सोमवार, 10 अक्तूबर 2016

अलिफ लैला 49 गनीम और फितना की कहानी (भाग 1)

दुनियाजाद ने मलिका शहरजाद से नई कहानी सुनाने को कहा और बादशाह शहरजाद ने भी अपनी मौन स्वीकृति दे दी तो शहरजाद ने नई कहानी शुरू कर दी। उसने कहा कि पुराने जमाने में दमिश्क नगर में एक व्यापारी रहता था जिसका नाम अय्यूब था। उसके दो ही संतानें थीं, एक पुत्र और एक पुत्री। पुत्र का नाम था गनीम और पुत्री का अलकिंत। पुत्री अत्यंत रूपवती और गुणवंती थी और उसे जो भी देखता उस पर मुग्ध हो जाता। कुछ समय के बाद अय्यूब बीमार पड़ा और उस बीमारी से उबर न सका। गनीम अभी बिल्कुल नौजवान था। पिता का पूर्णरूपेण अंतिम संस्कार करने के बाद उसने व्यापार वस्तुओं तथा संपत्ति को सँभालना शुरू किया।
उसने अपने पिता के गोदाम में जा कर देखा कि बहुत-सी गाँठें हैं जिन पर बड़े बड़े अक्षरों में बगदाद लिखा है। उसकी समझ में कुछ न आया और उसने अपनी माँ से पूछा कि गठरियों और गाँठों पर बगदाद क्यों लिखा है। माँ ने उत्तर दिया, बेटे, तुम्हारे पिता का हर काम बड़ा व्यवस्थित होता था। जिस चीज को जहाँ जा कर बेचना चाहते थे उसकी गाँठ पर उस स्थान का नाम लिख देते थे ताकि व्यापार यात्रा करते समय हर चीज को खोल कर देखने की जरूरत न पड़े और समय का अपव्यय या गड़बड़ी की संभावना न हो। जिन गाँठों पर बगदाद लिखा है उन्हें वे बगदाद जा कर बेचना चाहते थे। किंतु इस व्यापार यात्रा पर जाने के पहले ही वे महायात्रा पर चले गए। बगदाद की यात्रा न हो सकी और बगदाद में बेची जाने वाली वस्तुएँ यहीं धरी रह गईं। यह कह कर वह अपने पति की याद में रोने लगी। गनीम ने उस समय माता की दशा देख कर कुछ कहना उचित न समझा।
किंतु यह बात उसके मन में बैठी रही और एक दिन उचित अवसर पा कर उसने माँ से कहा, पिताजी का छोड़ा हुआ काम मैं पूरा करूँगा। वे यह माल बगदाद नहीं ले जा सके, इसे मैं वहाँ ले जा कर बेचूँगा। उसकी माँ यह बात सुन कर बड़ी दुखी हुई और बोली, बेटा, अभी तुम्हारी उम्र कम है। तुम इतनी लंबी यात्रा के योग्य नहीं हो। अभी तो मैं तुम्हारे पिता के रंज ही से उबर नहीं पाई हूँ फिर तुम भी अपने बिछोह का दुख मुझे देना चाहते हो। तुम यात्रा का विचार दिल से निकाल दो। कम मुनाफे पर यह चीजें यहीं दमिश्क के व्यापारियों के हाथ बेच दो। इस लंबी यात्रा में तुम पर बड़ी मुसीबतें पड़ेगीं। मुझे यह मंजूर है कि थोड़ी आय में जीवन यापन करें, तुम्हें किसी प्रकार का दुख हो यह मुझे मंजूर नहीं।
किंतु गनीम पर अपनी माँ के समझाने-बुझाने का कोई असर नहीं हुआ। वह अपनी बात पर अड़ा रहा और कहने लगा कि मैं कब तक घर में घुसा रहूँगा, मुझे भी तो बाहर जा कर व्यापार करने का अनुभव होना चाहिए। उसकी बात गलत नहीं थी। माल काफी था और उसके विक्रय से अच्छा मुनाफा होने की आशा थी। माँ उसे रोकती ही रह गई और वह रुपया ले कर दमिश्क के बाजार को चल दिया। वहाँ उसने अपना माल सँभालने के लिए कुछ दास खरीदे और सौ ऊँट। उन्हीं दिनों पाँच-छह व्यापारियों का एक काफिला बगदाद को जा रहा था। गनीम ने अपना माल ऊँटों पर लदवाया और इस काफिले के साथ बगदाद शहर की ओर चल पड़ा। यात्रा लंबी थी। मार्ग में सभी लोग थक गए। कई दिन बाद दूर से बगदाद नगर दिखाई दिया। उसे देख कर सब लोग अपनी थकन भूल गए।
दूसरे दिन काफिले ने विशाल नगर बगदाद में प्रवेश किया। वे सब लोग एक बड़ी सराय में उतरे। गनीम ने अपना माल उस सराय में उतार दिया किंतु स्वयं उस भीड़भाड़ में नहीं रहना चाहा। उसने एक अच्छा मकान किराए पर लिया जिसमें एक सुंदर बाग भी था। वह यात्रा में बहुत थक गया था इसलिए उसने कुछ दिन तक मकान में रह कर आराम किया। जब रास्ते की थकान बिल्कुल जाती रही तो उसने नए कपड़े पहने और वहाँ के व्यापारियों से मिलने के लिए उस जगह को चल दिया जहाँ वे लोग व्यापार की बातें करने के लिए एकत्र होते थे। वह अपने साथ अपने माल के नमूने भी दो दासों के सिरों पर लदवा कर ले गया। व्यापारी उसके पिता को अच्छी तरह जानते थे, उन्होंने उसका प्रेमपूर्वक स्वागत किया। उन्होंने उसके लाए हुए कपड़ों के नमूने भी पसंद किए और उसका सारा माल खरीद लिया। गनीम को अप्रत्याशित लाभ हुआ। उसने अपना सारा दूसरा माल भी उसी दिन बेच दिया, सिर्फ एक गाँठ बचा ली।
दूसरे दिन अपने घर से निकल कर वह बाजार की सैर करने निकला तो उसे यह देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि सारी दुकाने बंद थीं। उसने आसपास के लोगों से पूछा कि आज बाजार बंद क्यों है। उसे बताया गया कि अमुख व्यापारी, जो यहाँ के व्यापारियों में सबसे धनी था, आज सबेरे मर गया है। गनीम ने उचित समझा कि उसके अंतिम संस्कार में शामिल हो। उसने पूरा विवरण पूछा तो लोगों ने उसे बताया कि फलाँ मसजिद में नमाज पढ़ी जाएगी फिर जनाजा शहर से दूर बड़े कब्रिस्तान में ले जाया जाएगा। गनीम ने अपने दासों को सराय में वापस भेजा और मसजिद को चल दिया। वहाँ जा कर वह लोगों के साथ नमाज में सम्मिलित हुआ और फिर उसकी अर्थी के साथ कब्रिस्तान को चल दिया।
कब्रिस्तान शहर से काफी दूर था। वहाँ जा कर उसने देखा कि व्यापारी के लिए पहले से कब्र खुदी हुई है और कब्र को पक्का करने के लिए उत्तम प्रस्तर शिलाएँ और कब्र बनाने का सामान, राज मजदूर आदि सभी मौजूद हैं और कब्र के चारों ओर बहुत-से खेमे खड़े किए गए हैं। वहाँ पहुँच कर व्यापारी लोग उन डेरों में जा कर कुरान का पाठ करने लगे। फिर जब लाश को कब्र में उतार कर कब्र को ढक दिया गया तो सभी व्यापारी आसपास जमा हो कर फातिहा पढ़ने लगे और बहुत देर तक पढ़ते रहे। यहाँ तक कि रात पड़ने लगी। उसे आश्चर्य हुआ कि इतनी देर क्यों लगाई जा रही है। उसके पूछने पर लोगों ने बताया कि जब कोई बड़ा आदमी मरता है और उसकी अर्थी के साथ बहुत-से आदमी होते हैं तो उस रात को सब लोग कब्रिस्तान ही में ठहरते हैं, सब लोगों का यहीं खाना-पीना होता है और सब लोग दूसरे दिन अपने-अपने घरों को वापस होते हैं। उसे यह भी मालूम हुआ कि रात को होनेवाले मृतक संस्कार भोज में शामिल होना जरूरी है, यह वहाँ की रस्म है और सब लोग इस पर जोर देते हैं।
अतएव गनीम को रात के भोज में शामिल होने के लिए रुकना पड़ा किंतु वह थोड़ा-बहुत खा-पी कर वहाँ से चुपचाप शहर की ओर चल दिया। उसने सोचा कि घर खाली देख कर कहीं चोर घुस कर मेरा धन न लूट ले जाएँ या ऐसा न हो कि मेरे दास ही बेईमानी करें और मेरा धन ले कर रफूचक्कर हो जाएँ। वह बगैर किसी को बताए आया था इसलिए किसी से रास्ता भी ठीक तरह नहीं पूछ सका था। वह दिन भर का थका था, चोरी के विचार से परेशान था और रास्तों से अच्छी तरह परिचित भी नहीं था। फलस्वरूप वह अँधेरे में बुरी तरह भटक गया और उसे किसी प्रकार वह मार्ग न मिला जिस पर चल कर वह घर पहुँचे। काफी भटकने के बाद जब वह नगर के मुख्य द्वार पर पहुँचा तो आधी रात हो गई थी और द्वार बंद हो गया था। उसकी अनुनय-विनय के बावजूद द्वारपालों ने फाटक नहीं खोला। उसे अफसोस होने लगा कि बेकार ही व्यापरियों का साथ छोड़ कर शहर की ओर आया।
अब वह रात बिताने के लिए शहर से बाहर कोई स्थान खोजने लगा। कुछ देर बाद उसे शहर के पास ही एक छोटा-सा कब्रिस्तान दिखाई दिया। वह वहीं चला गया कि किसी कब्र पर लेट कर रात बिताए। वह उसके अंदर चला गया और एक जगह घास उगी हुई देखी तो वहीं पर लेट गया। वह सोना चाहता था किंतु स्थान की भयानकता के कारण उसे नींद नहीं आ रही थी। वह घबरा कर उठ खड़ा हुआ और कब्रिस्तान की दीवार के पास टहलने लगा।
अचानक उसने देखा कि एक प्रकाश बिंदु उसकी ओर आ रहा है। वह प्रेतबाधा के डर से एक घने वृक्ष पर चढ़ गया और उसकी शाखाओं के बीच छुप कर बैठ गया। उसने देखा कि आनेवाले तीन आदमी हैं जो राजमहल के सेवकों जैसे कपड़े पहने हैं। आगे का आदमी मशाल लिए आ रहा था और उसके पीछे दो व्यक्ति एक लंबा संदूक उठाए हुए ला रहे थे। एक जगह संदूक उतार कर संदूक ढोनेवालों में से एक ने कहा, भाइयो, मुझे तो बड़ा भय लग रहा है, यहाँ ठहरने को भी जी नहीं करता। मेरी मानो तो इस संदूक को यूँ ही छोड़ कर भाग चलो। आगे आनेवालों ने, जो सेवकों का प्रधान मालूम होता था, उसे डाँटा, क्या बकवास कर रहा है? क्या मालकिन ने स्पष्ट रूप से आज्ञा नहीं दी थी कि संदूक को कब्र में गाड़ कर आना? अगर उसे मालूम हुआ कि संदूक गाड़ा नहीं गया है तो वह हम लोगों की खाल खिंचवा देगी।
फिर तीनों ने फावड़ा उठाया और संदूक को गाड़ने के लिए गढ़ा खोदने लगे। उन्होंने इतना गहरा गढ़ा शीघ्र ही खोद डाला जिसमें वह संदूक आसानी से समा जाए। संदूक को गढ़े में उतार कर उन्होंने उसके ऊपर मिट्टी पाट दी और फिर वापस चले गए। गनीम ने सोचा कि संभवतः संदूक में धन-दौलत होगी जिसे सुरक्षित रखने के लिए किसी स्त्री ने कब्रिस्तान में गड़वा दिया है। आदमियों के जाने के बाद वह पेड़ से उतरा और उसने मिट्टी हटा कर संदूक को देखा। मिट्टी उसी समय पड़ी थी इसलिए उसे हटाने में तो दिक्कत न हुई लेकिन संदूक भारी था, उसे न निकाल सका। उसने देखा कि संदूक में ताला भी लगा है। उसने दो पत्थर उठाए और उनकी मदद से ताला तोड़ दिया। जब उसने संदूक का ढक्कन उठाया तो देखा कि उसमें रुपए- पैसे के बजाय एक सुंदर तरुणी लेटी हुई है। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ।
पहले वह समझा कि वह सो रही है क्योंकि उसकी साँस चल रही थी। किंतु फिर उसने सोचा कि अगर वह सो रही होती तो ताला टूटने की आवाज से जाग जाती, वह जरूर बेहोश होगी। उसने देखा कि उसके जेवरों में बहुमूल्य हीरे जड़े हैं। वह समझ गया कि यह खलीफा के महल की स्त्री होगी। उसके सौंदर्य ने उस पर जादू-सा डाल दिया और वह यह भी न कर सका कि उसे छोड़ कर यूँ ही भाग जाए। उसने उस सुंदरी को संदूक से उठाया और बाहर घास पर लिटा दिया। हाँ, इसके पहले उसने जा कर कब्रिस्तान का द्वार बंद कर दिया जिसे सेवक खुला छोड़ गए थे।
जब उस स्त्री को ठंडी हवा लगी तो उसके हाथ-पाँव हिलने लगे और कुछ देर में उसने थोड़ी-थोड़ी आँखें खोलीं और क्षीण स्वर में आवाज दे कर कहने लगी, अरी जोहरा, बोस्तान, शाहसफरा, अम्रकला, कासा बोस, नूरुन्निहार, तुम सब की सब कहाँ मर गईं। स्पष्ट था कि वह अपनी दासियों को आवाज दे रही थी और वे दासियाँ रात-दिन उसकी सेवा में लगी रहने वाली थीं। गनीम को खुशी हुई कि ऐसी अतीव सुंदरी को उसने कब्र में जिंदा ही मर जाने से बचा लिया। जब स्त्री ने देखा कि उसकी आवाज पर कोई नहीं आया तो उसने आँखें खोल कर देखा और घबरा कर चिल्ला उठी, क्या बात है? यहाँ इतनी कब्रें कैसी हैं? क्या कयामत आ गई है और मैं अपनी कब्र से उठी हूँ? लेकिन कयामत में तो दिन होता है, यह रात में कयामत कैसे आ गई?
अब गनीम उसके सामने जा कर बोला, इत्मीनान रखिए। अभी कयामत नहीं आई है। मैं परदेसी हूँ। भगवान को आप के प्राणों की रक्षा करनी थी इसलिए कब्र खोद कर आपको निकालने के लिए मुझे यहाँ भेज दिया। अब बताइए, आप की क्या सेवा करूँ। स्त्री बोली, पहले यह बताइए कि मैं यहाँ कैसे पहुँची और कौन मुझे यहाँ लाया।
गनीम ने सारी घटना कह सुनाई। वह स्त्री उठ बैठी और सिर ढक कर बोली, सच है कि भगवान ने मेरी प्राणरक्षा के लिए आप को यहाँ भेजा था। वरना तो मेरे मरने में संदेह ही नहीं था। अब आप ऐसा करें कि सवेरा होने से पहले मुझे उसी संदूक में बंद करें और सेवेरे शहर जा कर किराए पर एक खच्चर लाएँ और उसकी पीठ पर मेरे समेत यह संदूक लाद कर अपने घर ले चलें। फिर मैं आप को सारा किस्सा बताऊँगी। मैं आप के साथ पैदल भी चल सकती थी किंतु इन वस्त्राभूषणों में मुझे शहर के लोग पहचान लेंगे और फिर मैं और आप दोनों मुसीबत में फँस जाएँगे।
गनीम ने संदूक बाहर निकाल कर उसकी मिट्टी वगैरह साफ की और उसे गढ़े में रखा। सुंदरी उसमें लेटी रही। गनीम ने संदूक का ढकना इस तरह बंद किया कि उसमें हवा आती-जाती रहे। सुबह होने पर गनीम शहर गया और एक खच्चरवाले से उसका खच्चर किराए पर माँगा। खच्चरवाले के पूछने पर उसने कहा, कल मैं अपने माल का संदूक ले कर एक खच्चर पर लदवा कर बाहर जा रहा था किंतु उस खच्चरवाले को कोई और अच्छी कीमत देनेवाला मिल गया और वह मेरा संदूक कब्रिस्तान में पटक कर चल दिया। अब मैं वह अपने घर लाना चाहता हूँ। खच्चरवाला उसके साथ कब्रिस्तान आया और संदूक खच्चर पर रख कर गनीम के घर पहुँचा दिया।
घर आ कर गनीम ने अपने एक गुलाम से दरवाजा बंद करने को कहा। फिर संदूक से उस युवती को निकाला और उसका हाल पूछा कि कैसी तबीयत है। उसने उत्तर दिया कि मैं बिल्कुल ठीक हूँ। फिर गनीम एक गुलाम को ले कर घर से निकला और बाजार में जा कर अपने हाथ से उत्तमोत्तम खाद्य पदार्थ तथा बादशाहों के पीने योग्य मदिरा खरीदी।
इसके अलावा अच्छे फल, मिठाइयाँ आदि भी खरीदीं। घर आ कर सारी खाद्य सामग्री थालियों में सजा कर उस सुंदरी के पास ले गया। किंतु उसने कहा कि मैं अकेले नहीं खाऊँगी, तुम भी साथ में बैठ कर खाओ। गनीम विवश हो कर उसके पास बैठ गया।
खाने के पहले उस सुंदरी ने अपने चेहरे से नकाब उतारा और एक तरफ रख दिया। गनीम की नजर उस पर पड़ी तो वह चौंक उठा। उसमें अंदर की तरफ रेशमी धागे से कढ़ा हुआ था, मैं खलीफा हारूँ रशीद की प्रेयसी हूँ और वह मेरा है। गनीम यह देख कर बहुत घबराया कि यह किस मुसीबत को मैं अपने घर ले आया। उसने नम्रतापूर्वक पूछा, सुंदरी, अब तुम मुझे अपने बारे में बताओ कि कौन हो और कैसे कब्रिस्तान में पहुँची।
उसने कहा, मेरा नाम फितना है। मैं खलीफा हारूँ रशीद की प्रेयसी हूँ। मैं अपने बचपन ही से दासी के रूप में खलीफा के महल में आ गई थी। मुझे वहाँ अच्छी शिक्षा मिली और कुछ दिनों ही में मैं सारी कलाओं और विद्याओं में निपुण हो गई। खलीफा ने मेरे उभरते रूप और गुणों को देखा तो मुझसे प्यार करने लगा। उसने एक बड़ा मकान मेरे लिए बनवा दिया और बीस दास-दासियाँ मेरी सेवा के लिए नियुक्त किए। उसने मुझे इतना धन दिया कि मैं शहजादियों जैसी शान-शौकत से रहने लगी। खलीफा की विवाहिता रानी जुबैदा है। वह मेरे प्रति खलीफा के बढ़े हुए प्रेम को देख कर जलने लगी। उसने इरादा कर लिया कि किसी तरह मुझे मरवा दे। मैं होशियार रहती थी इसलिए मलिका जुबैदा की कोई चाल न चल सकी। इधर की तरफ खलीफा को किसी शत्रु से निपटने के लिए काफी दिन के लिए बाहर जाना चाहा। जुबैदा ने उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाया। उसने मेरी एक दासी को भारी इनाम दे कर तोड़ लिया। उस नमकहराम दासी ने कल रात को शरबत में मुझे बेहोशी की दवा दे दी। जब मैं बेहोश हो गई तो उसने मुझे इस ताबूत में बंद कर दिया। रानी के सेवक आ कर मुझे ले गए और जीते जी ही कब्र गाड़ आए। किंतु भगवान को मंजूर था कि मुझे अभी जीवित रखे इसलिए उसने तुम्हें उस कब्रिस्तान में पहले ही से पहुँचा दिया। तुमने मुझे बचा लिया लेकिन अपनी मौत का सामान कर लिया। कोई चमत्कार ही हो तो तुम बच सकोगे।
गनीम यह सुन कर और घबराया और पूछने लगा कि मुझे किस अपराध पर मारा जाएगा। फितना बोली, अगर जुबैदा को मालूम होगा कि तुमने मुझे बचाया है तो वह तुम्हें और मुझे दोनों को मरवा डालेगी। अगर उसे न मालूम हुआ तो खलीफा युद्ध से वापस आने पर मेरी कब्र पर जाएगा और वहाँ मेरा ताबूत न पा कर सारे नगर बल्कि देश-देशांतर में मेरी खोज करवाएगा। जब उसे मालूम होगा कि तुमने मुझे अपने मकान में रखा है तब वह तुम्हें मरवा देगा। गनीम ने कहा, मतलब यह कि मैं किसी तरह बच नहीं सकता। फितना ने कहा, इतना निराश होने की भी जरूरत नहीं है। जब तक घर के लोग ही भेद न दें कोई किसी और का हाल कैसे जान सकेगा। गनीम ने कहा, यहाँ तो कोई भेद देनेवाला नहीं है। पहले तो मेरे दासों की किसी से जान-पहचान भी नहीं है कि उस पर तुम्हारा भेद प्रकट करें। फिर सभी लोग जानते हैं कि धनवान अविवाहित पुरुष अपने पास रखैलें रखते हैं, तुम्हें भी यह लोग यही समझेंगे।
इतना इत्मीनान होने के बावजूद गनीम इस बात का ध्यान रखता कि उसके अपने दास फितना के सामने जहाँ तक हो सके न आएँ। उपर्युक्त बातचीत के बाद एक दास ने दरवाजा खटखटाया तो गनीम स्वयं बाहर आया। दास उसकी आज्ञानुसार बाजार से भोजन सामग्री लाया था। गनीम ने सारी चीजें उसके हाथ से खुद ले कर फितना के सामने रखीं। उससे कहा, तुम यहाँ खाओ पियो, मैं अभी आता हूँ। यह कह कर वह बाजार गया और फितना के लिए दो दासियाँ और उत्तमोत्तम वस्त्राभूषण ले आया। फितना इन्हें पा कर बहुत खुश हुई और बोली, वाह मेरे मालिक, आप मेरा इतना खयाल रखते हैं। गनीम ने कहा, मेरे लिए ऐसा संबोधन न करो। मैं इतने सम्मान के योग्य नहीं हूँ। मैं तो तुम्हारे सेवक जैसा हूँ।
फितना बोली, यह आप क्या कहते हैं। मैं तो आपको मालिक से भी बढ़ कर कुछ कहूँ तो उचित होगा। आपने भयंकर मृत्यु से मेरी रक्षा की है। मैं कितना कुछ भी करूँ सारे जीवन आपका अहसान नहीं उतार सकती। मेरी दशा में यह कैसे संभव है कि मैं आपको अपने दास जैसा समझूँ। गनीम यह सुन कर मुस्कुरा कर रह गया।
गनीम और फितना दोनों एक-दूसरे से प्रेम करने लगे थे, फिर भी दोनों को मालूम था कि मर्यादा के बंधन उनका शारीरिक संबंध न होने देंगे। कारण यह था कि फितना खलीफा की संपत्ति थी और बादशाह की संपत्ति का उपयोग कोई प्रजाजन नहीं कर सकता। शाम होने पर गनीम ने घर के अंदर दीये जलवाए और भूमि पर स्वच्छ चादरें बिछा कर उस पर बढ़िया शराब और फल ला कर रखे। बगदादवासियों की साधारण रीति यह थी कि दिन में रोटी, मांस आदि ठोस पदार्थ खाते थे और रात को केवल फल खाते थे और शराब पीते थे। जब दोनों ने दो-दो तीन-तीन पात्र मदिरा के पी लिए तो इन्हें नशा चढ़ने लगा और उन्होंने मस्ती में गाना शुरू कर दिया। पहले गनीम ने सद्यःरचित श्रृंगारिक गीत सुनाए। फिर फितना ने भी इसी प्रकार सद्यःरचित गीत सुनाए। काफी देर तक वे एक-दूसरे के बाद इसी तरह गाते रहे।
जब काफी रात बीत गई तो गनीम फितना को एक कमरे में सुला कर स्वयं दूसरी जगह जा कर सो रहा। अब उन दोनों की दिनचर्या यही हो गई थी। वे दिन भर एक-दूसरे के साथ रह कर आनंदित होते थे और रात को अलग-अलग जा कर सोए रहते थे। इसी प्रकार उनके दिन बीतने लगे। गनीम ने इतना प्रबंध कर के समझ लिया कि वे दोनों सुरक्षित हें। वे दोनों एक- दूसरे की प्रीति में डूबे रहे और अपनी अनुभवहीनता से यह भी न सोच सके कि उन्हें वेश बदल कर बगदाद छोड़ देना चाहिए।
वैसे तो बगदाद में किसी को नहीं मालूम था कि खलीफा की प्रेयसी फितना कहाँ गई। फिर भी रानी जुबैदा परेशान रहती थी कि अगर किसी तरह फितना की खोज शुरू हुई तो वह स्वयं खलीफा के संदेह से किस प्रकार बच सकेगी। बहुत सोच-विचार कर उसने एक बूढ़ी दासी को बुलाया। इस दासी ने जुबैदा को बचपन में गोद खिलाया था। वह दासी से बोली, अम्मा, तुम्हें मालूम है कि जब मैं किसी कठिनाई में फँसती हूँ तब तुम्हीं से सहायता लेती हूँ। तुम मेरा कष्ट सुन कर ठंडे दिमाग से उस पर विचार करती हो। तुम्हारे जैसी चतुर स्त्री मैंने कोई नहीं देखी और तुम्हारे पास प्रत्येक संकट से उबरने का उपाय है। इस समय मुझे एक ऐसी चिंता लगी है जिससे मेरी नींद हराम हो गई है। बुढ़िया ने पूछा, बेटी, ऐसी क्या बात है? जुबैदा ने उसे पूरा किस्सा बताया, मैंने फितना को बेहोशी की दवा दिलवा कर कुछ आदमियों के द्वारा एक छोटे कब्रिस्तान में जिंदा गड़वा दिया है, अब इस बात पर कैसे परदा डालूँ। उसे वीरान कब्रिस्तान में गड़वाया ही इसलिए है कि उसका पता किसी को न चले किंतु खलीफा उसे बहुत प्यार करता है और युद्ध से लौट कर वह उसकी खोज जरूर करवाएगा और अगर भेद खुल गया तो मुझे अपनी प्रतिष्ठा बचाना कठिन हो जाएगा।
बुढ़िया बड़ी खुर्राट थी। उसने कहा, बेटी, तुम बिल्कुल चिंता न करो। यह कौन बड़ी बात है? मैं ऐसी तरकीब बताऊँगी कि किसी को इस मामले में तनिक भी संदेह न हो सकेगा। खलीफा तुम पर कोई संदेह नहीं करेंगे। जुबैदा ने कहा, अम्मा, ऐसा क्या उपाय हो सकता है।
बुढ़िया बोली, बताती हूँ। तुम कारीगर से एक बड़ा-सा लकड़ी का पुतला बनवाओ, उसकी ऊँचाई औरतों जैसी होनी चाहिए। मैं उस पर पुराने कपड़े लपेट दूँगी। फिर एक ताबूत मँगवा कर उसमें वही पुतला रख देना और तुरंत ही शाही कब्रिस्तान में गड़वा देना। इतना ही नहीं, कब्र के ऊपर एक आलीशान मकबरा भी बनवा देना और उस मकबरे में फितना का एक बड़ा-सा चित्र टँगवा देना। कब्र पर रोज बहुत ही दीये जलवाया करना। कभी-कभी तुम और तुम्हारी दासियाँ काले कपड़े पहन कर मकबरे पर जाया करें और वहाँ जा कर फितना के लिए मातम किया करें। फितना की अपनी दासियों तो रोजाना काले कपड़े पहन कर फितना के लिए मातम करने को उसके मकबरे पर काले कपड़े पहन कर जाया ही करेंगी। खलीफा जिस दिन आने को हो उस दिन तुम विशेष रूप से मातम करने के लिए जाना। खलीफा यह देख कर तुमसे जरूर पूछेंगे कि काले कपड़े क्यों पहने हो। तुम कहना कि तुम्हारी प्रेयसी और मेरी प्यारी सखी फितना का निधन हो गया है, उसी के मातम में मैंने यह कपड़े पहने हैं। यह सुन कर खलीफा को बहुत दुख होगा किंतु वह रो-पीट कर बैठ जाएगा।
जुबैदा ने कहा, अगर कहीं खलीफा ने फितना की कब्र खुदवा कर उसका अंतिम दर्शन करना चाहा तब तो भेद खुल ही जाएगा और मैं झूठी पड़ जाऊँगी। बुढ़िया ने कहा, ऐसा नहीं हो सकता। हमारे इस्लाम धर्म के अनुसार कोई कब्र खुलवाई नहीं जा सकती। फिर फितना खलीफा की कितनी ही प्यारी क्यों न हो, थी तो उसकी दासी ही। दासी के लिए कौन बादशाह इतना झंझट करता है कि धार्मिक नियमों का भी उल्लंघन कर दे। अब तुम पुतला जल्दी बनवाओ, बल्कि तुम भी यह झंझट न करो। मैं स्वयं एक अच्छे और विश्वस्त कारीगर को जानती हूँ। वह तुरंत ही इस काम को कर देगा।
बुढ़िया ने फिर कहा, तुम्हें एक काम सावधानी से करना होगा। तुम उसी दासी को बुलाओ जिसने तुम्हारे कहने पर फितना को शरबत में बेहोशी की दवा दी थी। उसे आदेश देना कि वह फितना के सेवकों तथा अन्य राज कर्मचारियों में यह बात प्रसिद्ध कर दे कि उसने एक सुबह फितना को उसके बिस्तर में मरा पाया है। यह भी जरूरी है कि जिस दिन तुम अपनी तैयारी पूरी करके उसे आदेश दो उसी दिन वह फितना की मौत की खबर फैलाए और किसी को फितना के कमरे में प्रवेश करने की अनुमति न दे। तुम तुरंत राजमहल के मुख्य प्रबंधक हब्शी मसरूर को बुला कर राजकीय शोक का आदेश दे देना और ताबूत मय पुतले के फितना के कमरे में भेज कर उसे समारोहपूर्वक बाहर निकलवाना। संदेह की कोई गुंजाइश नहीं रहनी चाहिए।
रानी जुबैदा ने बुढ़िया को गले लगा लिया और अपने संदूकचे से एक हीरे की अँगूठी उसे इनाम दी और कहा, अम्मा, तुमने मुझ पर बड़ा अहसान किया है। अब मेरे जी को चैन आया। अब तुम तुरंत कारीगर के पास जाओ और जितनी जल्दी हो सके उससे पुतला बनवाओ। यहाँ का प्रबंध मैं करती हूँ। बुढ़िया दूसरे ही दिन कारीगर से उचित नाप का एक पुतला बनवा लाई। इधर फितना की दासी ने फितना के मरने का शोर मचा दिया और जुबैदा ने मसरूर को आदेश दे कर वह ताबूत गड़वा दिया जिसमें काठ का पुतला रखा हुआ था। उसने स्वयं भी काले कपड़े पहन कर मातम शुरू कर दिया। दूसरे दिन सैकड़ों मजदूर लगवा कर कब्र पर बड़ा मकबरा खड़ा कर दिया और उसमें फितना का चित्र लगवा दिया। वह स्वयं भी दासियों समेत काले कपड़े पहन कर फितना के मकबरे पर मातम करने गई। इतने आयोजन के फलस्वरूप समस्त नगर निवासियों को मालूम हो गया कि फितना मर गई है।
गनीम को शहर में यह समाचार मिला तो उसने आ कर फितना से कहा, सुंदरी, तुम्हारी मृत्यु का समाचार सारे शहर में फैल गया है। फितना ने कहा, मैं भगवान की आभारी हूँ कि उसने तुम्हारे हाथों मेरी प्राण रक्षा करवाई। भगवान की कृपा रही तो वे सब लोग जो इस समय मेरे विरुद्ध षड्यंत्र कर रही हैं शर्मिंदा होंगे। भगवान चाहेगा तो एक दिन हम दोनों का मनोरथ पूरा होगा। तुमने निःस्वार्थ भाव से जो भलाई मेरे साथ की है खलीफा उसका पारितोषिक तुम्हें देगा और आश्चर्य नहीं तुम्हारे इनाम में मुझे ही दे डाले। गनीम बोला, प्रबुद्धजनों ने कहा है कि स्वामी की संपत्ति सेवक को लेनी क्या, उसे लेने की इच्छा भी नहीं करनी चाहिए।
खलीफा को युद्धभूमि में काफी समय लगा। शत्रु को परास्त करके तीन महीने बाद जब वह बगदाद वापस आया तो उसने सोचा कि पहली फुरसत ही में फितना के पास जाऊँ।
किंतु अपने महल में आते ही जुबैदा और दासियाँ शोकवसन पहने दिखाई दीं तो उसने पूछा कि इसका क्या कारण है। जुबैदा ने छल के आँसू बहाते हुए फितना की मृत्यु का समाचार दिया। खलीफा इसे सुन कर मूर्छित होने लगा तो मंत्री जाफर ने उसे सँभाला। खलीफा की तबीयत कुछ सँभली तो उसने पूछा कि फितना को कहाँ दफन किया गया है। जुबैदा ने कहा कि मैंने शाही कब्रिस्तान में उसके लिए अच्छी कब्र बनवाई है और उस पर एक शानदार मकबरा बनवाया, जिसमें फितना का चित्र भी रखा है, आप कहें तो आपके साथ चल कर सब कुछ दिखाऊँ। खलीफा ने कहा, तुम आराम करो, मैं स्वयं ही वह मकबरा देख आऊँगा।
(अगली पोस्ट में जारी……)  

स्रोत-इंटरनेट से कापी-पेस्ट

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