच गया।
कप्तान ने तट
पर पहुँचते ही
युवराज बनी हुई
बदौरा को समाचार
भिजवाया कि आपका
देनदार कैदी आ
गया है। कुछ
देर में वह
खलासियों के बीच
घिरे हुए कमरुज्जमाँ
को ले कर
युवराज के पास
पहुँचा। बदौरा उसे मैले-कुचैले और फटे-पुराने कपड़ों में
देख कर दुखी
हुई। उसका जी
चाहा कि दौड़
कर पति से
लिपट जाए किंतु
यह सोच कर
रुक गई कि
सब लोगों के
सामने रहस्योद्घाटन ठीक
न होगा।
उसने
कमरुज्जमाँ को एक
सरदार को सौंपा
और कहा कि
इसे नहला-धुला
कर ठीक तरह
के कपड़े पहनाओ
और कल सुबह
मेरे पास लाओ।
दूसरे दिन जब
कमरुज्जमाँ को उसके
पास भेजा गया
तो बदौरा ने
कप्तान और व्यापारियों
का सारा माल
वापस कर दिया
और साथ ही
कप्तान को खिलअत
(सम्मान वस्त्र) और ढाई
हजार रुपए का
पारितोषिक भी दिया।
उसने कमरुज्जमाँ को
भी एक उच्च
राजपद दिया और
हमेशा उसे अपने
साथ रखने लगी।
कमरुज्जमाँ बिल्कुल न पहचान
सका कि यही
उसकी पत्नी हैं
और उसे अपने
कृपालु स्वामी की तरह
मानता रहा।
एक
रात को बदौरा
ने उसे यंत्रयुक्त
मणि दिखा कर
कहा, तुम तो
बहुत-सी विद्याएँ
जानते हो, इसे
देख कर बताओ
कि यह क्या
चीज है और
इसे अपने पास
रखने का फल
श्रेष्ठ होगा या
नेष्ट। कमरुज्जमाँ को वह
यंत्र देख कर
बड़ा आश्चर्य हुआ
कि वह इस
जगह कैसे आ
गया। उसने कहा,
मेरे मालिक, यह
चीज बहुत ही
अशुभ है। यह
पहले मेरे हाथ
आई और इसके
कारण मुझ पर
बड़ी-बड़ी मुसीबतें
आईं और इसने
लगभग अधमुआ कर
दिया। इसी के
कारण मेरी पत्नी
मुझसे छूट गई
जिसके वियोग में
मैं रात-दिन
तड़पता रहता हूँ।
अगर मैं आप
को पूरी कहानी
सुनाऊँ तो आप
को भी मुझ
पर दया आएगी।
बदौरा
ने कहा, तुम्हारी
कहानी को विस्तारपूर्वक
बाद में सुना
जाएगा। अभी तुम
कुछ देर यहीं
पर मेरी प्रतीक्षा
करो। मुझे कुछ
देर के लिए
विशेष काम है।
यह कह कर
वह अंदरवाले कमरे
में चली गई।
वहाँ जा कर
उसने रानियों जैसे
वस्त्र पहने और
कमर में वही
पटका बाँधा जिस
में से खोल
कर कमरुज्जमाँ उसका
बटुआ ले गया
था और फिर
से बटुए में
से यंत्रखचित मणि
को निकाल कर
देखने लगा था
जिसके बाद पक्षी
उसे ले भाग
था।
कमरुज्जमाँ
ने इस वेश
में अपनी पत्नी
को पहचान लिया
और दौड़ कर
उसे अपनी बाँहों
में भर लिया।
वह कहने लगा,
यहाँ के युवराज
की सेवा मुझे
कितनी फली कि
इतने समय बाद
मैं अपनी प्राणप्रिया
से मिल सका
हूँ। बदौरा हँस
कर कहने लगी,
युवराज को भूल
जाओ। वह तुम्हें
अब दिखाई न
देगा क्योंकि मैं
ही युवराज बनी
हुई थी। यह
कहने के बाद
उसने कमरुज्जमाँ से
बिछुड़ने के दिन
से लेर उस
दिन तक का
पूरा हाल कहा।
कमरुज्जमाँ ने भी
विस्तार से बताया
कि उस दिन
से ले कर
यहाँ आने तक
मुझ पर क्या
बीती। इसके बाद
वे दोनों पलंग
पर जा कर
आराम से एक-दूसरे की बाँहों
में निद्रामग्न हो
गए। सुबह बदौरा
ने नहा-धो
कर जनानी पोशाक
पहनी और अवौनी
के बादशाह को
अपने महल में
बुला भेजा।
बादशाह
को अपने दामाद
के बजाय एक
सुंदरी को देख
कर बड़ा आश्चर्य
हुआ। उसने कहा,
बेटी, तुम कौन
हो? और मेरा
दामाद कहाँ गया
है? बदौरा मुस्करा
कर बोली, पृथ्वीनाथ,
मैं कल तक
आपका दामाद और
इस राज्य का
युवराज थी। आज
मैं चीन के
बादशाह की बेटी
और खलदान देश
के राजकुमार की
पत्नी हूँ। आप
कृपया धैर्यपूर्वक मेरा
वृत्तांत सुनें जो बड़ा
ही विचित्र है।
फिर उसने अपनी
कहानी आद्योपांत कही
और अंत में
कहा, हम सब
मुसलमान हैं। हमारे
धर्म में कोई
भी पुरुष दूसरा
विवाह करता है
तो उसकी पहली
पत्नी के मन
में ईर्ष्या जागती
है। मैं शहजादे
की पहली पत्नी
हूँ। मैं स्वयं
आप से प्रार्थना
कर रही हूँ
कि अपनी बेटी
को मेरे पति
से ब्याह दें।
उसका मेरे साथ
जो विवाह हुआ
था वह झूठा
था।
बादशाह
को यह सुन
कर आश्चर्य हुआ।
उसने कमरुज्जमाँ को
देखने की इच्छा
की। बदौरा ने
उसे ला कर
उपस्थित किया। बादशाह उसे
देख कर खुश
हुआ और बोला,
बेटे, अभी तक
हम इसे अपना
दामाद मानते थे।
हमें नहीं मालूम
था कि यह
तुम्हारी पत्नी और चीन
देश की राजकुमारी
है। अब मैं
तुम्हें दामाद बनाना चाहता
हूँ। तुम्हारी पत्नी
की भी यही
इच्छा है। तुम्हें
आपत्ति न हो
तो मैं अपनी
बेटी ह्यातुन्नफ्स का
विवाह तुम्हारे साथ
कर दूँ। तुम
उससे शादी कर
के इस राज्य
का शासन सँभालो।
कमरुज्जमाँ
ने कहा, चाहता
तो मैं यह
था कि अपने
देश को जाऊँ
किंतु आपकी और
बदौरा की जो
इच्छा होगी उसे
मैं अवश्य पूरा
करूँगा। अतएव उसका
विवाह धूमधाम के
साथ अबौनी की
शहजादी के साथ
हो गया और
दोनों स्त्रियाँ आपस
में मिलजुल कर
प्रेमपूर्वक रहने लगीं।
कमरुज्जमाँ बारी-बारी
से दोनों के
पास जाता और
विहार करता और
किसी पत्नी को
दूसरी पत्नी के
विरुद्ध शिकायत का मौका
नहीं देता था।
भगवान
की दया से
एक ही वर्ष
में उन दोनों
को एक-एक
पुत्र की प्राप्ति
हुई। कमरुज्जमाँ ने
उनके जन्मोत्सव पर
लाखों रुपया खर्च
किया। बदौरा के
पुत्र का नाम
रखा गया अमजद
और अबौनी की
शहजादी के बेटे
का नाम असद
हुआ। दोनों भाई
बड़े हुए तो
उन्हें कई योग्य
शिक्षकों से प्रत्येक
विषय की शिक्षा
दिलवाई गई। बचपन
में तो वे
एक साथ खेले-कूदे ही
थे, बड़े होने
पर भी उनकी
परस्पर प्रीति और बढ़ी।
उन्होंने इच्छा प्रकट की
कि हमें अपनी
माताओं के पृथक-पृथक महलों
में न रखा
जाए बल्कि एक
अलग महल में
दोनों को एक
साथ रखा जाए।
कमरुज्जमाँ ने यह
बात मान ली।
जब
वे उन्नीस वर्ष
के हुए और
राज्य प्रबंध सँभालने
योग्य हुए तो
कमरुज्जमाँ ने तय
किया कि जब
वह खुद शिकार
के लिए जाया
करें तो बारी-बारी से
दोनों शहजादों के
सुपुर्द राज्य प्रबंध कर
जाया करे। एक
खास बात यह
थी कि दोनों
रानियाँ अपने सगे
बेटों से सौतेले
बेटों को अधिक
चाहती थीं यानी
बदौरा को असद
अधिक प्रिय था
और ह्यातुन्नफ्स को
अमजद। वे दोनों
भी अपनी माताओं
से अधिक विमाताओं
को मानते थे।
किंतु यही बात
आगे जा कर
स्त्रियों के वैमनस्य
का कारण बन
गई। दोनों यह
चाहने लगीं कि
अपने पुत्रों का
मन उनकी विमाताओं
यानी अपनी सौतों
की ओर से
फेर दें। एक
दिन बदौरा का
पुत्र अमदज राजसभा
से उठ कर
अपने महल को
जा रहा था
कि एक गुलाम
ने उसे एक
पत्र दिया जो
उसकी विमाता ने
लिखा था। यह
पत्र पढ़ कर
उसे ऐसा क्रोध
चढ़ा कि उसने
तलवार निकाल कर
गुलाम के दो
टुकड़े कर दिए।
उसने पत्र अपनी
माँ बदौरा को
दिखाया। वह भी
उसे पढ़ कर
बहुत बिगड़ी और
कहने लगी कि
ह्यातुन्नफ्स ने मेरे
बारे में जो
लिखा है बिल्कुल
बकवास है, और
तुम भी अब
मेरे सामने न
आओ।
अमजद
ने अपने महल
में जा कर
सारा हाल अपने
भाई असद से
कहा। उसे भी
यह सुन कर
बड़ा गुस्सा आया।
दूसरे दिन असद
राजसभा से महल
को जा रहा
था कि एक
बुढ़िया को मार
डाला और अपनी
माँ के महल
में जा कर
उसे बदौरा के
पत्र की बात
बताई। वह यह
सुन कर बहुत
बिगड़ी और बोली,
बदौरा ने तो
बकवास की ही
है, तेरा भी
दिमाग फिर गया
है। बेचारी बुढ़िया
को बेकसूर ही
मार डाला। अब
तू मेरे सामने
मत आना।
वास्तव
में इन स्त्रियों
ही ने एक-दूसरे के नाम
से पत्र लिख
कर अपने बारे
में निराधार आरोप
लगाए थे ताकि
विमाताओं की ओर
से पुत्रों का
मन फिर जाए
किंतु जब ऐसा
न हुआ तो
दोनों को भय
हुआ कि बेटों
ने अगर बादशाह
कमरुज्जमाँ के शिकार
से लौटने पर
यह बात कह
दी तो स्वयं
उन दोनों यानी
बदौरा और ह्यातुन्नफ्स
की जान खतरे
में पड़ जाएगी।
अब दोनों ने
मिल कर सलाह
की कि इन
नालायक बेटों को किस
तरह ठिकाने लगाया
जाए कि स्वयं
उनके प्राण बचें।
कमरुज्जमाँ
के शिकार से
लौटने पर दोनों
ने एक साथ
ही बड़ी रोनी
सूरत बना कर
भेंट की। उसके
पूछने पर दोनों
ने बताया कि
तुम्हारे दोनों बेटों ने
हम दोनों पर
निराधार आरोप लगाए
हैं जिससे लज्जावश
हमारा डूब मरने
को जी करता
है। कमरुज्जमाँ भी
क्रोध में अंधा
हो गया और
उसने कहा कि
ऐसे नालायकों को
जो अपनी माँओं
ही को लांछित
करें जीने का
कोई अधिकार नहीं
है। उसने अपने
एक विश्वस्त सरदार
जिंदर से कहा
कि तुम इन
दोनों को रात
ही रात किसी
जंगल में जा
कर मार डालो,
और कल सुबह
मुझे कोई चिह्न
दिखाओ जिससे यह
सिद्ध हो जाय
कि यह दोनों
मार डाले गए
हैं।
जिंदर
शाम को कोई
बहाना बना कर
दोनों को जंगल
में ले गया
और वहाँ उन्हें
बताया कि बादशाह
का आदेश है
कि आप दोनों
का मैं वध
करूँ। दोनों ने
कहा कि अगर
उनकी यह इच्छा
है तो तुम
जरूर हमें मारो।
लेकिन दोनों ही
कहने लगे कि
मुझे पहले मारो।
जिंदर ने यह
समस्या इस तरह
हल की कि
दोनों को एक
चादर में बाँध
दिया ताकि एक
ही वार से
दोनों खत्म हो
जाएँ। फिर उसने
तलवार निकाली।
तलवार
की चमक देख
कर जिंदर का
घोड़ा बिदक कर
भागा। जिंदर ने
सोचा कि यह
तो बँधे ही
हैं, कहा जाएँगे,
पहले अपना घोड़ा
पकड़ लाऊँ। वह
घोड़े के पीछे
दौड़ा। इसी भाग-दौड़ और
चीख-पुकार में
एक झाड़ी में
सोता हुआ एक
शेर जाग कर
बाहर निकल आया
और जिंदर के
पीछे पड़ गया।
उधर जब जिंदर
को लौटने में
देर हुई तो
उन दोनों ने
कहा कि न
जाने उस पर
क्या मुसीबत पड़ी
है, हमें जा
कर उसकी मदद
करनी चाहिए। ऐसे
कब तक बँधे
रहेंगे। यह सोच
कर दोनों ने
जोर लगा कर
चादर खोली और
अमजद ने जिंदर
की तलवार उठाई
और दोनों उधर
दौड़े जिधर जिंदर
और उसका घोड़ा
गया था। कुछ
दूर जा कर
देखा कि एक
शेर जिंदर पर
सवार है और
मारना ही चाहता
है। अमजद ने
शेर को ललकारा
और वह अमजद
पर झपटा। अमजद
ने एक ही
वार में शेर
के दो टुकड़े
कर दिए। उधर
असद दौड़ कर
गया और जिंदर
का घोड़ा ले
आया।
जिंदर
को उठा कर
और उसके कपड़ों
की धूल झाड़
कर दोनों शहजादों
ने उससे कहा
कि अब तुम
पिताजी के आदेश
का पालन करो।
जिंदर ने दोनों
की ओर देखा,
शेर की लाश
को देखा और
दोनों के पैरों
पर गिर पड़ा
और बोला, मेरे
मालिको, आपने मेरे
प्राण बचाए और
मैं आपके प्राण
लूँ? यह तो
हरगिज नहीं हो
सकता। किंतु आप
लोग एक दया
करें कि अपना
एक ऊपरी वस्त्र
दें जिसे इस
शेर के लहू
में डुबो कर
मैं बादशाह को
आपके मरने का
प्रमाण दूँ। अगर
ऐसा नहीं हुआ
तो बादशाह मुझे
और सारे कुटुंबियों
को मार डालेगा।
आप लोग यहाँ
से किसी अन्य
देश को चले
जाएँ। उन दोनों
ने ऐसा ही
किया जैसा जिंदर
ने कहा था।
जिंदर
उनके खून से
सने कपड़े ले
कर कमरुज्जमाँ के
पास गया। इन
वस्त्रों को देख
कर बादशाह को
कोप की जगह
पश्चात्ताप का बोध
होने लगा कि
इतने सुंदर और
बुद्धिमान शहजादों को मैंने
खुद ही मरवा
दिया। उनके वस्त्रों
की जेबों में
वे पत्र भी
मिले जो उन्हें
भिजवाए गए थे।
कमरुज्जमाँ अपनी दोनों
पत्नियों की हस्तलिपि
पहचानता था और
समझ गया कि
दोनों स्त्रियों ने
शहजादों को छला
है। उसे अब
और भी दुख
हुआ कि निर्दोष
राजकुमारों को मरवा
डाला। वह रंज
के मारे पछाड़ें
खाने लगा और
कहने लगा कि
मुझ जैसा अत्याचारी
पिता भी इस
संसार में कहाँ
होगा क्योंकि मैंने
अपनी दुष्ट पत्नियों
के बहकावे में
आ कर अपने
बेटों को मरवा
दिया। उसने प्रतिज्ञा
की कि इन
स्त्रियों का मुँह
कभी न देखूँगा।
उसने अपनी दोनों
रानियों को गिरफ्तार
कर के बंदी
गृह में डलवा
दिया। इस पर
भी उसके चित्त
को शांति न
थी और वह
रात-दिन अपने
बेटों के वियोग
में रोया करता।
इधर
वे दोनों भाई
जंगल में भटकते
रहे और फल-फूल खा
कर जीवन यापन
करते रहे। रात
को आधे समय
एक भाई सोता
और दूसरा पहरा
देता ताकि कोई
वन्य प्राणी हमला
न कर दे।
शेष रात को
दूसरा भाई पहरा
देता और पहला
सोता। एक मास
तक इसी तरह
चलते-चलते वे
एक पहाड़ की
तलहटी में पहुँचे।
फिर वे उस
पहाड़ पर चढ़ने
लगे। पहाड़ की
खड़ी चढ़ाई थी।
असद अत्यधिक थक
गया और वहीं
गिर गया। अमजद
साहस कर के
पहाड़ की चोटी
पर चढ़ गया।
वहाँ पर फलों
से लदा हुआ
एक अनार का
पेड़ था और
एक मीठे पानी
का स्रोत था।
वह असद को
सहारा दे कर
पहाड़ की चोटी
पर ले गया।
वहाँ दोनों ने
पानी पिया, अनार
खाए और तीन-दिन वहाँ
आराम किया। फिर
वे पहाड़ की
चोटी पर बने
समतल मार्ग पर
चलने लगे और
इसी प्रकार चलते
रहे। फिर रास्ता
नीचे जाता दिखाई
दिया। वे उस
पर से उतरने
लगे। कुछ दिनों
बाद उन्हें दूर
पर एक नगर
बसा हुआ दिखाई
दिया। अमजद ने
कहा कि हम
दोनों ही चलें।
असद बोला, यह
ठीक नहीं है।
संभव है वहाँ
कोई खतरा हो,
जाना पहले एक
ही को जाना
चाहिए। कम से
कम एक तो
सुरक्षित रहेगा। तुम यहीं
ठहरो, मैं जाता
हूँ और हम
दोनों के लिए
भोजन ले कर
आता हूँ। यह
कह कर वह
नगरी की ओर
चल पड़ा।
नगर
में पहुँचा तो
सब से पहले
उसे एक बूढ़ा
मिला। उसने पूछा,
बाबा, यहाँ का
बाजार कहाँ है।
मुझे अपने और
अपने भाई के
लिए भोजन खरीदना
है। बूढ़े ने
पूछा कि क्या
तुम परदेसी हो।
उसने कहा कि
हाँ। बूढ़े ने
उसे ऊपर से
नीचे तक देख
कर कहा, बेटा,
तुम बाजार की
चिंता छोड़ दो,
मेरे घर चलो।
वहाँ प्रचुर खाद्य
सामग्री है, तुम
खुद भी पेट
भर खाना और
अपने भाई के
लिए भी जितनी
चाहना ले जाना।
यह कह कर
वह छली बूढ़ा
उसे अपने विशाल
मकान में ले
गया। असद ने
देखा कि चालीस
बूढ़े अग्नि के
चारों ओर बैठे
उपासना कर रहे
हैं। असद घबराया
कि यह अग्निपूजक
धोखे से मुझे
यहाँ ले आया
है और मेरा
न जाने क्या
करेगा।
उस
बूढ़े ने अपने
साथियों से कहा
कि अग्निदेव हम
पर प्रसन्न हैं,
उन्होंने अपनी भेंट
के लिए हमारे
हाथ में इस
मुसलमान को पहुँचाया
है। फिर उसने
गजवान, गजवान पुकार कर
कई आवाजें दीं।
इस पर एक
लंबा-चौड़ा हब्शी
आया। बूढ़े के
इशारे पर उसने
असद को जमीन
पर पटक दिया
और बाँध दिया।
बूढ़े ने कहा,
इसे ले जा
कर तहखाने में
रखो और मेरी
बेटियों बोस्तान और कैवाना
के सुपुर्द कर
दो। उन्हें मेरा
यह आदेश भी
देना कि वे
दिन में कई
बार इसकी पिटाई
किया करें और
चौबीस घंटे में
एक बार दो
छोटी रोटियाँ और
एक लोटा पानी
दे दिया करें
ताकि यह मरे
नहीं। साल भर
बाद अग्निदेवता के
बलिदान का दिन
आएगा। तब हम
इसे जहाज पर
चढ़ा कर ज्वालामुखी
पर्वत को ले
जाएँगे और अग्निदेवता
के सामने इसकी
बलि देंगे।
गजवान
के आदेशानुसार असद
को तहखाने में
डाल दिया। वहाँ
बोस्तान और कैवान
अक्सर आतीं और
असद को खूब
पीटतीं जिससे वह बेहोश
हो कर गिर
जाता। वे दोनों
उसे रोटी के
कुछ टुकड़े और
एक लोटा पानी
भी रोज दे
देतीं जिससे उसके
प्राण बच रहते।
असद को अपनी
इस दुर्दशा पर
बहुत दुख था
किंतु साथ ही
उसे यह संतोष
भी था कि
अकेले मुझी पर
मुसीबत है, मेरा
भाई अमजद तो
इस से बचा
हुआ है।
उधर
अमजद ने शाम
तक असद के
आने की राह
देखी। रात को
उसे बड़ा दुख
हुआ और उसने
समझ लिया कि
असद किसी मुसीबत
में फँस गया
है। किसी तरह
उसने रात काटी
और सुबह उठ
कर शहर को
चला कि भाई
का पता लगाए।
उसे देख कर
ताज्जुब हुआ कि
शहर में मुसलमान
इक्का-दुक्का ही
दिखाई देते हैं।
एक मुसलमान को
रोक कर उसने
पूछा कि यह
कौन-सा नगर
है। उसने कहा,
तुम परदेसी हो
यहाँ कहा आ
फँसे। यह अग्निपूजा
नगर है क्योंकि
यहाँ सब अग्निपूजक
रहते है। अमजद
ने पूछा कि
अवौनी नगर यहाँ
से कितनी दूर
है। उसने कहा,
जलमार्ग सरल है,
इससे वहाँ चार
महीने में पहुँच
जाते हैं। थल
मार्ग में कठिनाइयाँ
हैं लेकिन उसमें
दो महीने ही
में पहुँच जाते
हैं। अमजद आश्चर्य
से सोचने लगा
कि मैं तो
सवा महीने ही
में यहाँ पहुँच
गया। फिर उसने
सोचा कि मेरी
तरह इस बीहड़
रास्ते से कौन
जाता होगा। सूचना
देनेवाले को जल्दी
थी, वह अपने
काम में चला
गया।
अमजद
घूमता-फिरता एक
दरजी की दुकान
पर पहुँचा। वह
भी मुसलमान था।
अमजद ने उसे
अपनी कठिन यात्रा
और अपने भाई
के गुम होने
की बात कही।
दरजी ने कहा,
अगर तुम्हारा भाई
किसी अग्निपूजक के
हाथ में पड़
गया तो उसकी
जान बचना मुश्किल
है। तुम खुद
अपनी जान की
फिक्र करो। वह
उसके साथ रहने
लगा। एक महीना
इसी प्रकार बीता।
अमजद दरजी का
थोड़ा-बहुत काम
कर दिया करता
था।
एक
दिन वह बाजार
में घूम रहा
था कि उसे
एक अत्यंत रूपवती
स्त्री मिली। उस स्त्री
ने उसे एक
ओर ले जा
कर और अपने
मुँह से नकाब
उठा कर कहा,
मेरे प्यारे, तुम
किस देश के
वासी हो? कब
से यहाँ पर
हो? इस समय
कहाँ जा रहे
हो? अमजद उसके
सौंदर्य पर मुग्ध
हो गया और
बोला, जा तो
मैं अपने महल
को रहा था।
किंतु अब तुम
जहाँ ले जाओगी
वहीं चला चलूँगा।
स्त्री ने कहा,
मैं प्रतिष्ठित परिवार
की स्त्री हूँ।
हम लोग अपने
प्रेमियों को अपने
घर नहीं ले
जाते। प्रेमी ही
हम लोगों को
अपने घर ले
जाते हैं।
अमजद
सोचने लगा कि
मैं इसे कहाँ
ले जा सकता
हूँ, मेरा तो
कोई घर ही
नहीं है। अगर
मैं दरजी के
यहाँ इसे ले
जाता हूँ तो
वह क्या करेगा।
इसलिए उसने स्त्री
को कोई उत्तर
न दिया और
दरजी के घर
की ओर चल
पड़ा। किंतु वह
निर्लज्ज स्त्री भी उसके
पीछे हो ली।
अमजद ने सोचा
कि इसे भटकाना
चाहिए इसलिए वह
गलियों में चक्कर
लगाने लगा। किंतु
उस स्त्री ने
पीछा न छोड़ा।
अंततः वह थक
कर एक गली
में ऐसे मकान
पर पहुँचा जहाँ
सामने चबूतरे पर
चौकियाँ बिछी थीं।
वह थक कर
एक चौकी पर
बैठ गया। स्त्री
भी वहीं बैठ
गई।
स्त्री
ने पूछा कि
क्या तुम्हारा महल
यही है। अमजद
फिर चुप रहा।
स्त्री बोली, प्रियतम, बाहर
क्यों बैठे हो?
ताला खोल कर
अंदर क्यों नहीं
चलते? अमजद ने
बहाना बनाया कि
महल की ताली
मेरे दास के
पास है जो
बाजार चला गया
है ताकि मेरे
लिए भोजन लाए।
वह सोचता था
कि स्त्री उससे
ऊब कर चली
जाएगी किंतु वह
वहीं डटी रही।
कुछ देर बार
वह कहने लगी,
तुम्हारा गुलाम बड़ा लापरवाह
आदमी है, इतनी
देर तक बाजार
से नहीं आया।
जब आए तो
उसे खूब सजा
देना। अमजद ने
उससे पीछा छुड़ाने
के उद्देश्य से
हाँ कर दी।
कुछ देर बार
स्त्री दरवाजे पर लगा
हुआ ताला तोड़ने
लगी। अमजद ने
कहा, ताला क्यों
तोड़ रही हो।
उसने कहा कि
आखिर घर तो
तुम्हारा ही है,
एक ताला खराब
हो जाएगा तो
कौन बड़ा नुकसान
हो जाएगा।
अमजद
सोचने लगा कि
कुछ गड़बड़ी हुई
तो यह तो
औरत है, इससे
कोई कुछ नहीं
कहेगा, मुझी को
सब लोग पकड़ेंगे।
उसने सोचा कि
चुपके से चल
दे। किंतु वह
स्त्री अंदर जा
कर फिर बाहर
आई और कहने
लगी कि तुम
अंदर क्यों नहीं
चलते। अमजद ने
कहा कि मैं
अपने गुलाम की
प्रतीक्षा कर रहा
हूँ। उस औरत
ने कहा, प्रतीक्षा
तो अंदर बैठ
कर भी हो
सकती है, बाहर
बैठ कर प्रतीक्षा
करना क्या जरूरी
है? विवश हो
कर अमजद को
अंदर जाना पड़ा।
उसने देखा कि
मकान बहुत ही
साफ-सुथरा और
लंबा-चौड़ा है।
दोनों कुछ सीढ़ियाँ
चढ़ कर बैठकवाली
दालान में गए।
वह दालान बहुत
साफ-सुथरी और
सुरम्य वस्तुओं से सजी
हुई थी। एक
ओर कई सुंदर
पात्रों में नाना
प्रकार के स्वादिष्ट
व्यंजन रखे थे
और दूसरी तरफ
फलों और मेवों
के पात्र थे।
एक ओर शीशे
की सुराहियों में
सुवासित मदिरा भरी थी
और मदिरा पान
के लिए कई
सुंदर प्याले थे।
अमजद सोचने लगा
कि यह किसी
रईस का मकान
है और किसी
समय भी उसके
नौकर-चाकर आ
कर मेरी पिटाई
करेंगे।
वह
तो इस चिंता
में था और
स्त्री उससे कहने
लगी, प्यारे, तुम
तो कहते थे
कि तुमने गुलाम
को खाद्य वस्तुएँ
खरीदने के लिए
बाजार भेजा है,
यहाँ तो इतना
उत्तमोत्तम सामान रखा हुआ
है। मालूम होता
है तुम्हारा गुलाम
यह भोजन, फल
आदि रख कर
कहीं ओर चला
गया है। और
तुम कहीं इसलिए
तो उदास नहीं
बैठे हो कि
यह सब किसी
और सुंदरी के
लिए था और
मैं बीच में
आ गई। तुम
चिंता न करो।
मैं उसके आने
पर आपत्ति भी
न करूँगी और
उसे मना भी
लूँगी जिससे तुम्हें
कोई परेशानी नहीं
होगी। हम तीनों
मिल कर आनंद
मनाएँगे। अमजद ने
हँस कर कहा,
कोई और स्त्री
नहीं आएगी। लेकिन
यह भोजन मेरे
खाने योग्य नहीं
है, मेरे विश्वासों
के अनुसार यह
अपवित्र है। मेरा
गुलाम मेरे लिए
पवित्र भोजन लाता
होगा। मैं इसीलिए
कुछ खा नहीं
रहा हूँ।
किंतु
वह स्त्री लंबी
प्रतीक्षा के लिए
तैयार न थी।
उसने भोजन करना
आरंभ कर दिया।
दो-चार ग्रास
खा कर उसने
शराब का प्याला
भर कर पिया
और एक प्याला
अमजद को दिया।
उसने विवश हो
कर उसे पी
लिया। वह यह
भी सोचने लगा
कि अच्छा हो
कि गृह स्वामी
के सेवकों के
आने के पहले
हम लोग खा-पी कर
चल दें वरना
बड़ी बदनामी होगी।
इसलिए वह थोड़ा-बहुत जल्दी-जल्दी खाने लगा
किंतु वह स्त्री
आराम से खा-पी रही
थी।
इतने
में घर का
मालिक आता दिखाई
दिया। स्त्री उसे
न देख सकी
क्योंकि उसकी पीठ
दरवाजे की तरफ
थी। अमजद ने
उसे देख लिया
और उसे चिंता
बढ़ी कि अब
क्या होगा। किंतु
गृहस्वामी ने उसको
संकेत दिया कि
चिंता न करो
और आराम से
खाओ- पियो। वास्तव
में घर का
स्वामी शाही घुड़साल
का प्रधान अधिकारी
था। उसका नाम
बहादुर था। उसके
निवास का मकान
दूसरा था। इस
घर में वह
आमोद-प्रमोद के
लिए आया करता
था। उस दिन
उसके अपने कुछ
मित्रों को भोज
पर बुलाया था
और इसीलिए सारा
सामान ला रखा
था। किंतु बाहर
से आने पर
ताला टूटा देखा
और अंदर एक
आदमी और एक
औरत को मौज-मस्ती करते देखा
तो छुप कर
देखने लगा कि
आगे क्या होता
है।
(अगली पोस्ट में जारी……)
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