(पिछिली पोस्ट से जारी……)
खलीफा मसरूर को ले कर गया
तो देखा कि बड़ी सुंदर कब्र और मकबरा मौजूद है और वहाँ बहुत-से दीये जल रहे हैं।
उसे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि सौतिया डाह होने पर भी जुबैदा ने फितना के अंतिम
संस्कार के लिए ऐसा आयोजन किया है। उसने सोचा कि यह संभव है कि जुबैदा ने फितना को
निकाल दिया हो और इस बात को छुपाने के लिए उसकी मौत का ढोंग रचाया हो। उसने मकबरे
पर लगा हुआ चित्र भी उतार कर देखा तो वह काफी खराब था, किसी अनाड़ी चित्रकार से
जल्दी में बनवाया हुआ लगता था। अब उसने सोचा कि कब्र खुदवा कर देखना चाहिए कि
फितना वास्तव में मरी है या जीवित है। उसने धर्मगुरुओं से सलाह ली तो उसने कहा कि
आप यह काम नहीं कर सकते क्योंकि इस्लाम में कब्र खुदवाना धर्मविरुद्ध है।
इस पर खलीफा ने फितना की
कब्र खुदवाने का विचार त्याग दिया और रस्मी तौर पर उसके लिए मातम शुरू कर दिया।
उसने कई कुरानपाठियों को फितना की कब्र पर निरंतर कुरान पाठ करने के लिए नियुक्त
किया। स्वयं काले कपड़े पहन लिए और शोक और विषाद का जीवन व्यतीत करने लगा। एक
महीने तक रोजाना एक बार जाफर और अन्य सभासदों को ले कर फितना की कब्र पर जाता और
फातिहा पढ़ता और बैठ कर उसकी याद में आँसू बहाता। इस सारी अवधि में उसने
राज्य-प्रबंध भी नहीं देखा और सारे समय रुदन और विरह-विलाप करता रहा।
चालीस दिनों के बाद मातम
खत्म हुआ। खलीफा ने खुद काले कपड़े उतारे और दूसरों से भी मातमी लिबास उतारने को
कहा। इस सारे समय में वह कभी ठीक से सोया नहीं था इसलिए बहुत थका हुआ था। वह अपने
शयनकक्ष में गया और पलंग पर जा कर सो रहा। थकन और जगाई के बावजूद उसको गहरी नींद
नहीं आई।
शयनकक्ष में दो दासियाँ
मौजूद थीं ताकि खलीफा उठ कर जो आज्ञा दे उसका पालन करें। एक उसके सिरहाने की ओर
बैठी थी, उसका नाम नूरुन्निहार था। दूसरी पैंताने की तरफ बैठी थी, उसका नाम निकहत
था। दोनों समय काटने के लिए कशीदाकारी कर रही थीं। पहली ने खलीफा को सोता जान कर
कहा, मुझे एक शुभ संवाद मिला है जिससे खलीफा खुश होंगे। फितना मरी नहीं है। निकहत
ने आश्चर्य से उच्च स्वर में कहा, हैं, फितना जिंदा है? उसकी ऊँची आवाज से खलीफा
जाग गया और डाँट कर बोला, बदतमीजो, तुमने शोर करके मुझे क्यों जगाया?
दासी ने काँपते हुए उत्तर
दिया, हुजूर, मेरा अपराध क्षमा करें, मैंने आपके आराम में विघ्न डाला किंतु इस
दूसरी दासी ने बात ही ऐसी कही थी जिससे मेरी आवाज ऊँची हो गई। इसने कहा है कि आपकी
प्रेयसी फितना मरी नहीं है, जीवित हैं। खलीफा ने नूरुन्निहार से पूछा तो उसने हाथ
जोड़ कर कहा, सरकार, मुझे आज शाम ही को फितना का लिखा हुआ एक पत्र मिला है। मैं
चाहती थी कि आपके शयनकक्ष में आते ही वह पत्र आपको दिखाऊँ क्योंकि उसमें फितना ने
सारा हाल लिखा है। किंतु आप बहुत थके हुए थे इसलिए मैंने सोचा आप के जागने पर सारा
हाल आप को बताऊँ।
खलीफा ने कहा, तू बड़ी
बेवकूफ है। इतना महत्वपूर्ण पत्र छुपाए रही। अभी निकाल कर वह पत्र मुझे दे। और
हाँ, तुझे वह पत्र मिला कहाँ? नूरुन्निहार ने बताया, मैं महल के बाहर एक काम से गई
थी। तभी एक आदमी मेरे हाथ में यह पत्र दे कर चला गया। मैं उससे कुछ पूछ तो क्या
पाती, उसकी सूरत भी ठीक तरह से नहीं देख सकी। यह कह कर उसने वह पत्र दे दिया।
खलीफा ने देखा कि पत्र फितना ही की हस्तलिपि में है। उसमें उसने अपने जीते जी
गाड़े जाने और फिर गनीम द्वारा बचाए जाने का विवरण लिखा था और यह भी लिखा था कि
गनीम बड़े सद्भाव से मेरी सेवा करता है।
खलीफा को पत्र पढ़ कर न
फितना के जीवित होने की प्रसन्नता हुई न जुबैदा की हरकत पर क्रोध आया। उसे क्रोध
आया तो गनीम पर जिसने उसकी प्रेयसी को घर में डाल रखा था। उसे विश्वास हो गया कि
गनीम ने फितना के साथ संभोग अवश्य किया होगा और खलीफा की प्रतिष्ठा का ध्यान नहीं
रखा होगा। वह फितना पर दाँत पीसता रहा कि उस नौजवान के साथ गुलछर्रे उड़ाती रही और
यह भी ध्यान न दिया कि मैं खुद उसके वियोग में किस तरह चालीस दिन तक तड़पता रहा।
रात में तो उसने किसी से
कुछ नहीं कहा लेकिन दूसरे दिन दरबार में जा कर उसने प्रधानमंत्री जाफर को बुला कर
कहा, आज मैं तुम्हारी मुस्तैदी की परीक्षा लेता हूँ। तुम चार हजार सिपाहियों को ले
कर अमुक मुहल्ले में जाओ। वहाँ दमिश्क का एक जवान व्यापारी गनीम रहता है। उसके
पिता का नाम अय्यूब है। उसने मेरी प्रेयसी फितना को रख छोड़ा है। तुम जा कर गनीम
को पकड़ो और उसके हाथ-पैर बाँध कर ले आओ। और ध्यान रहे कि फितना भी हाथ से निकलने
न पाए, उसे भी पकड़ कर ले आना किंतु उसे बाँधना नहीं। इसके साथ ही जिस मकान में
गनीम रहता है उसे खुदवा कर जमीन के बराबर करवा देना। मैं उन दोनों को कठोर दंड
देना चाहता हूँ।
मंत्री जाफर ने यह आज्ञा
पा कर चार हजार सैनिक बुलाए और कुछ ही देर बाद गनीम के भव्य भवन को चारों ओर से
घेर लिया। वह अपने साथ सैकड़ों बेलदार भी ले गया था ताकि मकान को खुदवा कर जमीन के
बराबर करवा दे। सिपाहियों को भी उसने ताकीद की कि बहुत होशियार रहो ताकि गनीम कहीं
से निकल कर भागने न पाए। गनीम पकड़ा जाता किंतु फितना राज कर्मचारियों के
तौर-तरीकों से परिचित थी। उसने दूर ही से मंत्री को सेना के साथ आते देख कर समझ
लिया कि खलीफा को यहाँ का हाल मालूम हो गया है और उसने दोनों को पकड़वाने के लिए
सेना भेजी है।
उसी समय गनीम और फितना
भोजन से निवृत्त हुए थे। फितना को बड़ा भय अपने से अधिक गनीम के लिए हुआ क्योंकि
वह उसे प्रेम करने लगी थी। उसने यह भी सोचा कि खलीफा को मुझसे प्रेम है इसलिए मुझे
तो मामूली सजा ही देगा। किंतु इस निरपराध को जरूर मरवा डालेगा। उसके मुँह से
गिरफ्तारी के लिए सैनिकों के आने का हाल सुन कर गनीम प्राण-भय से काँपने लगा और
उसमें बोलने और उठने की शक्ति भी नहीं रही। फितना ने झुँझला कर उसे हाथ पकड़ कर
उठाया और बोली, मूर्ख, देर करने का समय नहीं है। तुम फौरन गुलामों जैसे कपड़े
पहनो, मुँह और हाथ-पैर में कोयले का चूरा मलो जिससे हब्शी मालूम पड़ो। इसके बाद
रसोई के बरतनों का टोकरा ले कर बाहर निकल जाओ। वे लोग तुम्हें गुलाम समझ कर जाने
देंगे। इसके अलावा और किसी तरह तुम्हारी जान नहीं बच सकेगी। अगर वे लोग पूछें कि
तुम्हारा मालिक कहाँ है तो कहना कि घर के अंदर है।
गनीम ने कहा, इस समय मुझे
अपने प्राणों से भी अधिक तुम्हारी सुरक्षा की चिंता है। फितना बोली, मेरी चिंता न
करो। मैं खलीफा के सामने अपना सारा अपराध क्षमा करवा लूँगी। किंतु तुम्हें देखते
ही वह तुम्हें मरवा डालेगा और किसी की कुछ न सुनेगा। मैं घर का सामान भी बचा लूँगी
और यह भी संभव है कि बाद में समझा-बुझा कर खलीफा से तुम्हें माफी दिलवा दूँ। अब
तुम देर न करो, जैसा मैंने कहा है उसी उपाय से बच कर निकल जाओ। गनीम फिर भी हिचक
रहा था लेकिन फितना ने उसे जबर्दस्ती गुलामों के कपड़े पहना दिए। गनीम ने अपने
हाथ-पैर और मुँह पर राख और कोयले का चूरा मल कर एक टोकरे में रसोई के खाली बरतन ले
कर निकला। सिपाहियों ने समझा कि घर का यह गुलाम बरतनों पर कलई करने जा रहा है।
इसलिए उन्होंने उससे रोक-टोक नहीं की। वह बड़े इत्मीनान से मंत्री जाफर के सामने
से निकल गया और जाफर को भी कुछ संदेह न हुआ। जाफर के साथ जो बड़े-बड़े जासूसों के
अफसर थे वे भी गनीम के छद्य वेश के धोखे में आ गए और गनीम के प्राण फितना की बताई
तरकीब से बच गए।
इधर मंत्री ने घर का
दरवाजा खुलवाया और अफसरों के साथ घर में आ गया। उसने देखा कि घर के अंदरूनी कमरों
में बहुत-सा कीमती सामान, व्यापार की कुछ वस्तुएँ और रुपए-पैसे से भरे संदूक हैं।
वह सारा माल गनीम का था। फितना मंत्री को देख कर काँपती हुई उठी जैसे कि उसे
मृत्युदंड सुनाया जा रहा है। फिर वह मंत्री के पैरों के सामने गिर पड़ी और बोली,
खलीफा ने अगर मेरे बारे में कोई आदेश दिया हो तो कृपया मुझसे कहें, मैं उसका
तत्काल पालन करूँगी। मंत्री ने सविनय प्रणाम किया और कहा, सुंदरी, मुझे खलीफा ने
यह आदेश दे कर भेजा है कि मैं तुम्हें उन तक पहुँचाऊँ और यह भी कहा है कि इस मकान
के मालिक गनीम नामक व्यापारी को पकड़ कर उनके सामने ले चलूँ। उन्होंने यह भी आदेश
दिया है कि इस घर को खुदवा कर जमीन के बराबर करवा दूँ।
फितना ने कहा, मैं तो
मौजूद ही हूँ। मुझे खलीफा के सामने पहुँचा दो। जहाँ तक गनीम का सवाल है, वह एक
महीना से अधिक हुए व्यापार के लिए बाहर चला गया है, शायद दमिश्क गया हो। जाते समय
वह अपना रुपया-पैसा और मूल्यवान वस्तुएँ मेरे सुपुर्द कर गया कि मैं इनकी रखवाली करूँ।
आप इस माल-असबाब को भी खलीफा के ताशखाने में पहुँचा दीजिए और फिर घर का जो चाहे
कीजिए।
मंत्री जाफर ने यही किया।
उसने पहले मकान की तलाशी ली किंतु गनीम कहीं नहीं मिला। फिर उसने मजदूरों के सिरों
पर रखवा कर गनीम की सारी संपत्ति राजमहल में पहुँचा दी। फितना को ले कर खुद खलीफा
के पास चल दिया और कोतवाल को आदेश दिया कि मकान को होशियारी से खुदवाओ ताकि गनीम
अगर कहीं छुपा हुआ हो तो मलबे में दब न जाए बल्कि निकल भागने का प्रयत्न करे। उस
समय तुम उसे पकड़ कर खलीफा के दरबार में पहुँचा देना क्योंकि खलीफा उसकी गिरफ्तारी
पर बड़ा जोर दे रहे हैं।
मंत्री और अन्य अफसर इधर
राजमहल को चले उधर कोतवाल ने मकान के चप्पे-चप्पे की तलाशी ली किंतु गनीम को कहीं
नहीं पाया। खलीफा ने वजीर को आते देखा तो दूर ही से पूछा, मेरी आज्ञाओं का पालन
किया? जाफर ने कहा, एक को छोड़ कर सभी आज्ञाओं का पालन हुआ है। अभी आ कर पूरा हाल
बताता हूँ। इतने में कोतवाल भी आ गया किंतु गनीम का कहीं पता नहीं चला। मंत्री ने
खलीफा के पास जा कर फितना और उसकी दोनों दासियों को उपस्थित किया और कहा, मैंने
मकान का एक-एक कोना छान मारा लेकिन गनीम कहीं नहीं था। लोगों ने बताया कि वह एक महीने
से अधिक हुआ व्यापार के काम से दमिश्क चला गया है। इसके बाद मैंने बेलदार लगवा कर
अपने सामने उसका मकान गिरवा कर जमीन के बराबर कर दिया।
खलीफा को गनीम के हाथ से
निकल जाने पर और गुस्सा आया। उसने अपने सामने खड़ी भय से काँपती फितना को देखा तो
गुस्से के कारण उससे भी कुछ न बोला क्योंकि वह समझता था कि यह गनीम के उपभोग में
रही है। उसने महल के हब्शी प्रबंधक मसरूर से कहा कि इसे दासियों के लिए बने
बंदीगृह में डाल दे। यह बंदीगृह खलीफा के अपने निवास कक्षों से लगा हुआ था।
फिर खलीफा ने उसी क्रोध
की दशा में पत्र लेखक को बुलवाया और दमिश्क के हाकिम के नाम निम्नलिखित पत्र
लिखवाया :
दमिश्क के हाकिम को खलीफा
हारूँ रशीद की ओर से ज्ञात हो कि दमिश्क के मृत व्यापारी अय्यूब का पुत्र गनीम
शाही महल की एक दासी का अपहरण करके ले गया था। इस समय वह भागा हुआ है। आप उसे हर
जगह ढुँढ़वाएँ। जहाँ मिले उसे पकड़ कर हथकड़ी डाल कर गलियों में फिराएँ और
सिपाहियों को आदेश दें कि हर चौराहे पर उसे कोड़े मारें और घोषणा करें कि बादशाह
या खलीफा के साथ धोखा करनेवाले और उसकी दासी को भगानेवाले का यही दंड होता है। फिर
उसे पहरे में मेरे पास भेज दें ताकि मैं उसका उचित न्याय करूँ। उसके घर को खुदवा
दें और उस जमीन पर हल चलवा दें।
अगर वह न मिले तो दमिश्क
में उसकी माँ, बहन, भाई या जो भी दूसरे कुटुंबी हों उन्हें भी इसी प्रकार का दंड
तीन दिन तक दिया जाए। अगर दमिश्क का कोई ओर निवासी गनीम की किसी प्रकार की
प्रत्यक्ष या परोक्ष सहायता करता हुआ पाया जाए तो उसे भी इसी प्रकार नगर में अपमान
तथा मकान खुदवा डालने का दंड दिया जाए। इस आदेश को जरूरी समझें और इसका अविलंब और
पूर्णरूपेण पालन करें।
खलीफा ने यह पत्र बंद
करवाया और लिफाफे पर अपनी मुहर लगवाई। फिर एक दूत को आज्ञा दी, इसे दमिश्क के
हाकिम के पास ले जा कर दो। अपने साथ एक सिखाया हुआ कबूतर भी ले जाओ। इस पत्र की
रसीद दमिश्क के हाकिम जुबैनी से ले कर कबूतर के पंख में बाँध कर इधर उड़ा देना
ताकि उसी दिन कुछ घंटों के अंदर मुझे मिल जाए। दूत ने खलीफा का पत्र जुबैनी को
दिया तो उसने वह रस्म के अनुसार पहले अपने सिर पर रखा और तीन बार चूम कर खोला और
पढ़ा। फिर दूत को उसकी रसीद दे दी।
इसके बाद जुबैनी कोतवाल
और सिपाहियों को ले कर गनीम के घर पर पहुँचा। गनीम जब से दमिश्क छोड़ कर बगदाद गया
था तब से उसने कोई पत्र भी अपनी माँ को नहीं भेजा था। जो व्यापारी उसके साथ गए थे
उन्होंने भी बताया कि गनीम उनसे अलग रहने लगा था। बहुत दिनों तक उसका पता न चलने
से माँ ने सोचा कि वह मर गया है। वह खूब रोई जैसे उसके सामने ही उसका बेटा मरा हो।
उसने अपने घर में प्रतीक रूप में उसकी कब्र बनवाई और उस पर उसका चित्र रखा और रोज
कुछ देर के लिए कब्र पर बैठ कर मातम करती जैसे कि वास्तव में गनीम की लाश कब्र के
अंदर हो। उसकी बेटी अलकिंत भी अपनी माँ के साथ मिल कर अपने भाई का मातम किया करती
थी। उनके पड़ोसी भी अक्सर मातम में शरीक हो जाया करते थे। अच्छे पड़ोसी इसी तरह
मातम में शरीक हुआ करते थे।
जुबैनी ने दरवाजे पर जा
कर आवाज दी तो अंदर से एक दासी निकली। जुबैनी ने स्वयं उससे पूछा कि गनीम कहाँ है।
दासी दमिश्क के हाकिम को पहचान गई और घबराहट में हकला कर बोली, सरकार, गनीम का तो
काफी दिन पहले देहावसान हो गया है। उसकी माँ और बहन रोज उसकी कब्र पर बैठ कर मातम
किया करती हैं। इस समय भी वहाँ बैठी मातम कर रही हैं। जुबैनी ने दासी की बात पर
विश्वास नहीं किया और खुद ही कोतवाल समेत घर के अंदर घुस आया और सिपाहियों से कहा,
घर का कोना-कोना छानो और गनीम कहीं छुपा हो तो उसे बाहर निकालो।
गनीम की माँ और बहन ने
बाहरी आदमियों को देख कर अपने चेहरे ढक लिए। फिर गनीम की माँ ने जुबैनी के पैरों
के पास जमीन से सिर लगा कर पूछा कि कैसे कष्ट किया। उसने कहा, देवी जी, हम
तुम्हारे पुत्र गनीम की तलाश में आए हैं। वह यहाँ है या नहीं?
वह बोली, वह तो बहुत दिन
हुए मर गया और अब हम माँ-बेटियाँ उसकी कब्र पर मातम ही किया करते हैं। यह कह कर वह
अपने बेटे की याद करके फूट-फूट कर रोने लगी और आगे कुछ न कह सकी। जुबैनी मन में
सोचने लगा कि अपराधी तो गनीम है, उसकी माँ और बहन का क्या अपराध है। यह हारूँ रशीद
का बड़ा अन्याय है जो इन्हें दंड दे रहा है। किंतु खलीफा का आदेश स्पष्ट था और
जुबैनी को उसका पालन करना ही था।
कुछ देर में वे लोग
जिन्हें जुबैनी ने नगर में गनीम की खोज करने के लिए भेजा था वापस आ गए और जुबैनी
को बताया कि गनीम का पता कहीं नहीं चला। गनीम की माँ और बहन के मातम करने से
जुबैनी को यह भी विश्वास हो गा कि गनीम की मृत्यु हो गई है। जुबैनी को इन निर्दोष
स्त्रियों को दंड देने में बड़ा कष्ट हो रहा था किंतु वह खलीफा के आदेश के कारण
विवश था। उसने गनीम की माँ से कहा, माताजी, आप बेटी को ले कर घर से निकल जाइए। वे
बेचारियाँ घर से निकल कर गली में बैठ गईं। जुबैनी ने इस खयाल से कि उनकी बेपरदगी न
हो उन्हें अपनी लंबी-चौड़ी चादर उढ़ा दी। फिर उसने नगर निवासियों को आदेश दिया कि
घर में घुस कर सब कुछ लूट लो। यह सुनते ही सैकड़ों मनुष्य घर में घुस गए और
उन्होंने कुछ ही मिनटों में घर का सफाया कर दिया। गहने, कपड़े, बरतन, काठ, कबाड़
सब लूट कर ले गए। गनीम की माँ और बहन दुख और आश्चर्य से इस लूटपाट को देखती रहीं।
फिर जुबैनी ने कोतवाल को आज्ञा दी कि घर को गिरवा कर जमीन के बराबर करवा दो।
कोतवाल ने सैकड़ों मजदूर लगवा दिए और कुछ मिनटों के बाद घर का नाम-निशान तक बाकी न
रहा। दोनों स्त्रियाँ यह देख कर सिर पीट कर रोने लगीं।
लेकिन उन्हें तो और भारी
मुसीबतें देखनी थीं। उस दिन जुबैनी उन्हें अपने महल में ले गया और बोला, मैं जानता
हूँ कि आप लोगों का कोई कसूर नहीं है लेकिन खलीफा ने मुझे आदेश दिया है कि मैं आप
लोगों को दंड दूँ और मुझे वह आदेश मानना ही है। दूसरे दिन वह उन्हें महल से बाहर
मैदान में लाया और आज्ञा दी कि इनके कपड़े उतार दो और पुरवासी इनके नंगे शरीरों पर
कोड़े चलाएँ। जब उनके ऊपरी वस्त्र उतारे गए तो उनके कोमल गुलाबी शरीरों को देख कर
जुबैनी को दया आई। उसने घोड़े के बालों से बुने हुए दो भारी कंबल उन्हें उढ़ा दिए
ताकि उन्हें कम चोट लगे। उसने उनके सिर भी ढक दिए और उनके बालों को शरीर के चारों
ओर बिखरा दिया। अलकिंत के बाल बड़े नर्म थे और इतने लंबे थे कि एड़ियों तक पहुँचते
थे। ऐसी अपमानजनक स्थिति में उन्हें नगर में घुमाया गया। उनके साथ कोतवाल भी था जो
सिपाहियों को साथ लिए हुए था। एक मुनादी करनेवाला उनके आगे-आगे यह मुनादी करता
जाता था कि खलीफा के प्रति अपराध करनेवालों के कुटुंबियों की यही दशा होती है। इन
दोनों माँ-बेटियों ने ऐसा अपमान कहाँ देखा था। बेचारियाँ फूट-फूट कर रो रही थीं
लेकिन उन पर दया करनेवाला कोई नहीं था। उन्होंने अपने बालों को अपने चेहरों पर डाल
लिया ताकि उन्हें जनसाधारण न देख सके।
उनकी दुर्दशा पर साधारणतः
नगर निवासी भी दुखी थे। स्त्रियाँ अपनी छतों पर चढ़ कर या अपनी खिड़कियों से इस
दृश्य को देखतीं और हाय-हाय करती थीं। बच्चे अपनी माँ-बहनों का रोना-पीटना सुन कर
सहम जाते थे। विशेषतः लोगों को अलकिंत की इस दशा पर बहुत दुख था क्योंकि वह नवयुवती
और अतीव सुंदरी थी। दिन भर उन्हें नगर में इसी अपमान के साथ घुमाया गया और कोड़े
मारे गए। शाम को फिर उन्हें जुबैनी के महल में लाया गया। उस समय थकन, चोटों और
अपमान के दुख से दोनों बेहोश हो गईं।
दमिश्क के हाकिम जुबैनी
की पत्नी को उनकी इस दशा पर तरस आया। जुबैनी ने खलीफा के आदेश के अनुसार आज्ञा दी
थी कि गनीम की माँ और बहन की कोई व्यक्ति सहायता न करे। किंतु जुबैनी की पत्नी ने
गुप्त रुप से उनकी सहायता के लिए अपनी दासियाँ भेजीं। इन दासियों ने उन बेहोश पड़ी
औरतों के मुँह पर गुलाबजल के छींटे दिए और उनके आँखें खोलने पर उन्हें शरबत
पिलाया। इसके बाद वे दोनों उठ कर बैठ गईं।
दासियों ने उन्हें पंखा
झला और बताया कि तुम लोगों की यह दशा देख कर जुबैनी की बेगम को बहुत दुख हुआ है और
उन्होंने हम लोगों को इसलिए यहाँ भेजा है कि तुम लोगों की यथासंभव सहायता करें
यद्यपि खलीफा के आदेश के अनुसार तुम्हारी सहायता करनेवाला भी दंड का भागी होगा।
गनीम की माँ जुबैनी की पत्नी के प्रति देर तक आभार प्रकट करती रही और उसे दुआएँ
देती रही। फिर उसने पूछा कि हाकिम जुबैनी ने हम लोगों को इतना दंड तो दिया लेकिन
यह नहीं बताया कि मेरे बेटे ने खलीफा के प्रति ऐसा कौन-सा अपराध किया था जिसका यह
दंड हमें मिला है। दासियों ने कहा, हम ने तो यह सुना है कि तुम्हारा पुत्र गनीम
खलीफा की एक अतिसुंदर प्रेयसी को ले भागा है, उसी कारण खलीफा ने तुम लोगों को यह
दंड देने का आदेश दिया है। अब तुम यह तो जानती ही हो कि खलीफा के आदेश का उल्लंघन
नहीं किया जा सकता। इसलिए हमारे मालिक जुबैनी ने विवश हो कर तुम्हें यह दंड दिया
है। वैसे हमारे मालिक को तुम्हारे निर्दोष होने के कारण तुम्हें दंड देने का बहुत
बड़ा दुख है। और हमारी मालकिन तथा हम लोगों को भी तुम्हारे लिए बड़ा खेद है, लेकिन
इस मामूली मदद के अलावा हम लोग तुम्हारी और कुछ सहायता नहीं कर सकते।
गनीम की माँ ने कहा, यह
तो मैं कभी नहीं मान सकती कि मेरे बेटे ने वह अपराध किया होगा जिसका दोष उस पर
लगाया गया है। मैंने उसे बचपन ही से उसकी शिक्षा और आचार-व्यवहार के प्रशिक्षण पर
बहुत परिश्रम किया है। विशेष रूप से हम लोगों ने उसे इस बात की पूरी शिक्षा दी है
कि बादशाहों और अमीर-उमरा के साथ किस प्रकार का बरताव करना चाहिए। अपहरण जैसा
लफंगों का काम उससे हो ही नहीं सकता। फिर भी यह सुन कर हमें बड़ी प्रसन्नता हुई कि
वह भागा हुआ है क्योंकि इसका अर्थ यह है कि वह जीवित है। हम तो उसे मरा ही समझ
बैठे थे। अगर वह जीता है तो हमें अपनी दुर्दशा और अपमान का कोई दुख नहीं। हम उसके
लिए बड़ा से बड़ा कष्ट उठा सकते हैं। हाकिम जुबैनी ने जो कुछ किया हमें उसकी कोई
शिकायत नहीं है।
अलकिंत को भी अच्छी तरह
होश आ गया था। वह अपनी माँ की बातें सुन कर उसके गले से लिपट गई और बोली, अम्मा,
तुमने बिल्कुल ठीक कहा। अगर भाई जिंदा है तो मैं उसके पीछे और भी कष्ट भोगने के
लिए तैयार हूँ। इसके बाद दोनों माँ बेटी फूट-फूट कर रोने लगीं। जुबैनी के महल की
दासियों को भी दुख हुआ और वे भी रोने लगीं। फिर इन दासियों ने उन्हें भोजन करने को
कहा। उनकी इच्छा तो नहीं थी किंतु दासियों के बहुत कहने-सुनने से उन्होंने
थोड़ा-बहुत भोजन पेट में डाल लिया।
खलीफा का आदेश था कि उन
लोगों को तीन दिन तक सार्वजनिक अप्रतिष्ठा का दंड दिया जाए। अतएव जुबैनी ने दूसरे
दिन भी उन्हें उसी प्रकार नगर में अपमानपूर्वक फिराने का आदेश दिया। किंतु अब नगर
निवासी इस बेकार बात से बहुत ऊब चुके थे। वे अपना काम-धंधा बंद कर के शहर के बाहर
चले गए। उनकी स्त्रियों ने भी घरों के दरवाजे और खिड़कियाँ बंद कर लीं। इस प्रकार
सार्वजनिक अपमान का उद्देश्य ही पूरा नहीं हुआ। जुबैनी के इशारे पर उन लोगों पर
सिपाहियों की मार भी दिखाने भर की पड़ी।
उसके अगले दिन भी दंड की
यह रस्म पूरी की गई, उस दिन भी नगर में सन्नाटा रहा। इसके अगले दिन जुबैनी ने
आज्ञा दे कर घोषणा करवाई कि कोई नगर निवासी इन दोनों स्त्रियों को अपने यहाँ शरण न
दे वरना खलीफा के द्वारा निर्धारित दंड का भागी होगा। साथ ही आज्ञा दी कि इन दोनों
को नगर की सीमा से बाहर कर दिया जाए ताकि यह जहाँ चाहें चली जाएँ। पहले वे दोनों
नगर निवासियों के पास ही गईं कि कुछ सहायता लें किंतु सभी को डर था कि खलीफा के
आदेश से जुबैनी उन्हें दंड देगा इसलिए जिसके पास जाती वह या तो उन्हें दुतकार कर
भगा देता या खुद भाग जाता।
दो-चार जगह यह व्यवहार
देख कर गनीम की माँ ने बेटी से कहा, इस शहर में हमें कोई भी व्यक्ति आश्रय नहीं
देगा, सभी को अपनी जान की पड़ी है। यहाँ तो शरण क्या, कोई हमें भीख भी नहीं देगा
जिससे हम पेट भर सकें। अब इस के अलावा और कोई उपाय नहीं है कि हम किसी अन्य देश
में जाएँ। इधर जुबैनी ने कबूतर द्वारा खलीफा के पास संदेश भिजवाया कि आपके आदेश का
पालन कर दिया गया। खलीफा ने उसी कबूतर से यह आदेश भिजवाया कि तीन मंजिल (एकदिवसीय
यात्रा की दूरी) इधर-उधर तक के गाँवों में मुनादी करा दो कि इन लोगों की कोई आदमी
सहायता न करे ताकि इन लोगों को फिर से अपने शहर में आने की कोई संभावना ही न रहे।
जुबैनी ने खलीफा के
आदेशानुसार यह मुनादी तो करवा दी किंतु इन दोनों से कह भी दिया कि नए आदेश के
अनुसार तुम्हें कोई शरण तीन मंजिलों तक नहीं मिल सकेगी। साथ ही उन दोनों को
आधी-आधी अशर्फी भी चुपके से दे दी कि चार-छह दिन तक खाने का प्रबंध कर लें। वे
दोनों जुबैनी के दिए कंबल ओढ़ कर ओर गले में पुराने कपड़ों की बनी भीख की झोली डाल
कर शहर से निकलीं। रात के समय वे किसी मसजिद में जा कर पड़ी रहतीं और मसजिद न होती
तो किसी टूटी-फूटी सराय के कोनों में ठहर जातीं। काफी दूर जाने पर वे एक गाँव में
पहुँची। वहाँ किसानों की स्त्रियाँ उनके चारों ओर एकत्र हो गईं और पूछने लगीं कि
कौन हो। उन्होंने बताया कि हम लोग खलीफा के आदेशानुसार प्रताड़ित किए गए हैं।
स्त्रियों ने पूछा कि खलीफा ने तुम्हें यह दंड क्यों दिया तो उन्होंने पूरा हाल
बताया।
किसानों की स्त्रियों को
उनकी इस दशा पर बड़ी दया आई। उन्होंने उनके कंबलों को उतरवा कर उन्हें पहनने के
लिए अपने कपड़े दिए और उन्हें भोजन कराया। किंतु वे गाँव में क्या करतीं, उन्हें
गनीम को भी खोजना था। इसलिए एक दिन आराम करके दूसरे दिन वे वहाँ से चलीं और
पूर्ववत माँगते-खाते हुछ दिनों बाद हलब नगर में पहुँचीं। वहाँ दो-चार दिन घूम कर
गनीम का पता लगाने की कोशिश की। फिर वहाँ से रवाना हुईं ओर कई दिन के बाद मोसिल नगर
पहुँचीं। वहाँ भी कई दिन तक पूछने पर गनीम का पता न चला तो वे दोनों बगदाद की ओर
चलीं कि शायद वह उसी नगर में कहीं छुप रहा हो। यद्यपि इन भिखमंगी बनी हुई
स्त्रियों को किसी छुपे हुए अपराधी का पता मिलना असंभव था तथापि आशा बलवती होती
है। और वही आशा इन्हें द्वार-द्वार भटका रही थी। बेचारियाँ हर एक से गनीम के बारे
में पूछतीं और हर जगह से जवाब मिलता कि हमें कुछ नहीं मालूम। उधर फितना पर क्या बीती यह
भी सुनिए।
(अगली पोस्ट में जारी……)
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