बुधवार, 5 अक्तूबर 2016

अलिफ लैला 45 शहजादा अबुल हसन और हारूँ रशीद की प्रेयसी शमसुन्निहार की कहानी (भाग 2)

                                                                                                                दासी पत्र ले कर शहजादे के पास आने लगी तो रास्ते में उसके हाथ से पत्र गिर गया। दस-बीस कदम आगे जा कर उसने अपनी जेब में पत्र देखा तो उलटे पाँव लौटी। मार्ग में उसने जौहरी को वह पत्र पढ़ते हुए पाया। इससे दोनों में कहा-सुनी हुई। दासी ने कहा, यह मेरा पत्र है, मुझे वापस दो। जौहरी ने उसकी बात पर ध्यान दिया और पत्र पढ़ता रहा और फिर अपने घर को चल पड़ा। दासी भी पत्र वापस करने का तकाजा करती हुई उसके पीछे-पीछे चली। जौहरी के घर पहुँच कर उसने कहा, तुम मुझे यह पत्र दे दो। यह तुम्हारे किसी काम का नहीं है। तुम्हें तो यह भी नहीं मालूम है कि यह पत्र किसने किसके नाम लिखा है। जौहरी ने उसे एक जगह दिखा कर बैठने का इशारा किया।
दासी बैठ गई तो जौहरी ने कहा, यद्यपि इस पत्र पर लिखनेवाले का नाम है पानेवाले का नाम तथापि मुझे मालूम है कि यह पत्र शमसुन्निहार ने शहजादा अबुल हसन को लिखा है। दासी यह सुन कर घबरा गई। जौहरी ने कहा, मैं तुम्हें रास्ते ही में यह पत्र दे देता किंतु मुझे तुम से कुछ पूछना है, इसीलिए मैं तुम्हें यहाँ ले आया। तुम सच-सच बताओ कि क्या तुमने शहजादे से यह नहीं कहा कि इस जौहरी ने व्यापारी को बगदाद छोड़ने की राय दी है। दासी ने स्वीकार किया कि उसने यही कहा है। जौहरी बोला, तू मूर्ख है। मैं तो चाहता हूँ कि अब व्यापारी के बदले मैं ही शहजादे की सहायता करूँ। तू उलटा ही समझे है। निःसंदेह मैंने ही शहजादे को व्यापारी के शहर छोड़ने का समाचार दिया था। पहले शहजादा मुझसे सशंकित था किंतु मेरे विश्वास दिलाने पर उसने सारा भेद मुझसे कह दिया। अब तू मुझे व्यापारी की जगह इस बात में पूरा विश्वासपात्र समझ और अपनी स्वामिनी से भी कहना कि जौहरी तुम्हारी और शहजादे की प्रसन्नता के लिए अपनी प्रतिष्ठा ही नहीं, अपने प्राण भी दाँव पर लगा देगा।
दासी ने कहा, शहजादा अबुल हसन और शमसुन्निहार दोनों बड़े भाग्यशाली हैं कि व्यापारी चला गया तो तुम जैसा बुद्धिमान सहायक उन्हें मिला। मैं तुम्हारी सद्भावना की पूरी बात अपनी स्वामिनी से कहूँगी। जौहरी ने पत्र उसे दे दिया और कहा कि शहजादा उसके उत्तर में जो कुछ लिखे वह भी मुझे लौटते समय दिखाती जाना और साथ ही हमारी इस समय की बातचीत भी शहजादे को बता देना।
दासी पत्र ले कर शहजादे के पास गई। उसने तुरंत ही उस का उत्तर लिख दिया। दासी ने अपने वचन के अनुसार शहजादे का पत्र भी जौहरी को दिखाया। वह शमसुन्निहार के पास पहुँची और शहजादे का पत्र उसे दे कर जौहरी की भी बड़ी प्रशंसा करने लगी। दूसरे दिन सुबह वह फिर जौहरी के पास आई और बोली, मैंने अपनी स्वामिनी से वह सब कहा जो आप ने मुझ से कहा था। वह यह सुन कर अति प्रसन्न हुईं कि व्यापारी चला गया फिर भी आप उसका स्थान ले कर प्रेमियों के बीच मध्यस्थता के लिए प्रस्तुत हैं। मैंने आपकी शहजादे से हुई बातें भी उन्हें बताईं और कहा कि आप उससे भी बढ़ कर हैं। वह और भी खुश हुई और कहने लगी कि मैं चाहती हूँ कि ऐसे भले मानस से भेंट करूँ जो बगैर कहे और बगैर पूर्व परिचय के खतरा उठा कर भी दूसरों की सहायता करने को राजी हो जाता है। मैं स्वयं उसकी बुद्धि और चतुरता देखना चाहती हूँ और तू उसे कल यहाँ ले आ।
जौहरी चिंतित हो कर बोला, शमसुन्निहार मुझे भी व्यापारी इब्न ताहिर जैसा समझे है। इब्न ताहिर को तो राजमहल में सब जानते थे और द्वारपाल उसे बे रोक-टोक आने देते थे। मुझे कौन आने देगा?
दासी ने कहा, जो कुछ आप कहते हैं वह बिल्कुल ठीक है। लेकिन शमसुन्निहार मूर्ख नहीं है। उसने आप को बुलाया है तो आगा-पीछा सोच ही लिया होगा। आप बेधड़क हो कर मेरे साथ चलिए, आपको कोई परेशानी होगी। आपको कुशलतापूर्वक आपके घर पहुँचाने की जिम्मेदारी मेरी रही। इस प्रकार दासी ने उसे बहुत दिलासा दिया किंतु वह किसी प्रकार भी राजमहल में जाने के लिए तैयार नहीं हुआ।
फिर वह दासी शमसुन्निहार के पास पहुँची और उससे कहा कि जौहरी यहाँ आने से डरता है और मेरे लाख समझाने पर भी आने को राजी नहीं होता। शमसुन्निहार ने थोड़ी देर सोच कर कहा, उसका डरना ठीक ही है। मैं स्वयं ही गुप्त रूप से यहाँ से निकल कर उससे उसके घर में मिलूँगी। तुम जा कर उसे बता दो कि मैं उसके घर कर उससे बात करना चाहती हूँ। दासी ने ऐसा ही किया। जौहरी के घर जा कर उसने कहा, आप कहीं बाहर जाएँ। कुछ ही देर में मैं मालकिन को ले कर आपके यहाँ आती हूँ।
यह कह कर दासी वापस फिरी और कुछ देर में शमसुन्निहार को ले कर जौहरी के घर पहुँची। जौहरी ने बड़े आदरपूर्वक शमसुन्निहार का स्वागत कर के उसे उच्च स्थान पर बिठाया। जब शमसुन्निहार ने अपने चेहरे से नकाब उतारा तो जौहरी उसे देखता ही रह गया। उसने सोचा कि अगर शहजादा इस स्वर्गोपम सौंदर्य के पीछे पागल है तो क्या आश्चर्य है। फिर शमसुन्निहार उससे बातें करने लगी। अपने प्रेम का पूरा वर्णन करने के बाद उसने कहा, मुझे तुझसे मिल कर बहुत प्रसन्नता हुई है। भगवान की बड़ी कृपा है कि इब्न ताहिर के चले जाने के बाद उसने हम दो प्रेमियों को तुम्हारे जैसा सहायक दिया है। अब मैं विदा होती हूँ, भगवान तुम्हारी रक्षा करें।
शमसुन्निहार के जाने के बाद जौहरी शहजादे के पास गया। शहजादे ने उसे देखते ही कहा, मित्र, मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था। कल शमसुन्निहार की दासी ने मुझे उसका पत्र ला कर दिया किंतु उससे तो मेरी विरह व्यथा और बढ़ गई। क्या यह संभव नहीं है कि परम सुंदरी शम्सुनिहार कृपा कर के स्वयं ही कोई उपाय ऐसा करे जिससे हम दोनों का मिलन हो। इब्न ताहिर होता तो शायद कोई रास्ता निकलता। उसके जाने के बाद मेरी समझ में नहीं आता कि मैं किस तरह शमसुन्निहार से मिलूँ।
जौहरी ने कहा, इतना निराश होने की जरूरत नहीं है। मैंने आपके उद्देश्य की पूर्ति के लिए जो उपाय सोचा है उससे बढ़ कर कोई उपाय नहीं हो सकता। यह कह कर जौहरी ने सविस्तार शहजादे को बताया कि किस प्रकार मैंने दासी को राजी किया और किस तरह शमसुन्निहार ने मेरे घर कर मुझसे बातचीत की। उसने कहा कि आप दोनों की भेंट अवश्य होगी किंतु मेरा या आपका राजमहल में जाना ठीक नहीं है, मैं एक सुंदर भवन को किराए पर लेने का प्रबंध करूँगा जहाँ आप दोनों मिल सकें।
शहजादा यह सुन कर बड़ा खुश हुआ। उसने जौहरी का बड़ा आभार प्रकट किया और कहा कि तुम जैसा कहोगे वैसा ही करूँगा। जौहरी उससे विदा हो कर अपने घर आया। दूसरे दिन दासी फिर आई। जौहरी ने कहा, बहुत अच्छा हुआ कि तुम आई, मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था। दासी ने कारण पूछा तो जौहरी ने कहा कि शहजादे का विरह में बुरा हाल है, तुम जैसे भी हो शमसुन्निहार को लाओ ताकि दोनों का मिलन हो सके।
दासी ने कहा, स्वामिनी का भी शहजादे के विरह में यह हाल है जैसे कोई मछली गर्म बालू पर तड़प रही हो। किंतु आपका घर बहुत छोटा है, उन दोनों के मिलन के योग्य नहीं है। जौहरी ने कहा कि मैंने एक बड़ा मकान ठीक किया है, तुम मेरे साथ चल कर उसे देख लो। दासी ने उसके साथ वह मकान देखा और पसंद किया और बोली कि मैं अभी आती हूँ, अगर स्वामिनी आने को राजी होती हैं तो मैं उन्हें ले कर तुरंत जाऊँगी। दासी विदा हो कर कुछ ही देर में फिर जौहरी के पास गई और जौहरी को अशर्फियों की एक थैली दे कर बोली, यह स्वामिनी ने इसलिए भिजवाई है कि आप उस बड़े मकान में आवश्यक साज-सज्जा करा लें और नाश्ते, पलंग, मसनद आदि वहाँ पर तैयार रखें। यह कह कर दासी चली गई और इधर जौहरी ने अपने व्यापारी मित्रों के यहाँ से कई सोने-चाँदी के बरतनों और गद्दे, तकिया, मसनद, पर्दे आदि मँगवा कर उक्त मकान को सजा दिया।
सारा प्रबंध करने के बाद वह शहजादे के पास गया और उससे अपने साथ चलने को कहा। शहजादा उत्तम और सजीले कपड़े पहन कर जौहरी के साथ चला। जौहरी उसे सुनसान गलियों से हो कर बड़े मकान में ले आया। शहजादा मकान और साज-सज्जा को देख कर प्रसन्न हुआ और जौहरी से इधर-उधर की बातें करता रहा। दिन ढला और शमसुन्निहार अपनी उसी विशिष्ट दासी तथा अन्य दासियों को ले कर वहाँ गई। शहजादा और शमसुन्निहार दोनों एक-दूसरे को देख कर ऐसे प्रसन्न हुए जिसका वर्णन शब्दों में नहीं हो सकता। बहुत देर तक तो वे बगैर बोले-चाले एक दूसरे को एकटक देखते ही रहे।
फिर दोनों ने अपनी-अपनी विरह व्यथा का इतने कारुणिक रूप से वर्णन किया कि जौहरी की आँखों में आँसू गए और शमसुन्निहार की तीनों दासियाँ रोने लगीं। जौहरी ने उन दोनों को तसल्ली दी और धैर्य से काम लेने के लिए समझाया-बुझाया। फिर दोनों को उस जगह लाया जहाँ जलपान की व्यवस्था थी। जलपान के उपरांत वे लोग वहाँ पर कर मसनदों पर बैठे जहाँ से उठ कर नाश्ता करने गए थे। वे एक-दूसरे से प्रीतिपूर्वक वार्तालाप करने लगे। शमसुन्निहार ने पूछा कि यहाँ कोई बाँसुरी तो नहीं होगी। जौहरी ने सारा प्रबंध पहले ही कर रखा था। उसने एक बाँसुरी ला कर दे दी। शमसुन्निहार ने बाँसुरी पर बड़ी देर तक प्रेम और विरह को व्यक्त करनेवाली एक धुन बजाई। इसके बाद शहजादे ने भी उसके जवाब में उसी बाँसुरी पर बड़ी कारुणिक ध्वनि में एक विरह-राग निकाला।
इतने ही में मकान के बाहर बड़ा शोरगुल सुनाई दिया। दो क्षण बाद जौहरी का एक नौकर दौड़ा-दौड़ा आया और बोला कि द्वार पर बहुत-से आदमी जमा हैं और वे द्वार तोड़ कर अंदर आना चाहते हैं। उसने कहा कि जब मैंने उनसे पूछा कि तुम कौन हो और क्या चाहते हो तो उन्होंने मुझे पीटना शुरू कर दिया और मैं जान बचा कर द्वार बंद कर के अंदर भाग गया। यह सुन कर जौहरी स्वयं द्वार पर गया कि देखे कि क्या बात है। द्वार खोला तो देखा कि सौ आदमी हाथों में नंगी तलवारें लिए खड़े हैं। उसकी हिम्मत उनसे बात करने की हुई अंदर वापस आने की। वह एक पड़ोसी की, जिसे वह पहले से जानता था, दीवार पर चढ़ कर उसके मकान में कूद पड़ा। उसने पड़ोसी को बताया कि मुझ पर क्या बीत रही है। पड़ोसी ने उसे घर के एक कोने में छुपा लिया।
आधी रात को पड़ोसी की तलवार ले कर जौहरी बाहर निकला क्योंकि उस समय सारा शोर थम गया था और निस्तब्धता छा गई थी। बड़े मकान में देखा तो उसे सुनसान पाया। वहाँ शहजादा या शमसुन्निहार या उनकी दासियाँ थीं कोई साज सामान या बरतन-भाँडे। मकान में घूमते-घूमते एक कोने में उसे एक आदमी का शब्द सुनाई दिया। उसने पूछा, कौन हो? छुपे हुए आदमी ने उसकी आवाज पहचानी और बाहर निकल आया। वह जौहरी का एक सेवक था।
जौहरी ने उससे पूछा कि वे हथियारबंद लोग क्या गश्त के सिपाही थे। उसने कहा वे लोग गश्त के सिपाही नहीं थे बल्कि डाकू थे और सब कुछ लूट कर ले गए, कई दिनों से यह लोग लूट-मार कर रहे हैं और कई मुहल्लों में जा कर कई घरों में डाका डाल चुके हैं।
जौहरी को भी विश्वास हो गया कि वे लोग डाकू ही थे क्योंकि वे सारी चीजें भी लूट कर ले गए थे। उसने शहजादा और शमसुन्निहार के साथ सारा साज-सामान भी गायब देखा तो सिर पीटने लगा कि जिन मित्रों से वह चीजें माँग कर लाया था उन्हें क्या जवाब दूँगा। सेवक ने उसे धैर्य देते हुए कहा, विश्वास रखिए कि शहजादा और शमसुन्निहार दोनों कुशलपूर्वक होंगे। जहाँ तक माँगे की चीजों की बात है उसके बारे में भी आपके मित्र कुछ कहेंगे क्योंकि इस डाके का समाचार तो सब को मालूम ही हो जाएगा। जौहरी सोचने लगा कि इब्न ताहिर ही अच्छा रहा कि समय रहते निकल गया। मेरा माल तो लूटा ही है, देखो आगे क्या होता है, जान भी बचती है या नहीं।
सवेरा होने पर सारे शहर में डाके का समाचार फैल गया। जौहरी के मित्र भी उसके घर पर सहानुभूति प्रकट करने आए क्योंकि उन्हें मालूम था कि वह मकान उसने किराए पर लिया था। जिन मित्रों से चीजें माँग कर लाया था उन्होंने तो कह दिया कि सामान की चिंता करो, लेकिन जौहरी को शहजादा और शमसुन्निहार की चिंता होने लगी कि जाने उन पर क्या बीत रही हो। मित्रों के विदा होने के बाद जौहरी के सेवक उसके लिए भोजन लाए किंतु उसे शमसुन्निहार और शहजादे की चिंता इतनी सता रही थी कि उसने नाममात्र को भोजन किया।
वह इसी तरह चिंता में पड़ा था कि दोपहर को एक सेवक ने उससे कहा कि एक आदमी आप से मिलना चाहता है। उस आदमी ने अंदर जा कर जौहरी से कहा कि यहाँ नहीं, अपने किराएवाले बड़े मकान में चलो, वहीं तुमसे बात करूँगा। जौहरी को आश्चर्य हुआ कि इस अजनबी को यह कैसे मालूम है कि मैंने कोई मकान किराए पर लिया था। आदमी उसे घुमावदार गलियों से हो कर ले चला और बोला कि इन्हीं गलियों से हो कर डकैत कल तुम्हारे घर आए थे। जौहरी को यह तो आश्चर्य हो ही रहा था कि इसे सब बातें मालूम कैसे हैं, इस बात पर भी आश्चर्य और भय हो रहा था कि वह उसे उसके दूसरे मकान में भी नहीं ले जा रहा था बल्कि कहीं और ही ले जा रहा था।
चलते-चलते शाम हो गई। जौहरी बहुत थक भी गया था और उसका भय भी बहुत बढ़ गया था किंतु उसकी कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी। शाम को वे लोग दजला नदी पर पहुँचे और नाव से नदी पार कर के नदी पारवाले क्षेत्र में भी गलियों में चलते-चलते एक मकान के सामने पहुँचे जहाँ खड़े हो कर उस आदमी ने ताली बजाई।
दरवाजा खुलने पर वह आदमी जौहरी को अंदर ले गया। अंदर दस व्यक्ति बैठे थे जिन्होंने जौहरी का स्वागत किया और आदरपूर्वक अपने पास बिठाया। कुछ देर में उनका सरदार आया जिसके बाद सबने भोजन किया। भोजन के बाद उन लोगों ने जौहरी से पूछा कि क्या तुमने कभी पहले भी हमें देखा है। उसने कहा कि तो मैंने पहले तुम लोगों ही को देखा नदी पार के इस हिस्से की गलियाँ ही देखीं। फिर उन लोगों ने कहा कि कल रात जो कुछ तुम्हारे साथ हुआ वह साफ-साफ बताओ। जौहरी ने आश्चर्य से कहा कि तुम लोगों को यह कैसे मालूम कि कल रात मेरे साथ कोई विशेष घटना घटी थी। उन लोगों ने कहा कि हमें यह उस पुरुष और स्त्री से मालूम हुआ जो कल रात तुम्हारे साथ थे लेकिन हम चाहते हैं कि तुम्हारे मुँह से पूरा विवरण सुनें। जौहरी सोचने लगा कि कहीं यही तो वे डाकू नहीं है जो रात को आए थे।
उसने कहा, भाइयो, जो कुछ होना था वह हो गया किंतु मुझे असली चिंता उसी आदमी और उसी सुंदरी की है। तुम लोगों को उनका कुछ हाल मालूम हो तो बताओ। उन लोगों ने कहा कि तुम उन दोनों की चिंता छोड़ दो, वे दोनों कुशलतापूर्वक हैं। उन्होंने जौहरी को दो कक्ष दिखाए और कहा, वे दोनों अलग-अलग इन्हीं कमरो में हैं। उन्हीं से हमें तुम्हारा पता चला है और उन्होंने बताया है कि तुम उनके सहायक और मित्र हो। हम लोगों का काम किसी पर दया करना नहीं है, फिर भी हमने अपने स्वभाव के विपरीत उन दोनों को बड़ी सुख-सुविधा के साथ रखा और उन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने दिया। और हम तुम्हें भी कोई कष्ट नहीं होने देंगे।
अब जौहरी को विश्वास हो गया कि वे डाकू हैं। उसने उनकी दया के लिए आभार प्रकट किया और शहजादे तथा शमसुन्निहार की प्रेम-कथा आरंभ से पिछली रात तक विस्तारपूर्वक बताई। उन लोगों ने आश्चर्य से कहा, क्या यह सच है कि यह आदमी फारस के शहजादे बका का पुत्र अबुल हसन है और यह स्त्री खलीफा की प्रेयसी शमसुन्निहार है? जौहरी ने कहा कि मैंने जो कुछ कहा है बिल्कुल सच कहा है। जब डाकुओं को जौहरी के कहने का विश्वास हुआ तो उन्होंने एक-एक कर के अबुल हसन और शमसुन्निहार के पास जा कर अपने अपराध के लिए क्षमा-प्रार्थना की। उन्होंने कहा कि हम लोग आपको जानते नहीं थे इसीलिए हम से यह अपराध हुआ है।
उन्होंने कहा कि हमने जो कुछ आपके घर से लूटा था वह सब का सब तो वापस नहीं कर सकते क्योंकि उसमें से बहुत कुछ हमारे अन्य साथी ले गए हैं किंतु सोने और चाँदी के बरतन जरूर यहाँ है, उन्हें हम वापस कर देंगे। उन डाकुओं ने बरतन दे कर उन तीनों से कहा कि हम तुम्हें सुरक्षापूर्वक नदी के उस पार पहुँचा देंगे। किंतु तुम लोगों को यह वादा करना पड़ेगा कि हमारा भेद नहीं खोलोगे। उन तीनों ने कसम खाई कि हम लोग तुम्हारे बारे में किसी को नहीं बताएँगे।
इसके बाद वे डाकू उन तीनों को एक नाव में बिठा कर नदी के पार तक छोड़ गए। किंतु ज्यों ही वे तीनों तट पर उतरे कि गश्त के सिपाही इधर निकले। डाकू तो उन्हें देखते ही अपनी नाव तेजी से खेते हुए भाग गए किंतु गश्तवालों ने इन तीनों को पकड़ लिया और पूछा कि तुम लोग इस निर्जन स्थान में क्या कर रहे थे।
जौहरी ने सच्ची बात बताई बल्कि कहा कि डाकू दल मेरे घर डाका डाल कर मुझे पकड़ ले गए और इन दोनों को भी मेरे यहाँ से पकड़ ले गए। आज जाने क्या सोच कर उन्होंने हम सभी को नदी पार पहुँचा दिया और लूटा हुआ कुछ माल भी वापस कर दिया। उसने कहा कि वे लोग जो नाव में नदी पार कर रहे हैं डाकू ही हैं। गश्त के मुखिया ने उसकी बात का विश्वास कर लिया। उसे छोड़ कर शहजादे और शमसुन्निहार से पूछने लगे कि तुम लोग कौन हो और इस सुंदरी को उसके घर से कौन लाया है। इस पर शहजादा तो कुछ बोला किंतु शमसुन्निहार ने गश्ती दल के मुखिया को अलग ले जा कर कुछ कहा। उसने तुरंत घोड़े से उतर कर उसे सलाम किया और आदेश दिया कि दो नावें लाई जाएँ। उसके एक पर शमसुन्निहार को बिठा कर उसके घर पहुँचाने का आदेश दिया। दूसरी पर माल की गठरियों के साथ ही शहजादे और जौहरी को बिठा कर अपने दो सिपाही उनके साथ कर दिए ताकि वे उन्हें सुरक्षापूर्वक उनके घर पहुँचा दें।
किंतु वे सिपाही इन लोगों से खुश नहीं थे। उन्होंने नाव को शहर के घाट पर ले जाने के बजाय कारागार की ओर मोड़ दिया और जौहरी के लाख प्रतिवाद करने पर भी उन्हें कारागार में पहुँचा दिया। कारागार के प्रधान अधिकारी ने इन लोगों से पूछा कि तुम लोग कौन हो और तुम्हें क्यों पकड़ा गया है। जौहरी ने इस अधिकारी को भी पूरी बात बताई और कहा कि गश्ती दल के मुखिया ने हमारी बात का विश्वास कर के हमें हमारे घर पहुँचाने का आदेश दिया था किंतु इन दो सिपाहियों ने हमें बंदीगृह में पहुँचा दिया - शायद यह लोग हमसे कुछ घूस चाहते थे और वह मिलने पर उन्होंने ऐसा किया। कारागृह के अधिकारी को भी जौहरी की बात का विश्वास हो गया।
उसने गश्त के दोनों सिपाहियों को खूब डाँटा-फटकारा और अपने दो सिपाहियों को आदेश दिया कि दोनों को माल-असबाब के साथ शहजादे के घर पर पहुँचा दिया जाए।
जब यह दोनों शहजादे के घर पहुँचे तो इतने थके थे कि एक कदम चलना भी मुश्किल था किंतु शहजादे के नौकरों ने दोनों को सहारा दे कर अंदर पहुँचाया और आराम से बिठाया। जौहरी कुछ ताजादम हुआ तो शहजादे ने अपने नौकरों को आज्ञा दी कि जौहरी को माल-असबाब के साथ आराम से उसके घर पर पहुँचा दिया जाए। जौहरी जब अपने घर आया तो देखा कि घरवाले उसकी चिंता में रो-पीट रहे हैं। जौहरी को सही-सलामत देख कर उन लोगों को ढाँढ़स बँधा और सब उससे पूछने लगे कि तुम कहाँ गए थे और क्या हुआ था। उसने यह कह कर कि मैं बहुत थका हूँ सभी को चुप कर दिया और चुपचाप अपने बिस्तर पर लेट गया।
दो दिन में जौहरी अपनी थकान और मानसिक आघात से उबर सका। तीसरे दिन वह अपने एक मित्र के घर जी बहलाने जा रहा था कि मार्ग में एक स्त्री ने उसे अपने पास आने का इशारा किया। जौहरी पास गया तो उसने पहचाना कि यह शमसुन्निहार की विश्वस्त दासी है। जौहरी इतना डरा हुआ था कि उसने उससे वहाँ पर कोई बात की और उसे अपने पीछे आने का इशारा कर के एक ओर को चलने लगा। दासी भी पीछे-पीछे चली। वे लोग चलते-चलते एक निर्जन मस्जिद में गए और वहाँ दासी ने जौहरी से पूछा कि आप डाकुओं से कैसे बचे। जौहरी ने कहा, पहले तुम अपना हाल बताओ कि तुम और दो अन्य दासियाँ कैसी बचीं। दासी ने कहा कि जब डाकू आपके घर पर आए तो हम तीनों ने समझा कि खलीफा को पता चल गया है और उसने अपने सिपाही भेजे हैं। हम तीनों अपनी जान के डर से मकान की छत पर चढ़ गईं और छतों-छतों होते हुए एक भले मानस के घर में गईं। उसने दया कर के हमें रात भर अपने यहाँ सुरक्षित रखा। सवेरे हम लोग अपने आवास पर पहुँचे। अन्य दासियाँ स्वामिनी को हमारे साथ देख कर चिंतित हुई तो हमने उन्हें दिलासा दिया कि वे अपनी एक सहेली के घर रह गई हैं।
दासी ने कहा, हम लोग भी स्वामिनी के बारे में चिंतित थे। हमने उस शाम को एक नाव पर एक आदमी को भेजा कि अगर किसी सुंदरी को किसी आदमी के साथ भटकते देखें तो यहाँ ले आएँ।
हम लोग आधी रात तक हर आहट पर कान लगाए रहे। आधी रात को अपने आवास के पिछवाड़े के घाट पर नाव का शब्द सुना। जा कर देखा कि हमारे भेजे हुए आदमी तथा एक अन्य व्यक्ति के साथ स्वामिनी नाव पर आई हैं। वे इतनी अशक्त थीं कि एक कदम चल भी नहीं सकती थीं। हम लोग उन्हें सँभाल कर लाए। उन्होंने चुपके से उन दो आदमियों को एक हजार अशर्फी दे कर विदा किया। अब वे अच्छी हैं। उन्होंने हम लोगों को डाकुओं द्वारा पकड़े जाने और छूटने का वृत्तांत भी बताया। दासी के यह कहने के बाद जौहरी ने भी वह सब कुछ बताया जो उस पर और शहजादे पर बीता था।
दासी ने दो थैलियाँ अशर्फियों की दीं और कहा, हमारी स्वामिनी ने यह आपके लिए भेजी हैं क्योंकि उन्हें इस बात का बड़ा ख्याल है कि आपको उनकी वजह से बड़ा कष्ट और नुकसान हुआ है इसलिए आपकी क्षतिपूर्ति की जा रही है। जौहरी ने धन्यवादपूर्वक वह धन ले लिया। उसने उसमें से कुछ इसलिए खर्च किया कि मित्रों से माँगी हुई वस्तुएँ उन्हें खरीद कर लौटा दे। फिर भी काफी बचा जिससे उसने एक विशाल और सुंदर मकान उसी दिन बनवाना आरंभ कर दिया।
फिर वह शहजादे के घर उसका हालचाल पूछने को गया। शहजादे के नौकरों ने बताया वे जब से आए हैं आँखें बंद किए अपने बिस्तर पर पड़े हैं। उन्होंने कुछ भी खाया-पिया नहीं है। जौहरी इससे चिंतित हुआ। उसने शहजादे के पास जा कर उसे बड़ा धैर्य दिया। शहजादे ने जौहरी की आवाज सुन कर आँखें खोलीं और उसकी बातें सुनता रहा। फिर उसने जौहरी का हाथ दबा कर कहा कि मित्र, तुमने हमारे लिए बड़ा कष्ट सहा, मैं कैसे तुम्हारा आभार प्रकट करूँ। जौहरी ने कहा, मैं आपका सेवक हूँ, आपके लिए सब कुछ कर सकता हूँ किंतु भगवान के लिए खाना-पीना शुरू कीजिए और अपने स्वास्थ्य को ठीक रखिए।
शहजादे ने जौहरी के कहने से कुछ खाया-पिया। फिर एकांत में उसने शमसुन्निहार का समाचार पूछा। जौहरी ने कहा, वह कुशलपूर्वक हैं और कल ही उसने अपनी दासी को भेजा था कि मुझसे आप की कुशलक्षेम पूछें। जौहरी इसके बाद अपने घर आना चाहता था किंतु शहजादे ने उसे रोक लिया और आधी रात तक जाने दिया। आधी रात को जौहरी अपने घर गया और दूसरे दिन फिर शहजादे के पास पहुँचा। शहजादे ने चाहा कि जौहरी की क्षतिपूर्ति के निमित्त कुछ धन दे दे किंतु जौहरी ने लिया और कहा कि मुझे शमसुन्निहार ने काफी धन इस हेतु दे दिया है। दोपहर को जौहरी शहजादे से विदा हो कर अपने घर पहुँचा।
उसे घर पहुँचे बहुत देर हुई थी कि शमसुन्निहार की वही विश्वस्त दासी रोती-पीटती उसके घर पहुँची। उसने बताया कि अब तुम्हारी और शहजादे की जान खतरे में है। अगर तुम लोगों को अपने प्राण प्यारे हैं तो तुरंत शहर छोड़ कर कहीं को निकल जाओ। जौहरी ने हैरान हो कर कहा, आखिर हुआ क्या है? तू क्यों इतना रो-पीट रही है और क्यों मुझे इतना भय दिखा रही है? साफ-साफ पूरी बात बता। उस दासी ने कहा, जब हम लोग उस मकान से भाग कर अपने आवास पर पहुँचे और बाद में शमसुन्निहार भी घर पहुँची तो उसने मेरे साथ की दो दासियों में से एक को किसी बात पर रुष्ट कर उसे दंड देने की आज्ञा दी। उस पर बहुत मार पड़ी और वह उसी रात को भय और क्रोध के कारण शमसुन्निहार के महल से भाग गई और महल के रक्षकों के प्रधान के पास शरण लेने चली गई।
उस दासी ने रक्षकों के प्रमुख से उस रात का सारा हाल बता दिया। रक्षकों के प्रमुख ने उसे जाने क्या सलाह दी। फिर वह खलीफा के महल में चली गई और संभवतः उसने खलीफा को भी सारी बातें बता दीं। खलीफा ने बीस सिपाही भेज कर शमसुन्निहार को पकड़वा कर बुलाया। इसके आगे मुझे नहीं मालूम कि उसने उसे मरवा डाला या कुछ और किया। मैं यह देख कर सारा हाल तुमसे कहने आई हूँ।
यह सुन कर जौहरी के होश उड़ गए। उसने फिर शहजादे के मकान की ओर दौड़ लगाई। शहजादे को उसकी बदहवासी को देख कर आश्चर्य हुआ और उसने तुरंत जौहरी से बात करने के लिए एकांत करवाया। जब जौहरी ने उसे पूरा हाल बताया और कहा कि खलीफा ने शमसुन्निहार को गिरफ्तार करवा दिया है तो शहजादे को गश गया। कुछ देर में होश आने पर उसने पूछा कि शमसुन्निहार के लिए क्या किया जा सकता है। जौहरी ने कहा कि आप शमसुन्निहार के लिए कुछ नहीं कर सकते, लेकिन यहाँ रहे तो स्वयं भी मरेंगे और मुझे भी मरवा डालेंगे। आप कृपा कर के फौरन उठिए और मेरे साथ इवनाजपुर की ओर प्रस्थान करिए। किसी समय भी खलीफा के सिपाही कर हम दोनों को पकड़ सकते हैं और बाद में हम दोनों बड़े निरादरपूर्वक मारे जाएँगे।
शहजादे ने फौरन कुछ तीव्रगामी घोड़ों के लाने का आदेश दिया और कई हजार अशर्फियाँ अपने और जौहरी के पास रखीं और कुछ सेवकों के साथ शहर से निकल पड़े। कई रोज वे उसी तरह रात-दिन चलते रहे। एक दिन दोपहर के समय वे थकान के कारण आराम करने के लिए वृक्षों के नीचे लेटे। इतने में डाकुओं के एक दल ने उन पर आक्रमण कर दिया। शहजादे के नौकरों ने उनका सामना किया किंतु सब मारे गए। डाकुओं ने शहजादे और जौहरी के सारे हथियार, घोड़े और धन ले लिया बल्कि उनके शरीर के कपड़े भी उतार लिए और उन दोनों को वैसा ही असहाय छोड़ कर चले गए।
शहजादे ने कहा, संसार में मुझसे अधिक अभागा कौन होगा कि एक विपत्ति समाप्त नहीं होती कि दूसरी पड़ती है। यदि इस्लाम में आत्महत्या को पाप समझा जाता तो मैं अपनी जान अपने हाथों दे देता। अब मैंने तय किया है कि यहाँ से कहीं नहीं जाऊँगा बल्कि शमसुन्निहार की याद में यहीं जान दे दूँगा। जौहरी ने उसे बहुत समझाया-बुझाया कि इस प्रकार निराश नहीं होना चाहिए और भगवान की इच्छा को स्वीकार करना चाहिए। बहुत समझाने पर शहजादा उठा और दोनों एक पगडंडी पर चलने लगे। कई मील चल कर इन्हें एक मस्जिद मिली। वे दोनों भूखे-प्यासे रात भर वहीं पड़े रहे।
सवेरे एक भला मानस वहाँ नमाज पढ़ने आया। नमाज के बाद उसने दो आदमियों को एक कोने में दुबक कर बैठे देखा। उसने कहा कि तुम लोग परदेसी जान पड़ते हो। जौहरी ने कहा, हमारी दशा आप देख ही रहे हैं। हम लोग बगदाद से रहे थे कि रास्ते में डाकुओं ने हमें लूट लिया, कुछ भी हमारे पास छोड़ा। उस आदमी ने कहा कि आप लोग मेरे घर चलें और आराम करें। जौहरी बोला, कैसे चलें? वे लोग हमारे कपड़े भी ले गए और हम नंगे बैठे हैं। उस आदमी ने बाहर जा कर अपने घर से दो चादरें लीं और मस्जिद में कर इन लोगों से चलने को कहा।
अब जौहरी को कुछ और ही शक हुआ कि यह आदमी इतना कृपालु क्यों है। उसने सोचा कहीं ऐसा तो नहीं कि खलीफा ने हम लोगों की गिरफ्तारी के लिए इनामी इश्तिहार दिया हो और यह इनाम के लालच में हमें पकड़वाना चाहता हो। उसने कहा, आपकी कृपा के लिए धन्यवाद किंतु बीमारी और भूख से मेरे साथी की हालत खराब हो गई है और वह चलने-फिरने के योग्य नहीं है। उस भले आदमी ने एक नौकरानी से उन दोनों के लिए कुछ खाना भी भिजवा दिया। जौहरी ने पेट भर खाना खा लिया।
किंतु शहजादे की हालत वास्तव में खराब थी। उससे एक कौर भी नहीं खाया गया। उसने समझ लिया कि मेरा अंत समय गया है और वह जौहरी से बोला, भाई, अब मैं बच नहीं सकता तुम देख ही रहे हो कि मैंने शमसुन्निहार के प्रेम में क्या-क्या विपत्तियाँ उठाईं और इस अंत समय में भी उसी की याद कर रहा हूँ। मुझे मरने का दुख नहीं है। अब तुमसे अंतिम प्रार्थना है कि मैं मर जाऊँ तो मेरे शव को कुछ दिनों के लिए इसी भले आदमी की निगरानी में छोड़ना और बगदाद जा कर मेरी माता को मेरी मृत्यु की सूचना देना और कहना कि यहाँ से मेरी लाश उठवा कर ले जाएँ और विधिपूर्वक दफन करवाएँ।
यह कह कर शहजादे ने अपने प्राण छोड़ दिए। जौहरी उसके लिए बहुत देर तक विलाप करता रहा। उस दिन उस भले आदमी के पास लाश रखवा कर एक यात्री दल के साथ बगदाद की ओर चला। बगदाद पहुँच कर उसने शहजादे की मृत्यु की सूचना उसकी माँ को दी। बेचारी वृद्धा जवान बेटे के लिए सिर पीट-पीट कर बहुत रोई। फिर कई सेवकों के साथ वहाँ गई जहाँ शहजादे का शव रखा हुआ था।
इधर जौहरी अपने घर में बैठा शोक मना रहा था कि उसके पूरे प्रयत्नों के बाद भी इस प्रेम-प्रसंग का ऐसा दुखद अंत हुआ। एक दिन वह इसी शोक में अपने घर के सामने घूम रहा था कि उसे शमसुन्निहार की वही विश्वस्त दासी मिली। वह उसे अपने घर में ले गया और उसे बताया कि उसकी सूचना के बाद जब शहजादे के साथ मैं भागा तो क्या हुआ और किस प्रकार उस शहजादे ने शमसुन्निहार की याद करते हुए प्राण छोड़ दिए। और अब शहजादे की माँ अपने बेटे की लाश लेने गई है।
यह सुन कर दासी भी सिर पीट-पीट कर रोने लगी। बाद में दासी ने कहा, अब शमसुन्निहार भी इस दुनिया में नहीं है। खलीफा ने उसे पकड़वा मँगाया तो उसने खलीफा के सामने स्वीकार कर लिया कि वह अबुल हसन के प्रेम में पागल है। अबुल हसन का नाम लेने के साथ ही वह इस तरह तड़पने और छटपटाने लगी कि उसके सच्चे प्रेम से खलीफा भी प्रभावित हुआ और उसके हृदय में क्रोध के बजाय सहानुभूति जागृत हो गई। उसने शमसुन्निहार को गले लगाया और बहुत कुछ भेंट और पारितोषक दे कर उसे विदा किया। उसने अपने महल में कर मुझसे कहा कि तूने मेरे साथ बड़ा उपकार किया है किंतु मैं भी अब दो घड़ी की मेहमान हूँ। मैंने उसे धैर्य दिया और कहा ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए। शाम को खलीफा फिर उसके पास आया और गाना-बजाना शुरू हुआ किंतु प्रेम-संगीत ने उसकी दशा खराब कर दी और वह मर गई।
खलीफा ने पहले तो उसे बेहोश समझा और उसे होश में लाने के बहुत प्रयत्न करवाता रहा किंतु जब निश्चय हुआ कि वह मर गई तो उसने शोक में आज्ञा दी कि समस्त वाद्य-यंत्र तोड़ दिए जाएँ। अब उस सभा में संगीत के बदले रुदन के स्वर उठने लगे। खलीफा खुद भी वहाँ अधिक बैठ सका और अपने महल को चला गया। मैं रात भर स्वामिनी के शव के पास बैठी रही। सुबह मैंने लाश को नहलाया और महल के अंदर बड़े मकबरे में, जहाँ दफन होने की अनुमति शमसुन्निहार ने पहले ही खलीफा से ले ली थी, दफन किया। अब मैं चाहती हूँ कि जब शहजादे की लाश आए तो उसे भी स्वामिनी की कब्र के बगल में गाड़ा जाए ताकि दोनों प्रेमी मर कर तो एक जगह रहें।
जौहरी ने कहा कि खलीफा की अनुमति के बगैर यह कैसे संभव है। दासी ने कहा, इसकी चिंता करें। खलीफा ने मुझसे कहा कि तू हमेशा उसकी वफादार रही, अब मरने के बाद भी उसकी सेवा में रह और उसकी कब्र की देखभाल कर। खलीफा ने मुझे वहाँ का सारा अधिकार दे दिया है। वैसे भी उसे शहजादे और शमसुन्निहार के प्रेम का हाल मालूम है और वह इस प्रसंग से नाराज भी नहीं है।
जब शहजादे की लाश बगदाद पहुँची तो जौहरी ने उस दासी को इसकी सूचना भिजवाई। वह कर शहजादे की लाश को शहजादे की माता की अनुमति ले कर महलवाले मकबरे में ले गई। शहजादे की शवयात्रा में हजारों आदमी शामिल थे। अंततः शहजादे को भी अपने प्रेयसी के बगल में दफन कर दिया गया। तब से दूर-दूर के देशों से लोग कर उनकी कब्रों पर मनौती मानते हैं।
शहरजाद ने यह कथा समाप्त की तो उसकी बहन दुनियाजाद ने कहा कि यह कहानी बहुत ही सुंदर थी, क्या तुम्हें और भी कोई कहानी आती है। शहरजाद बोली, यदि मुझे आज प्राणदंड मिला तो मैं कल शहजादा कमरुज्जमाँ की कहानी सुनाऊँगी। बादशाह शहरयार ने नई कहानी सुनने के लालच में उस दिन भी शहरजाद का वध नहीं करवाया और अगली सुबह के पूर्व शहरजाद ने नई कहानी आरंभ कर दी।                     स्रोत-इंटरनेट से कापी-पेस्ट
                            

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