शहरजाद ने कहा,
बादशाह सलामत, पुराने जमाने में हिंदोस्तान का एक बादशाह बड़ा
प्रतापी और ऐश्वर्यवान था। उसके तीन बेटे थे। बड़े का नाम हुसैन, मँझले
का अली और छोटे का अहमद था। बादशाह का एक भाई जब मरा तो उसने उसकी पुत्री को अपने
महल में रख कर उसका पालन-पोषण किया। उसने उसकी शिक्षा-दीक्षा के लिए कई गुणवान और
विद्वान नियुक्त किए। वह बचपन में अपने चचेरे भाइयों के साथ खेल कूद कर बड़ी हुई
थी। पहले बादशाह का विचार था कि अपनी भतीजी का विवाह किसी अन्य शहजादे से करे। लेकिन
उसे मालूम हुआ कि तीनों शहजादे अपनी चचेरी बहन पर मुग्ध हैं, उनमें
से हर एक की इच्छा है कि उसका विवाह शहजादी के साथ हो जाए।
बादशाह को बड़ी
चिंता हुई कि इस समस्या का समाधान कैसे किया जाए। यह तो स्पष्ट ही हो गया था कि
अगर उसका विवाह किसी बाहरी राजकुमार से किया जाएगा तो उसके तीनों ही पुत्र दुखी
होंगे। संभव है कि शहजादी के हमेशा निगाहों से दूर होने के कारण उनमें से कोई
आत्महत्या कर ले। यह भी संभव है कि उनमें से कोई क्रोध के वशीभूत हो कर अपने पिता
ही से विद्रोह कर बैठे। अगर उनमें से किसी एक के साथ शहजादी का विवाह किया जाता है
तो बाकी दो दुखी होंगे और सोचेंगे कि हमारे साथ अन्याय किया गया है। इस निराशा की
स्थिति में भी वे न जाने क्या करें। बादशाह अजीब उलझन में पड़ा था। उसकी समझ में
इस जटिल समस्या का कोई समाधान नहीं आ रहा था।
बादशाह कई दिनों तक
इस पर विचार करता रहा कि तीनों पुत्रों में से वह अपनी भतीजी नूरुन्निहार के लिए
किसी का चुनाव किस आधार पर करे। फिर एक दिन उसने तीनों को अपने पास बुलाया और कहा,
बेटो, तुम तीनों ही नूरुन्निहार के साथ विवाह करना
चाहते हो। नूरुन्निहार सभी से ब्याही नहीं जा सकती, किसी एक ही से ब्याही
जाएगी। मेरी नजर में तुम तीनों बराबर हो। मैं किसी एक को नूरुन्निहार के लायक समझ
कर बाकी दो के दिलों में यह विचार पैदा नहीं करना चाहता कि मैं उन्हें घटिया समझता
हूँ।
इसलिए मैंने एक
तरकीब सोची है। यह तो स्पष्ट ही है कि तुममें से दो को नूरुन्निहार से हाथ धोना है
और इस कारण इन दो को दुख भी होगा। किंतु उन्हें यह महसूस नहीं होगा कि उनके साथ
अन्याय किया गया है। इसलिए तुम तीनों के आपसी प्रेम-भाव में कोई कमी नहीं आएगी और
कोई एक किसी दूसरे को हानि पहुँचाने की स्थिति में नहीं रहेगा। मैंने यह उपाय सोचा
है कि तुम तीनों अलग-अलग देशों की यात्रा करो और मेरे लिए सुंदर और दुर्लभ वस्तुएँ
लाओ। एक शहजादे का एक भेंट लाना ही यथेष्ट है। जिस शहजादे की भेंट मेरी निगाह में
सबसे विचित्र होगी उसी के साथ शहजादी नूरुन्निहार का विवाह होगा। इस प्रकार इस
विवाह का फैसला मेरे हाथ नहीं बल्कि तुम लोगों के भाग्य और पुरुषार्थ के हाथ होगा।
तुम लोगों को अपनी यात्राओं के लिए पर्याप्त और बराबर मात्रा में धन मिलेगा। मुझे
आशा है कि तुम तीनों ही इस परीक्षा के लिए तैयार हो जाओगे और इसका जो भी फल होगा
उसकी तुम्हें कोई और किसी से शिकायत नहीं रहेगी। तीनों राजकुमारों ने पिता का
प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
उन तीनों को अपनी
बुद्धि और पराक्रम पर पूरा विश्वास था और हर एक सोचता था कि मैं ही सबसे अच्छी चीज
लाऊँगा और नूरुन्निहार का हाथ मेरे हाथ में दिया जाएगा। बादशाह ने हर एक को यथेष्ट
धन दे कर विदा कर दिया। उन में से हर एक ने कुछ सेवक अपने साथ लिए और व्यापारियों
के वेश में राजधानी से निकल पड़े। कई मंजिलों तक वे इकट्ठे गए। फिर एक ऐसी जगह
पहुँचे जहाँ से विभिन्न देशों को रास्ते जाते थे। दो-चार दिन वहाँ रह कर वे
अपनी-अपनी राहों पर चल पड़े। इसकी पहली शाम को उन्होंने एक साथ मिल कर भोजन किया
और कुछ समझौते किए। पहली बात तो यह थी, कोई एक वर्ष से अधिक की यात्रा न करे,
जो कुछ लाना हो वह एक वर्ष के अंदर ही प्राप्त कर ले क्योंकि परीक्षा
किसी अवधि के अंदर ही होनी चाहिए। दूसरी बात यह तय की गई कि बादशाह के पास तीनों
शहजादे एक साथ ही पहुँचें ताकि किसी को शक न हो कि किसी ने अनुचित रूप से बादशाह
की कृपा प्राप्त कर ली है। उन्होंने यह भी तय किया कि अगर किसी की यात्रा जल्द
पूरी हो जाए तो वह इसी सराय में आ कर ठहरे रहे और बाकी दोनों भाइयों की प्रतीक्षा
करे और इस तरह जब तीनों मिल जाएँ तो एक साथ बादशाह के सामने चलें। फिर वे एक दूसरे
के गले मिले और अगली सुबह चल पड़े।
बड़े शहजादे हुसैन
ने विष्णुगढ़ नामक इलाके की बहुत प्रशंसा सुन रखी थी और बहुत दिनों से उस राज्य को
देखना भी चाहता था। विष्णुगढ़ को समुद्री मार्ग ही से जाया जा सकता था इसलिए वह
कुछ दिनों की राह तय करके बंदरगाह पहुँचा और व्यापारियों के एक दल में शामिल हो कर
उधर को चल पड़ा। तीन महीने तक समुद्र और स्थल की यात्रा करने के बाद शहजादा हुसैन
विष्णुगढ़ पहुँचा। विष्णुगढ़ में वह एक बड़ी सराय में ठहरा जहाँ पर बड़े-बड़े
व्यापारी ठहरा करते थे। सराय में उसे विष्णुगढ़ के निवासियों ने बताया कि यहाँ का
बड़ा बाजार कुछ ही दूर पर है और उसमें दुनिया की समस्त व्यापार वस्तुएँ मिलती हैं।
शहजादा हुसैन दूसरे
दिन विष्णुगढ़ के मुख्य बाजार में पहुँचा। वह उसकी लंबाई-चौड़ाई और शान-शौकत को
देख कर हैरान रह गया। बाजार में हजारों दुकानें थीं जो खूब बड़ी-बड़ी और बहुत
साफ-सुथरी थीं। उनमें धूप और गर्मी का असर न हो इसके लिए उनके सामने बड़े-बड़े
सायबान लगे थे। लेकिन इन सायबानों को इस प्रकार कलापूर्वक लगाया गया था कि दुकानों
में अँधेरा बिल्कुल नहीं होता था और हर चीज साफ-साफ दिखाई देती थी। हर चीज के लिए वहाँ अलग दुकान थी। कपड़ों की
दुकानों पर मूल्य और गुण के हिसाब से भाँति-भाँति के वस्त्र क्रम से लगे थे। कुछ
कपड़ों पर बेलबूटे बने थे और कुछ पर पेड़ों, फलों और फूलों के
चित्र इतनी कुशलता से बनाए गए थे कि यह चीजें बिल्कुल वास्तविक लगती थीं।
बाजार में कहीं
कीमती कपड़ों जैसे कमख्वाब, चिकन, साटन, अतलस आदि के थानों
के ढेर थे, कहीं चीनी और शीशे के बहुत खूबसूरत और नाजुक काम
के बरतन थे। कहीं अत्यंत सुंदर रंग-रूप के कालीन और गलीचे रखे थे। इन सारी दुकानों
को देखने के बाद हुसैन उन दुकानों पर आया जहाँ पर सोने-चाँदी के बरतन, गहने और
जवाहिरात बिक रहे थे। हुसैन को यह सब देख कर आश्चर्य हुआ और उसने सोचा कि एक ही
बाजार में इतना सामान है तो नगर के सारे बाजारों में मिला कर न जाने कितना होगा।
शहजादा हुसैन को
वहाँ की समृद्धि देख कर भी आश्चर्य हुआ। वह ब्राह्मणों का राज्य था और ब्राह्मण
लोग रत्न-जटित आभूषणों और रेशमी परिधानों में सुसज्जित हो कर घूम रहे थे और
काम-काज में लगे थे। उनके दास तक सोने के कड़े और कुंडल पहने हुए थे। हुसैन और
बाजारों में भी घूमा। उसने यह भी देखा कि विष्णुगढ़ में फूल बहुत अधिक बिकते हैं। जिसे
देखो वह सुगंधित फूलों के हार पहने घूमता है और सारे दुकानदार अपनी दुकानों को
गुलदस्तों से सजाए रखते हैं जिसके कारण सारा बाजार महकता रहता है।
हुसैन बहुत देर तक
इन बाजारों में घूमता और उनकी शोभा देखता रहा। अंत में वह थक गया और इच्छा करने
लगा कि कहीं बैठ कर सुस्ता ले। एक दुकानदार ने उसके थके हुए चेहरे को देखा और वह
सौहार्दपूर्वक उसे दुकान के अंदर ला कर बिठाया। हुसैन दुकान की चीजें देखता रहा और
एक-आध चीज उसने खरीदी भी। कुछ देर बाद एक दलाल उधर से आवाज लगाता हुआ निकला,
एक गलीचा तीस हजार अशर्फियाँ का है। है कोई इसको लेनेवाला? हुसैन
को आश्चर्य हुआ कि गलीचे का इतना मूल्य भी हो सकता है। उसने दलाल को बुलाया और
पूछा, भाई, गलीचे का दाम मैंने कभी इतना नहीं सुना, यह कैसा
गलीचा है? दलाल ने समझा कि हुसैन कोई मामूली व्यापारी है।
उसने कहा, भाई, तुम न समझ सकोगे कि इसमें क्या खास बात
है। वास्तव में मैं तीस हजार अशर्फी गलत बोल गया, इसका मालिक चालीस
हजार अशर्फी से एक कौड़ी कम नहीं लेगा।
हुसैन के जोर देने
पर दलाल ने उसे गलीचा दिखाया। वह खूबसूरत और नरम था और लंबाई-चौड़ाई में चार-चार
गज था। फिर भी उसमें कोई खास बात न थी। हुसैन ने कहा, यह तो एक अशर्फी से
अधिक का नहीं मालूम होता। दलाल ने कहा, देखने में यह ऐसा ही लगता है लेकिन इसकी
विशेषता यह है कि इस पर बैठ कर जहाँ जाने की इच्छा करो, यह वहीं पहुँचा देता
है। हुसैन ने कहा, अगर बात ठीक है तो मैं इसके लिए चालीस हजार
अशर्फियाँ दे सकता हूँ। किंतु यह मालूम कैसे पड़े कि इसका यह गुण है। दलाल ने पूछा
कि आप कहाँ ठहरे हैं। हुसैन ने उस सराय का नाम लिया जहाँ वह ठहरा था। दलाल ने कहा,
इसकी परीक्षा इस तरह हो सकती है कि मैं इसे यहाँ बिछा दूँ, हम
दोनों इस पर बैठें और उस सराय में जाने की इच्छा करें। अगर यह हम लोगों को वहाँ
पहुँचा दे तो आपको विश्वास हो जाएगा और तभी मैं आपसे इसका दाम चालीस हजार अशर्फी
लूँगा। यह कह कर उसने दुकान में गलीचा बिछा दिया। हुसैन उसके साथ गलीचे पर बैठा और
दोनों ने सराय के कमरे में जाने की इच्छा की। गलीचा हवा में उड़ा और उसने पलक मारते
ही दोनों को सराय में हुसैन के कमरे में पहुँचा दिया।
हुसैन इससे बड़ा खुश
हुआ। उसे विश्वास था कि उसके भाइयों को इससे अधिक विचित्र वस्तु नहीं मिल सकती और
अब नूरुन्निहार उसी की होगी। उसने दलाल को तुरंत ही चालीस हजार अशर्फियाँ गिन दीं।
उसका काम पूरा हो चुका था और वह वापस जा सकता था किंतु उसने सोचा कि अगर मैं अभी
उस सराय में पहुँच गया तो मुझे महीनों तक सराय में रुक कर वर्ष के अंत तक अपने
भाइयों की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी और मैं बहुत ऊबूँगा। इसलिए उसने तय किया कि तब तक
इस सुंदर देश की सैर करे और यहाँ की चित्र-विचित्र वस्तुओं को देखे। इसलिए उसने कई
महीने नगर और उसके आसपास के क्षेत्रों में बिताए।
विष्णुगढ़ के राजा
का नियम था कि वह सप्ताह में एक बार विदेशी व्यापारियों को अपने दरबार में बुलाता
था और उनके सुझाव और शिकायतें सुनता था और निर्णय लेता था। हुसैन भी वहाँ जाता और
बातचीत में हिस्सा लेता था। हुसैन ने राजा को अपना असली परिचय नहीं दिया था फिर भी
राजा उसकी चाल-ढाल और तौर-तरीकों से प्रभावित था और उसके साथ बड़ा कृपापूर्ण
व्यवहार करता था। राजा उससे हिंदोस्तान के हाल-चाल और व्यवस्था के बारे में पूछा
करता।
एक दिन शहजादा नगर
के एक प्रसिद्ध मंदिर को देखने गया। यह मंदिर ऊपर से नीचे तक पीतल से मढ़ा हुआ था।
उसका देवस्थान दस गज लंबा और इतना ही चौड़ा था। उसमें की मुख्य देवमूर्ति मानवाकार
थी और ऐसे कलापूर्ण ढंग से स्थापित की गई थी कि भक्तगण चाहे जिस ओर जाएँ देवता
उन्हें अपनी ही ओर देखता हुआ लगता था। देवता की आँखें रत्नों की बनी हुई थीं। इसके
बाद वह एक प्रसिद्ध ग्रामीण देवालय को देखने गया जिसे नगर के मंदिर से भी अधिक
सुंदर बताया गया था। यह देवालय एक विशाल उद्यान के अंदर बना था। यह उद्यान कई बीघे
का था। इसमें तरह-तरह के सुंदर फल-फूलों आदि के वृक्ष थे और उसके चारों ओर तीन गज
ऊँची दीवार खिंची थी जिससे वहाँ आवारा या जंगली जानवर न घुस सकें। उद्यान के मध्य
में एक चबूतरा था जिसकी ऊँचाई मनुष्य की ऊँचाई जैसी थी। उसके पत्थरों को ऐसे कौशल
से जोड़ा गया था कि सारा चबूतरा एक ही पत्थर का बना हुआ लगता
था। चबूतरा तीस गज लंबा और बीस गज चौड़ा था। वह संगमरमर का बना हुआ था और वह पत्थर
ऐसा साफ और चिकना था कि उसमें आदमी अपना चेहरा देख सकता था।
इस देवालय का मंडप
दर्शनीय था। उसमें देवी देवताओं की सैकड़ों मूर्तियाँ रखी हुई थीं। वहाँ सुबह और
शाम को सैकड़ों मूर्तिपूजक ब्राह्मण और उनकी स्त्रियाँ और बच्चे पूजा-अर्चना के
लिए आते थे। वे अपने पूजन में ऐसे मग्न हो जाते थे कि देखते बनता था। उनमें से
बहुत से लोग ध्यान लगाए बैठे रहते। कुछ लोग पूजा की मस्ती में सराबोर हो कर घंटों
नाचते रहते थे। कुछ भक्तजन सुंदर सुरीले वाद्यवृंदों के साथ भक्ति के गीत गाते और
कीर्तन करते रहते थे।
मंदिर के आसपास भी
मेला लगा रहता और तरह-तरह के खेल-तमाशे हुआ करते थे। दूर-दूर से लाखों लोग विशेष
अवसरों पर आते और देवताओं को भेंट करने के लिए सुंदर वस्तुएँ और असंख्य द्रव्य
लाते। इन विशेष अवसरों पर देश के प्रधान लोग तथा अन्य धनी लोग आ कर पूजा-अर्चना और
परिक्रमा करते। षटशास्त्री विद्वान आ कर भाँति-भाँति के प्रवचन और शास्त्रार्थ
करते। इनकी संख्या देख कर शहजादा हुसैन को बड़ा आश्चर्य हुआ। उद्यान के एक ओर एक
विशाल नौमंजिली इमारत चालीस खंभों पर स्थापित थी। उसकी अंदरूनी सजावट दर्शनीय थी।
विशेष पर्वों पर जब
राजा और प्रमुख सामंत देवदर्शन के लिए आते तो इसी इमारत में ठहरते और व्यापारियों
तथा अन्य प्रजाजनों का फैसला भी राजा यहीं करता था। इस भवन की दीवारों पर
भिन्न-भिन्न पशु-पक्षियों के चित्र बड़ी कुशलता से बनाए गए थे। वन हिस्र पशुओं की
आकृतियाँ इतनी सजीव थीं कि बाहर के, विशेषतः ग्रामीण क्षेत्र के लोग उन्हें
जीवित समझ कर भयभीत हो जाते थे।
इसके अतरिक्त इसी
उद्यान में तीन और लकड़ी के मकान बने हुए थे। इनकी विशेषता यह थी कि उनमें काफी
मनुष्यों के होने पर भी उन्हें अपनी कीली पर चारों और घुमाया जाता था। लोग तमाशा
देखने के लिए उनमें जाते और जब मकानों को घुमाया जाता तब उनमें के लोग एक जगह खड़े
रह कर भी चारों ओर के दृश्यों को देख सकते थे। इसके अलावा जगह-जगह पर मेलों के
दिनों में तरह-तरह के खेल-तमाशे हुआ करते थे। लगभग एक हजार विशालकाय हाथी जो
सुनहरे झूलों और चाँदी के हौदों से सुसज्जित थे, राजा और सामंतों की
सवारियों के रूप में आते। कुछ हाथियों पर भाँड़ तमाशा दिखाते और गवैए गाते-बजाते
थे। कुछ हाथी के बच्चे खुद तमाशा करते थे।
शहजादा हुसैन को इन
हाथियों के तमाशे देख कर घोर आश्चर्य हुआ। एक बड़ा हाथी चार अलग-अलग पहिएदार
तिपाइयों पर पाँव रखे अपनी सूँड़ से बाँसुरी जैसा एक वाद्य बजा रहा था। लोग
तिपाइयों में रस्से लगा कर उससे हाथी को इधर-उधर भी ले जाते। एक जगह एक चौड़ा
तख्ता एक तिपाई पर रखा था। उसके एक ओर एक हाथी का बच्चा खड़ा था और दूसरी ओर हाथी
के वजन से कुछ अधिक वजन का लोहा रखा था। कभी वह हाथी जोर लगा कर नीचे आ जाता और
लोहा ऊपर उठ जाता, कभी लोहा नीचा हो जाता और हाथी ऊपर टँग जाता और
ऐसी हालत में तख्ते पर नाच दिखाता और सूँड़ से सुर-ताल के साथ गाने की आवाज
निकालता। जमीन पर खड़े कई हाथी भी उसके साथ इसी तरह गाते। यह सब तमाशे राजा के
सम्मुख होते थे। हुसैन को इन सब चीजों को देख कर बड़ा आनंद आया और वह एक वर्ष की
मुद्दत के कुछ पहले तक यह तमाशे देखता रहा और अवधि की समाप्ति के कुछ दिन पहले
अपने सेवकों के साथ गलीचे पर बैठ कर उस सराय में जाने की इच्छा की जहाँ उसे अपने
भाइयों से मिलना था। गलीचे ने क्षण मात्र में उन लोगों को वहाँ पहुँचा दिया।
मँझला शहजादा अली
व्यापारियों के एक दल के साथ फारस देश को रवाना हुआ। चार महीने की यात्रा के बाद
शीराज में, जो फारस की राजधानी थी, पहुँचा। वह जौहरियों
के वेश में था। उसने साथ के व्यापारियों से अच्छी दोस्ती कर ली। वे सब शीराज की एक
सराय में उतरे। व्यापारी लोग व्यापार करने बाजार गए तो शहजादा अली भी बाजार पहुँचा
और वहाँ की सैर करने लगा। शीराज के बाजार की सारी दुकानें पक्की थीं और गोल खंभों
पर मंडपों की तरह बनी हुई थीं। अली जैसे-जैसे बाजार को देखता शीराज की समृद्धि पर
आश्चर्य करता। वह सोच रहा था कि एक ही बाजार में करोड़ों का माल रखा हुआ है तो
सारे बाजारों में कुल मिला कर कितना माल होगा और शीराज में कितना व्यापार होता
होगा।
बाजार में कई दलाल
भी घूम रहे थे जो ग्राहकों को भाँति-भाँति की वस्तुएँ दिखाते थे। उसने एक दलाल को
देखा जिसके हाथ में पौन गज लंबी और एक बालिश्त चौड़ी एक दूरबीन थी और वह उसका
मूल्य तीस हजार अशर्फियाँ बता रहा था। अली को यह सुन कर बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने एक
दुकानदार से पूछा कि वह दलाल पागल तो नहीं है जो ऐसी मामूली दूरबीन के इतने दाम
माँग रहा है। दुकानदार बोला, यह यहाँ का सबसे चतुर दलाल है और रोज हजारों का
व्यापार करता है। कल तक तो यह भला-चंगा था, आज अगर पागल हो गया
हो तो कह नहीं सकते। वैसे अगर वह इस दूरबीन को तीस हजार अशर्फियों में बेच रहा है
तो कोई खास बात होगी। आप मेरी दुकान पर ठहरिए। वह इधर ही आ रहा है। जब आएगा तो हम
लोग देखेंगे कि उसका माल कैसा है।
दलाल के पास आने पर
उस दुकानदार ने उसे पास बुला कर पूछा कि तुम्हारी दूरबीन में क्या विशेषता है जो
तुम इसका इतना दाम माँगते हो। उसने अली की ओर इशारा करके कहा कि यह तो तुम्हें
पागल समझने लगे थे। दलाल ने अली से कहा, आप अभी चाहे मुझे
पागल कहें, जब मैं दूरबीन की विशेषता बताऊँगा तो आप इसे जरूर
खरीद लेंगे।
उसने दूरबीन को अली
के हाथों में दिया और फिर उसे प्रयोग करने का तरीका पूरी तरह बताया। उसने कहा,
इसके दोनों सिरों पर दो काँच के जैसे टुकड़े लगे हैं। आप दोनों से हो
कर अपनी दृष्टि बाहर डालिए। आप जिस चीज को देखना चाहेंगे वह चाहे हजारों कोस की
दूरी पर हो आपको इस तरह दिखाई देगी जैसे कि आपके सामने रखी है। शहजादे ने कहा,
भाई, तुम्हारी बात का विश्वास किस प्रकार हो कि यह
दूरबीन इतने दूर की चीज भी दिखा सकती है। दलाल ने दूरबीन उसके हाथ में दे दी और
उसके प्रयोग की विधि दुबारा बता कर कहा, आप स्वयं परीक्षा कर
लीजिए। दोनों शीशों के बीच निगाहें जमा कर आप जिस वस्तु या व्यक्ति का ध्यान
करेंगे उसे ऐसा स्पष्ट देखेंगे जैसे वह आपसे दो-चार गज ही पर मौजूद है।
अली ने दूरबीन लगा
कर अपने पिता को देखने का विचार किया तो साफ दिखाई दिया कि बादशाह दरबार में
सिंहासन पर बैठा हुआ फरियादियों की अर्जियाँ सुन कर उन पर विचार कर रहा है। फिर
उसने अपनी प्रेमिका नूरुन्निहार को देखना चाहा तो वह भी अपने कक्ष में दासियों से
घिरी अपने पलंग पर आराम करती दिखाई दी। वह बड़ा प्रसन्न हुआ और सोचने लगा कि मेरे
भाई लोग दस वर्षों तक संसार का चक्कर लगाएँ तो भी ऐसी अद्भुत वस्तु नहीं प्राप्त
कर सकते। उसने दलाल से कहा, मैं तुम्हें तीस हजार अशर्फियाँ देता हूँ। दूरबीन
मुझे दे दो। दलाल को इतनी आसानी से पूरा दाम देनेवाला मिला तो उसने और मुँह फैलाया
और कहा कि आप से तो मैं चालीस हजार अशर्फियों से कम नहीं लूँगा। अली ने इस बारे
में दलाल से झगड़ा न किया और चालीस हजार अशर्फियाँ गिन दीं।
अब वह बहुत प्रसन्न
था। उसे विश्वास था कि नूरुन्निहार अब उसी की होगी। उसने सोचा कि अभी से
हिंदोस्तान की सराय में जा कर भाइयों की प्रतीक्षा करने की क्या जरूरत है। अतएव
उसने दो-चार महीने फारस देश की सैर में लगाए। फिर व्यापारियों के एक दल के साथ उसी
पूर्व निश्चित सराय में पहुँचा। शहजादा हुसैन एक-आध दिन पहले ही वहाँ पहुँचा था।
दोनों भाई प्रेमपूर्वक एक दूसरे से मिले।
छोटा शहजादा अहमद
समरकंद की ओर गया और उस नगर में एक सराय में उतरा। वहाँ उसने देखा कि एक दलाल एक
सेब को हाथ में लिए है और आवाज लगा रहा है कि यह सेब पैंतीस हजार अशर्फियों में
बिकाऊ है। अहमद ने उसे बुला कर पूछा कि इस सेब में ऐसी क्या बात है कि तुम इसका
इतना अधिक मूल्य माँग रहे हो। दलाल ने कहा, आप इसका गुण सुनेंगे
तो इसके मूल्य पर आश्चर्य न करेंगे। किसी आदमी को कितना ही भारी रोग हो और वह चाहे
आखिरी साँसें गिन रहा हो, इस सेब के सुँघाते ही उसका न केवल रोग दूर हो
जाता है बल्कि वह तुरंत ही अपने साधारण स्वास्थ्य को प्राप्त कर लेता है और
चलने-फिरने लगता है।
अहमद ने कहा,
यदि इसमें यह गुण है तो मैं इसी अभी खरीद लूँगा। लेकिन यह मालूम कैसे
हो कि इसमें यह गुण है। यह भी नहीं मालूम यह किसने और कैसे बनाया है। दलाल ने कहा,
यहाँ के सभी लोग जानते हैं कि इसे यहाँ के एक बड़े हकीम ने बरसों तक
जड़ी-बूटियों का शोधन करके बनाया है। उसने इसे सुँघा कर सैकड़ों रोगियों को ठीक
किया किंतु संयोग से उसे ऐसा आकस्मिक रोग हुआ कि वही इसका प्रयोग न कर सका और मर
गया। उसका सारा धन इसके बनाने में खर्च हो गया था। उसके स्त्री-बच्चों ने निर्धनता
के कारण इसे बेचने के लिए मुझे दिया है। इस सेब की किसी समय भी परीक्षा की जा सकती
है।
जो लोग जमा हो गए थे
उनमें से एक ने कहा, मेरा एक रोगी मित्र मरणासन्न है। आप लोग उसे ठीक
कर दें तो आपका अहसान मानूँगा। अहमद ने दलाल से कहा, उस आदमी को अच्छा
करो। दलाल बोला, आप ही अपने हाथ से रोगी को यह सेब सुँघा कर इसका
कमाल देखें। मेरा तो बीसियों बार का आजमाया हुआ है। सब लोग रोगी के पास गए। वह
बेहोश था किंतु जैसे ही अहमद ने उसे सेब सुँघाया वह बिस्तर से उठ कर खड़ा हो गया।
दलाल ने कहा कि इतनी परीक्षा ली गई है, अब तो मैं इसकी चालीस हजार अशर्फियाँ
लूँगा। अहमद ने चालीस हजार अशर्फियाँ दे दीं और सेब ले लिया। उसके बाद उसने उस नगर
और प्रदेश की कई महीने तक सैर की। फिर हिंदोस्तान जानेवाले एक काफिले के साथ हो
लिया।
कुछ समय के बाद वह
उसी सराय में पहुँचा जहाँ उसके दोनों भाई उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। तीनों ही
इकट्ठे होने पर बहुत प्रसन्न थे कि सभी की यात्रा सकुशल समाप्त हुई। फिर उन्होंने
अपनी-अपनी यात्राओं और उपलब्धियों का वर्णन किया। हुसैन ने कहा, मैं
विष्णुगढ़ गया था। वह बड़ा समृद्ध देश है और वहाँ के निवासी बड़े शिष्ट हैं। मुझे
वहाँ एक ऐसी चीज मिली जो और किसी को नहीं मिल सकती। तुम उस गलीचे को देख रहे हो।
यह देखने में साधारण-सा गलीचा लगता है किंतु सब से असाधारण चीज है। इस पर
बैठनेवाला जिस जगह भी जाने का विचार करे यह हवा में उड़ कर उसे क्षण मात्र में उस
जगह पहुँचा देता है। मैंने इसे चालीस हजार अशर्फियाँ में खरीदा है। मैंने
विष्णुगढ़ की कई महीने सैर की, फिर भी महीनों पहले इस सराय में आ गया हूँ
क्योंकि इस गलीचे पर अपने सेवकों के साथ बैठ कर ज्यों ही मैंने यहाँ पहुँचने की
इच्छा की उसी क्षण हम लोग यहाँ पहुँच गए। इसीलिए मैं
यहाँ दो-तीन महीने से हूँ और तुम लोग अभी आए हो।
अली ने कहा, भाई
हुसैन, इसमें संदेह नहीं कि तुम्हारी लाई हुई वस्तु अतिशय अद्भुत है। लेकिन
मैं जो कुछ लाया हूँ वह किसी तरह कम नहीं है। इस हाथी दाँत की बनी दूरबीन को देखो।
यह देखने में मामूली चीज मालूम होती है लेकिन मैंने इसे चालीस हजार अशर्फियों में
खरीदा है। इसमें जिस चीज को देखना चाहो वह हजारों कोस दूर होने पर भी ऐसे दिखाई
देगी जैसी बिल्कुल सामने हो। अगर तुम चाहो तो इसकी परीक्षा कर सकते हो। मैं
तुम्हें इसके प्रयोग की विधि बताता हूँ। यह कह कर उसने हुसैन को वह विधि बताई।
हुसैन ने कहा कि मैं इसमें नूरुन्निहार को देखूँगा। किंतु ज्यों ही उसने दूरबीन
लगाई उसके चेहरे का रंग उड़ गया।
अली और अहमद के
पूछने पर हुसैन ने कहा, भाइयो, हम तीनों का परिश्रम
व्यर्थ गया और हमारे जीवन का सारा आनंद खत्म होनेवाला है। नूरुन्निहार अंतिम
साँसें गिन रही है। उसे कोई जानलेवा रोग हो गया है। बीसियों दासियाँ और जनाने उसके
पलंग के पास रो रहे हैं। अली और अहमद ने भी दूरबीन देखी तो यही बात पाई। अहमद ने
कहा, हम सभी नूरुन्निहार का स्वास्थ्य लाभ चाहते हैं। मैं अगर वहाँ अभी
पहुँच जाऊँ तो उसे इसी समय नीरोग कर सकता हूँ।
यह कह कर अहमद ने
सेब निकाला और कहा, तुम लोगों के गलीचे और दूरबीन की तरह इस सेब का
दाम भी चालीस हजार अशर्फी है। यह समय इसकी परीक्षा का है। इसमें यह गुण है कि किसी
भी रोग के रोगी को चाहे वह मरनेवाला ही हो, यह सुँघाया जाए तो न
केवल रोग दूर हो जाता है बल्कि रोगी एकदम से अपने स्वास्थ्य की साधारण अवस्था में
पहुँच जाता है। इससे नूरुन्निहार को इसी समय ठीक किया जा सकता है बशर्ते कि हम
वहाँ फौरन पहुँच जाएँ। हुसैन ने कहा, पहुँचाने की जिम्मेदारी मेरी रही। तुम लोग
मेरे साथ इस गलीचे पर बैठ जाओ फिर इसका खेल देखो।
यह कहने के बाद
हुसैन ने गलीचा बिछा दिया और तीनों भाई उस पर बैठ गए। इसके पहले उन्होंने सेवकों
से कहा कि तुम लोग सराय का हिसाब चुकता करके सामान ले कर साधारण मार्ग से राजधानी
को आना। गलीचे पर बैठ कर तीनों ने नूरुन्निहार के कक्ष में पहुँचने की इच्छा की और
दम मारते ही वहाँ पहुँच गए। वहाँ उपस्थित लोग उनके अचानक आगमन से भयभीत हुए किंतु
उन्हें पहचान कर उनके सकुशल लौट आने पर संतोष अनुभव करने लगे। अहमद ने आगे बढ़ कर
औषधियोंवाला सेब नूरुन्निहार को सुँघाया। साँस अंदर जाते ही नूरुन्निहार ने आँखें
खोल दीं और इधर-उधर देखने लगी।
फिर वह पलंग पर बैठ
गई और बोली, मुझे गहरी नींद आ गई थी। दासियों ने कहा, नहीं,
आप तो रोग के कारण मरणासन्न थीं। तुम्हारे यह तीनों चचेरे भाई अभी-
अभी आए हैं और शहजादा अहमद ने एक सेब सुँघा कर आपको अच्छा किया है। दासियों से यह
सुन कर नूरुन्निहार ने उनके आने पर प्रसन्नता और अहमद के प्रति कृतज्ञता प्रकट की।
शहजादे भी उसे स्वस्थ देख कर प्रसन्न हुए। फिर वे तीनों नूरुन्निहार से विदा ले कर
अपने पिता के पास पहुँचे। बादशाह को सेवकों ने पहले ही बता दिया था कि तीनों
शहजादों ने एकदम से नूरुन्निहार के कक्ष में आ कर उसे एक क्षण में निरोग कर दिया
है। बादशाह ने उनके पहुँचने पर उन्हें गले लगाया। तीनों ने अपनी अपनी लाई हुई
चीजें दिखाई और नूरुन्निहार के पास पहुँच कर उसे नीरोग करने का पूरा हाल कहा। फिर
उन्होंने कहा, अब आप जिससे चाहें नूरुन्निहार को ब्याह दें।
बादशाह सारा हाल सुन
कर चिंता में पड़ गया। वह सोचने लगा कि अहमद ने नूरुन्निहार को अच्छा किया है
किंतु यदि मैं उसके साथ नूरुन्निहार की शादी करूँ तो दोनों बड़े बेटों के प्रति
अन्याय होगा क्योंकि यह स्पष्ट है कि अगर अली की दूरबीन न होती तो अहमद
नूरुन्निहार की बीमारी को देख भी नहीं पाता। और अगर हुसैन का गलीचा न होता तो वह
लोग इतनी जल्दी आ किस तरह पाते। नूरुन्निहार के स्वास्थ्य लाभ में तीनों की लाई
हुई वस्तुओं का एक असाधारण योगदान है। किस तरह शादी का फैसला किया जाए।
उसने कहा, बेटो,
तुम्हारी लाई हुई वस्तुएँ एक से एक बढ़ कर अद्भुत हैं और उनके आधार पर
कोई निर्णय नहीं हो सकता। अब दूसरी प्रतियोगिता आवश्यक है। कल तुम लोग सुबह अपने
घोड़ों पर तीर-कमान ले कर फलाँ मैदान में पहुँचो। मैं और अन्य राज्याधिकारी भी
वहाँ होंगे। तुम तीनों के तीर फेंकने की प्रतियोगिता होगी। तीनों में जिसका तीर
सबसे आगे जाएगा उसी से नूरुन्निहार का विवाह होगा। तीनों ने सिर झुका कर आदेश को
स्वीकार किया।
बादशाह ने गलीचे,
दूरबीन और सेब को भंडार गृह में भेजा और दूसरी सुबह सामंतों और
सभासदों के साथ मैदान में पहुँचा। तीनों शहजादे भी आ गए और तीरंदाजी शुरू हुई। सब
से पहले बड़े शहजादे हुसैन ने तीर फेंका। वह काफी दूर पर जा कर गिरा। इसके बाद अली
ने तीर फेंका जो हुसैन के तीर के कुछ आगे गया। फिर अहमद ने तीर चलाया जो उड़ता ही
गया और आँखों से ओझल हो गया। बादशाह के सेवक
काफी दूर तक गए किंतु तीर न मिला। बादशाह ने अली को यह कह कर विजेता घोषित कर दिया
कि अहमद के तीर का जब पता ही नहीं चला तो कैसे कहा जाए कि वह आगे गया है या पीछे,
संभव है तीर कमान से छूटा ही न हो।
इस निर्णय से हुसैन
को बहुत दुख हुआ। वह नूरुन्निहार को अपने भाइयों से अधिक प्यार करता था और उसका
दिल टूट गया। उसे सारे समाज से वितृष्णा हो गई। वह अली के विवाह में सम्मिलित न
हुआ बल्कि फकीरों जैसे कपड़े पहन कर घर से निकल गया। अहमद भी दुख और ईर्ष्या के
कारण अली और नूरुन्निहार के विवाह में शामिल न हुआ। लेकिन उसने संसार का त्याग
नहीं किया। वह रोज मैदान में जा कर उस दिशा में दूर-दूर जा कर अपना तीर ढूँढ़ा
करता।
एक दिन वह अकेला ही
अपने तीर को ढूँढ़ने चला। उसने सोचा कि आज तो मैं उस तीर को पा कर ही लौटूँगा। वह
सीधा चलता चला गया, दाँए-बाएँ कहीं न देखा। कई पर्वत ओर घाटियाँ पार
करके उसने देखा कि उसका तीर एक टीले पर पड़ा है। वह बड़े आश्चर्य में पड़ा कि तीर
इतनी दूर किस तरह आ गया। पास आया तो यह देख कर और हैरान हुआ कि तीर एक चट्टान से
चिपका है। वह सोचने लगा कि इसमें कोई भेद अवश्य है। तीर को पत्थर से छुड़ा कर उसने
हाथ में लिया और आगे बढ़ा ताकि तीर के यहाँ पहुँचने के रहस्य को जान सके।
आगे बढ़ने पर उसे एक
गुफा मिली। वह उसके अंदर चला गया। अंदर कुछ दूर पर उसे लोहे का एक दरवाजा दिखाई
दिया। उसके पास जाते ही द्वार खुल गया। अंदर उसे एक ढलवा मार्ग मिला। वह तीर लिए
आगे बढ़ता गया। उसने सोचा था कि यहाँ अँधेरा होगा किंतु वहाँ खूब उजाला था। दरवाजे
से पचास साठ गज की दूरी पर एक विशाल भवन दिखाई दिया। उसने देखा कि एक अत्यंत
रूपवती स्त्री अनुचरियों सहित उसकी ओर आ रही है। उसने सोचा कि आगे बढ़ कर उस
सुंदरी को सलाम करे किंतु उसने इससे पहले ही अति मृदुल स्वर में कहा, शहजादा
अहमद, इस दासी के घर में तुम्हारा स्वागत है। तुम्हें मार्ग में कोई कष्ट तो
नहीं हुआ।
अहमद ने आगे बढ़ कर
उसके आगे शीश झुकाया और कहा, हे भुवनमोहिनी, तुम्हारे स्वागत से
मैं स्वयं को धन्य मानता हूँ किंतु मुझे आश्चर्य है कि तुम्हें मेरा नाम कैसे
मालूम है। रूपसी हँस कर बोली, अभी तुम्हें कई सुखद आश्चर्य होंगे। अभी आ कर
मेरे साथ बारहदरी में बैठो तो हम लोग आनंदपूर्वक बातें करेंगे। वहीं तुम्हें
बताऊँगी कि तुम्हें कैसे जानती हूँ। यह कह कर वह अहमद को हाथ पकड़ कर बारहदरी में
ले गई। शहजादे ने देखा कि बारहदरी गुंबददार है और गुंबद का अंदर का भाग सुनहरा है।
जिस पर बैंगनी रंग से विचित्र चित्रकारी की गई है। अन्य सामग्री भी अति मूल्यवान
थी। शहजादे ने उसकी प्रशंसा की तो रूपसी ने कहा, मेरे दूसरे महल इससे
कहीं अधिक सुंदर हैं।
फिर वह शहजादे को
अपने पास बिठा कर बोली, तुम मुझे नहीं जानते लेकिन मैं तुम्हें जानती
हूँ। तुमने किताबों में यह तो पढ़ा ही होगा कि पृथ्वी पर मनुष्यों के अलावा जिन्न
और परियाँ भी रहती हैं। मैं एक प्रमुख जिन्न की पुत्री हूँ। मेरा नाम परीबानू है।
अब तुम अपना हाल भी मुझसे सुन लो। तुम तीन भाई हो। तुम्हारी चचेरी बहन नूरुन्निहार
है। तुम तीनों उसे अपनी-अपनी पत्नी बनाना चाहते थे। उसके लिए तुम तीनों ने अपने
पिता के आदेशानुसार दूर देशों की यात्रा की। तुम्हारे पिता ने अद्भुत वस्तुओं को
लाने को कहा था। तुम समरकंद गए और वह रोग निवारक सेब लाए, जिसे
मैंने ही वहाँ तुम्हारे लिए भेजा था। इसी प्रकार मेरा भेजा हुआ गलीचा विष्णुगढ़ से
तुम्हारा बड़ा भाई हुसेन लाया और इस प्रकार की दूरबीन फारस से अली लाया। इसी से
समझ लो कि मैं तुम्हारे बारे में सब कुछ जानती हूँ। अब तुम्हीं बताओ मैं अच्छी हूँ
या नूरुन्निहार?
परीबानू ने आगे कहा,
जब तुम ने तीर फेंका तो मैंने समझ लिया कि यह तीर हुसैन के तीर से भी
पीछे रह जाएगा। मैंने उसे हवा ही में पकड़ा और ला कर बाहर के टीले की चट्टान से
चिपका दिया। मेरा उद्देश्य यह था कि तुम तीर को ढूँढ़ते हुए यहाँ आओ जिससे मैं
तुमसे भेंट कर सकूँ। यह कह कर परीबानू ने प्यार की निगाहों से अहमद को देखा और शरमा
कर आँखें झुका लीं। अहमद भी उसके रूप रस को पी कर उन्मत्त हो गया था। नूरुन्निहार
दूसरे की हो चुकी थी और उसके प्रेम में फँसे रहना पागलपन होता। इधर परीबानू
नूरुन्निहार से कहीं अधिक सुंदर थी। उसने कहा, सुंदरी, मैंने
तुम्हें आज ही देखा है किंतु तुम्हें देख कर मेरी यह दशा हो गई कि मैं यह चाहने
लगा हूँ कि सब कुछ छोड़ कर जीवन भर तुम्हारे चरणों में पड़ा रहूँ। किंतु मेरे
चाहने से क्या होता है। तुम जिन्न की पुत्री हो, परी हो। तुम्हारे
आत्मीय यह कब चाहेंगे कि तुम किसी मनुष्य के साथ विवाह संबंध स्थापित करो।
परीबानू ने कहा,
यह बात नहीं है। मेरे माता-पिता ने मुझे पूरी छूट दे रखी है कि जिसके
साथ चाहूँ विवाह करूँ। और यह तुमने क्या कहा कि तुम मेरे चरणों में पड़े रहो।
मैंने तुम्हें अपना पति माना है। पति का मतलब होता है स्वामी। मैं और यह सारे महल
तथा संपत्ति अब तुम्हारे ही अधिकार में रहेंगे क्योंकि मैं अभी-अभी तुम्हारे साथ
विवाह करूँगी। तुम समझदार आदमी हो। मुझे तुम्हारी बुद्धिमत्ता से पूर्ण आशा है कि
तुम मुझे अपनी पत्नी बनाने से इनकार नहीं करोगे। अपने बारे में तो मैं यह कह ही
चुकी कि मुझे मेरे माँ-बाप ने विवाह के लिए पूरी स्वतंत्रता दे रखी है। इसके अलावा
भी हमारी जाति विशेष के जिन्नों-परियों में यह रीति है कि विवाह के मामले में हर
परी को स्वतंत्रता दी जाती है कि वह जिन्न, मनुष्य या किसी और
जाति में भी जिससे चाहे विवाह संबंध बनाए क्योंकि हम लोगों की मान्यता है कि अपनी
पसंद की शादी से स्त्री-पुरुष में सदा के लिए प्रीति बनी रहती है। इसलिए
मेरी-तुम्हारी शादी सभी को मान्य होगी।
परीबानू से यह सुन
कर अहमद आनंद से अभिभूत हो गया और परीबानू के पैरों पर गिरने लगा। परी ने उसे इससे
रोका और सम्मानपूर्वक अपना वस्त्र भी न चूमने दिया बल्कि अपना हाथ बढ़ा दिया जिसे
अहमद ने चूमा और हृदय और आँखों से लगाया। उस समाज में सम्मान प्रदर्शन की यही रीति
थी। परीबानू ने मुस्कुरा कर कहा, अहमद, तुमने मेरा हाथ थामा
है। इस हाथ गहे की लाज हमेशा बनाए रखना। ऐसा नहीं कि धोखा दे जाओ। अहमद ने कहा,
यह किसके लिए संभव है कि तुम्हारे जैसी परी मिलने पर भी उसे छोड़ दे?
मैं तो अपना मन-प्राण सब कुछ तुम्हें अर्पित कर चुका। अब मेरी हर
प्रकार से तुम्हीं स्वामिनी हो। हाँ, हमारा विवाह कहाँ और कैसे होगा? परीबानू
ने कहा, विवाह के लिए एक-दूसरे को पति-पत्नी मान लेना काफी होता है, सो हम
दोनों ने मान लिया। बाकी विवाह की रस्में बेकार हैं। हम दोनों इसी क्षण से
पति-पत्नी हो गए। रात में हम लोग एक सुसज्जित कक्ष में एक-दूसरे के संग का आनंद
लेंगे।
फिर दासियाँ दोनों
के लिए नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन लाईं। दोनों ने तृप्त हो कर भोजन किया।
भोजन के पश्चात दोनों ने मद्यपान किया और देर तक परस्पर प्रीति की बातें करते रहे।
फिर परीबानू ने अहमद को अपना महल दिखाया जिसमें हर जगह इतनी बहुतायात से रत्नादिक
एकत्र थे कि शहजादे की आँखें फट गईं। उसने भवन की प्रशंसा की तो परीबानू ने कहा कि
कई जिन्नों के पास ऐसे शानदार महल हैं जिनके आगे मेरा महल कुछ नहीं है। फिर वह
शहजादे को अपनी वाटिकाओं में ले गई जिनकी सुंदरता का वर्णन करने में शब्द असमर्थ
हैं। शाम को वह उसे अपने रात्रिकालीन भोजन कक्ष में ले गई जहाँ की सजावट देख कर
शहजादा हैरान हो गया। भोजन कक्ष में कई रूपवान सुंदर वस्त्राभूषणों से सुसज्जित
गायिकाएँ और वादिकाएँ भी थीं जो इन दोनों के वहाँ पहुँचते ही मीठे स्वरों में
गायन-वादन करने लगीं। कुछ देर में भोजन आया, जिसमें भाँति-भाँति
के व्यंजन थे। कुछ खाद्य पदार्थ ऐसे थे जो अहमद ने इससे पहले चखे क्या देखे भी
नहीं थे। परीबानू उन पदार्थों को अपने हाथ से उठा-उठा कर अहमद के आगे रखती थी और
उनकी पाक विधियाँ उसे बताती थी।
भोजन के उपरांत कुछ
देर बाद मिठाई, फल और शराब लाई गई। पति-पत्नी एक- दूसरे को
प्याले भर-भर कर पिलाते रहे। इससे छुट्टी पाई तो एक और अधिक सजे हुए कमरे में
पहुँचे जहाँ सुनहरी रेशमी मसनदें, गद्दे आदि बिछे थे। वे दोनों जा कर मसनदों
पर बैठ गए। उनके बैठते ही कई परियाँ आईं और अत्यंत सुंदर नृत्य और गायन करने लगीं।
शहजादे ने अपने जीवन भर ऐसा मोहक संगीत और नृत्य कभी नहीं देखा था।
नृत्य और गायन के
उपरांत दोनों शयन कक्ष में गए। वहाँ रत्नों से जड़ा विशाल पलंग था। उन्हें वहाँ
पहुँचा कर सारे दास-दासियाँ जो परी और जिन्न थे उस कमरे से दूर हट गए। इसी प्रकार
उन दोनों के दिन एक दूसरे के सहवास में आनंदपूर्वक कटने लगे। शहजादा अहमद को लग
रहा था जैसे वह स्वप्न संसार में है। मनुष्यों के समाज में वह ऐसे आनंद और ऐसे
वैभव की कल्पना भी नहीं कर सकता था। ऐसे ही वातावरण में छह महीने किस प्रकार बीत
गए इसका उसे पता भी नहीं चला। परीबानू के मनमोहक रूप और उससे भी अधिक मोहक व्यवहार
ने उसे ऐसा बाँध रखा कि एक क्षण भी उसकी अनुपस्थिति अहमद को सह्य न थी।
फिर भी उसे कभी-कभी
यह ध्यान आया करता कि उसके पिता उसके अचानक गायब हो जाने के कारण दुखी होंगे। यह
दुख अहमद के मन में उत्तरोत्तर बढ़ता जाता। किंतु वह डरता था कि न जाने परीबानू
उसे जाने की अनुमति दे या न दे। एक दिन उसने परीबानू से कहा, अगर तुम
अनुमति दो तो दो-चार दिन के लिए अपने पिता के घर पर भी हो लूँ। यह सुन कर परीबानू
उदास हो गई और बोली, क्या बात है? क्या तुम मुझसे ऊब
गए हो और बहाना बना कर मुझसे दूर होना चाहते हो? या मेरी सेवा में
कोई त्रुटि है?
शहजादे ने उसका हाथ
चूम कर कहा, ऐसी बात मेरे मन में आ नहीं सकती। मुझे सिर्फ यह
ख्याल है कि मेरे बूढ़े बाप मेरे अचानक गायब हो जाने से बहुत परेशान होंगे। मैंने
तो पहले भी कहा था और अब भी कहता हूँ कि जीवन भर तुम्हें छोड़ कर कहीं नहीं
जाऊँगा। मुझे सिर्फ अपने पिता के दुख का ख्याल है इसलिए जाना चाहता था। अगर तुम
नहीं चाहती तो जाने दो, वहाँ नहीं जाऊँगा। परीबानू ने देखा कि शहजादा
सच्चे दिल से यह बातें कर रहा है और पत्नी का प्यार उसके दिल से कम नहीं हुआ है।
उसने हँस कर कहा, मैं तो मजाक कर रही थी। मुझे तुम पर पूरा विश्वास
है। सचमुच ही तुम्हारे पिता तुम्हारी अनुपस्थिति से बहुत दुखी होंगे। तुम उन्हें
देखने जरूर जाओ किंतु जल्दी लौटना।
उधर अहमद के पिता
यानी हिंदोस्तान के बादशाह का हृदय वास्तव में बहुत दुखी रहता था। उसका एक बेटा
नूरुन्निहार से विवाह करके अति सुख से रहता था और इसका बादशाह को संतोष था किंतु
हुसैन और अहमद के चले जाने से उसे हृदयविदारक कष्ट भी था। अली के विवाह के दो-चार
दिन बाद उसने महल के कर्मचारियों से पूछा कि हुसैन और अहमद क्यों नहीं दिखाई देते।
उन्होंने कहा, शहजादा हुसैन तो संसार त्याग करके ईश्वर की खोज
में फकीर बन कर निकल गए हैं लेकिन शहजादा अहमद अचानक न मालूम कहाँ गायब हो गए हैं।
बादशाह ने शहजादा अहमद की खोज में बहुत जासूस दौड़ाए किंतु शहजादे का पता किसी को
न चल सका। बादशाह बड़ा चिंतित हुआ।
एक दिन उसे मालूम
हुआ कि इसी शहर में एक होशियार जादूगरनी रहती है जो तंत्र-विद्या से अज्ञात बातें
जान लेती है। बादशाह ने उसे बुला कर कहा, जब से मैंने
नूरुन्निहार से शहजादा अली का विवाह किया है शहजादा अहमद का कुछ पता नहीं चलता।
मैं इससे बहुत परेशान हूँ। तुम अपने जादू से मुझे बताओ कि अहमद जीवित है या नहीं,
जीवित है तो किस दिशा में है और मुझसे उसकी भेंट होगी या नहीं।
जादूगरनी ने कहा, इसी क्षण तो मैं कुछ भी न बता सकूँगी। कई
क्रियाएँ करनी होती हैं। कल जरूर मैं आपके प्रश्नों का उत्तर दूँगी। बादशाह ने कहा,
तुमने ठीक सूचना दी तो तुम्हें मालामाल कर दूँगा। इस समय तुम घर जाओ
और जो क्रियाएँ जरूरी हैं वह करो। जादूगरनी दूसरे दिन आ कर बोली, मैंने
जादू से यह तो जान लिया है कि शहजादा अहमद सही-सलामत हैं। किंतु वे कहाँ हैं इसका
पता नहीं लग सका। मालूम होता है कि कहीं बड़े रहस्यमय स्थान में हैं जिससे मुझे
कुछ पता नहीं चलता। बादशाह को इतने से ही बहुत संतोष हुआ कि अहमद जिंदा है।
इधर शहजादा अहमद
अपने पिता के घर आने को तैयार हुआ तो परीबानू ने कहा, तुम एक बात का ध्यान
जरूर रखना। अपने पिता तथा अन्य संबंधियों, मित्र आदि को यह
हरगिज न बताना कि तुम कहाँ रहते हो और कैसे यहाँ पर पहुँचे। तुम सिर्फ यह कहना कि
मेरा विवाह हो गया है और मैं जहाँ भी रहता हूँ बड़े सुख और संतोष के साथ रहता हूँ।
किसी विचित्र बात का उल्लेख न करना और इसके अलावा कुछ न कहना कि दो-चार दिन के लिए
पिता के मन को धैर्य देने को आया हूँ। शहजादे ने इसे स्वीकार किया।
परीबानू ने एक
बढ़िया घोड़ा, जिसका साज-सामान रत्न-जटित था, शहजादे
की सवारी के लिए मँगाया। यात्रा के लिए अन्य उपयुक्त और आवश्यक सामग्री का प्रबंध
किया और बीस सवार, जो सब के सब जिन्न थे, शहजादे के साथ चलने
के लिए बुलाए। विदाई के समय शहजादे ने फिर परीबानू से हर रहस्य को गुप्त रखने का
वादा किया और अपने साथी सवारों को ले कर अपने पिता के महल की ओर चल पड़ा। महल अधिक
दूर नहीं था। यह लोग घंटे-आधे घंटे में राजधानी पहुँच गए।
सारे नगर निवासी और
गणमान्य लोग शहजादे को देख कर बड़े प्रसन्न हुए। वे अपना कामकाज छोड़ कर शहजादे को
देखने और उसे आशीर्वाद देने को आ गए। शाही महल तक सड़क के दोनों ओर भीड़ लग गई।
दरबार में पहुँच कर शहजादा पिता के चरणों में गिरा और बादशाह ने उसे उठा कर हृदय
से लगाया। बादशाह ने कहा, तुम नूरुन्निहार के न मिलने से इतने रुष्ट हुए कि
घर छोड़ कर ही चले गए। अब कहाँ हो और अब तक कैसे रहे? अहमद ने कहा,
मैं दुखी जरूर था कि नूरुन्निहार को नहीं पा सका किंतु रुष्ट नहीं था।
मैं अपना फेंका हुआ तीर ढूँढ़ता हुआ उसी दिशा में बहुत दूर निकल गया। मैं आगे
बढ़ता गया। यद्यपि मैं जानता था कि मेरा ही क्या संसार के किसी भी धनुर्धर का तीर
इतनी दूर नहीं पहुँच सकता तथापि मैं तीर की तलाश में आगे बढ़ता गया क्योंकि यह भी
स्पष्ट था कि तीर एक ही दिशा में गया होगा, दाएँ-बाएँ तो जा
नहीं सकता। अंत में यहाँ से लगभग चार कोस दूरी पर मैंने अपने तीर को एक चट्टान से
चिपका हुआ पाया। यह देख कर मैं समझ गया कि तीर इतनी दूर अपने आप नहीं आया है,
उसे किसी रहस्यमय शक्ति ने यहाँ किसी उद्देश्य से पहुँचाया है। उसी
शक्ति ने प्रेरणा दे कर मुझे एक ऐसे स्थान पर पहुँचाया जहाँ मैं इस समय भी बड़े
आनंद से रहता हूँ। इससे अधिक विवरण मैं नहीं दे सकूँगा। मैं केवल आपके मन को अपने
संबंध में धैर्य देने के लिए आया हूँ, दो-एक दिन रह कर वापस चला जाऊँगा। कभी-कभी
आपके दर्शन के लिए आया करूँगा।
बादशाह ने कहा,
तुम्हारी खुशी है। तुम जहाँ चाहो आराम से रहो। मुझे इस बात से बड़ी
प्रसन्नता है कि तुम जहाँ भी रह रहे हो प्रसन्नता से रह रहे हो। लेकिन अगर तुम्हें
आने में देर लगी तो मैं तुम्हारा समाचार किस प्रकार प्राप्त कर सकूँगा? अहमद ने
निवेदन किया, यदि आपका तात्पर्य यह है कि मैं अपने निवास आदि
का रहस्य बताऊँ तो मैं पहले ही निवेदन कर चुका हूँ कि जितना मैंने बता दिया है
उसके अतिरिक्त कुछ भी बताने की स्थिति में मैं नहीं हूँ। आप इत्मीनान रखें मैं
जल्दी-जल्दी आया करूँगा।
बादशाह ने कहा,
बेटा, मेरी इच्छा किसी रहस्य को जानने की नहीं है। मैं
तो केवल तुम्हारी कुशलक्षेम से आश्वस्त होना चाहता था। तुम्हारा हाल मिलता रहे यही
काफी है। तुम जब चाहो आओ जब चाहो जाओ। अतएव अहमद तीन दिन तक शाही महल में रहा।
चौथे दिन सुबह अपने निवास स्थान को रवाना हुआ। परीबानू उसकी वापसी पर बहुत प्रसन्न
हुई। दोनों प्रेमपूर्वक जीवन का आनंद उठाने लगे। एक महीना पूरा होने पर भी जब
शहजादा अपने पिता से मिलने नहीं गया तो परीबानू ने पूछा कि तुम तो कहते थे कि
महीने-महीने पिता से मिलने जाऊँगा, इस बार क्यों नहीं गए। अहमद ने कहा,
मैंने सोचा शायद अबकी बार तुम जाने की अनुमति न दो।
परीबानू हँस कर बोली,
मेरी अनुमति पर इतना निर्भर न रहो। महीने-महीने मुझे पूछे बगैर ही
पिता के पास हो आया करो। अतएव शहजादा दूसरे दिन सुबह बड़ी धूमधाम से अपने पिता के
पास गया और तीन दिन वहाँ रहा। इसके बाद उसका नियम हो गया कि हर महीने शाही महल में
जाता, तीन दिन वहाँ रहता और इसके बाद परीबानू के महल में आ जाता। उसके शाही
महल में आगमन की तड़क-भड़क हर बार बढ़ती ही जाती थी।
यह देख कर महल का एक
प्रधान कर्मचारी, जो बादशाह के मुँह लगा हुआ था, शहजादे
की सवारी की बढ़ती हुई शान-शौकत से आश्चर्य में पड़ा। वह सोचने लगा कि शहजादे का
विचित्र रहस्य मालूम होता है। कुछ पता नहीं कि वह कहाँ रहता है और वह ऐश्वर्य उसे
कहाँ से मिला है। वह मन का नीच भी था इसलिए बादशाह को बहकाने लगा। उसने कहा,
सरकार अपनी ओर से असावधान रहते हैं। आपने कभी ध्यान दिया है कि आपके
पुत्र का ऐश्वर्य बढ़ता ही जाता है। उसकी शक्ति ऐसे ही बढ़ती रही तो एक दिन यह भी
संभव है कि आप पर आक्रमण करके आपका राज्य हथिया ले और आपको कैद कर ले। जब से आपने
नूरुन्निहार को शहजादा अली से ब्याहा है तब से शहजादा हुसैन और शहजादा अहमद अत्यंत
अप्रसन्न हैं। शहजादा हुसैन ने तो फकीरी बाना ओढ़ लिया, वह चाहे भी तो आप की
कुछ हानि नहीं कर सकता लेकिन कहीं अहमद आपसे बदला न ले।
बादशाह उसके बहकावे
में आ गया और अहमद का हाल जानने के लिए उत्सुक रहने लगा। इसी कर्मचारी के कहने से
उसने मंत्री की जानकारी के बगैर ही महल में चोर दरवाजे से जादूगरनी को बुला कर कहा,
तुमने अहमद के जीवित होने की बात कहीं थी, वह तो ठीक निकली। अब
तुम उसका पूरा हाल मालूम करो। यूँ तो वह हर महीने मुझसे मिलने आता है किंतु मेरे
पूछने पर भी अपना हाल नहीं बताता कि कहाँ रहता है, क्या करता है। तुम
इस बात का पता लगाओ, जादू से नहीं तो वैसे ही सही। महल के कर्मचारियों
को कुछ मालूम नहीं। अहमद यहाँ आया हुआ है, कल सुबह वापस जाएगा।
तुम उसके रास्ते में छुप कर बैठो और देखो कहाँ जाता है। फिर सारा हाल आ कर मुझे
बताओ।
बादशाह से विदा हो
कर जादूगरनी उस जगह पहुँची जहाँ अहमद को तीर मिला था। वह एक गुफा में बैठ कर अहमद
के आगमन की प्रतीक्षा करने लगी। दूसरी सुबह अहमद अपने साथियों समेत महल से रवाना
हुआ। जब उस गुफा के पास पहुँचा तो जादूगरनी ने देखा कि अहमद और उसके साथ के सवार
एक दुर्गम पर्वत पर चढ़ कर दूसरी तरफ उतर रहे हैं। उस रास्ते कोई मनुष्य नहीं जा
सकता। जादूगरनी ने सोचा कि निश्चय ही उस ओर कोई बड़ी गुफा हैं, जिसमें
जिन्न आदि रहते हैं। वह यह सोच ही रही थी कि शहजादा और उसके सेवक अचानक निगाहों से
गायब हो गए। जादूगरनी गुफा से निकल कर अपनी शक्ति भर इधर-उधर फिरी किंतु उसे कुछ
पता न चला। उसे वह लोहे का दरवाजा भी नहीं मिला क्योंकि वह द्वार, जिसमें
से हो कर परीबानू के महल को रास्ता जाता था, केवल उस व्यक्ति को
मिलता था जिसे परीबानू बुलाना चाहती थी। जादूगरनी ने मन में सोचा कि इस बार का
श्रम व्यर्थ ही गया।
उसने लौट कर बादशाह
से भेंट की और कहा, सरकार मैंने बहुत कोशिश की लेकिन पूरी सफलता मुझे
नहीं मिली। हाँ, मेरी तलाश की शुरुआत जरूर हो गई है। अगर आप
अनुमति दें तो अगले महीने अहमद के यहाँ से वापस जाने के समय आपके आदेशों का पालन
करूँ। आशा है इस बार मुझे पूरी सफलता मिलेगी। बादशाह ने कहा, अच्छा,
अगले महीने ही सही। लेकिन ध्यान रहे कि अगले महीने तुम्हें पूरे तौर
पर पता लगाना है कि अहमद कहाँ रहता है, कैसे रहता है और उसे इतना साज-सामान कहाँ
से मिलता है। यह कह कर बादशाह ने एक कीमती हीरा जादूगरनी को दिया और कहा, जिस दिन
तुमने अहमद का पूरा हाल मुझे बताया मैं सारी जिंदगी के लिए तुम्हें मालामाल कर
दूँगा।
जादूगरनी ने एक
महीने तक अपने घर में बैठ कर प्रतीक्षा की क्योंकि अहमद को अगले महीने ही आना था।
इस बीच उसने अपनी योजना पूरी तरह बना ली क्योंकि अब उसे मालूम हो गया था कि शहजादे
के साथ कुछ जिन्नों-परियों का चक्कर है। अगले महीने वह अहमद के आने के एक दिन पहले
वह उस पहाड़ की चोटी पर चढ़ाव के बगल में बैठ गई। जब शहजादा अपने सेवकों के साथ
लोहे के दरवाजे से हो कर जादूगरनी के पास से निकला तो उसे कोई प्रस्तर शिला समझा
क्योंकि वह गुदड़ी ओढ़े गुड़ी-मुड़ी हुई पड़ी थी। अहमद पास आया तो वह जोरों से
हाय-हाय करने लगी जैसे कोई दुखी व्यक्ति सहारा चाहता है। जादूगरनी महाधूर्त थी,
वह और अधिक रोने-चिल्लाने लगी। शहजादे को उस पर और दया आई और उसके पास
चला गया। जब उसने शहजादे की दया भावना को काफी उभार दिया तो ठंडी साँस ले कर बोलने
लगी।
उसने कहा, मैं
अपने घर से निकली थी इस इरादे से कि सामनेवाले गाँव में जाऊँ क्योंकि मुझे आवश्यक
गृह कार्य करना था। रास्ते में मुझे जोर से सर्दी लग कर बुखार चढ़ आया और मैं विवश
हो कर यहीं गिर पड़ी। मुझे लगता है कि मैं इसी निर्जन स्थान में प्राण दे दूँगी।
शहजादे ने कहा, यहाँ आसपास कोई बस्ती नहीं है। पास में केवल एक
भवन है। मैं तुझे वहाँ पहुँचा दूँगा। तू उठ कर मेरे पास आ जा। बुढ़िया ठंडी साँस
भर कर बोली, मुझमें इतना दम नहीं है बेटा जो मैं खुद उठ सकूँ।
मुझे तो कोई उठा कर ले चले तो ले चले। वह जानती थी कि किसी जिन्न के साथ ही वह उस
रहस्यमय भवन में जा सकती है।
शहजादी ने एक सवार
को आदेश दिया कि बुढ़िया को उठा कर अपने घोड़े पर रख लो और मेरे पीछे आओ। सवार ने
बुढ़िया को उठा लिया तो अहमद ने परीबानू को आवाज दी। वह आई और पूछने लगी कि तुम तो
पिता के घर के लिए जा रहे थे, वापस कैसे आ गए। उसने बताया कि रास्ते में सर्दी
और ज्वर में मरती हुई यह बुढ़िया मिली और मुझे इस पर दया आई। इसलिए मैं इसे ले आया
हूँ कि तुम इसकी देखभाल और इसका उपचार करो। परीबानू ने अपनी दासियों से कहा कि इस
बुढ़िया को किसी अच्छी जगह आराम से लिटा दो और हकीम को बुला कर इसकी दवा-दारू करो।
दासियाँ बुढ़िया को
उठा ले गईं तो परीबानू ने अहमद से कहा, प्रियतम, तुम्हारी दया भावना
को देख कर मुझे बड़ी खुशी हुई और मैं तुम्हारे कहने से उसकी खबरगीरी भी करूँगी।
किंतु मुझे डर है कि कहीं इस बुढ़िया के कारण तुम पर कोई मुसीबत न आए।
अहमद ने कारण पूछा
तो परीबानू ने कहा, वह कहती तो है कि ऐसी बीमार है कि उठ कर नहीं चल
सकती। किंतु उसके चेहरे पर किसी बीमारी के लक्षण नहीं दिखाई देते। मालूम होता है
तुम्हारे किसी शत्रु ने तुम्हारे खिलाफ कोई षड्यंत्र किया है। अहमद ने कहा,
मेरी प्यारी, भगवान करे तुम युग-युग जियो। किंतु तुम आश्वस्त
रहो कि मेरे विरुद्ध कोई षड्यंत्र नहीं होगा। मैंने कभी किसी का बुरा किया ही नहीं
तो कोई मेरे साथ शत्रुता क्यों करेगा। तुम मन से भय निकाल दो, मैं
पिता के पास जा रहा हूँ।
यह कह कर अहमद अपने
पिता के यहाँ पहुँचा। यद्यपि बादशाह पूरी तरह दुष्ट कर्मचारी के बहकावे में आ चुका
था तथापि उसने प्रकट में अहमद के आने पर सदा की भाँति प्रसन्नता व्यक्त की।
उधर परीबानू के महल
में वे दासियाँ जो बुढ़िया की सेवा के लिए नियुक्त की गई थीं उसे एक सुंदर आवास
में ले गईं। उस मकान में बड़ा कीमती सजावट का सामान था। दासियों ने बुढ़िया को एक
आरामदेह पलंग पर लिटा दिया। एक दासी उसका बदन दबाने लगी। दूसरी ने एक बर्तन से एक
प्याले में एक विशेष अर्क निकाला जिसे ज्वर के रोगियों को पिलाया जाता है। दोनों
दासियों ने उस बुढ़िया को उठा कर अर्क पिला दिया। फिर उसके शरीर पर एक लिहाफ डाल
कर कहा, अम्मा, अब तुम आराम से सो जाओ। कुछ ही देर में तुम
बिल्कुल स्वस्थ हो जाओगी।
दासियाँ यह कह कर
चली गईं। बुढ़िया बीमार तो थी ही नहीं, सिर्फ अहमद का निवास स्थान देखने आई थी।
दासियाँ थोड़ी देर में आईं तो वह उठ कर बैठ गई और बोली, तुम स्वामिनी से कह
दो कि बुढ़िया बिल्कुल ठीक हो गई है। दवा ने जादू का-सा असर किया है। अब वह आप को
आशीर्वाद दे कर और आपसे विदा ले कर जाना चाहती है। दासियाँ उसे सारे सजे-सजाए
कक्षों और दालानों से हो कर बाहरी मकान में तख्त पर बैठी परीबानू के पास ले गईं।
जिस तख्त पर परीबानू बैठी थी वह रत्न-जटित था और उसके चारों ओर रूपवती दासियाँ
परीबानू की सेवा में खड़ी थीं। जादूगरनी इस वैभव से इतनी अभिभूत हुई कि उसकी जबान
बंद हो गई और वह परीबानू के पाँवों पर गिर पड़ी।
परीबानू ने जादूगरनी
से मृदुल स्वर में कहा, तुम्हारे यहाँ आने से मैं प्रसन्न हुई हूँ। तुम
अगर चाहो तो मेरे पूरे महल को देखो। मेरी दासियाँ तुम्हें हर चीज अच्छी तरह
दिखाएँगी। जादूगरनी ने परीबानू के सामने की भूमि को चूमा और उससे विदा हुई।
परीबानू की दासियों ने पहले उसे महल के सारे भवन विस्तारपूर्वक दिखाए। फिर उसे
लोहे के दरवाजे से बाहर का रास्ता दिखाया। जादूगरनी कुछ कदम आगे बढ़ी। थोड़ी दूर
जाने के बाद उसने पलट कर देखा ताकि लोहे के दरवाजे की स्थिति को अच्छी तरह याद रख
सके लेकिन वह दरवाजा गायब हो गया। जादूगरनी ने इधर-उधर घूम कर उसका पता लगाने की
कोशिश की लेकिन उसे सफलता न मिलनी थी न मिली। इस बात से उसे बड़ी खीझ हुई।
जादूगरनी शाही महल
पहुँची और महल के चोर दरवाजे से, जहाँ से वह साधारणतः महल में जाया करती थी,
प्रविष्ट हुई। बादशाह ने उसे अपने कमरे में बुलाया और दासों से एकांत
करने को कहा। बादशाह ने कहा, तुम्हारा चेहरा उतरा हुआ है। मालूम होता है कि इस
बार भी तुम्हें सफलता नहीं मिली है। जादूगरनी ने कहा, नहीं सरकार, जिस काम
के लिए मैं गई थी वह तो पूरी तरह कर आई। चेहरा उतरने का कारण कुछ और ही है।
फिर उसने
विस्तारपूर्वक बताया कि चालाकी से शहजादा अहमद के मन में दया भाव उत्पन्न करके किस
तरह उसने उसके निवास स्थान में प्रवेश पाया और वहाँ क्या- क्या देखा। उसने कहा,
उस महल की मालिक जो परी है वह आपके बेटे की पत्नी की तरह रहती है। आप
शायद यह सुन कर प्रसन्न हुए हों कि आपकी बहू परी है और अहमद को सुख प्राप्त हुआ
है। मैं कहती हूँ कि इसके कारण आपका अहित होगा। यह बिल्कुल मुमकिन है कि अहमद आप
से दुश्मनी करे। आप शायद यह सोचते होंगे कि अहमद सपूत है और ऐसा नहीं हो सकता कि
वह आपसे दुश्मनी ठाने। अहमद स्वभाव का अच्छा है किंतु इस समय वह पूरी तरह परी के
बस में है और उसके कहने पर कुछ भी कर सकता है। आप अपनी ओर से होशियार रहें। अब
मुझे जाने की अनुमति दी जाए।
बादशाह ने कहा,
मैं तुम पर दो कारणों से बहुत प्रसन्न हूँ। एक तो यह कि तुमने मेरे
कहने पर वह काम किया जो किसी और व्यक्ति के लिए संभव नहीं था। दूसरे इस कारण कि
तुमने मेरे हित के लिए मुझे परामर्श दिया। तुम जाओ, बीच-बीच में मैं
तुम्हें जरूरत पड़ने पर बुलाया करूँगा। जादूगरनी ने फर्शी सलाम किया और अपने घर
चली गई।
अब बादशाह ने महल के
उस प्रमुख कर्मचारी को बुलाया जिसने उसके मन में अहमद के प्रति शंका डाली थी। उसने
जादूगरनी द्वारा दी गई सूचना विस्तारपूर्वक उसे बताई और पूछा, अहमद अभी
तो कुछ बुरा नहीं सोच रहा है किंतु वह इस स्थिति में है कि जब चाहे मुझ पर हमला कर
दे। तुम्हारी राय में मुझे क्या करना चाहिए? प्रधान कर्मचारी ने
कहा, हुजूर, मेरी राय में अहमद को मरवाना ठीक न होगा, इससे
आपकी बदनामी हो जाएगी। मेरी राय में उसे कैद में डाल देना चाहिए। बादशाह ने कहा,
अच्छा, मैं सोचूँगा। प्रधान कर्मचारी विदा हुआ तो बादशाह
ने फिर जादूगरनी को उसके घर बुलाया। उसके आने पर कहा कि प्रधान कर्मचारी ने अहमद
को कैद में डालने की सलाह दी है। जादूगरनी ने कहा, सरकार, इसमें
बड़ा खतरा है। अहमद के साथ आप उसके साथ के अन्य सवारों को भी कैद करेंगे। लेकिन वे
जिन्न हैं और जिन्नों को कोई कैद रोक नहीं सकती। वे जा कर परीबानू से कहेंगे और वह
अपने पिता से कह कर जिन्नों की पूरी फौज आप पर हमला करने के लिए भिजवा सकती है। आप
ऐसा करें कि साँप मरे और लाठी न टूटे। आप अहमद से कहें कि वह एक ऐसा लंबा-चौड़ा
डेरा लाए जिसके नीचे सारी फौज आ जाए और वह इतना हलका भी हो कि उसे एक आदमी उठा ले।
वह यह माँग पूरी न कर सकेगा और शर्म से आपके पास नहीं आएगा और फिर आप उसके संभावित
उत्पात से बचे रहेंगे। और मान लिया कि उसने किसी प्रकार यदि कार्य भी कर दिया तो
मैं आपको और चीजें बताऊँगी जिन्हें लाने की आप उससे फरमायश करें। इस तरह आपको
जिन्नों द्वारा निर्मित बहुत-सी अजीब चीजें भी मिल जाएँगी और अहमद भी आपकी रोज-रोज
की माँग से तंग आ कर आपके पास आना छोड़ देगा और आप उसे मारने या कैद करने की
बदनामी से भी बचे रहेंगे।
दूसरे दिन बादशाह ने
मंत्री से इस योजना के बारे में सलाह ली। मंत्री चुप रहा। वह जानता था कि बादशाह
बुरे सलाहकारों के चक्कर में है और सत्परामर्श नहीं मानेगा। बादशाह ने मूर्खतावश
उसकी चुप्पी को सहमति समझा और उसे विदा किया। फिर उसने अहमद को बुलाया जो उस समय
तक वहीं ठहरा हुआ था। बादशाह ने हँसते हुए उससे कहा, बेटे, तुमने
मुझे अपना भेद नहीं बताया, लेकिन बादशाहों की निगाहों से कोई चीज छुप नहीं
सकती। तुम्हारी शादी परी से हुई है, यह सुन कर मुझे बड़ी खुशी हुई है। लेकिन
भाई, तुम्हारी बीबी परी है इस बात का मुझे भी तो कुछ लाभ मिलना चाहिए। वह
तुम्हें बहुत चाहती है और तुम उससे जो कुछ भी माँगोगे वह तुम्हें खुशी से दे दगी।
यह तो तुम जानते ही हो कि मैं अकसर शिकार को जाता हूँ। कभी-कभी शत्रुओं का सामना
करने के लिए बहुत-से तंबुओं की जरूरत पड़ती है। इनके ले जाने के लिए सैकड़ों ऊँट
और डेरा लगानेवाले भी ले जाने पड़ते हैं। अगर तुम कहोगे तो परी तुम्हें लंबा-चौड़ा
डेरा दे देगी कि उसके नीचे सारी फौज आ जाए। साथ ही ऐसा हलका भी होना चाहिए कि उसे
एक आदमी, यहाँ तक कि हम-तुम भी उठा सकें।
अहमद ने कहा,
मैं अपनी पत्नी से ऐसा डेरा माँगूँगा जरूर लेकिन अभी से यह नहीं कह
सकता कि ऐसा डेरा उसके पास है या नहीं। अगर नहीं होगा तो मैं नहीं ला सकूँगा।
बादशाह इस पर नाराज हो कर बोला, यह तुम टालमटोल कर रहे हो। तुमसे अपनी पत्नी से
कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं है। या फिर उसे तुम्हारी कोई परवा ही नहीं है। वरना इतनी
मामूली-सी चीज परी के पास न हो यह कैसे संभव है? अगर तुम डेरा न ला
सको तो तुम्हें मेरे पास आने की भी कोई जरूरत नहीं है। मुझे ऐसे बेटे से मिलने में
क्या खुशी हो सकती है जो अपनी स्त्री से इतना भयग्रस्त हो कि उससे अपने बाप की
जरूरत की एक मामूली चीज भी माँग न सके। अब तुम जाओ, खड़े-खड़े मेरा मुँह
क्या देख रहे हो?
अहमद को अपने पिता
का यह व्यवहार बहुत बुरा लगा। उसे अगले दिन वापस होना था किंतु वह उसी दिन परीबानू
के महल को चल पड़ा। वहाँ जा कर भी उसका विषाद कायम रहा। परीबानू ने पूछा, तुम एक
दिन जल्दी क्यों आ गए? तुम उदास भी मालूम होते हो। क्या बात है? शहजादा
अहमद ने पूरी बात सुनाई। परीबानू की भौंहों पर बल पड़ गए। उसने कहा, उन्हें
डेरा जरूर मिलेगा लेकिन जान पड़ता है उनका अंत काल निकट आ गया है। अहमद ने कहा,
यह तुम क्या कह रही हो। अभी वे वर्षों तक राज करेंगे। उनका स्वास्थ्य
बहुत अच्छा है और उन्हें कोई रोग-शोक नहीं है। वे बड़े चैतन्य भी हैं। तुम्हारे
कहने के अनुसार मैंने यहाँ का हाल उन्हें या किसी को भी नहीं बताया था। फिर भी
उन्हें मालूम है कि मेरा विवाह परी से हुआ है।
परीबानू बोली,
प्यारे, तुम्हें याद है कि मैंने उस बुढ़िया को देख कर,
जिसे तुम बीमार समझ कर उठा लाए थे, क्या कहा था,
वह बीमार नहीं थी। वह बीमारी का बहाना बना करके यहाँ का हालचाल देखने
के लिए आई थी। उसी ने यहाँ का सारा हाल बादशाह से कहा है। जब तुम उसे यहाँ छोड़ गए
तो मैंने उसके लिए एक मामूली अर्क भेजा जो किसी रोग की दवा नहीं थी। वह उसे पीते
ही उठ बैठी और कुछ देर बाद विदा लेने के लिए मेरे पास आई। मैंने उसकी और परीक्षा
लेने के लिए उसे अपने सारे भवन विस्तारपूर्वक दिखाए। उसने बड़े ध्यान से सब कुछ
देखा, मामूली बुढ़िया होती तो अपने गंतव्य स्थान को जाने की जल्दी में होती।
यहाँ का हाल उसके सिवा किसी को मालूम ही नहीं हो सकता। उसी ने कहा होगा।
अहमद ने कहा,
तुम वास्तव में बड़ी होशियार हो। लेकिन डेरे के लिए बताओ क्या करूँ।
परीबानू ने कहा, मामूली चीज है, अभी मँगाती हूँ।
उसके कहने पर एक दासी मुट्ठी में बंद करके डेरा ले आई। अहमद के हाथ में उसने उसे
दिया तो अहमद परीबानू से बोला, मजाक क्यों करती हो? इसी डेरे के नीचे
फौज आएगी? परीबानू ने मुस्कुरा कर दासी से कहा, नूरजहाँ,
यह समझते हैं कि मैं इनसे मजाक कर रही हूँ। तू इन्हें बाहर ले जा कर
डेरे का विस्तार तो दिखा दे। नूरजहाँ ने डेरा मुट्ठी में दबाया और शहजादे को ले कर
महल से बहुत दूर एक लंबे-चौड़े मैदान में गई। उसने शहजादे को डेरा खड़ा करने की
तरकीब बताई और फिर डेरे को खड़ा कर दिया। अहमद ने देखा कि उसने नीचे एक क्या दो
फौजें आ जाएँ।
नूरजहाँ ने डेरा तह
किया और शहजादे के साथ अंदर आई। अहमद ने कहा, कहो तो इसे अभी ले
जा कर पिता को दे दूँ। परीबानू ने कहा, ऐसी क्या जल्दी है। अगले महीने अपने
निश्चित समय पर जाना। शहजादा मान गया। अगले महीने वह राजधानी में गया तो महल के
अंत:पुर में जाने के बजाय सीधे दरबार में पहुँचा। बादशाह ने व्यंग्यपूर्वक पूछा,
मेरी चीज तो ले ही आए होगे। अहमद ने कहा, आपके चरणों के
प्रताप से ले आया हूँ। अभी बाहर चल कर इसे देख लें। अभी आपको मेरी मुट्ठी देख कर
विश्वास नहीं हो पा रहा होगा। बादशाह और दरबारी बड़े मैदान में गए जहाँ अहमद ने
डेरा खड़ा कर दिया। सभी की आँखें फट गईं। बादशाह ने अहमद की बड़ी प्रशंसा की और
उसे आराम करने को कहा।
किंतु वास्तव में
उसकी घबराहट बढ़ गई थी। वह सोच रहा था कि वाकई अहमद की शक्ति अत्यधिक है और वह कुछ
शंकित भी हो गया है। उसने महल में जा कर फिर जादूगरनी को बुलाया और कहा, अब क्या
करूँ? अहमद तो अपनी मुट्ठी में ऐसा डेरा ले आया जिस में एक क्या दो सेनाएँ
आसानी से समा जाएँ। उसने कुछ सोच कर कहा, अब की बार अहमद से
चश्म-ए-शेराँ का पानी लाने को कहें जिसकी कुछ बूँदें पीने से आदमी हमेशा जवान और
तंदुरुस्त रहता है।
दूसरे दिन उसने
दरबार में अहमद को बुलाया और कहा, बेटे, तुमने बड़ा डेरा ला
कर मेरी एक बड़ी जरूरत पूरी कर दी किंतु अब दूसरी जरूरत भी पूरी करो। मेरा बुढ़ापा
आ रहा है और रोग भी उत्पन्न हो रहे हैं। अगर तुम अपनी पत्नी की सहायता से मेरे लिए
चश्म-ए-शेराँ का स्वास्थ्यवर्धक पानी ला सको तो बड़ी अच्छी बात हो। अहमद कुढ़ गया
कि एक चीज पाते ही दूसरी अलभ्य वस्तु माँग बैठे। वह यह भी सोच रहा था कि परीबानू
के लिए असंभव तो यह भी न होगा लकिन वह इन फरमाइशों से चिढ़ेगी जरूर। उसने थोड़ी
देर तक सोच कर कहा, आज्ञाकारी पुत्र की हैसियत से मुझे आपकी आज्ञा के
पालन में खुशी होगी। लेकिन मैं वादा नहीं कर सकता। पत्नी से सलाह लूँगा और यदि
संभव होगा तो वह जल आपकी सेवा में अर्पित करूँगा।
अहमद दूसरे दिन ही
परीबानू के महल की ओर चल पड़ा। परीबानू के सामने जा कर बोला, डेरा पा
कर मेरे पिता ने तुम्हारा बड़ा अहसान माना है। लेकिन एक नई फरमाइश भी कर दी है। उन्होंने
चश्म-ए-शेराँ का स्वास्थ्यवर्धक जल माँगा है। मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि यह
चश्माए-शेराँ क्या बला है। परीबानू ने कहा, मालूम होता है कि
तुम्हारे पिता ने तुम्हें तंग करने पर कमर कस ली है। इसीलिए अजीब चीजें मँगाते
हैं। अब की बार उन्होंने वह चीज मँगाई है जो जिन्न भी आसानी से न ला सकें। खैर तुम
चिंता न करो। मैं तुम्हें बताऊँगी कि चश्म-ए-शेराँ तक कैसे पहुँचो और वह पानी कैसे
लाओ।
तुम कल सुबह उस ओर
की सड़क पर जाना। काफी दूर जाने के बाद एक लोहे का फाटक मिलेगा, जिसके
अंदर वह सरोवर है जिसका पानी लाने को तुमसे कहा गया है। अब इस सरोवर का पानी लाने
की तरकीब सुनो। अपने साथ दो घोड़े लो। एक पर बैठो और दूसरे पर एक भेड़ के चार
टुकड़े लादो और उस घोड़े की लगाम पकड़े रहो। भेड़ मैं आज रात ही कटवा रखूँगी। मैं
इसी समय दो गेंदें तुम्हें सी कर दूँगी। यहाँ से निकलते ही तुम एक गेंद अपने पास
रखना और एक जमीन पर डाल देना। वह लुढ़कती चली जाएगी और तुम्हें सरोवर के लौह द्वार
तक पहुँचा देगी। द्वार पर दो जागे हुए सिंह तुम्हें देखेंगे तो अपने सोए हुए
साथियों को जगा देंगे। फिर चारों मिल कर भयंकर गर्जन करेंगे। लेकिन तुम उनसे
बिल्कुल न डरना। चारों के आगे कटी हुई भेड़ का एक-एक टुकड़ा डाल देना। इस बात का
ध्यान रखना कि कहीं फाटक के बाहर ही घोड़े से न उतर पड़ो। घोड़े पर बैठा रहना
जरूरी है नहीं तो नुकसान हो सकता है। शेर मांस खाने लगें तो तुम घोड़े को एड़ लगा
कर आगे बढ़ना। फाटक अपने आप खुल जाएगा। अंदर जा कर घोड़े से उतरना और उस चाँदी की
सुराही में जो मैं तुम्हें दूँगी, तुरंत ही उस सरोवर का जल भर लेना और
सिंहों के भोजन समाप्त करने के पहले ही फाटक से बाहर निकल आना। फिर तुम
कुशलतापूर्वक वापस आ जाओगे। वहाँ से सीधे अपने पिता के पास चले जाना।
दूसरी सुबह शहजादा
अहमद ने अपनी पत्नी के बताए हुए ढंग से काम किया। उसने दो घोड़े लिए जिनमें से एक
पर भेड़ के चार टुकड़े रखे थे। गेंद को पृथ्वी पर डाला तो वह लुढ़कती हुई चली और
उसने अहमद को लौह द्वार के सामने खड़ा कर दिया। अहमद ने भेड़ के टुकड़े शेरों के
आगे डाले और जब वह खाने लगे तो अंदर जा कर चाँदी की सुराही में जल भर लिया और वापस
चला। दो शेरों ने खाना खत्म कर लिया था और वे उसके पीछे लगे। शहजादे ने म्यान से
तलवार निकाली तो एक शेर तो लौट गया किंतु दूसरे ने सिर और पूँछ के इशारे से उसे
बताया कि तुम डरो नहीं, मैं तुम्हारी रक्षा के लिए तुम्हारे पीछे चल रहा
हूँ। अहमद सीधा राजधानी में पहुँचा। सिंह वहाँ से वापस लौट गया। शहजादा सीधा दरबार
में गया और बादशाह से बोला, आपके प्रताप से मुझे एक ही दिन में
स्वास्थ्यवर्धक जल मिल गया है। इसे स्वीकार करें।
बादशाह ने अहमद की
बड़ी प्रशंसा और सम्मान किया और उसे अपने साथ तख्त पर बिठाया किंतु उसकी जान अहमद
की वीरता को देख कर सूखने लगी। महल में जा कर उसने फिर जादूगरनी को बुलाया और उसे
वह जल दिखाया। उसने इस बात की पुष्टि की कि यह जल वास्तव में चश्म-ए-शेराँ का है।
बादशाह ने कहा, अब मैं उससे क्या चीजें माँगू जिसे लाना उसके लिए
असंभव हो? जादूगरनी भी इस बात पर विचार करने लगी।
परीबानू ने दूर ही
से बैठे-बैठे जादूगरनी की मति फेर दी। अहमद के वृत्तांत से जो बादशाह की जबानी उसे
मालूम हो चुका था उसे मालूम हो जाना चाहिए था कि परी अपनी पूरी ताकत से शहजादे की
मदद कर रही है। उसे यह भी मालूम हो जाना चाहिए था कि वह कितनी ही होशियार हो,
क्रुद्ध परी का मुकाबला नहीं कर सकती। किंतु विनाश काले विपरीत
बुद्धिः। उसने असंभव समझ कर अपनी निश्चित मृत्यु को निमंत्रण दे दिया। जादूगरनी ने
ऐसी वस्तु माँगने के लिए बादशाह से कहा कि बादशाह उछल पड़ा। उसने बुढ़िया जादूगरनी
की पीठ ठोंकी और उसे अथाह धन-संपदा दे कर विदा कर दिया।
दूसरे दिन दरबार के
समय बादशाह ने शहजादा अहमद को बुलाया और कहा, बेटे, तुमने
सिद्ध कर दिया कि तुमसे बढ़ कर सपूत कोई हुआ है न होगा। अब तुम मेरी एक अंतिम
इच्छा पूरी कर दो। शहजादे के पूछने पर उसने कहा, मैं अपने दरबार में
एक ऐसा आदमी रखना चाहता हूँ जिसके अस्तित्व की लोग कल्पना भी न कर सकें। तुम मेरे
लिए एक ऐसा आदमी लाओ जिसकी ऊँचाई एक गज हो लेकिन जिसकी दाढ़ी बीस गज की हो। साथ ही
उसके कंधे पर एक छह मन का सोंटा हो जिसे वह मामूली लकड़ी की तरह घुमा सके। स्पष्ट
है कि जादूगरनी ने ही उसे ऐसे आदमी की माँग करने की सलाह दी थी। अहमद ने कहा,
यह आप क्या कर रहे है? गज भर के आदमी की बीस गज की दाढ़ी कैसे हो
जाएगी और वह साढ़े छह मन का सोंटा कैसे घुमाएगा? बादशाह ने मुस्कुरा
कर कहा, तुम अपनी पत्नी से जिक्र करो। शायद वह यह माँग भी पूरी कर दे। न कर
सके तो यहाँ आने की जरूरत नहीं है।
अहमद उसी दिन
परीबानू के पास लौट आया। उसने कहा, पिताजी बिल्कुल सठिया गए हैं। अबकी बार
उन्होंने साढ़े छह टन का सोंटा घुमानेवाला बीस गज की दाढ़ीवाला गज भर के कद का
आदमी माँगा है। ऐसा आदमी कहाँ होगा और किस काम का है? परीबानू ने कुटिलता
से मुस्कुरा कर कहा, तुम बादशाह के पास चले जाना। अभी मैं तुम से इसके
बारे में कोई बात न करूँगी। तुम्हें आराम की बहुत जरूरत है। तुम बेफिक्र हो कर सब
कुछ मुझ पर छोड़ दो। तुम्हारे पिता की अंतिम इच्छा पूरी हो जाएगी और तुम्हारी
समस्या हल हो जाएगी।
दूसरे दिन नहा-धो कर
नाश्ता आदि करने के बाद अहमद ने परी बानू को फिर पिता के विचित्र माँग की याद
दिलाई। परिबानू ने कहा, अच्छी बात है। जैसा आदमी तुम्हारे पिता ने चाहा
है वैसा आदमी अभी आया जाता है। लेकिन तुम उसे देख कर घबराना नहीं। मेरा बड़ा भाई
शब्बर इसी तरह का है। वह जिन्नों के एक बड़े राज्य का बादशाह है किंतु वह न किसी
सवारी पर चलता है न साढ़े छह मन के सोंटे के सिवा कोई हथियार अपने पास रखता है। यह
कह कर उसने दासियों से अपना जादू का संदूकचा और एक जली हुई अँगीठी लाने को कहा।
उन्होंने तुरंत ही सोने का संदूक या और जलती हुई सोने की अँगीठी हाजिर कर दी।
परीबानू ने संदूकचे से धूप आदि सामग्री निकाली और मंत्र पढ़ कर अँगीठी में डाल दी।
अँगीठी से बहुत गहरा
धुआँ उठा जिसमें सब कुछ छुप गया और अहमद की आँखें बंद हो गईं। एक क्षण बाद परीबानू
की आवाज आई, आँखें खोलो। देखो, भैया शब्बर आ रहे
हैं। अहमद ने देखा कि एक गज भर का आदमी बड़ी शान के साथ चला आ रहा है। उसकी बीस गज
की दाढ़ी उसके शरीर में लपेटी हुई थी और उसके कंधे पर साढ़े छह मन का लोहे का
सोंटा था। उसकी मूँछें उसकी कानों तक पहुँचती थीं और आँखें गहरे गढ़ों में धँसी
हुई थीं। उसके सिर पर रत्न-जटित मुकुट रखा था। उसकी पीठ और सीने दोनों पर
बड़े-बड़े कूबड़ थे। न डरने के अपने वादे के बावजूद अहमद के बदन से उसे देख कर
पसीना चूने लगा। उसने आते ही कड़क कर कहा, बानू, तूने
मुझे क्यों बुलाया है? और यह छोकरा कौन है जो तेरे पास बैठा है? परीबानू
बोली, भैया, यह मेरे पति शहजादा अहमद हैं। इनके पिता
हिंदुस्तान के बादशाह हैं। लगभग एक वर्ष पहले हम लोग विवाह सूत्र में बँधे थे।
मैंने उस समय तुम्हें इसलिए नहीं बुलाया था कि तुम एक भारी युद्ध में व्यस्त थे। शब्बर
ने अब प्रेमपूर्ण दृष्टि से अहमद को देखा और कहा, शहजादा अहमद,
तुम्हें देख कर बड़ी खुशी हुई। अगर मैं तुम्हारे किसी काम आ सकूँ तो
मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी।
परीबानू ने कहा,
इसके पिता ने तुमसे भेंट करने की इच्छा प्रकट की है। शब्बर ने अहमद से
कहा, अभी चलो, इसमें क्या बात है? इस बार भी उत्तर
अहमद की बजाय परीबानू ही ने दिया। वह बोली, अभी जाने की जरूरत
नहीं हैं। तुम बड़ी दूर से आए हो। काफी थक गए होगे। एक रात आराम करो। शहजादे को
कुछ आराम की अभी और जरूरत है। शाम को मैं पूरा हाल तुम्हें बताऊँगी कि बादशाह ने
तुम्हें किस कारण से बुलाया है। अहमद ने यह सुन कर सिर नीचा कर लिया।
शाम को अकेले में
परीबानू ने शब्बर को अहमद के विरुद्ध होनेवाले षड्यंत्र का पूरा हाल बताया। दूसरी
सुबह को अहमद की सवारी फिर राजधानी की ओर चली। शब्बर आगे-आगे पैदल ही घोड़ों से
तेज चल रहा था। नगर में पहुँचने पर नगर निवासी शब्बर के भयानक रूप को देख कर
इधर-उधर भागने लगे। शब्बर किसी पर ध्यान दिए बगैर सीधे दरबार में घुसा और तख्त के
पास जा कर कड़क कर बोला, हिंदोस्तान के बादशाह, तुमने मुझे बुलाया
है। क्या काम है तुम्हें मुझसे? बादशाह ने उत्तर देने के बजाय भय से आँखों पर हाथ
रख लिए और तख्त से उतर कर भागने की कोशिश करने लगा। शब्बर ने और जोर से गरज कर कहा,
यह क्या बदतमीजी है? तुम्हारे बुलाने पर मैं इतनी दूर से चल कर
आया हूँ और तुम बात किए बगैर ही भागे जा रहे हो।
यह कह कर उसने सोंटे
के वार से बादशाह का सिर टुकड़े-टुकड़े कर दिया।
इतने में अहमद भी
दरबार में पहुँच गया। शब्बर ने कहा, मंत्री कहाँ है? मैं उसका भी यही हाल
करूँगा। किंतु अहमद ने उससे मंत्री की जान यह कह कर बचा दी कि मंत्री ने भरसक मेरे
प्रति मित्रता ही रखी। शब्बर ने दो-चार दरबारियों और सामंतों को छोड़ कर, जो मौका
पा कर दरबार से भाग निकले थे, सभी दरबारियों और सरदारों को मार डाला क्योंकि
सभी ने इस अवधि में अहमद के विरुद्ध कुछ न कुछ कहा था।
अब शब्बर ने
राजमंत्री से कहा, महल के प्रधान कर्मचारी और जादूगरनी को घसीट कर
लाओ, उन्होंने मेरे बहनोई के विरुद्ध षड़यंत्र किया था। अहमद के दूसरे
शत्रुओं को भी यहाँ लाओ वरना तुम्हारी खैर नहीं। वे घसीट कर लाए गए और शब्बर ने सब
को खत्म कर दिया। शब्बर इतना क्रुद्ध था कि सारे नगर को समाप्त करना चाहता था
किंतु अहमद ने उसकी खुशामद करके इस हत्याकांड से रोका। शब्बर ने वहीं अहमद को सिंहासन
पर बिठा कर उसका राजतिलक कर दिया। यह सब करने के बाद उसने अहमद के बादशाह होने की
मुनादी कराई और परीबानू को राजमहल में ले आने के बाद विदा हो गया। जाते समय अहमद
से कह गया कि जब भी जरूरत हो मुझे बुला लेना।
अहमद ने बादशाह बन
कर भाइयों के साथ अच्छा सलूक किया। अली और नूरुन्निहार को बुला कर उन्हें भेंटें
दीं और अली को एक सूबे का हाकिम बना कर भेज दिया। उसने हुसैन के पास भी एक सरदार
भेज कर संदेशा दिया कि जिस प्रदेश का हाकिम बनना चाहो बना दूँ। किंतु हुसैन ने उसे
आशीर्वाद दे कर कहलवाया कि अब संसार के मोह में न फँसूँगा।
शहरजाद की यह कहानी
दुनियाजाद और शहरयार ने पसंद की और अगली रात शहरजाद ने नई कहानी शुरू कर दी।